बुधवार, 26 अप्रैल 2023

महिला और शुद्र प्रधान सनातन धर्म।

भारत में कई ऐसे मन्दिर भी हैं जहाँ, पुरुषों का प्रवेश निषेध है।
कई ऐसे मन्दिर हैं जहाँ केवल महिला ही पुजारी हो सकती है।
और ऐसे मन्दिर भी हैं जहाँ मुख्य पुजारी महिला है, और पुरुष पुजारी उनके अधीनस्थ हैं।
विशेषकर दक्षिण और पूर्वी भारत में ऐसे मन्दिर देखे जा सकते हैं।
भारत में सनातन धर्म में मन्दिरों और मुर्तिपूजा का प्रवेश ब मुश्किल दो हजार वर्ष पुराना भी नही है। कोई मन्दिर ५०० ईस्वी का भी नही मिलता, इससे पुराने की तो कल्पना भी नहीं।
मूल भारतीय धर्म यज्ञ, अष्टाङ्गयोग और ज्ञान (वेद) प्रधान है।
यज्ञ बिना पत्नी के नही हो सकता, लेकिन अकेली महिला को कर्मकाण्ड में अधिकार है। यदि पुत्र हीन पुरुष की मृत्यु हो जाती है तो पति के श्राद्धकर्म में पत्नी का प्रथम अधिकार है।
योगिनियाँ और महिला योगी तो सनातन काल से आज तक बहुत संख्या में मिलती ही हैं।
वागृम्भणी / वाक, लोपामुद्रा, गार्गी, उभयभारती आदि महिला वेदविदों (वेदवादिनियों) की भी भरमार है।
योद्धा रानी और सेना नायिका भी बहुत सी नारियाँ हुई यह सर्वस्वीकार्य है।
पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, तथाकथित सतिप्रथा, ये सब तुर्क, अफगान मुस्लिम आक्रांताओं की देन है।
स्वीपर, चर्मकार जैसी अछुत जातियाँ भी इनकी ही देन है। पहले केवल चाण्डाल (बधिक/ कसाई) ही अस्पृश्य माने जाते थे।और कोई नही।
शुद्र सेवक होते थे, सर्विस सेक्टर में काम करने वाले दर्जी, नाई, धोबी, कुम्हार, बढ़ाई (सुतार), लोहार, लक्कड़हारा, कहार सभी शुद्र हैं लेकिन कोई भी अछुत नही है। शादी विवाह, गङ्गापूजा, यज्ञों में इनके बिना काम नही होता।

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

आत्म स्वरूप अर्थात मैं

नारायण के पुत्र हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति,  प्रजापति के पुत्र  (१) दक्ष-प्रसुति, (२) रुचि-आकुति, (३) कर्दम- देवहुति ये तीन भूस्थानि प्रजापति गण हुए। तथा 
ब्रह्मर्षि देश (हरियाणा) में आठ ब्रह्मर्षि गण (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति भी प्रजापति कहलाते हैं।  
तथा  पञ्जाब,सिन्ध, राजस्थान, गुजरात, अफगानिस्तान के सारस्वत क्षेत्र के (१२) स्वायम्भूव मनु - शतरुपा भी भूस्थानी प्रजापति हुए।
 और दो अन्तरिक्ष स्थानिक देवत् प्रजापति (1३) रुद्र- रौद्री (शंकर - उमा) तथा (१४) पितरः - स्वधा हुए।
और  
देवस्थानी प्रजापति (१५) अग्नि - स्वधा एवम् (१६) धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ  [(1( श्रद्धा, (2) लक्ष्मी, (3) धृति, (4) तुष्टि, (5) पुष्टि, (6) मेधा, (7) क्रिया, (8) बुद्धि, (9) लज्जा, (10) वपु, (11) शान्ति, (12) सिद्धि, (13) कीर्ति ] हुए।
विश्व की सभी जातियों के द्विपद इन्हीं के वंशज हैं।  प्रजापतियों की सन्तान ब्राह्मण कहलाये। स्वायम्भूव मनु की सन्तान क्षत्रिय कहलाये। दशपुरी वैश्य जो इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ एवम् यज्ञ, हवन तथा पूजा सामग्री का व्यापार करते हैं ब्राह्मण से वैश्य हुए। अग्रवाल आदि वैश्य क्षत्रियों से ही हुए। महेश्वरी स्वयम् को महेश की सन्तान मानते हैं। 
वैश्यों से ही सर्विस सेक्टर में काम करने वाले सेवक शुद्र हुए।
ये सभी वेदों के अनुयाई होने के कारण स्वयम् और इनकी सन्तान परम्परा यह मानती है कि,आत्म स्वरूप में हर जड़ चेतन साक्षात परमात्मा ही है, क्योंकि परमात्मा से भिन्न कुछ है ही नही। जीव भाव में भी परमात्मा का अंश ही है। मतलब परमात्मा के अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नहीं है।
दैहिक दृष्टि से स्थूल शरीर भी आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि से निर्मित है।
आदम और उसके आदमी मानते हैं कि, वे मिट्टी से बने हैं। इनकी वंश परम्परा निम्नलिखित हैं।⤵️
अत्रि- अनसुया के के पुत्र चन्द्रमा हूए, दुर्वासा और दत्तात्रेय हुए।
चन्द्रमा नें ब्रहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण कर बुध को उत्पन्न किया।
सप्तम मनु वैवस्वत के पुत्र श्रापवश आधे समय स्त्री रूप में ईळा के नाम से रहे थे। इसी ईळा या इला का विवाह बुध से हुआ। बुध और ईळा के पुत्र पुरुरवा हुए। इला के पुत्र होने के कारण पुरुरवा एल कहलाते हैं। ईराक की भाषा आरामी में लिखे यहुदी धर्मगन्थ तनख में एल शब्द को ईश्वर वाचक माना हैं।  उनके  पूर्वज याकुब का एक नाम इज्राएल भी है। इसी इला पुत्र के लिए प्राचीन अरबी में इलाही शब्द बना जिससे अल्लाह शब्द बना।
पुरुरवा नें इराक के उर क्षेत्र की वासी वर्तमान में (उईगर मुस्लिमों के क्षेत्र) पूर्वी तुर्किस्तान के झिंगयाङ्ग के निवासी कश्यप पुत्र आदित्य आदि देवताओं के राजा इन्द्र के दरबार की नृत्याङ्गना उर्वशी से संविदा आधार पर मुताह विवाह किया। उर्वशी से पुरुरवा की प्रथम सन्तान आयु (आदम) के गर्भ में रहते मायके उर चली गई। आयु (आदम) के जन्म के पश्चात दुग्धपान अवधि में अपने पास रखकर बाद में आयु (आदम) को पुरुरवा के पास छोड़कर इन्द्रसभा में ड्यूटी पर छोड़ आई। पुरुरवा नें आयु (आदम) को दक्षिण पूर्वी टर्की में तोरोत पर्वत के दक्षिण पूर्वी भाग युफ्रेटस की खाड़ी में बनी अदन वाटिका में अकेले ही पाला। जहाँ उसकी धाय माँ की पुत्री हव्यवती के साथ बड़ा हुआ। नागमाता सुरसा की सन्तान सीरिया निवासी सूरों नें आयु (आदम) को एल पुरुरवा के खिलाफ भड़काया। तो एल पुरुरवा नें आयु (आदम) को श्रीलंका में विस्थापित कर दिया। बाद में वहाँ से आयु (आदम)  भारत में केरल होते हुए, ईरान, इराक होते हुए पुनः स्वदेश में लौटा। जैसे स्वायम्भूव मनु और वैवस्वत मनु की सन्तान मानव कहलाती है वैसे ही आयु (आदम) की सन्तान आदमी कहलाती है।

आयु (आदम) के वंशज नहुष का विवाह शंकर पार्वती की पुत्री अशोक सुन्दरी से हुआ। जिसे इन्द्रासन मिला लेकिन कामलोलुप नहुष को इन्द्रपद छोड़कर नृग नामक सर्प योनि प्राप्त हुई।
इसी की सन्तान परम्परा में जन्मे ययाति (इब्राहिम) नें दत्तात्रेय से शैवशाक्त दीक्षा लेकर शिवाई पन्थ सबाईन नामक पन्थ ईराक और अरब में चलाया। इसकी सन्तान परम्परा में दाऊद नें दाउदी पन्थ चलाया। इसकी सन्तान परम्परा में मूसा ने इस्राइल में यहुदी पन्थ चलाया। इसकी सन्तान परम्परा में यीशु ने भारत में बौद्ध दीक्षा लेकर बाद में इस्राइल लौटकर ईसाई पन्थ चलाया। सीरिया के ईसाई पादरी से दीक्षित होकर मक्केश्वर महादेव के पूजारी के पुत्र मोह मद नें इस्लाम पन्थ चलाया। ये लोग स्वयम् को मिट्टी से बना मिट्टी का पुतला मानते हैं।

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

पूर्णिमा,अमावस्या, चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण तथा इनके प्रभाव।

 *पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण तथा अमावस्या और सूर्यग्रहण में क्या अन्तर है? और इनका अलग-अलग क्या महत्व है?*

सूर्य का परिभ्रमण करते हुए भूमि, और भूमि का परिभ्रमण करते हुए चन्द्रमा ये तीनों ऐसी स्थिति में आजाए कि, 
भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा, भूमि और सूर्य तीनों जब एक रेखा में आ जाते हैं तब पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण या अमावस्या और  सूर्यग्रहण का  योग बनता है।

लेकिन 
*पूर्णिमा योग* ---
जब भूमि के एक और सूर्य और दुसरी ओर चन्द्रमा आ जाता है तब पूर्णिमा होती है। इस समय सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १८०° का आंशिक सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में प्रतियोग बनता है ।
*चन्द्र ग्रहण का योग* ---  
जब अर्थात पूर्णिमा को भूमि के एक और सूर्य और दुसरी ओर चन्द्रमा आने के साथ ही सूर्य और चन्द्रमा की क्रान्ति (अर्थात भूमि के केन्द्र से  उत्तर या दक्षिण में चन्द्रमा का केन्द्र की स्थिति) भी अंशात्मक बिल्कुल समान हो जाती है लेकिन उत्तर दक्षिण एकदम उलट होता है; तब पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण होता है। इस समय सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में पूर्ण प्रतियोग बनता है । दोनों ही ग्रहण में चन्द्रमा या सूर्य की युति स्पष्ट राहु से होती है।
 
*अमावस्या का योग* ---
जब भूमि के एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों आ जाते हैं तब अमावस्या होती है। इस समय सूर्य,चन्द्रमा और भूमि  में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में युति बनती है ।

सूर्य ग्रहण का योग ---
लेकिन जब भूमि के एक ही ओर सूर्य और चन्द्रमा दोनों आ जाते हैं तब अमावस्या को सूर्य और चन्द्रमा की क्रान्ति (अर्थात भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा का केन्द्र की उत्तर या दक्षिण में स्थिति) भी दिशा और अंशादि बिल्कुल समान हो जाती है तब अमावस्या को सूर्यग्रहण होता है।इस समय सूर्य,चन्द्रमा और भूमि  में १८०° का पूर्णतः सरल कोण बनता है अर्थात सूर्य और चन्द्रमा में पूर्ण युति बनती है ।दोनों ही ग्रहण में चन्द्रमा या सूर्य की युति स्पष्ट राहु से होती है।
 

विशेष --- गणना शुद्ध और सटीक होनें के बाद *अब वैध लगने का कोइ औचित्य नही है।*

ऐसे ही अर्धचन्द्र (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि) के समय  सूर्य भूमि और चन्द्रमा में ९०° का समकोण बनता है। 
और 
शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी के प्रारम्भ में और कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्त होकर षष्ठी तिथि के प्रारम्भ में सूर्य भूमि और चन्द्रमा में १२०° का त्रिकोण बनता है।

*चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण का प्रभाव* ---

*जो भी भौतिक और रासायनिक, जैविक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव सामान्य पूर्णिमा अमावस्या पर होते हैं,पूर्णिमा या अमावस्या की तुलना में वही सभी प्रभाव चन्द्र गहण और सूर्यग्रहण को  अधिक तीव्र और अधिक मात्रा में होते हैं। भूमि के जिस स्थान ग्रहण दृष्ट होता है वहाँ उस स्थान जहाँ ग्रहण अदृष्ट होता है की तुलना में और अधिक प्रभाव और अधिक तीव्र गति से होता है।*  
*हर एक भ्रुण/बच्चे के जीन्स तो गर्भाधान के साथ ही निश्चित हो जाते हैं।मतलब उसके व्यक्तिगत शारीरिक रूप,रङ्ग, गठन और रोग तथा रोग प्रतिरोधी क्षमता तो निश्चित हो ही चुके होते हैं।*
*पर्यावरण और पोषण के लिए वह माता पर आश्रित होता है। उसे बाहरी प्रभावों से सुरक्षित रखने वाला माता के गर्भ जैसा अति सुरक्षित बङ्कर प्राप्त होता है।*
*इन कारणों से केवल खतरनाक रेडिएशन और असाधारण कम्पन्न और तीव्र ध्वनि जैसे कारकों को छोड़ वाह्य वातावरण अधिक प्रभावित नही कर सकते। अतः सूर्यग्रहण या चन्द्र ग्रहण में प्रसुता के लिए ग्रहण में बाहर न निकलने वाली निषेधाज्ञा का कोई औचित्य नहीं बनता।*

*यही प्रभाव चन्द्रमा के केवल कान्ति मालिन्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण के आसपास की कान्ति मालिन्य की अवधि में भी होता है। लेकिन चन्द्र ग्रहण की तुलना में कम होता है।*

अर्थात क्रम इस प्रकार बना --- क्रमशः बढ़ते क्रम में ---
१ पूर्णिमा के समय जब चन्द्रमा ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) न  हो< २ पूर्णिमा के समय जब चन्द्रमा ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) हो < ३ अदृश्य कान्तिमालिन्य  चन्द्र ग्रहण < ४ दृश्य कान्तिमालिन्य  चन्द्र ग्रहण < ५ अदृश्य चन्द्र ग्रहण < ६ दृश्य चन्द्र ग्रहण < ७ मध्यरात्रि में  दृश्य चन्द्र ग्रहण का प्रभाव सर्वाधिक होगा।
ऐसे ही 
१ अमावस्या के समय जब सूर्य ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) न हो < २ अमावस्या के समय जब सूर्य ख स्वस्तिक (दृष्टा के सिर पर) हो < ३  अदृश्य सूर्य ग्रहण < ४ दृश्य सूर्य ग्रहण < ५ मध्याह्न में  दृश्य सूर्य ग्रहण का प्रभाव सर्वाधिक होगा।

लगभग ऐसे ही प्रभाव अर्धचन्द्र (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि) के समय भी थोड़ी मात्रा में होते हैं। 
और 
शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी के प्रारम्भ में और कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि के समाप्त होकर षष्ठी तिथि के प्रारम्भ में  भी होता है। 

इसीलिए शास्त्रों में *ऐसे सभी समय को ईश्वर भक्ति और भजन, पुण्य सलिला नदियों, झीलों और सागर में स्नान करने यज्ञ होम करनें तथा ध्यान, समाधि में व्यतीत करने के निर्देश दिए गए हैं। ताकि, मनोविचलन से होनेवाले दुष्प्रभावों से बचा जा सके।* 

यथा *मनोविचलन में पाचन तन्त्र सर्वाधिक प्रभावित होनें के कारण उस समय अत्यावश्यक होनें पर ही भोजन करें। अति महत्वपूर्ण निर्णय न लें आदि आदि।* 
 *जबकि,ग्रहण में बाहर निकल कर, वैज्ञानिक पद्यति से ग्रहण का अध्ययन करना, डेटा कलेक्शन करना आवश्यक है। अन्यथा विज्ञान का विकास अवरूद्ध हो जाएगा।*

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

विक्रम संवत २०८० का प्रारम्भ

*विक्रम संवत २०८० का प्रारम्भ दिनांक १४ अप्रेल २०२३ शुक्रवार को होगा।*

*कलियुग संवत ५१२४ का प्रारम्भ वसनृत सम्पात के साथ दिनांक २१ मार्च २०२३ को हुआ।*
*शकाब्द १९४५ का प्रारम्भ गुड़ी पड़वा दिनांक २२ मार्च २०२३ को हुआ।*
*विक्रम संवत २०८० का प्रारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति दिनांक १४ अप्रेल २०२३ शुक्रवार को (दोपहर ०२:५८ बजे) होगा। जो संकल्पादि में दिनांक १५ अप्रेल २०२३ शनिवार को सूर्योदय से लागू माना जाएगा।*
*नाक्षत्रीय गणनानुसार इस वर्ष निरयन मेष संक्रान्ति १४ अप्रेल २०२३ को १४:५८ बजे (दोपहर ०२:५८ बजे) होगी। अतः दिनांक १५ अप्रेल २०२३ शनिवार से युधिष्ठिर संवत्सर ५१२४ का प्रारम्भ होगा।(मतान्तर से युधिष्ठिर संवत ५१६१ प्रारम्भ होगा।)*
 *पञ्जाब, हरियाणा में सूर्योदय नियमानुसार १४ अप्रेल को वैशाखी पर्व से इस दिन विक्रम संवत २०८० का प्रारम्भ होगा।* और 

*उड़िसा में सूर्योदय नियमानुसार १४ अप्रेल को उड़िया नववर्ष प्रारम्भ होगा।*

*केरल में १८ घटिका नियमानुसार १५ अप्रेल को मलयाली नव संवत्सर प्रारम्भ होगा।*
 *केरल में कोलम नववर्ष ११९८ निरयन सिंह संक्रान्ति (१७ अगस्त २०२३ को १३:३२ बजे से) प्रारम्भ होगा।*

*तमिलनाडु में सूर्यास्त नियमानुसार १४ अप्रेल को मेढम मासारम्भ के साथ तमिल नव वर्ष प्रारम्भ होगा।* लेकिन 

*बङ्गाल और असम में मध्यरात्रि नियमानुसार १५ अप्रेल को बङ्गाली संवत्सर प्रारम्भ होगा। और असमिया नव संवत्सर १४२८ प्रारम्भ का पर्वोत्सव/ त्योहार मनाया जाएगा।*

*वैशाखी का त्योहार वैदिक सनातन धर्मियों, बौद्धों और खालसा सिखों के लिए महत्वपूर्ण है।* 
*जिस समय सूर्य का परिभ्रमण करते हुए भूमि भचक्र/ नक्षत्र मण्डल में चित्रा नक्षत्र के योग तारा चित्रा तारे के साथ या समक्ष दिखाई देती है। सापेक्ष में भूमि के केन्द्र से सूर्य चित्रा तारे से १८०° पर निरयन मेषादि बिन्दु पर दिखता है उस समय को निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं।*

*निरयन मेष संक्रान्ति या निरयन सौर वैशाख मास के पहले दिन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक क्षेत्रों में बहुत से नव वर्ष के त्यौहार वैशाखी , जुड़ शीतल, पोहेला बोशाख, बोहाग बिहू, विशु, पुथण्डु के नाम से मनाया जाता हैं।*

*ऐसा माना जाता है कि गङ्गा देवी इसी दिन पृथ्वी पर उतरी थीं। सनातन धर्मी इसे गङ्गा स्नान,पूजा करके और भोग लगाकर मनाते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में निरयन मेष संक्रान्ति अर्थात बैसाखी पर्व पर भारी मेला लगता है।* 

*उत्तराखंड के बिखोती महोत्सव में लोगों को पवित्र नदियों में डुबकी लेने की परंपरा है। इस लोकप्रिय प्रथा में प्रतीकात्मक राक्षसों को पत्थरों से मारने की परंपरा है।*

*बिहार और नेपाल के मिथल क्षेत्र में, नया साल जुरशीतल के रूप में मनाया जाता है। यह मैथिली पंचांग का पहला दिन है। परिवार के सदस्यों को लाल चने सत्तू और जौ और अन्य अनाज से प्राप्त आटे का भोजन कराया जाता है।*

*बंगाली नए साल निरयन मेष संक्रान्ति को 'पाहेला बेषाख' के रूप में मनाया जाता है और पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बांग्लादेश में एक उत्सव 'मंगल शोभाजात्रा' का आयोजन किया जाता है।* 
*यह उत्सव 2016 में यूनेस्को द्वारा मानवता की सांस्कृतिक विरासत के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।*

*ओडिशा में (निरयन मेष) संक्रांति को महाविषुव संक्रान्ति कहते हैं। उड़िया नए साल का प्रारम्भ दिवस समारोह में विभिन्न प्रकार के लोक और शास्त्रीय नृत्य शामिल होते हैं, जैसे शिव-संबंधित छाऊ नृत्य।*

*असमिया नव वर्ष की शुरुआत के रूप में बोहाग बिहू या रंगली बिहू निरयन मेष संक्रान्ति को मनाते हैं। इसे सात दिन के लिए विशुव संक्रांति (मेष संक्रांति) वैसाख महीने या स्थानीय रूप से 'बोहग' (भास्कर कैलेंडर) के रूप में मनाया जाता है।*

*निरयन मेष संक्रान्ति को तमिलनाड़ू में पुत्ताण्डु या पुत्थांडु या पुथुवरूषम तमिल नववर्ष कहते हैं।*
 *यह तमिल कैलेंडर के चिथीराई या चिधिराई मास का पहला दिन है। इसे लन्नीसरोल हिन्दू केलेण्डर के सौर चक्र के साथ स्थापित किया गया है।*
*तमिल लोग "पुट्टू वतुत्काका!" अर्थात नया साल मुबारक हो" कहकर एक-दूसरे को बधाई देते हैं।*
*दक्षिणी तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में, त्योहार को चित्तारीय विशु कहा जाता है।*

*केरल में नव वर्षारम्भ का यह त्योहार 'विशु' कहलाता है।*
 
*तमिलनाडु और श्रीलंका दोनों जगहों में इस दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। इसी दिन असम, पश्चिम बंगाल, केरल, मणिपुर, त्रिपुरा, बिहार, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पूर्वोत्तर भारत की दाई, ताई दाम जनजातियाँ और साथ ही नेपाल में सनातन धर्मियों द्वारा पारंपरिक नए साल के रूप में मनाया जाता है।* 
*दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई देश श्रीलंका के सिंहली समुदाय और तमिल समुदाय, मारीशस में तमिल जन, बांग्लादेश के सनातन धर्मी, म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर रीयुनियन, के कई बौद्ध समुदाय इस दिन को अपने नए साल के रूप में उसी दिन भी मनाता हैं।*
 
*विक्रम संवत* --- *चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य आनें पर नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत तथा निरयन मेष मासारम्भ होता है। जिसे पञ्चाब और हरियाणा में वैशाख मास कहते हैं। जब ३६५.२५६३६३ दिन पश्चात सूर्य पुनः इसी बिन्दु पर लौटता है तब संवत्सर पूर्ण होता है।* *प्रकारान्तर से कह सकते हैं कि, सूर्य के केन्द्र का परिभ्रमण करती भूमि जब चित्रा तारे के समक्ष आती है तब नाक्षत्रीय / निरयन सौर वर्ष प्रारम्भ होता है। और चित्रा तारे के समक्ष भूमि का परिभ्रमण पूर्ण होने पर संवत्सर पूर्ण होता है।*
*वर्तमान में मन्दोच्च ७९°०८'१८" पर है। इस कारण मिथुन मास सबसे बड़ा और धनुर्मास सबसे छोटा होता है।*
 *निरयन सौर मासों के नाम* --- *दक्षिण भारत और पूर्व भारत में मेष वृषभादि नाम प्रचलित है । जबकि पञ्जाब और हरियाणा में वैशाखादि नाम प्रचलित है।*
*इस कारण इसके मासों की दिन संख्या इस प्रकार है* ---
*१ मेष (वैशाख) और २ वृषभ (ज्येष्ठ),३ मिथुन (आषाढ़) , ४ कर्क (श्रावण), ५ सिंह (भाद्रपद) और ६ कन्या (आश्विन) ३१ दिन का तथा* 
*७ तुला (कार्तिक) और ८ वृश्चिक (मार्गशीर्ष) ३० दिन का तथा* 
*९ धनु पौष २९ दिन का एवम्*
*१० मकर (माघ), ११ कुम्भ (फाल्गुन) और १२ मीन (चैत्र) ३० दिन का होता है।*

*सम्पात के २५,७७८ वर्षीय चक्र के कारण नाक्षत्रीय सौर वर्ष अर्थात निरयन सौर संवत का प्रारम्भ होनें का दिनांक प्रत्येक ७१ वर्ष में एक दिनांक बढ़ जाती है। इस कारण वर्तमान में १४ अप्रेल से प्रारम्भ होनें वाला नाक्षत्रीय सौर युधिष्ठिर संवत और निरयन सौर विक्रम संवत और मेष (वैशाख) मास भविष्य में १५ अप्रेल से आरम्भ होगा।*
*युधिष्ठिर संवत की गणना भी नाक्षत्रीय सौर वर्ष (निरयन सौर वर्ष) में की जाती थी। लेकिन युधिष्ठिर संवत प्रायः अप्रचलित ही रहा। इसी आधार पर विक्रमादित्य ने विक्रम संवत चलाया था। और विक्रम संवत को भी केवल १३५ वर्ष में शक संवत नें विस्थापित कर दिया।*

*बेबीलोन (ईराक), मिश्र और युनान में भचक्र (Fixed zodiac फ़िक्स्ड झॉडिएक) विभिन्न आकृतियों की बारह राशियों की कल्पना की गई थी। जो भारत में प्रचलित नहीं थी। इन राशियों का भारत में वराहमिहिर नें परिचय कराया। वर्तमान खगोलविदों ने अलग - अलग भोगांश वाली तेरह राशियों की कल्पना की है।* 
*वराहमिहिर के बाद इन ३०° के समान भोग वाली बारह राशियों को नक्षत्रों के साथ जोड़ने के लिए १३°२०' के समान भोग वाले सत्ताइस नक्षत्रों की प्रणाली प्रारम्भ की गई। जिसमे प्रत्येक नक्षत्र में ३°२०' के चार-चार चरण होते हैं। जो राशि प्रणाली में नवांश कहलाते हैं। इस प्रकार निरयन गणना प्रणाली का उदय हुआ जो वर्तमान में भी भारत में प्रचलित है।* 
*उल्लेखनीय है कि, ईरान या तुर्किस्तान के मूल निवासी होने के कारण वराहमिहिर को शक जाति का माना जाता है। आचार्य वराहमिहिर से प्रभावित होनें के कारण सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन मेष संक्रान्ति से निरयन सौर विक्रम संवत प्रारम्भ किया था।*

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

हनुमान जयन्ती शब्द सही है। लेकिन इस शब्द का विशिष्ट अर्थ और महत्व है।

व्हाट्सएप सन्देशों के अवलोकन से ज्ञात हुआ कि,
लोग अभी भी *हनुमान जयन्ती शब्द के विषय में अनजान लोगों द्वारा पता नही किस उद्देश्य से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से फैलाये गए भ्रम से ग्रसित हैं।* इसलिए पुनः स्पष्टीकरण जारी कर रहा हूँ।
 *जिनको शास्त्रों पर विश्वास है, वे तो मान लेंगे, समझ लेंगे।* लेकिन जिन्हें अनजान मीडिया सन्देश रचियताओं भरोसा है, उनकी मुर्गी की तीन टाँग ही रहेगी। उन्हें केवल ईश्वर ही सुधार सकता है।
 *उत्सव एक कार्यक्रम का नाम होता है। जो किसी नियत स्थान पर, नियत दिन, नियत समय पर मनाया जाता है। इसलिए जिस समय आप सूर्योदय के समय हनुमान जन्मोत्सव की आरती आदि कार्यक्रमो में सम्मिलित थे, मात्र वही हनुमज्जन्मोत्सव था। पूरे दिन नही।* 
 *पूरे दिन तो हनुमान जयन्ती ही रहती है, जो हनुमज्जन्मोत्सव मनाने का आधार है। यदि हनुमान जयन्ती नही होती तो हनुमज्जन्मोत्सव भी नही मनता।* 
वैदिक भाषा छन्दस में जयन्ती का अर्थ विजयी होना था। लेकिन लौकिक भाषा संस्कृत में जयन्ती शब्द का रूढ़ अर्थ जन्मदिन या जन्म तिथि होता है। वहीं पुराणों में जन्म तिथि और जन्म नक्षत्र (जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर था) इन दोनों के योग को जयन्ती योग कहते हैं। जैसे अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण  पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र हो तो यह जयन्ती योग कहलाता है।
जबकि जन्मदिन/ जयन्ती को जन्म समय में जन्म का उत्सव मनाना जन्मोत्सव कहलाता है। जैसे 
चैत्र शुक्ल नवमी को मध्याह्न के समय श्रीराम जन्मोत्सव मनाते हैं।
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को सूर्योदय के समय हनुमत् जन्मोत्सव मनाते हैं। और
जन्माष्टमी को मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।

 *हनुमान जयन्ती शब्द सही है।* लेकिन इस शब्द का विशिष्ट अर्थ और महत्व है।
 *हनुमान जी की जन्म तिथि चैत्र शुक्ल पूर्णिमा और जन्म नक्षत्र चित्रा के योग होनें पर हनुमज्जयन्ती शब्द का प्रयोग होता है; हनुमज्जन्मोत्सव शब्द का नही। यह शास्त्रीय मत है।* 

आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से गलत जानकारी प्रेषित कर रहे हैं कि हनुमज्यन्ती न कहकर इसे हनुमज्जन्मोत्सव कहना चाहिए, क्योंकि जयन्ती मृतकों की मनायी जाती है । 

सत्य तो यह है कि,
"जो जय और पुण्य प्रदान करे उसे जयन्ती कहते हैं ।"
"जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः।"
 *स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व, में उल्लेख है कि, हनुमान जयन्ती कब होती है?*
*जब चैत्र शुक्ल पूर्णिमा और चित्रा नक्षत्र का योग हो।* 

 *"पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते॥"* 
क्योंकि,
 एकादशरुद्रस्वरूप भगवान् शिव ही हनुमान् जी महाराज के रूप में भगवान् विष्णु की सहायता के लिए चैत्रमास की चित्रा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को अवतीर्ण हुए हैं ।
"यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिः।
   अवतीर्ण: सहायार्थं विष्णोरमिततेजस: ॥"
(स्कन्दमहापुराण,माहेश्वर खण्डान्तर्गत, केदारखण्ड-८/१००)

 *उत्तर प्रदेश में अयोध्या और काशी में श्री रामानन्द सम्प्रदाय के अनुसार अमान्त आश्विन, पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी जब स्वाती नक्षत्रयुक्त हो तब हनुमान जयन्ती मनाते हैं।* 

 *"स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके कृष्णेSञ्जनागर्भत एव मेषके।*
*श्रीमान् कपीट्प्रादुरभूत् परन्तपो व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत्॥"*
 -- *वैष्णवमताब्जभास्कर* 

ऐसे ही
जब अमान्त श्रावण, पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी अर्धरात्रि में पहले या बाद में रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाती है तब इसकी संज्ञा श्रीकृष्णजयन्ती हो जाती है ।

"रोहिणीसहिता कृष्णा मासे च श्रावणेSष्टमी।
अर्द्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयापि यदा भवेत्।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी।।"

और इस रोहिणी नक्षत्र युक्त श्रीकृष्ण जयन्ती व्रत का महत्त्व रोहिणी नक्षत्र के बिना श्रीकृष्णजन्माष्टमी से अधिक माना गया है । 
जन्म तिथि और जन्म नक्षत्र का योग होनें पर जयन्ती कही जाती है । 
यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती--

"चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते॥" 
--नारदीयसंहिता

इसलिए शास्त्र प्रमाण है कि, हनुमज्जयन्ती शब्द गलत नही है। इसका जीवित या मृत लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु जन्मदिन/ जन्मतिथि या जन्मोत्सव पर्व से जयन्ती शब्द न्यारा है।

जैसे स्वतन्त्रता दिवस पन्द्रह अगस्त को पूरे दिनभर रहता है; गणतन्त्र दिवस २६ जनवरी को पूरे दिन भर रहता है, लेकिन उत्सव प्रातः काल में ही मनता है।
ऐसे ही हनुमान जयन्ती पूरे दिनभर रहती है, इसलिए बधाई, शुभकामनाएँ हनुमान जयन्ती की दी जाती है, सिमित समय होनें वाले जन्मोत्सव की नही।