मंगलवार, 30 नवंबर 2021

मुहुर्त

*मुहुर्त*

प्रायः मुहुर्त पूछने वाले निम्नलिखित गलतियाँ करते हैं।

1 आज वाहन क्रय करना है, मुहुर्त बतला दीजिए।
अरे भाई जब आज दिनांक का मुहुर्त तो तुमने स्वयम् ही निकाल लिया है फिर पूछा क्यों रहे हो? 
साहब समय बतला दीजिए।
यदि वाहन पर सवारी करनें का मुहुर्त आज नहीं हुआ तो समय कैसे बतला पाऊँगा?
मूलत: मुहुर्त वाहन क्रय करनें का नहीं होता। मुहुर्त होता है वाहन पर सवार होकर सवारी करने का। राइडिंग का मुहुर्त होता हो, बुक करना, पेमेण्ट करना ये व्यापारिक गतिविधियाँ है। आप चलते रास्ते बहुत सी व्यापारिक गतिविधियाँ करते रहते हैं, उनमें कोई मुहुर्त विचार नही करते। करना आवश्यक भी नहीं है तो वाहन क्रय करने का मुहुर्त विचार क्यों? व्यर्थ विचार है। मुहुर्त विचारना होगा सवारी करनें का, गाड़ी अधिग्रहित कर/टेक ओवर कर शोरूम से गाड़ी बाहर निकालकर उसे सड़क पर चलाने का। फिर विचार करें वाहन लेकर सर्वप्रथम कहाँ जायें, किसको दिखायें। मतलब मन्दिर जायें, या माता-पिता या गुरुजनों को दिखायेंगे आदि-आदि।
तो वाहन क्रय करना हो या कोई भी मुहुर्त पूछना हो तो पर्याप्त समय पहले मुहुर्त निकलवा लें फिर वाहन क्रय करने करें।

2 कुछ मुहुर्त ऐसे हैं जो मास विशेष में ही होते हैं। हर समय नहीं होते। जैसे गृह प्रवेश मुहूर्त वैशाख, ज्यैष्ठ, श्रावण,कार्तिक, मार्गशीर्ष,माघ और फाल्गुन सौर मास में ही होते हैं।

विष्णु-माया, श्री हरि-कमला, नारायण- श्रीलक्ष्मी, हिरण्यगर्भ-वाणी, प्रजापति-सरस्वती, ब्रहस्पति, इन्द्र-शचि, ब्रह्मणस्पति, द्वादश आदित्य, वाचस्पति, अष्ट वसु, श्री राम अवतार, श्री कृष्ण अवतार  आदि सात्त्विक देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा उत्तरायण में (परम्परागत उत्तरायण 22/23 दिसम्बर से 22/23जून तक)  होती है जबकि, रुद्र, काली, दुर्गा, विनायक, भैरव आदि तामसिक देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा दक्षिणायन में (परम्परागत दक्षिणायन 22/23 जून से 22/23 दिसम्बर तक)  होती हैं।
कई बार नये मन्दिर निर्माण करने वाले आयोजक सात्विक और तामसिक दोनों प्रकार के देवताओं की स्थापना करते हैं और दोनों की प्राण प्रतिष्ठा एक ही दिन करना चाहते हैं। अब आप ही सोचें एक ही दिन सात्विक और तामसिक देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा मुहुर्त कैसे निकलेगा?

चोल-मुण्डन संस्कार, उपनयन/ यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह संस्कार गृहारम्भ, गृह-प्रवेश के मुहुर्त अति बारीकी से देखना होते हैं। इनमे अलग-अलग दोषों और चक्रों का ध्यान रखते हुए मुहुर्त देखना होता है। (अर्थात इनमें बहुत सी टर्म्स एण्ड कण्डिशन्स ध्यान रखना होती है।) अतः मुहुर्त शोधन में अधिक समय लगता है। लोग चार-पाँच जोड़ों का विवाह एक साथ करना चाहते हैं। साथ ही एकादशी, प्रदोष उद्यापन आदि भी साथ ही करने का आग्रह करते हैं। ऐसे मुहुर्त खोजना कई बार लगभग असम्भव हो जाता है।

3 चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथि  रिक्तता तिथि होती है। तथा अष्टमी तिथि भी शुभ नहीं मानी जाती है। मुहुर्त में शारदीय नवरात्र भी अच्छे नहीं माने जाते हैं। (अतः गणेश चतुर्थी,महा अष्टमी, महा नवमी,राम नवमी, शिवरात्रि को मुहुर्त नहीं निकलते।) विवाह में पुष्य नक्षत्र निषेध है। श्राद्धपक्ष में भी शुभ कर्म निषिद्ध हैं। किन्तु पितरों और दुर्गा देवी, शिवजी के भक्त गण इन तिथियों में मुहुर्त चाहते हैं। किन्तु हमें इनकार करना पड़ता है। लोग मानने को तैयार नहीं होते।

4 मुहुर्त निकालने में कर्म करनें वाले (पूजा में बैठनें वाले) की जन्म कुण्डली में  जन्म के समय की सूर्य,  चन्द्रमा और लग्न के राशि/ नक्षत्र को ध्यान में रखकर तिथि और लग्न (समय) निकाला जाता है। अतः मुहुर्त सबके लिए अलग-अलग निकालना होता है। पूर्व दिशा में उदयीमान राशि को लग्न कहते हैं। मुहुर्त में लग्न का ही महत्व है। चौघड़िया या होरा का नहीं। होरा का उपयोग तब मान्य है जब कोई कार्य किसी विशेष वार में करना हो लेकिन उस वार में मुहुर्त नहीं निकल रहे हों तब यदि शुभ लग्न के समय सम्बन्धित वार के ग्रह का होरा मिल जाते तो उसे ग्राह्य कर लिया जाता है। पर बहुत से ज्योतिषियों को भी ऐसे विकल्पों का ज्ञान नहीं होता।
व्रत-उपवास, जयन्तियों और उत्सवों में पूजा का समय निर्धारित रहता है। उसी निर्धारित समयावधि में ही शुभ लग्न/ स्थिर लग्न देखा जाता है। जैसे श्राद्ध अपराह्न में ही होते हैं। गणेश स्थापना मध्याह्न में ही होना चाहिए। नवरात्र में घटस्थापना सूर्योदय से चार घण्टे में ही होती है। दीपावली को दीपमाला की पूजा प्रदोषकाल में ही होती है। हनुमज्जन्मोत्सव सूर्योदय के समय होना चाहिए न कि, सुबह छः बजे।  रामजन्म मध्याह्न में होना चाहिए न कि दिन के बारह बजे। नृसिंह जन्म सूर्यास्त के समय मनाना चाहिए न कि, नाम छः बजे। जन्माष्टमी का महोत्सव मध्यरात्रि में होना चाहिए न कि, रात बारह बजे। पर कोई मानने को तैयार ही नहीं।

इसलिए किसी भी कार्य की योजना बनाने के पहले सम्भावित मुहुर्त की सुचि तैयार करवा लेवें।फिर योजना बनायें।

बद्रिनाथ मन्दिर में नारायण की पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में प्रतिमा।

कुछ लोग बद्रिनाथ की पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में नारायण अवतार की प्रतिमा को ऋषभदेव जी की मूर्ति सिद्ध कर उसे जैन मन्दिर मानने का आग्रह करते हैं।
सनातन धर्मियों की सबसे बड़ी कमजोरी शास्त्राध्ययन का अभाव है। इसलिए वे उत्तर नहीं दे पाते हैं।

स्वायम्भूव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र (जम्बूद्वीप के शासक), आग्नीध्र के पुत्र अजनाभ या नाभि  (हिमवर्ष के शासक) जिनने हिमवर्ष का नाम  अजनाभ वर्ष या नाभि वर्ष रखा, और नाभि के पुत्र हुए ऋषभदेव । ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती जिनने अपने नाम पर हिमवर्ष या अजनाभ वर्ष या नाभि वर्ष का नाम भारतवर्ष रखा।
आदिनाथ मतलब उक्त वैदिक ऋषि ऋषभदेव हैं। ऋषभदेव स्वयम् राजर्षि थे । वैदिक ऋषि थे। चौविस अवतारों में अष्टम अवतार ऋषभदेव जी हैं।  ऋषभदेव के समय तक जैन सम्प्रदाय का नामोनिशान तक नहीं था। 
नर नारायण भी चौथे अवतार ही हैं। ऋषभदेव आठवें अवतार हैं। नर नारायण भी तपस्वी थे। ऋषभदेव भी संन्यास आश्रम में तपस्वी हुए।
तो मानलो वह मूर्ति नारायण की न होकर ऋषभदेव की हुई तो है तो भी है तो किसी विष्णु अवतार की ही ना?
इन्दौर जिले की देपालपुर तहसील के बनेडिया का चौबीस अवतार मन्दिर जिसके पास ही जैन मन्दिर भी है, या देपालपुर का सबसे नवीन चौवीस अवतार मन्दिर हो; सभी जगह अवतार ऋषभदेव जी की मूर्ति है। तो क्या वे सभी मन्दिर भी जैनों के हो गये ?
पद्मासन पर ध्यान मुद्रा में भगवान शंकरजी की सेंकड़ों मूर्तियाँ है तो क्या वे सब जैनों की हो गई?
कल से मुसलमान कहने लगे कि, सनातन धर्मी तो अन्त्यैष्टि में शवदाह करते हैं। इसलिए सभी साधु महात्माओं की समाधि मुस्लिमों की है, तो कौन मुर्ख मानेगा?

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

पारसियों, यहुदियों, ईसाइयों और इस्लाम का ईश्वर कौन है?

पारसियों का ईश्वर -अहुरमज्द, ऋषि -जरथुस्त्र, ग्रन्थ-जेन्द अवेस्ता।
आदित्य वरुण, पुषा आदि को प्राणवान होने/बलिष्ठ होने तथा सुरापान न करने के कारण वेदों में असुर कहा गया है। अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। 
पारसियों का ईश्वर अहुरमज्द यानी असुर महत या महाअसुर हैअग्नि को वे अहुरमज्द का प्रतीक/ प्रतिमा मानते हैं। ऋग्वेद में अग्नि को प्रथम पुज्य और यह्व कहा गया है। यह्व का अर्थ होता है महादेव अर्थात देवताओं में वरिष्ठ । मतलब देवताओं में अग्नि बड़ा होनें के कारण प्रथम पूज्य है।

जैसे सवितृ की प्रतिमा सूर्य को माना गया है, वैश्वानर अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। विष्णु की प्रतिमा आकाश को माना जाता है। वैसे ही पारसी सम्प्रदाय के अनुसार ईश्वर तो अहुर्मज्द अर्थात महाअसुर है और ईश्वर का प्रतिक चिह्न अग्नि है।
अर्थात पारसियों के लिए अग्नि उनके ईश्वर अहुर मज्द की प्रतिमा है। दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। अर्थात पुरुरवा से पारसियों का सम्बन्ध भी अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ लगता है।
चन्द्रमा के पुत्र बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। इला और बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ। बुध की पत्नी इला का पुत्र होनें के कारण पुरुरवा को एल कहा जाता है।

ब्राह्मण ग्रन्थ रचनाकाल तक असीरिया (इराक) के असुरोपासक अर्थात असुर तान्त्रिक भी वेद को पूर्णतः नकारते भी नही थे और पूर्णतः स्वीकारते भी नही थे।  
पाणिनि ने वैदिक भाषा को छन्दस कहा है। पारसी शब्द जेन्द वैदिक  शब्द छन्द का ही रूप लगता है। 
ऐसी मान्यता है कि, अथर्वेद के  ब्राह्मणग्रन्थ अवेस्ता की रचना महर्षि अङ्गिरा ने की थी।अवेस्ता पर  जेन्द व्याख्या/ टीका जरथुस्त्र द्वारा की गई। इसलिए पारसियों का मुख्य धर्मग्रन्थ जो उपलब्ध है वह ग्रन्थ जेन्दावेस्ता कहलाता है। जरथुस्त्र इराक से लगी सीमा के निवासी थे इस कारण असीरिया का  असूरोपासना का प्रभाव उन पर भी था। इस कारण जरथुस्त्र असुरोपासक थे।
अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर जेन्द व्याख्या असूरोपासक जरथुस्त्र द्वारा की गई। उस जेन्दावेस्ता के ग्रन्थ के आधार पर पारसी सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ इसलिए पारसी ईश्वर को अहुरमज्द कहते है।
जैसे यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग मिश्रित होनें के कारण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता को कृष्ण यजुर्वेद कहा जाता है उसी आधार पर  जेन्द अवेस्ता की स्थिति भी अथर्ववेद के कृष्ण ब्राह्मण ग्रन्थ जैसी हो गई। क्योंकि, जरथुस्त्र ने अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता में जेन्द व्याख्या/ टीका मिश्रित कर दी।इस कारण अवेस्ता का स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। 
चूँकि, मूल ग्रन्थ अवेस्ता अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ था अर्थात अवेस्ता अथर्ववेद का भाष्य ग्रन्थ था। अतः अवेस्ता में वैदिक भाषा और वैदिक मान्यताएँ होना स्वाभाविक ही है। 

यहुदियों और ईसाइयों का ईश्वर-याहवेह (यहोवा), यहुदियों के ऋषि - इब्राहिम, सुलेमान राजा, दाउद, और मूसा । यहुदियों के ग्रन्थ ---  तनख  दाऊद की किताब जुबेर, मूसा की किताब तोराह (बायबल ओल्ड टेस्टामेंट)। ये पुस्तकें सीरिया खाल्डिया  और बेबीलोनिया (इराक) की पुरानी अरामी भाषा ( पश्चिमी आरमाईक) भाषा में लिखित है। हिब्रू भाषा भी अरामी भाषा का रूप ही है।
"हिब्रू बाइबल या तनख़ यहूदियों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ है।[1][2] इसकी रचना 600 से 100 ईसा पूर्व के समय में विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न देशों में की गई है।[3] असल में हिब्रू बाइबल तीन अलग अलग शास्त्रों का संकलन है। जो कि प्राचीन यहूदी परम्परा का आधार हैं। अतः तनख़ के तीन भाग हैं-"

"निम्नांकित 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध (पुराना नियम/ ओल्ड टेस्टामेंट) में हैं, 
"विधान -- १ उत्पत्ति, २ निर्गमन, ३ लैव्य व्यवस्था, ४ गिनती और ५ व्यवस्था विवरण"
"इतिहास --- १ यहोशु २ न्यायियों ३ रूत ४ प्रथम शमुऐल ५ द्वितीय शमुऐल ६ प्रथम राजाओं का व्रतांत ७ द्वितीय राजाओं का व्रतांत ८ इतिहास प्रथम ९ इतिहास द्वितीय"।
"भजन ---  १ एज्रा २ नहेम्याह ३ ऐस्तर ४ अय्यूब ५ भजन संहिता ६ नीति वचन ७ सभोपदेशक ८ श्रेष्ठगीत"।
"नबी --- १ यशायाह २ यिर्मयाह ३ विलापगीत ४ यहेजकेल ५ दानिय्येल ६ होशे ७ योएल ८ आमोस ९ ओबध्याह १० योना ११ मीका १२ नहूम १३ हबक्कूक १४ सपन्याह १५ हाग्गै १६ जकर्याह १७ मलाकी।"
५+९+८+१७ =३९ पुस्तकें।
"यह 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध में हैं, तथा कैथोलिक बाइबिल के पूर्वार्ध में 46, जबकि ऑर्थोडॉक्स बाइबिल के पूर्वार्ध में 49 किताबें शामिल हैं। ये चार भागों में विभाजित हैं
ईसाइयों के ऋषि उपर्युक्त के अलावा यीशु। और ईसाइयों के ग्रन्थ उपर्युक्त के अलावा एन्जिल (बायबल नया नियम) यह ग्रीक (युनानी) भाषा में लिखित है।

चन्द्रमा का पुत्र बुध हुआ। और वैवस्वत मनु की पुत्री इला हुई। चन्द्रमा के पुत्र बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। इला और बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ।  बुध की पत्नी इला का पुत्र होनें के कारण पुरुरवा को एल कहा जाता है।
दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। वेदों में अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। 
इला का पुत्र एल पुरुरवा चन्द्रमा का पौत्र था। इसलिए पुरुरवा से उत्पन्न जातियों को चन्द्रवंशी  कहा जाता है। जिन्हें अंग्रेजी में सेमेटिक (चन्द्रवंशी) कहते हैं।
ऋग्वेद में अग्नि को प्रथम पुज्य और यह्व कहा गया है। जिसका मतलब महादेव / देवताओं में वरिष्ठ होता है। )
बाइबल पुराना नियम में उत्पत्ति नामक प्रथम पुस्तक से ही यहुदियों (और ईसाइयों) के ईश्वर का नाम याहवेह या यहोवा है।जो संस्कृत के यह्व शब्द से बना है ।
बायबल पुराना नियम में एल ईश्वरवाचक शब्द (जातिवाचक सञ्ज्ञा) है। बाइबल पुराना नियम के अनुसार यहोवा उपर आसमान से उतरता है और मूसा को दर्शन देता है। मुसा उसका तेज नही सह पाता अतः दण्डवत प्रणाम करता है।
बाइबल नया नियम के अनुसार यहोवा ईसा मसीह को अपने सिहासन पर साथ मे बिठाता है।
मतलब यहोवा एकदेशी है, एक लोक विशेष का निवासी है। सिंहासन पर विराजमान होता है अर्थात सर्वव्यापक नही। यहोवा सर्वव्यापी नहीं है अतः जनक, प्रेरक रक्षक नही हो सकता।

इस्लाम का ईश्वर-अल्लाह / इलाही। इस्लाम के ऋषि- मोह मद, इस्लाम की पुस्तके - मुख्य पुस्तक - कुरान, अन्य पुस्तकें- हदीसें।
इस्लाम का ईश्वर (इलाही) को अल्लाह कहा गया है। ईलाही शब्द स्पष्ट रूप से ईला पुत्र पुरुरवा से सम्बन्धित है। और अल्लाह भी ईलाही का दुसरा रूप है। जो सातवें आसमान (स्थान विशेष) पर बैठता है। अतः सर्वव्यापी नही है। अतः जनक, प्रेरक और रक्षक नही हो सकता।
सारांश में निष्कर्ष ---
उक्त सभी में पुरुरवा एक समान रूप से सम्बन्धित है। पुरुरवा के पुत्र आयु का पालन पोषण स्वयम् पुरुरवा को ही करना पड़ा। क्योंकि अप्सरा उर्वशी आयु को जन्म देकर, पुरुरवा को सोपकर इन्द्रलोक/ स्वर्ग को लौट गई थी।
बाइबल पुराना नियम की उत्पत्ति नामक पुस्तक में आदम को भी एल यहोवा के द्वारा उत्पन्न और पालित बतलाया गया है। 

मिश्र के पिरामिड मृगशीर्ष नक्षत्र के ओरायन के प्रतीक हैं। मृगशीर्ष का स्वामी सोम है। मतलब सूर्य पूजा मिश्र का धर्म भी सोम प्रधान है। यहुदियों के मुख्य पेगम्बर मूसा मिश्र में ही जन्में, पले और बड़े थे।

यीशु स्वयम् यहूदी थे।अतः बायबल का ओल्ड टेस्टामेण्ट यहूदी और ईसाई दोनों मत /पन्थों का धर्मग्रन्थ है। जिसे इस्लाम भी स्वीकारता है। इस्लाम बायबल न्यु टेस्टामेण्ट को भी स्वीकारते हैं। तीनों मत/ पन्थों को मुस्लिम भी शरियत में शरीक मानते हैं।
अर्थात तीनों मत/पन्थ एल पुरुरवा को ही ईश्वर मानते हैं।



उक्त लेख का संक्षिप्त रूप में देख सकते हैं, इस ब्लॉग में।⤵️
महा असुर से अहुर मज्द, एल से एल, अल, अल्लाह, इलाही और यह्व से याहवेह (यहोवा)
http://jitendramandloi.blogspot.com/2022/10/blog-post_19.html

"चन्द्रवंश के विस्तृत वर्णन हेतु कृपया मेरा ब्लॉग देखें-
वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त के अन्तर्गत वंश वर्णन विष्णु पुराण के आधार पर।"
http://jitendramandloi.blogspot.com/2021/09/blog-post_22.html

सोमवार, 15 नवंबर 2021

भारत को पुर्ण स्वतन्त्रता 26 जनवरी 1950 को मिली न कि, 2014 में

निर्विवादित रूप से वर्तमान के वामपन्थी (जिन्हें तथाकथित मार्क्सवादी कहा जाता है), वर्तमान में वे भारत विरोधी, भारतीय सनातन संस्कृति और  सनातन वैदिक धर्म के न केवल विरोधी अपितु शत्रु भी हैं यह माननें में मुझे किञ्चित मात्र संकोच नही है।
वहीँ स्वातन्त्र्य आन्दोलन में मुख्य पुरोधा अमर शहीद लाला लाजपतराय, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह,सुभाषचन्द्र बोस आदि सभी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी थे। यह माननें में दक्षिणपन्थियों को संकोच करना गलत है।
क्रान्तिकारी दल का नाम ही हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन था। जिसमें कट्टर आर्यसमाजी और शुद्धिकरण आन्दोलन में मुस्लिमों को पुनः वैदिक धर्म में लानें वाले रामप्रसाद बिस्मिल भी थे उन्हे दक्षिणपन्थी तो कतई नही माना जा सकता।
कार्लमार्क्स प्रथम गैरभारतीय विचारक थे जिनने आर्य आक्रमण थ्योरी और आर्य द्रविड़ थ्योरी का खण्डन कर भारत के मूल निवासी आर्यों को ही माना।जिसे बाद में अम्बेडकर ने भी सही सिद्ध किया।
अब आज के वामपन्थी और भीम-मीम समर्थक बहुजन समाज पार्टि वाले इससे विपरीत मत रखते हैं अतः न उन्हें मार्क्सवादी कहा जा सकता है न अम्बेडकर वादी कहा जा सकता है।
भारतीय स्वातन्त्र्य आन्दोलन में आज के दक्षिणपन्थियों का योगदान से इन्कार नही करता लेकिन उनका योगदान प्रतिशत नगण्य था।
दक्षिणपन्थियों की एक मुख्य संस्था के संस्थापक को ही क्रान्तिकारी सावरकर भी अंग्रेजों का एजेण्ट कहते थे, जिनने सुभाषचन्द्र बोस को सहयोग देनें को राजी नही होकर उन्हें अपना मार्ग बदलकर हिन्दू एकता के लिए कार्य करनें का उपदेश देकर पल्ला छुड़ालिया हो, जिनने क्रान्तिकारियों के लिए तन, मन धन किसी से भी कुछ भी सहयोग नही किया  उन्हें ब्रिटिश विरोधी स्वतन्त्रता आन्दोलन में सहयोगी बोलना सम्भव नही। लेकिन वे लोग सही बोल नही सकते तो बात घुमा रहे हैं।
इसलिए वे स्वतन्त्रता को भीख में मिली घोषित करके आत्मसन्तुष्टि कर रहे हैं।

कंगना उनके ये समर्थक 26 जनवरी 1950 से 2014 के बीच की तुलना नही करते।
15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 तक की स्थिति को ही 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 के बजाय सीधे 2014 में मान लेते हैं। ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा हमारे देश पर थोपा इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त करके 26 जनवरी 1950 का संविधान की अन्तिम धारा अनुच्छेद 395 भारत को पूर्ण स्वतन्त्र सम्प्रभुता सम्पन्न भारत घोषित करता है।
यहाँ कुछ ब्रिटिश भक्त लोग आपत्ति उठाते हैं कि, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त करने का अधिकार केवल ब्रिटिश पार्लियामेंट को ही है। भारतीय संसद निरस्त नही कर सकती। उसका उत्तर है कि,  इकहत्तर वर्ष पूर्ण हो चुके बहत्तर वर्ष पूर्ण होनें में मात्र दो ढाई माह शेष हैं , ब्रिटेन की सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में आजतक यह आपत्ति नही उठाई। कृपया वे दास जन बतलायें कि, लिमिटेशन एक्ट में ऐसे कितने वर्ष तक का प्रावधान है कि, कोई आपत्ति न लेने पर भी उसका कब्जा बरकरार माना जायेगा। कनाड़ा पर तो ब्रिटेन ने तत्काल सैन्य कार्रवाई कर दी और विजय हाँसिल की। भारत पर क्यों नही की?
वे दासजन चाहते हैं कि, ब्रिटश पार्लियामेंट इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त कर देती तो उनकी यह बात प्रमाणित हो जाती की आजादी भीख में मिली। जबकि सच्चाई वे स्वयम जानते हैं कि, ब्रिटेन की सरकार  सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज तथा  भारतीय नौसेना में हुए विद्रोह जिसमें कामरेड डांगे का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा के चलते बिना दस लाख युरोपियन सेन्यबल के भारत पर नियन्त्रण नही रखा जा सकता ; इसी दबाव के चलते अंग्रेजों को भारत छोड़नें के लिए विवश होना पड़ा। और इसी कारण ब्रिटिश शासन-प्रशासन अंग्रेजों के भारत छोड़नें की विवशता में गान्धी कांग्रेस के कार्यक्रमों को महत्वपूर्ण नही मानती।
भारत को आज भी ब्रिटेन का गुलाम घोषित करने वाले ऐसे बेतुके देशद्रोही बयान जारी करनें वाले दासजन विदेशमन्त्री रहकर विदेशी मामलों के विशेषज्ञ मानेजाने वाले भू.पू. प्रधान मन्त्री अटल बिहारी वाजपेई और चाणक्य माने जाने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्रभाई मोदी पर भी अविश्वास प्रकट कर रहे हैं।
इन्दिरा गान्धी ने बयालीसवें संविधान संशोधन जो 01 अप्रेल 1977 से लागू हुआ तबसे समाजवादी और सेकुलर राष्ट्र घोषित किया। ऐसा 2014 में संविधान में क्या नया हुआ जो पहले नही था। मतलब कुछ नही हुआ। आज भी वही और वैसा ही है जो 1977 में था। यह बात भी कुछ अंग्रेज भक्त दासजन स्वीकारते है।
विदेशनीति परिस्थितियों के अनुसार परिवर्नशील होती है। इसमें किसी भी एक पक्ष का सम्पूर्ण योगदान नही होता। तो विदेशनीति में हुए आंशिक परिवर्तन को स्वतन्त्रता घोषित करना स्वतन्त्रता के अर्थ को ही बदलने का प्रयास मात्र है।
यदि इसे मान्यता दी गई तो भविष्य में भी ऐसे परिवर्तनों पर स्वतन्त्रता प्राप्ति कहा जायेगा।
अतः भारत शासन का दायित्व है कि, वह स्पष्ट करे कि, पूर्ण स्वतन्त्रता 26 जनवरी 1950 को मिली। और उसके बाद सम्प्रभुता में कोई परिवर्तन नही हुआ और सम्पूर्ण सम्प्रभु होने के बाद सम्प्रभुता में कोई और विकास होना सम्भव ही नही है।

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

हनुमान जयन्ती

हनुमान जयन्ती की वास्तविक तिथि के विषय में बहुत भ्रम है।

उत्तर भारतीय चैत्र पूर्णिमा को सूर्योदय के समय हनुमान जयन्ती मनाते है। इस दिन प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।

उड़ीसा में निरयन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में 13/14 अप्रेल) को मनाते हैं। इस दिन सूर्य केन्द्रीय ग्रहों में (मध्यम ग्रह) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है।

अयोध्या के हनुमान गड़ी मन्दिर में अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (काली चौदस/ रूप चौदस) को सूर्यास्त के समय मेष लग्न में हनुमान जयन्ती मनाते हैं। इस दिन भी प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।
मतलब चित्रा तारे का हनुमान जन्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
लेकिन;
कर्नाटक में मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को हनुमान व्रतम् मनाते हैं। ज्ञातव्य है कि, हनुमान जी का कार्यक्षेत्र कर्नाटक के हम्पी क्षेत्र में ही रहा। सम्भवतः कर्नाटक के हम्पी से 15 किलोमीटर दूर अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव में स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर पर्वतीय किलेनुमा स्थान पर स्थित मन्दिर को हनुमानजी का जन्मस्थान मानते हैं। रा.स्व.से.संघ नें वहाँ हनुमान जन्मस्थली मन्दिर बनाने हेतु एक सौ बीस करोड़ रुपए का फण्ड तैयार कर रखा है।

तमिलनाडु में अमान्त मार्गशीर्ष अमावस्या* को हनुमथ जयन्ती पर्व मनाया जाता है।

*आन्ध्र* प्रदेश और *तेलङ्गाना* मे चैत्र पूर्णिमा से दीक्षा आरम्भ कर 41 से दिन पश्चात *अमान्त वैशाख पूर्णिमान्त ज्येष्ठ कृष्ण दशमी* को हनुमान जयन्ती मनाते हैं। और पर्व का समापन करते हैं। तो
ध्यातव्य है कि, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम तिरुमला स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर स्थित अञ्जनी मन्दिर को हनुमान जन्मस्थली मानता है।

अस्तु;
हनुमानजी का जन्म के समय चित्रा नक्षत्र महत्वपूर्ण माना जा रहा है अतः जिस समय मध्यम ग्रह (सूर्य केन्द्रीय ग्रहों) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति को हनुमान जी का जन्म दिन माना जा सकता है। या निरयन तुला संक्रान्ति को हनुमानजी का जन्म दिन मान सकते हैं जिस दिन सूर्य चित्रा तारे पर रहता है। काली चौदस/ रूप चौदस इसी समय पड़ती है।
या फिर चैत्र पूर्णिमा तो है ही, जिस दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है। या
निष्कर्ष ---
वसन्त सम्पात के समय सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हनुमानजी का जन्म हुआ हो सकता है। और श्री रामचन्द्र जी का जन्म भी वसन्त सम्पात के समय   सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हुआ था।  
जिसदिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होनें से दिनरात बराबर होते हैं। उत्तरीध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।

सूर्य क्रान्तिवृत्त में जिस तारे से आरम्भ होता है अगले वर्ष उस तारे से 50.3' पीछे (पश्चिम में)  आता है। इस अयन चलन के कारण 25778 वर्ष में सूर्य क्रान्तिवृत्त में पूरा 360° घूम जाता है। इससे निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मेष संक्रान्तियों में लगभग 71 वर्ष में एक अंश का अन्तर होने से लगभग एक दिन का अन्तर पड़ जाता है। ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन मान से चलता है अतः निरयन संक्रान्ति एक दिन बाद होती है। सन 285 ई. में 22 मार्च को वसन्त सम्पात  अर्थात् सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति एक साथ पड़ी थी। जिसमें अब 24° अर्थात 24 दिन से अधिक का अन्तर पड़ गया। 
चूँकि, चैत्र वैशाखादि निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमास भी निरयन संक्रान्तियों पर आधारित है अतः वर्तमान में सायन संक्रान्तियों की तुलना में 24 दिन का अन्तर पड़ता है। इसी अन्तर के परिणाम स्वरूप सायन मेष संक्रान्ति कभी चैत्र पूर्णिमा को तो कभी मार्गशीर्ष अमावस्या को पड़ती रही है। इस कारण हनुमान जयन्ती कि तिथियों में बहुत अन्तर देखनें को मिलता है।
हनुमान जी का जन्म यदि त्रेता युग समाप्त होने के मात्र सौ वर्ष पहले भी माना जाए तो;
 त्रेता के अन्तिम सौ वर्ष+ द्वापर युग के आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष + वर्तमान कलियुग संवत 5125 वर्ष कुल मिलाकर आठ लाख उनहत्तर हजार दो सौ पच्चीस वर्ष (8,69,225 वर्ष) से अधिक समय पहले हनुमान जी का जन्म हुआ होगा।
फिर भी एक जन्मस्थान आन्ध्र प्रदेश का तिरुमला तिरुपति हो या कर्नाटक में हम्पी के निकट अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव कोई एक स्थान और निरयन मेष संक्रान्ति (14 अप्रैल) या सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च)या चैत्र पूर्णिमा नियत किया जावे।