शनिवार, 27 अप्रैल 2019

सनातन धर्मियों की दुर्दशा का मूल कारण सनातन धर्मियों द्वारा वैदिक सनातन धर्म का त्याग है।

पहले संक्षिप्त इतिहास की झलकियाँ देखिये। यह इतिहास सनातन धर्मियों द्वारा अपना मूल वैदिकधर्म त्यागनें के तत्काल बाद का है।⤵️

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।

हम सनातनियों ने स्वयम् अपना धर्म, कर्म, नित्य- नैमित्तिक क्रियाएँ/ कर्मकाण्ड,संस्कृति,  भाषा, भुषा  सब त्याग दिया है।और स्वयम् को हिन्दू मानने लगे है।
हिन्दू का पारसी भाषा में अर्थ  काला- कलुटा, दास, दस्यु, लुटेरा,चोर, सेंधमार,और बलात्कारी के अर्थ में दी जाने वाली गाली है।और हम सचमुच ही उत्तरोत्तर उसी अर्थ में हिन्दू बनने लगे। बल्कि कह सकते है बन ही गये।

आज प्रायः धर्मोपदेशक तो बचे ही नही।बस कथावाचक ही सन्त और आचार्य कहाने लगे हैं। कोई भी धर्मोपदेशक या कथावाचक अपने वाचिक और आचरण से समाज को नित्य प्रातः - संध्या;  पञ्च महायज्ञ करना, अष्टाङ्ग योगाभ्यास करना, माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करना, सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा करना नही सिखाता।
अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना,गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म तो वे स्वयम ही नही करते तो सिखाये कैसे! नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का उपदेश नही देते है। 

बल्कि, वे  अपने सम्प्रदाय का परम्पराएँ निर्वहन की ,नित्य प्रातः सायंकाल मन्दिर जाने का, रामचरितमानस पाठ का, भागवत पुराण कथा श्रवण का या शिव पुराण या दुर्गा सप्तशती पाठ  का उपदेश देते हैं।तथा राम  राम या जय सीताराम और राधे राधे या राधेकृष्ण, या जय शिव शम्भो  या जय माताजी या जय गजानन बोल कर अभिवादन करना सिखाते हैं। उनकी दृष्टि से यही धर्म है।
मतलब उनकी दृष्टि से वैदिक ऋषि और उनका ज्ञानोपदेश अप्रासंगिक है या अप्रासंगिक हो गया है।

वे अपने सम्प्रदाय/ मठ/पन्थ के मन्दिरों में और मठाधीशों/  महन्तों को दान देना, और सम्प्रदाय/ पन्थ के पन्थियों में ही आपसी एकता का  उपदेश देते है।उनका समुदाय बस उनका पन्थ है; सनातनधर्म नही।
यही कार्य वे सोशल मिडिया के माध्यम से करने लगे हैं। और अब तो किसी राजनीतिक दल का या नेता का प्रचार करना ही उनका अपना कर्त्तत्व मानने लगे हैं।
यही हाल परिवारों के मुखियाओं का भी  है।वे परिवार में  बच्चों को नित्य प्रातः - संध्या; माता-पिता, बुजुर्गो, अतिथियों को प्रणाम करनानही सिखाते।
सत्य भाषण, सदाचरण, अविरत ॐ का मांसिक जप पुर्वक हरिस्मरण और निरन्तर जगत सेवा, अष्टाङ्ग योग साधना, नित्य सुबह शाम सन्ध्योपासना, गायत्रीमंत्र जप, ॐ का ध्यान पुर्वक जप कर ॐकार उपासना,वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञ , बलिवैश्वदेव कर्म स्वयम् नही करते तो सिखाने का सोच ही नही सकते।
नगर / ग्राम, मोहल्ला, कालोनी के स्तर पर ही सामुहिक रुप से सभी उत्सव (त्यौहार) मनाने और वर्णाश्रम धर्म पालन का संस्कार स्वयम् भूल चुके हैं तो बच्चों को कहाँ से सिखाये?

वे पारिवार में एकता की ही सीख भी नही दे सकते। क्यों कि, वे स्वयम् कभी भाई बहनों में एकता नही रख पाये, एकल परिवार बना कर ही रहे। माता- पिता के आज्ञाकारी रहना,उनकी सेवा सुश्रुषा करना उनने सीखा ही नही तो शिक्षा कैसे दें? और शिक्षा दें भी तो उसका असर कैसे हो?

आजकल लोग जाति प्रथा वाली जाति कै अपना समाज कहते हैं। उस स्वजाति में बल्कि उपजाति में ही एकता अवश्य चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर।
विवाह में, सुरज पुजा, जन्मदिन में और मृत्युभोज  में जातिगत परम्परा निर्वहन करना,जाति/ समाजवालों को आमन्त्रित करना, दिखावे में अपव्यय करने में शान समझते है।
मन्दिर जाने,मान- मन्नत लेकर सकामोपासना करना,और मान पुरी नही करने पर देवता रुष्ठ होजायेंगे ऐसा सावधान करते हैं क्योंकि, उनके मतानुसार कर्मफल सिद्धान्त औचित्य हीन होगया है। वे मठाधीशों/  महन्तों को ही दान देने का संस्कार देते हैं।
अब तो ज्यादातर परिवार इंग्लिश बोलना, इंग्लिश कल्चर, केरियर ओरिएंटेड डिग्री लेकर व्हाइट कॉलर , रुतबे वाला, आराम वाला जॉब करने तथा खुब धनार्जन कर ऐशपुर्वक जीवन - यापन करना ही सिखाने लगे हैं। परिवार ही  मिथ्याभाषण, रिश्वतखोरी , ओछापन, चापलूसी के संस्कार भी देने लगे हैं।

राजनैतिक नेताओं और राजनीतिक दलों से तो धर्माचरण की आशा ही नही की जा सकती। वे  देश- धर्म के प्रति अपना  कोई कर्त्तव्य नही मानते।
नेता लोग सत्ता प्राप्ति के लिये और सम्प्रदायों/ पन्थों , जाति/समाजों से समर्थन प्राप्त करने के लिये राजनेता भण्डारे करवाने, मन्दिर बनवाने जैसे हथकण्डों को वे धार्मिकता कहते हैं।
सनातन धर्म और राष्ट्रधर्म का तो कोई नाम लेवा ही नही बचा। धर्म तो आचरण से पुष्ट होता है। धर्यम को खतरा तब होता है जब हम धर्माचरण त्याग अधर्म को धर्म का चोला ओढ़ाकर स्वयम् को धार्मिक बतलाने लगते हैं।
आज धर्म वास्तव में खतरे में है।और हल हमारे ही आचरण सुधार में है।
वेदों की ओर चलने में है। इसे वेदों की ओर लोटना नही वेद की ओर चलना ही कहेंगे। वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं, ब्रह्म की ओर चलने को  ब्रह्मश्चर्य कहते हैं।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

सायन सौर राशिनक्षत्रों के नवीन नामकरण होना चाहिए।वृतोत्सव को सायन सौर गणना से जोड़ना आवश्यक है।

भूमि जिस पथ पर सुर्य की परीक्रमा करती है उसे क्रान्तिवृत्त कहते हैं।सुर्य को केन्द्र मानकर भूमध्य रेखा के समान आकाश मध्यरेखा कल्पित की गई है।सुर्य के आसपास इस रेखा से बननेवाले वृत्त को विषुव वृत्त  कहते है। विषुव वृत्त को क्रान्ति वृत्त दो स्थानों पर 23°26'07"79"' का कोण बनाते हुए काटता है।
किन्तु भूमि की परिक्रमा विषुव वृत्त के ठीक उसी बिन्दु पर समाप्त नही होती जहाँ से आरम्भ हुई थी बल्कि उस बिन्दु से 00°50'12' से 00°50'18" पहले अर्थात पश्चिम में या  पीछे जाकर पुर्ण करती है। 00°50'12' से 00°50'18" के बीच की औसत गति अयनांश गति कहलाती है।इस गति से पिछड़ते हुए 22 मार्च 285 से  1734 वर्ष बाद  20/21 मार्च 2019 को 24°07'16" खिसक चुका है।यही अयनांश कहलाता है। 2435 ई. में पुरा 30° यानी एक राशि के बराबर खिसक जायेगा।अर्थात अयनांश 30° हो जायेगा।
क्रान्तिवृत्त के इन दोनो क्रास बिन्दुओं के लगभग नौ- नौ अंश (09° - 09°) उत्तर दक्षिण  में नक्षत्र पट्टिका का विस्तार है। इसी नक्षत्र पट्टिका में उत्तर दक्षिण क्रान्ति करते हुए चन्द्रमा, भूमि और ग्रह सुर्य की परिक्रमा करते हैं।सुर्यकेन्द्रिय स्पष्ट ग्रह साधन से किसी विशेष समय पर ग्रहों की स्थिति/ पोजीशन ज्ञात की जा सकती है।और इसे सापैक्ष में भूमि से देखने पर भूमि की परिक्रमा करते हुए आभास होता है। जिसकी गणना भूकेन्द्रीय स्पष्ट ग्रह साधन कहलाता है।
जब गणना इस नक्षत्र पट्टिका के सापैक्ष में की जाती है तब नाक्षत्रीय पद्यति या निरयन पद्यति से गणना या सेडरल सिस्टम से गणना करना कहते हैं।
जब विषुव वृत्त के सापैक्ष में गणना की जाती है तब इसे सायन पद्यति से गणना या ट्रॉपिकल सिस्टम से गणना कहते हैं।
तैत्तरीय संहिता के अनुसार श्रष्टि के आरम्भ में चित्रा तारा आकाश के मध्य में था। अतः तत्कालीन समय में चित्रा तारे से 180 ° पर स्थिति रेवती नक्षत्र का योग तारे को नाक्षत्रीय पद्यति का आरम्भ बिन्दु माना गया। इसे निरयन मेषादि बिन्दु कहते हैं किन्तु वर्तमान में वहाँ कोई तारा स्थित नही है। यहीँ से प्रथम नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र और प्रथम राशि  निरयन मेष राशि का आरम्भ होता है। नक्षत्र पट्टिका वृत्त में 13°20' के 27 नक्षत्रों की आकृतियाँ कल्पित की गयी है।और 30°-30° की बारह राशियों की आकृतियाँ कल्पित की गयी है। इन्हे ही नक्षत्र और राशियाँ कहते हैं।
ताराओं की गति अति मन्द होती है।  22 मार्च 285 ई. से 20 /21 मार्च 2019 तक 1734 वर्ष में चित्रा तारा 00°01'01" खिसका है।मघा तारा की गति भी मन्द है किन्तु रेवती तारा समुह के तारों की गति तुलनात्मक काफी तेज है।झीटा पिशियम तारा 04° से भी अधिक खिसक चुका है।
भारतशासन केनेश्नल अल्मनाक युनिट जिसे आजकल पोजिश्नल एस्ट्रोनॉमी सेण्टर कहते हैं इस संस्थान के संस्थापक ऑफिसर इन चार्ज और भारत शासन की पञ्चाङ्ग रिफार्म कमेटी के संस्थापक सचिव और अन्तराष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमीकल युनिट पेरिस के भू.पु. सदस्य और प.बंगाल शासन के स्टेट अल्मनाक कमिटी के संस्थापक सदस्य स्व. निर्मलचन्द्र लाहिरी ने चित्रा के इस क्षरण ( खिसकने/ गति) की गणना कर इस आधार पर लाहिरी अयनांश बनाया।तदनुसार 22मार्च 285 ई. को चित्रा तारा का निरयन भोग 180°00'03" था।
किन्तु  1956 ई. से भारत शासन द्वारा पञ्चाङ्ग रिफार्म कमिटी के निर्णयानुसार 21 मार्च 1956 ई. को   चित्रापक्षीय अयनांश 23°15'00" मानकर प्रकाशित राष्ट्रीय अल्मनाक और पञ्चाङ्ग रिफार्म कमिटी की पारित रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित पञ्चाङ्ग का अयनांश  भी  लाहिरी अयनांश से 5.8" यानि 05"48"' कम है। हालाँकि1985 ई. में भारत शासन ने भी इण्डियन एस्ट्रोनॉमीकल इफेमेरिज में 0.658" का सुधार किया है।
फिर भी कहा जा सकता है कि सबसे शुद्ध पञ्चाङ्ग लाहिरी की इण्डियन इफेमेरिज ही है। दुसरे नम्बर पर चित्रापक्षिय केतकी पञ्चाङ्ग यथा उज्जैन के अक्षांश देशान्तर पर तैयार सिद्धविजय पञ्चाङ्ग, काशी के अक्षांश देशान्तर पर आधारित वाराणसी से प्रकाशित चिन्ताहरण पञ्चाङ्ग और चिन्तामणि पञ्चाङ्ग और महाराष्ट्र का कालनिर्णय पञ्चाङ्ग केलेण्डर आदि  और  भारतीय राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग शुद्ध है। तीसरे नम्बर पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित सुर्यसिद्धान्त आधारित विश्वविजय पञ्चाङ्ग है।
नाक्षत्रीय पद्यति में ग्रहचार चुँकि फिक्स झाडिक / नक्षत्र पट्टिका में होता है और नक्षत्र पट्टिका में ताराओं के समुह से निर्मित रेखिक आकृतियाँ कल्पित कर उनका नामकरण नक्षत्रों और राशियों के रुप में कर लिया गया है। ताराओं की अत्यल्प गति के कारण लाखों करोड़ो वर्षों में इन कल्पित आकृतियों में बहुत फेर बदल नही हुआ और नही होगा अतः नक्षत्रीय/ निरयन राशि नक्षत्रों के नाम सार्थक हैं।
किन्तु सायन पद्यति में सायन मेषादि बिन्दु प्रति वर्ष लगभग 50°12' से 50°18' की विलोम गति से विषुववृत्त में पीछे खिसकता रहता है अस्तु सायन गणना का आरम्भ आकाश के किसी निश्चित तारा समुह से  नही होता।और 22 मार्च 285 ई.के राशियों के तारा समुह और उनसे बनी आकृतियों की तुलना में  वर्तमान  के  राशियों के तारा समुह और उनसे बनी आकृतियों में बहुत अन्तर हो गया है।क्योंकि, सायन मेषादि बिन्दु 24° 07'16" पीछे पश्चिम में खिसक चुका है। अब स्थिति यह है कि, सायन में  जिसे मेष राशि कहते हैं उसमें तारा सममुह की आकृती मीन राशि की है।सायन सिंह की आकृति कर्क के समान होगयी है।और 2435 ई. में पुरा 30° यानी एक राशि के बराबर खिसक जायेगा। तब सायन मेष राशि और निरयन वृष राशि के तारा समुह में होगी। तब सायन राशि के नाम पुर्णतः  बेमतलब हो जायेंगे।
अतः सायन राशियों के नामों को  निरयन राशियों के ही नाम रख लेने का निर्णय गलत था।
वह केवल  22 मार्च 285 ई. को ही सही था जिस दिन सायन निरयन सौर मेष संक्रान्ति साथ साथ हुई थी। उस समय अयनांश शुन्य था।
अतः सायन राशियों के नामकरण नये सिरे से करना आवश्यक है।
संस्कृत हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला, तमिल , मलयालम जैसी भारतीय भाषाओं में चाहे तो यजुर्वेदीय मासों के नाम पर मेष का मधु, वृष का माधव आदि नामकरण कर सकते हैं या ऋग्वैदिक मास नाम पवित्र आदि से नामकरण कर सकते हैं।सभी भाषाओं में आज भी राशियों के नाम अलग अलग ही है अतः युनिवर्सल का चक्कर छोड़ कर  भारतीय भाषाओं में तो उक्त नाम कर ही सकते हैं।
साथ ही सायन नक्षत्रों के भी नामकरण करना चाहिए। ताकि संहिता ज्योतिष में उल्लेखित मोसम विज्ञान का सायन पद्यति के नक्षत्रों सें सम्बन्ध जोड़कर सही भविष्य कथन हो सके।
उल्लेखनीय है कि ,  अयन,तोयन, ऋतु / मोसम, दिनमान/ दिन छोटे- बड़े होना, सुर्योदयास्त आदि सायन पद्यति से ही चलती है।जबकि चलते चलते भी रात्रि में चन्द्रमा या किसी भी ग्रह को किसी तारासमुह / नक्षत्र / राशि में देखकर बतला सकते हैं कि, चन्द्रमा या अमुक ग्रह किस निरयन राशि नक्षत्र में चल रहा है।दोनो पद्यतियों का अलग-अलग उपयोग और महत्व है।
सायन नक्षत्रों में सुर्य की स्थिति की ये अवधि या दिनांक  लाखों करोड़ों वर्ष पहले से यथावत रहते हुए आगे भी लाखों करोड़ों वर्ष तक यथावत जारी रहेगी। जबकी नाक्षत्रीय पद्यति के राशि नक्षत्रों में सुर्य का भ्रमण में लगभग हर 71 वर्ष में एक दिन / तारीख पीछे होती जायेगी। जैसे विवेकानन्द जी के जन्म समय निरयन मकर संक्रान्ति 12 जनवरी को पड़ती थी जो आजकल 14/15 जनवरी को आती है।जलियांवाला बाग हत्याकांड  के समय वैशाखी 13 अप्रेल को पड़ती थी जबकि अब 14 अप्रेल को आती है।
तदनुसार निरयन सौर संस्कृत शक संवत के चैत्र वैशाखादि मास और उनपर आधारित वृतोत्सव भी मोसम से असम्बद्ध हो जायेंगे।  22 मार्च  285 ई. से 20/21 मार्च 2019 तक लगभग 1734 वर्षों में अभी तो 24 दिन का अन्तर पड़ा है। लगभग तेरह हजार वर्षों में छः माह का अन्तर हो जायेगा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वसन्तारम्भ में और गुड़ी पँड़वा और रामनवमी वर्षान्त में आने लगेगी। आषाढ़ में पड़ने वाला कोकिला वृत ठण्ड में आयेगा। होली बरसात में जलाना पड़ेगी।
अन्ततः वेदों की ओर लोटना ही पड़ेगा। और सायन सौर संवत और मधु- माधव  मास को फिरसे अपनाना पड़ेगा। तब सातवाहनों और कुषाणों द्वारा चीन के
उन्नीस वर्षिय चक्र वाले  निरयन  सौर  संस्कृत केलेण्डर पर आधारित  शक  संवत वाले केलेण्डर पर गर्व करने वालों की स्थिति क्या होगी  विचार करें।
यदि राशियों के समान  नक्षत्रों के नाक्षत्रीय नाम ही सायन पद्यति में अपना कर सायन नक्षत्रों का वर्षा से सम्बन्ध का उदाहरण प्रस्तुत है।

21 मार्च से 03 अप्रेल तक सायन अश्विनी।
03 अप्रेल से 16 अप्रेल तक सायन भरणी
17 अप्रेल से 30 अप्रेल तक सायन कृतिका
01 मई से 14 मई तक सायन रोहिणी
15 मई से 28 मई तक सायन मृगशिर्ष
28 मई से 11 जून तक सायन आर्द्रा
12 जून से 25 जून तक सायन पुनर्वसु
26 जून से 09 जुलाई तक सायन पुष्य
09 जुलाई से 23 जुलाई तक सायन आश्लेषा
23 जुलाई से 05 अगस्त तक सायन मघा
06 अगस्त से 19 अगस्त तक सायन पुर्वा फाल्गुनी
20 अगस्त से 02 सितम्बर तक सायन उत्तराफाल्गुनी
02 सितम्बर से16 सितम्बर तक सायन हस्त
16 सितम्बर से 30 सितम्बर तक सायन चित्रा
01 अक्टोबर से 13 अक्टोबर तक सायन स्वाती।
कृपया मिलान करें और देखें सायन नक्षत्रों की अवधि में मोसम कितना सटीक बैठता है।
01 मई से 14 मई के बीच रोहिणी की गर्मी भी सही बैठती है।     
मालवा में लगभग 06 जून से 15 अक्टोबर तक वर्षा होती है।  28 मई से 12 जूनके बीच आर्द्रा में प्रि मानसुन वर्षारम्भ।  13 से 15 जून के बीच सायन आर्द्रा और पुनर्वसु संधि में मानसून आगमन ।
01 अक्टोबर से 13 अक्टोबर तक मोतियों की वर्षा वाला स्वाती की   नक्षत्र भी सटीक बैठता है।

उत्सवों में भी देखें -
26 जून से 09 जुलाई पुष्य नक्षत्र जिसका स्वामी देवगुरु बृहस्पति है उसमें गुरु पुजा होना कितना सटीक है।
09 जुलाई से 23 जुलाई तक आश्लेषा जिसका स्वामी सर्प है में नाग पुजा कितना सही बैठ रहा है।

शक संवत के चैत्र वैशाखादि माहों की तिथियों में अवधि नही बतलाई जा सकती। क्यों कि सौर गणना और चान्द्र गणना का तालमेल 19 वर्षों में जाकर बैठता है।निरयन राशि/नक्षत्रों के दिनांक भी लगभग 71 वर्षों में एक दिन बाद आरम्भ होंगे।अतः दिनांक भी पुर्ण रुपेण निश्चित नही कहे जा सकते किन्तु लगभग एक शताब्दी तक तो काम आ ही जायेंगे।
पुनः तुलना करें -
निरयन/ नाक्षत्रीय पद्यति से नक्षत्रों की अवधि-
नक्षत्र का नाम दिनांक से दिनांक तक

अश्विनी 14 अप्रेल से 28 अप्रेल तक।
भरणी 28 अप्रेल से 11 मई तक।
कृतिका 12 मई से 25 मई तक।
रोहिणी 25 मई से 08 जून तक।
मृगशिर्ष 08 जून से 22 जून तक।
आर्द्रा 22 जून से 06 जुलाई तक।
पुनर्वसु 06 जुलाई से 20 जुलाई तक।
पुष्य 20 जुलाई से 03 अगस्त तक।
आश्लेषा 03 अगस्त से17 अगस्त तक।
मघा 17 अगस्त से 31अगस्त तक।
पुर्वाफाल्गुनि 31अगस्त से 13 सितम्बर तक।
उत्तराफाल्गुनि  14  सितम्बर से 27 सितम्बर तक।
हस्त  27 सितम्बर से 11 अक्टोबर तक।
चित्रा 11 अक्टोबर से 24  अक्टोबर तक।
स्वाती 24  अक्टोबर से 06 नवम्बर तक।
निरयन नक्षत्रों से ऋतुओं/ मोसम को सम्बद्ध नही किया जा सकता।और वृतोत्सव सभी ऋतुओं /मोसम से जुड़े हुए हैं।यथा बरसात में न होली मना सकते हैं न दीवाली के दिये लगा सकते है।
सावन के झुले ग्रीष्म ऋतु में आनन्द नही देंगे न शिशिर ऋतु/ ठण्ड में।
अतः सायन सौर गणना से वृतोत्सव जोड़ना ही होंगे।
पहले कुछ वर्षों तक वाराणसी के बापुशास्त्री सायन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग का प्रकाशन करते थे। पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टका एकाष्टका (साढ़े सप्तमी) वाले वृतोत्सव को ऋतुओं/ मोसम से जोड़ने का वह प्रयोग भी अच्छा था।पर प्रचार के अभाव में और शास्त्रज्ञान के अभाव में रुड़ियों में जकड़ी जनता को समझना भी बहुत कठिन है। अस्तु असफल हो गये।
समय बलवान है।जब समय आयेगा तो जनता को भी समझना ही पड़ेगा।
शेष हरिइच्छा।

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त की अगली कड़ी विष्णु पुराण से प्रजापति की सन्तान प्रजापतियों, अग्नि, पितर,रुद्र एवम् स्वायम्भुव मनु का मानव वंश वर्णन

विष्णु पुराण ही क्यों?

क्यों कि, वेदिक प्रवृत्ति मार्गी वैष्णव जन इसे वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना मानते हुए प्रथम पुराण मानते हैं।

वेदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त से आगे का वर्णन वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना और प्रथम पुराण विष्णु पुराण से मानव सृष्टि/ मानव वंश का वर्णन --
( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान ) स्वायम्भुव मनु को उनकी पत्नी ( प्रजापति ब्रह्माजी की मानस सन्तान )शतरुपा से उत्तानपाद और प्रियव्रत दो पुत्र और प्रसूति और आकूति नामक दो कन्याएँ उत्पन्न हुई ।
उत्तानपाद की पत्नी सुनीति से ध्रुव, और सुरुचि से उत्तम का जन्म हुआ।
ध्रुव के दो पुत्र शिष्टि और भव्य हुए।
भव्य से   शम्भु हुए ।
शिष्टि की पत्नी सुच्छाया से रिपु, रिपुञ्जय,विप्र, वृकल और वृकतेजा हुए।
रिपु की पत्नी वृहती से चाक्षुष हुए।
वरुण कुल में वीरण प्रजापति की पुत्री पुष्करणी से चाक्षुष के घर छटे मन्वन्तर के मनु चाक्षुष मनु का जन्म हुआ।
चाक्षुष मनु को वैराज प्रजापति की पुत्री नड़वला से कुरु, पुरु, शतधुम्न, तपस्वी,सत्यवान, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र, सुधुम्न, और अभिमन्यु नामक पुत्र हुए।
कुरु की पत्नी आग्नैयी से अङ्ग, सुमना, ख्याति, अङ्गिरा, और शिबि नामक पुत्र हुए।
अङ्ग की पत्नी (मृत्यु की प्रथम पुत्री )सुनीथा से वैन का जन्म हुआ।
वेन की  उरु (यानि जांघ) के मन्थन से ( विन्ध्याचल के आदिवासी) निषाद राज जन्मे । और वैन की दाहिनी भुजा के मन्थन से वैन्य पृथु उत्पन्न हुए।
पृथु से अन्तर्धान और वादी जन्मे। अन्तर्धान की पत्नी शिखण्डनी से हविर्धान का जन्म हुआ।
हविर्धान की पत्नी (अग्नि कुल की ) घीषणी से प्राचीनबर्हि, शुक्र,गय,कृष्ण, बृज और अजिन नामक पुत्र जन्मे।
प्रजापति प्राचीनबर्हि की पत्नी (समुद्र पुत्री) सुवर्णा से दस प्रचेताओं का जन्म हुआ ।
प्रचेता गण के यहाँ (गोमती तट वासी कण्डु ऋषि और प्रम्लोचा अप्सरा की सन्तान वृक्षों द्वारा पालित पुत्री) मारिषा  से दक्ष द्वितीय  का जन्म हुआ।
( वरुण वंशजा,चाक्षुष मनु के श्वसुर वीरण प्रजापति की पुत्री ) असिन्की से दक्ष (द्वितीय) प्रजापति के घर साठ कन्याएँ जन्मी जिनमे  सती (शंकर जी पहली पत्नी ) हुई
उल्लेखनीय है कि,  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष प्रथम की पत्नी प्रसुति ( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री थी उस प्रसूति )  से  चौवीस कन्याएँ जन्मी थी।
इस प्रकार दोनो दक्ष में पिढियों का अन्तर है।
स्वायम्भुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत की पत्नी ( जो कर्दम पुत्री थी ) उससे सम्राट और कुक्षि (दो) पुत्रियाँ और (दस पुत्र) आग्नीध्र, अग्निबाहु, वपुष्मान, द्युतिमान, मेघा, मेघातिथि,भव्य,सवन,पुत्र , ज्योतिष्मान।मेघा, अग्निबाहु और पुत्र निवृत्तिपरायण हो गये।
आग्नीन्ध्र को जम्मुद्वीप, मेघातिथि को प्लक्षद्वीप, वपुष्मान को शाल्मलद्वीप, ज्योतिष्मान को कुशद्वीप, भव्य को शाकद्वीप, सवन को पुष्करद्वीप,।
आग्नीन्ध्र ने नाभि ( जिन्हे अजनाभ भी कहते है उन नाभि को कोहिमवर्ष या  (अजनाभ वर्ष )  यानि भारतवर्ष का राज्य दिया।
किम्पुरुष को हेमकुटवर्ष।
हरिवर्ष को नैषधवर्ष ।
इलावृत को लावृतवर्ष दिया (जिसके मध्य मे मेरुपर्वत है।)
रम्य को नीलाचल से लगाहुआ वर्ष।
हिरण्यवान को श्वेतवर्ष (रम्य के देश से उत्तर में)।
कुरु को श्रृंगवान पर्वत के उत्तर का देश ।
भद्राश्व को मेरु के पुर्व का देश।
केतुमाल को गन्धमादन पर्वत का देश का राज्य दिया।
सप्त द्वीपों का बटवारा सात पुत्रों में कर आग्नीन्ध्र शालग्राम में तप करने गये।उनके पुत्र नाभि हिमवर्ष (भारतवर्ष) के राजा हुए।

नाभि की पत्नी मेरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म हुआ।ये वेदिक ऋषि भी हैं। (ऋग्वेद में) इनका सुक्त भी है जो अहिंसा सुक्त कहलाता है।
त्रषभदेव से भरत हुए  जोभरत/चक्रवर्ती सम्राट कहलाये और बाद में  जड़भरत के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। हिम वर्ष का नाम भारतवर्ष इनके नाम पर ही पड़ा।

भरत को उत्तराधिकार सोप ऋषभदेव पुलहाश्रम में वानप्रस्थ तप करने चले गये।जहाँ सन्यास लेकर दिगम्बर ( निर्वस्त्र/ पुर्ण नग्न हो कर घुमने लगे।
इस कारण कालान्तर में जैन सम्प्रदाय ने ऋषभदेव को अपना आद्य तिर्थंकर घोषित कर दिया।

उत्तानपाद शाखा वाले वेदिक संहिताओं और  ईशावास्योपनिषद पर आधारित ब्राह्मण धर्म , यज्ञ, पञ्चमहायज्ञादि  , बुद्धियोग ( निष्काम कर्मयोग) और अष्टांग योग ,और ऋते ज्ञानान मुक्ति और सर्व खल्विदं ब्रह्म और  पर आधारित ब्राह्मण धर्म पालन करते धे।
ये तीन आश्रम ब्रह्मश्चर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के सफलतापूर्वक निर्वहन के पश्चात संन्यस्थ जीवन जीते थे। पर यज्ञ और वस्त्र  का त्याग नही करते थे।
श्रोत्रिय धर्म पालक ब्रह्मर्षि कालान्तर में ये प्रवृत्ति मार्ग कहलाया और ये वैष्णव कहलाये।

जबकि प्रियव्रत शाखा ब्राह्मण ग्रन्थों  पर आधारित राजधर्म / क्षात्र धर्म ,अष्टांग योग, हटयोग, उग्र तप, और ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम अध्याय आरण्यकों और  उपनिषदों पर आधारित ज्ञान मिमान्सा पर आधारित धर्म आचरण कर आयु के अन्तिम पड़ाव पर सन्यास ग्रहण कर नगर के बाहर उन्मुक्त विचरण करते थे।कालान्तर में ये राजर्षी गण निवृत्ति मार्ग , योगी,यति, तपस्वी,सन्यासी और कहलाये और शैव कहलाये।

प्रजापति ब्रह्मा जी की मानस सन्तान
1 दक्ष ( प्रथम)  और उनकी पत्नी प्रसुति ।( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री भी कही गई है)
2 रुचि प्रजापति और उनकी पत्नी आकूति। ( जो स्वायम्भुव मनु की पुत्री भी कही गई है)
3 स्वायम्भुव मनु । और उनकी पत्नी
4 शतरुपा।

दक्ष प्रजापति ( प्रथम) की पत्नी (स्वायंभुव मनु की पुत्री) प्रसूति से चौवीस कन्याएँ हुई।
1 श्रद्धा 2 चला/चंचला (लक्ष्मी) 3धृति 4तुष्टि 5 मेधा 6 पुष्टि 7 क्रिया 8 बुद्धि 9 लज्जा 10 वपु 11 शान्ति 12 सिद्धि 13 कीर्ति इन तेरहों दक्ष कन्याओं का विवाह ब्रह्माजी के मानस पुत्र धर्म से हुआ।
धर्म की पत्नियों (दक्ष पुत्रियों) की सन्तान-
1 श्रद्धा से काम।काम की पत्नी   रति से हर्ष हुआ ।
2 चला ( लक्ष्मी) से दर्प।
3 धृति से नियम।
4 तुष्टि से सन्तोष।
5 पुष्टि से लोभ।
6 मेधा से श्रुत।
7 क्रिया से दण्ड, नय और विनय।
8 बुद्धि से बोध।
9 लज्जा से विनय।
10 वपु से व्यवसाय।
11 शान्ति से क्षेम।
12 सिद्धि से सुख।
13 कीर्ति से यश हुआ।

[ नोट- प्रसंगवश अधर्म कज वंश का वर्णन -
अधर्म की पत्नी हिन्सा है।
अधर्म - हिन्सा से -अनृत (मिथ्या/ झूठ) नामक पुत्र और निकृति नामक पुत्री हुई।
अनृत की जुड़वाँ सन्तान - भय और उसकी पत्नी माया हुए मामा की सन्तान मृत्यु नामक पुत्र हुआ।
मृत्यु पत्नी व्याधि, जरा,शोक, तृष्णा। सभी का न विवाह हुआ न सन्तान हुई।
  अधर्म - हिन्सा से दुसरी ( युग्म/जुड़वाँ) सन्तान नरक और उसकी पत्नी वेदना हुए। रोरव नरक की पत्नी  वेदना की सन्तान दुख हुआ।]

14 ख्याति  (का विवाह भ्रगु से हुआ जो प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे)।
भ्रगु -ख्याति से लक्ष्मी जन्मी जिनका विवाह विष्णुजी से हुआ। भ्रगु -ख्याति से  दो पुत्र भी हुए धाता (धातृ) और विधाता।

धाता का विवाह  (मेरु की पुत्री) आयति  से हुआ।
विधाता का विवाह (मेरु की ही दुसरी पुत्री) नियति से  हुआ।

धाता-आयति से प्राण उत्पन्न हुए।
प्राण से द्युतिमान हुए।द्युतिमान से राजवान हुए।

विधाता- नियति से मृकण्डु हुए।मृकण्डु से मार्कण्डेय।मार्कण्डेय से वेदशिरा हुए।

15 सती  का विवाह रुद्र से हुआ जो प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान थे।
रुद्र जन्मते ही  रोने लगे और इधर उधर दोड़ने लगे।ब्रह्माजी ने उनके रोने का कारण पुछा तो रुद्र ने कहा मेरा नाम रख दो ।रोने के कारण ब्रह्माजी ने उनका नाम रुद्र रखा।
रुद्र बाद में फिरसे सात बार और रोये तो हर बार रोने पर ब्रह्माजी ने उनके सात नाम और रखे।  1 रुद्र के अलावा 2 भव  3 शर्व 4 ईशान ,5 पशुपति, 6 भीम, 7 उग्र और 8 महादेव नाम से पुकारा।और उनके स्थान नियत किये जो रुद्र की अष्टमूर्ति  कहलाई ।

1रुद्र का स्थान / मुर्ति सुर्य और उनकी पत्नी सुवर्चला उषा ।जिनके पुत्र शनि हुए।

2 भव का स्थान / मुर्ति  जल और उनकी पत्नी विकेशी ।और उनके पुत्र शुक्र हुए।

3 शर्व का स्थान / मुर्ति पृथिवी और उनकी पत्नी अपरा ।और उनके पुत्र लोहिताङ्ग (मंगल) हुए।

4 ईशान    का स्थान / मुर्ति वायु और उनकी पत्नी शिवा ।और उनके पुत्र मनोजव ( सम्भवतया हनुमानजी) हुए।

5 पशुपति  का स्थान / मुर्ति  अग्नि और उनकी पत्नी स्वाहा। और उनके पुत्र स्कन्द ( कार्तिकेय) हुए।

6 भीम  का स्थान / मुर्ति आकाश और उनकी पत्नी दिशा। और उनके पुत्र सर्ग (स्रष्टि ) हुए।

7 उग्र  का स्थान / मुर्ति  यज्ञ में दीक्षित ब्राह्मण और उनकी पत्नी दीक्षा ।और उनके पुत्र सन्तान  हुए।

8 महादेव  का स्थान / मुर्ति  चन्द्रमा और उनकी पत्नी रोहिणी और उनके पुत्र बुध  हुए। 

ये रुद्र सर्ग कहलाता है।

16 सम्भूति  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  मरीचि से हुआ ।
मरीचि- सम्भूति से पुर्णमास नामक पुत्र हुए।पुर्णमास से विरजा और पर्वत दो पुत्र हुए।

17 स्मृति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  अंगिरा से हुआ ।
अंगिरा-स्मृति से सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामक पुत्रियाँ  हुई, जो अमावस्या के चार प्रकार हैं।

18 प्रीति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  पुलस्य से हुआ ।
पुलस्य- प्रीति से दत्तोलि हुए जो पुर्व जन्म में ( स्वायम्भुव मन्वन्तर में) अगस्त्य कहे जाते थे।

19 क्षमा का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  पुलह से हुआ ।
पुलह- क्षमा से कर्दम, उर्वरीयान् और सहिष्णु नामक तीन पुत्र हुए।

20  सन्तति का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  कृतु से हुआ ।
कृतु - सन्तति से  बालखिल्यादि साठ हजार  ऊर्ध्वरेता मुनि हुए जो अङ्गुष्ठ प्रमाण वाले (अंगुठे के पोरुओं के समान शरीर वाले) थे।

21 अनसूया का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अत्रि से हुआ ।
अत्रि - अनसूया से सोम (चन्द्रमा), दुर्वासा और योगी  दत्तात्रेय हुए।

22 उर्ज्जा  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान  वशिष्ठ से हुआ ।

वशिष्ठ - उर्जा से रज, गौत्र, उर्ध्वबाहु, सवन, अनध,  सुतपा और शुक्र नामक सात पुत्र हुए। ये तीसरे मन्वन्तर में सप्तर्षि हुए।

23  स्वाहा  का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अग्नि से हुआ ।

अग्नि - स्वाहा से पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए।
इन तीनो के पन्द्रह-पन्द्रह पुत्र हुए।
अग्नि + तीन पुत्र + पैतालीस पौत्र सब मिलकर उनचास अग्नि कहलाते हैं

24 स्वधा का विवाह  प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान अनग्निक, अग्निष्वात्ता, साग्निक और बर्हिषद नामक पितरों से हुआ ।
अनग्निक, अग्निष्वात्ता, साग्निक और बर्हिषद नामक पितरो की पत्नी स्वधा से मेना और धारणी दो कन्याएँ हुई। दोनो योगिनी और ब्रह्मवादिनी हुई।

(हिमाचल से मेना की पुत्री पार्वती हुई।)

रुचि प्रजापति और आकूति से  यज्ञ नामक पुत्र और दक्षिणा नामक पुत्री ये दो युगल ( जुड़वाँ) सन्तान हुई।
यज्ञ और दक्षिणा पति -पत्नी हो गये।
यज्ञ की पत्नी दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। जो स्वायंभुव मन्वन्तर में याम नामक देवता कहलाये।

नोट -महावीर स्वामी ने सनातन वैदिक परम्परा के ऋषि और जीवन के अन्तिम चरण सन्यास आश्रम में मुनी हुए ऋषभदेव जी को प्रथम तीर्थंकर घोषित कर महावीर स्वामी को चौवीसवाँ  तिर्थंकर घोषित कर इस महायुग की तिर्थङ्कर परम्परा समाप्त घोषित कर यह घोषित कर दिया कि,अगले महायुग में रावण अगला तीर्थंकर  होगा और तिर्थङ्कर परम्परा पुनः आरम्भ होगी।
यह लगभग वैसा ही है जैसे ही दशम गुरु गोविन्द राय जी तक सनातन धर्म भी अपने ही सन्त और गुरु  मानता रहा।
किन्तु गुरु गोविन्द राय ने गुरु गोविन्द सिंह जी कहला कर खालसा पन्थ की स्थापना करने पर उनने गुरु नानकदेव जी को प्रथम गुरु और स्वयम् को अन्तिम गुरु और उनके बाद गुरु ग्रन्थ साहब को आगे सदा के लिये गुरु पद घोषित कर दिया। और खालसा पन्थ स्थापित किया।
इब्राहीमी सम्प्रदाय में भी यहुदियों ने मुसा को ईसाइयों ने ईसा को और इस्लाम ने मोहमद साहब को अन्तिम नबी घोषित कर सिलसिला ए नबुव्वत खत्म होने की घोषणा के साथ ही कयामत के समय कोई मसीहा उतरेगा।जो यहुदियों के अनुसार अभीतक नही हुआ है।ईसाइयों के अनुसार इसा मसीह पुनः.उतरेंगे।
इस्लाम के अनुसार भी ईसा फिरसे उतरेंगे।और मेंहदीआलेसलाम कयामत के समय अन्तिम नबी होंगें।

रविवार, 14 अप्रैल 2019

प्रत्यैक वृत,पर्व, उत्सव के दिन में मतभेद क्यों रहता है।

प्रत्यैक वृत,पर्व, उत्सव के दिन में मतभेद क्यों रहता है।सभी लोग एक ही दिन क्यों नही मनाते हैं?

भारत में धर्मशास्त्र की आँख  सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) है। धर्म ज्योतिष की आँखों से देखता है।धर्म निर्णय में काल निर्धारण हेतु शुद्ध गणना वाली दृग् तुल्य  पञ्चाङ्ग अनिवार्य है। सन 1956 से भारत शासन स्वयम् सनातन धर्मियों के लिये पञ्चाङ्ग प्रकाशित करता है।
इसके अतिरिक्त लाहिरी की इण्डियन इफेमेरिज भी सर्वश्रेष्ठ पञ्चाङ्ग है। इसके बाद व्यंकटेश बापुजी केतकर के सिद्धान्त ज्योतिष के ज्योतिर्गणितम् ,ग्रह गणितम्, वैजयन्ती ग्रन्थों पर आधारित बहुत सी वैध तुल्य  शुद्धसिद्ध केतकी पञ्चाङ्ग काशी / वाराणसी, उज्जैन और महाराष्ट्र के शहरों के अक्षांश देशान्तर के लिये प्रति वर्ष प्रकाशित होती है। जिसमें तिथ्यादि समाप्ति काल, सुर्य चन्द्रादि के राशिनक्षत्र प्रवेशकाल, विभिन्न नगरों में सुर्यचन्द्र ग्रहण,बुध शुक्रादि का पारगमन, युति- प्रतियोगादि दृष्टियोग बनने के समय , विभिन्न नगरों के लग्नारम्भ समय आदि सभी जानकारियाँ भारतीय मानक समय/ स्टेण्डर्ड टाइम में दी जाती है अतः पुरे भारत में समान उपयोगी होती हैं।
ऐसे ही कलेण्डर पञ्चाङ्ग भी उपलब्ध है।
बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से सुर्यसिद्धान्त की गणनाओं में बीज संस्कार देकर बनाई गई पञ्चाङ्ग भी लगभग ठीक है।
पर लोग केवल विज्ञापन देख सुन कर या परम्परगत रुप से देखी सुनी स्थुल गणित वाली ग्रहलाघवी, मकरन्द आदि ग्रन्थों के आधार पर तैयार होने वाली गलत पञ्चाङ्ग ले आते हैं।उसके पञ्चाङ्गकार कितने ही बड़े धर्मशास्त्री हो पर गलत डाटा/ गलत गणना के आधार पर लिये गये निर्णय  अपने आप गलत हो जाते हैं।

सिद्धान्त ज्योतिष ( एस्ट्रोनॉमी)  से गणना कर --

सायन सौर गणना से --
उत्तरायण- दक्षिणयन, उत्तरतोयन - दक्षिण तोयन, ऋतु,सायन सौर संक्रान्ति,सायन सौर मास , व्यतिपात, वैधृतिपात योग, ग्रहों के उदयास्त, उच्च, नीच, ग्रहण, लोप, दर्शन,धुमकेतु दर्शन, सुर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त, वासर आदि ज्ञात करते हैं। और
नाक्षत्रीय गणनाओं से --
निरयन सौर संक्रान्ति , नाक्षत्रीय सौर मास, सौर संस्कृत चान्द्रमास ,पक्ष, और तिथियाँ, नक्षत्र,करण आदि की गणना की जाती है।
उक्त पञ्चाङ्गीय जानकारी/ डाटा सिद्धान्त ज्योतिष (एस्ट्रोनॉमी) ही प्रदान करता है। इसलिए वैध लेने में समर्थ सिद्धान्त  ज्योतिषी और धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने वाले विद्वान ही  अच्छे धर्मशास्त्री माने जाते थे।
मयासुर ने सुर्य सिद्धान्त में और भास्कराचार्य ने सिद्धान्त शिरोमणि में निरन्तर वेध लेते रहकर शोधन, संशोधन करते रहने के स्पष्ट निर्देश दिये है।  तदापि  भास्कराचार्य से गणेश देवज्ञ के बीच आकाशीय अन्वेषणकर  वेध लेना लगभग बन्द सा हो गया। इस कारण सिद्धान्त ज्योतिष ग्रन्थ बनना भी बन्द होगये और सारणियाँ तथा करणग्रन्थ ही बनने लगे।
गणेश देवज्ञ का ग्रहलाघव, करण कौतूहल भी करण ग्रन्थ ही माना जाता है।
ग्रह गणना में अत्यध्कि त्रुटियाँ आगई। जिसे बीज संस्कार देकर कामचलाऊ सुधार किया जाने लगा। आधुनिक वेध के आधार पर व्यंकटेश बापु जी केतकर रचित ग्रहगणितम्, वैजयन्ती ज्योतिष आदि बहुत से सिद्धान्त गणित ग्रन्थों ने बहुत काल पश्चात इस कमी को पुरा किया।
एस्ट्रोनॉमर्स की कमी के चलते ज्योतिष जैसे वैज्ञानिक विषय में भी बाबा वाक्यम् परम प्रमाणम् की परिपाटी चल निकली।
वैदिक काल में
भूमि के उत्तरीगोलार्ध में सुर्य की स्थिति को उत्तरायण कहते थे और दक्षिण गोलार्ध मे रहने को दक्षिणायन कहते थे। सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति तक उत्तरायण और सायन मेष संक्रान्ति तक दक्षिणायन।
तथा भूमि की मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर अर्थात सुर्य की उत्तर की ओर  गति को उत्तर तोयन तथा कर्क रेखा से मकर रेखा तक की ओर सुर्य की दक्षिण की ओर गति को दक्षिण तोयन कहते थे।
सायन मकर संक्रान्ति से सायन कर्क संक्रान्ति तक उत्तर तोयन तथा सायन कर्क संक्रान्ति से सायन मकर संक्रान्ति तक दक्षिण तोयन होता था।

सायन मेष संक्रान्ति (वसन्त विषुव) से संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, मधुमासारम्भ होता था।

सायन मेष और सायन वृष के सुर्य में वसन्त ऋतु रहती थी।आज भी कश्मीर, तिब्बत पामिर और इनके पश्चिम में कश्चप सागर तक का भूभाग जो पहले भारतीय भूभाग थे में इसी समय वसन्त ऋतु होती है।
सायन मेष और सायन वृष के सुर्य में वसन्त ऋतु  ,सायन मिथुन- कर्क में ग्रीष्म ऋतु, सायन सिंह- कन्या में वर्षा ऋतु,सायन तुला वृश्चिक में शरद ऋतु, सायन धनु मकर में हेमन्त ऋतु एवम् सायन कुम्भ- मीन में शिशिर ऋतु होती थी।
नाक्षत्रीय गणनानुसार --
चित्रा तारे को आकाश का मध्य बिन्दु मान कर चित्रा तारे से 180° पर तत्कालीन आकाश में रेवती योगतारा को आकाश का आरम्भ बिन्दु मानकर  से नाक्षत्रीय भ्रचक्र में नक्षत्रीय पट्टी में ग्रहों का भ्रमण  की नाक्षत्रीय गणना यानि निरयन गणना कहते हैं।
नाक्षत्रीय गणनाओं का मिलान  भी वेध लेकर किया जाता था। जिससे डबल क्रास चेकिंग होकर गणना पुर्ण शुद्ध रहती थी।

ऐतिहासिक घटनाओं की मिति/ Date  बतलाने के उद्देश्य से नाक्षत्रीय ग्रह स्थिति और सायन गणना के पात, ग्रहण, लोप आदि की स्थिति का वर्णन कर उसके माध्यम से सटीक काल दर्शाया जाता था।जो कालीदास तक प्रचलित रहा।

वैदिक काल में आर्यावर्त की सीमाएँ पामिर, तिब्बत, तुर्किस्तान से विन्द्याचल तक थी किन्तु दक्षिण भारत में जनसंख्या बहुत कम थी जबसे भारत की सीमा से पामिर तिब्बत हटने लगा और सीमाएँ दक्षिण की ओर बढ़ने लगी तथा दक्षिण में राज्यों मे जनसंख्या घनत्व वृद्धि  और सांस्कृतिक मिलाप  बढ़ने के कारण एवम्  ईरान अफगानिस्तान की ओर से सीमाएँ सिमटते हुए पुर्व में खिसकने लगी तब दक्षिणी भारत में   उत्तरायण में वर्षाऋतु पड़ने से शुभकार्यों संस्कारों के लिये समय कम पड़ने लगा।
अस्तु  सायन मकर संक्रान्ति से सायन कर्क संक्रान्ति तक वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण नाम कर दिया गया। और वैदिक उत्तरायण को उत्तर गोल नाम दे दिया गया। और वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ सायन सौर मीन संक्रान्ति से माना जाने लगा।
अर्थात उत्तरायण तीन माह आगे होगया।और वसन्तादि ऋतुएँ एक माह आगे बढ़ गई। मधु- माधवादि मासों की सायन सौर राशि बदलगई।

तैत्तरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण और अथर्ववेद में स्पष्ट वर्णित व्यवस्था को बदलने के लिये ऋग्वेद का उपवेद लगध का वेदाङ्ग ज्योतिष ग्रन्थ  को आधार माना गया। यह घटना महाभारत काल से पुष्यमित्र शुङ्ग के काल के बीच हुई होगी। इसी कारण पुराणों में इसी आधार पर उत्तर तोयन की अवधि को उत्तरायण लिखा  मिलता हैं।

ऐसे ही पुर्व काल में चान्द्र मासों को निरयन सौर मास से संस्कार कर चान्द्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरुप करने से पुर्णिमा  के दिन   जिस नक्षत्र में चन्द्रमा भ्रमण करता था उसी नक्षत्र के नाम पर  चान्द्र मास के नामकरण किये गये। मा मतलब चन्द्रमा।अतः पुर्णिमा मतलब पुर्ण चन्द्र।
निरयन सौर मास से संस्कार कर चान्द्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरुप करने के समय  पुर्णिमा और पुर्णमास शब्द साम्य के कारण पुर्णिमान्त मास प्रचलित होगये।
चुँकि उत्तर वैदिक काल तक भी  सायन सौर मेष संक्रान्ति से संवत्सरारम्भ होता था अतः कोई समस्या नही पड़ी।
वैदिक काल में सायन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होने वाली वर्ष गणना को उत्तर वैदिक काल के अन्त में आकाश में नक्षत्रों मे सुर्य चन्द्रमा और ग्रहों को  रास्ते में चलते चलते भी देख कर मास, दिन, नक्षत्र देख- समझ सकने की विशेषता वाली नाक्षत्रीय / निरयन पञ्चाङ्ग पद्यति अपना ली गई। जो शक आक्रमण तक अविरत चली और आज भी पञ्जाब, हरियाणा, उड़िसा, बङ्गाल, मणिपुर,तमिलनाड़ु,केरल आदि में प्रचलित है।
किन्तु उत्तर में पेशावर के कुषाण वंशी राजाओं ने मथुरा से और दक्षिण में पैठण के सातवाहन शंशी राजाओं ने अपने अपने राज्य क्षेत्र में चीन की उन्नीस वर्षीय चक्र वाली पद्यति में क्षयमास की पद्यति और जोड़कर तैयार की गई निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर पर आधारित शक संवत   आरम्भ करते समय  अमान्त मास के आधार पर  संवत्सर आरम्भ करने, अधिक मास -  क्षय मास की गणना करने हेतु अमान्त मास ग्राह्य किये गये।
तब पुर्णिमान्त मास मानने वालों को एक नई समस्या आगयी  कि, पञ्चाङ्ग में संवत्स आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होने के कारण चैत्र शुक्ल पक्ष के पन्द्रह दिन संवत के आरम्भ में।और चैत्र कृषण पक्ष के पन्द्रह दिन  वर्ष के अन्त  में आते है।
है ना विचित्र किन्तु सत्य!
आगे चलने की आदत हमारे चरित्र में ही है।इसी का परिणाम शीतला अष्टमी के पर्व को शील सप्तमी के दिन शीतला सप्तमी के रुप में मनाना आरम्भ हो गया।, शिवरात्रि की रात्रि की चार प्रहर की पुजा के बजाय शिवरात्रि के पहली वाली रात्रि में मध्य रात्रि या ब्रह्म मुहुर्त में मन्दिर जाकर शिव पुजा कर आना ; और शिवरात्रि की रात्रि में जागरण उपास करने के बजाय मध्यरात्रि में भोजन कर आराम से सोजाना।इन तथ्यों में यह प्रवृत्ति झलकती है।
धर्म शास्त्र का अध्ययन न करने के कारण भी ऐसी विसंगतियाँ उत्पन्न हुई है।
ध्यान रहे  वार प्रवृत्ति सुर्योदय से सुर्योदय तक होती है।अर्थात वार सुर्योदय से सुर्योदय तक चलता है और सुर्योदय से ही वार बदलता है। जबकि मध्य रात्री 00:00 बजे Day & Date  बदलते हैं।मध्यरात्रि से वार नही बदलता।

और रात्रि भोजन निषिद्ध होने से मध्य रात्रि उपरान्त भोजन करना कराना दोनों ही गलत है।
यही स्थिति एकादशी वृत , उत्सवों के दिन निर्धारण में स्मार्त मत से भिन्न परम्पराओं के निर्वहन के कारण प्रत्यैक वृत, प्रत्यैक उत्सव दो- तीन दिन के अन्तर से मनाये जाने लगे।
शास्त्रज्ञों द्वारा दिये गये शास्त्रीय निर्णयों में मतैक्य रहता है।

पञ्चदेवोपासक स्मार्त जन तो पर्वकाल व्यापी तिथि में व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाते हैं। दो दिन पर्वकाल व्यापी तिथि हो या दोनों दिन पर्वकाल व्यापी तिथि न हो तभी शाकल्य तिथि अर्थात उदिया तिथि जो सूर्योदय पश्चात  दिनमान का दसवाँ भाग तक अर्थात तीन मुहुर्त अर्थात ( लगभग २ घण्टे २४ मिनट) तक हो। या ऐसे ही सूर्यास्त/ मध्याह्न या मध्य रात्रि तक हो ऐसी तिथि मे व्रत करते हैं। इसमें भी दुसरे दिन पारण पर भी ध्यान दिया जाता है।


स्मार्त एकादशी --   एकादशी तिथी में वृत कर द्वादशी में पारण किया जाता है।इसी कारण एकादशी वृत रखने वाले समझदार जन प्रदोष वृत नही रखते। इसमें कोई विवाद नही होता।
किन्तु पौराणिक भागवतो में 56 घटिका वेध  (उत्तर रात्री 04बजकर24 मिनट) , और रामानुजाचार्य एवं स्वामीनारायण सम्प्रदाय,निम्बार्काचार्य एवम् श्रीकृष्ण चेतन्य महाप्रभु (वर्तमान इस्कॉन), मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और रामानन्दाचार्य, रामस्नेही सम्प्रदाय आदि में कोई 55 घटिका वेघ (उत्तर रात्री 04:00 बजे ), कोई 54 घटिका वेध (उत्तर रात्री 03:36 बजे ) , तो कोई 45घटिका वेध (उत्तर रात्री 00:00 बजे ) मानते है।इसमें अनुयायियों के साथ बड़ी असहज स्थिति बनती है।
माना कि किसी समय सोमवार को उत्तर रात्री में दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी तिथि आरम्भ होने/ लगने और   मंगलवार को उदिया एकादशी होकर उत्तर रात्रि में द्वादशी तिथि आरम्भ होने से बुधवार को उदिया तिथि द्वादशी ह माना  कि, सुर्योदय का समय प्रातः 06 बजे मान रहे हैं और सुर्यास्त शाम 18: 00 बजे अर्थात शाम 06:00 बजे। 12 घण्टे का दिन -12 घण्टे की रात्री मानेंगें।
इस उदाहरण से समझते हैं। --

56 घटिका वैध -   सोमवार को उत्तररात्रि 04:24 बजे या उसके बाद दशमी तिथी समाप्त होकर एकादशी तिथि लगे और बुधवार  को उदिया तिथि द्वादशी है तो भी पौराणिक भागवत सम्प्रदाय वाले बुधवार को द्वादशी तिथि में एकादशी का वृत करेंगे!
इसे कहते हैं विचित्र किन्त सत्य। है ना आश्चर्यजनक!

ऐसे ही  जन्माष्टमी और रामनवमी प्रकरण में देखते हैं
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी --
अमान्त श्रावण कृष्णाष्टमी / पुर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं।  स्मार्त जन  पर्वकाल अर्थात मध्य रात्रि में अष्टमी को महत्व देते हैं। जिस दिन मध्यरात्रि में अष्टमी तिथि हो उसी दिन  जन्माष्टमी का वृत एवम् उत्सव  मनाते हैं।
यदि मध्य रात्रि में दो दिन अष्टमी हो या दोनो दिन नही हो तो उदिया तिथि में वृत और उत्सव करते हैं।

यह तो सामान्य है।समझ में आता है।

दुसरा मत  पौराणिक भागवतों का है। वे उदिया अष्टमी  तिथि में ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वृत उपवास करते हैं। चाहे मध्यरात्रि में नवमी तिथि हो।
कुछ लोगों का तर्क है कि,शाक्त सम्प्रदाय में नवरात्रि प्रकरण में सप्तमी युक्त अष्टमी में पुजन निषिद्ध है अतः नवमी युक्त अष्टमी में (उदिया अष्टमी तिथि में) जन्माष्टमी मनाना ही उचित है।

रामानुज पन्थी निरयन सिंह राशि के सुर्य में जिस दिन  सुर्योदय के समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो उस दिन जन्माष्टमी वृत और उत्सव मनाते हैं।
है ना विचित्र किन्तु सत्य।

श्रीरामनवमी --

चैत्र शुक्ल नवमी  तिथि में श्रीराम नवमी पर्वोत्सव  मनाने में स्मार्त जन  पर्वकाल मध्यान्ह काल में नवमी तिथि को महत्व देते हैं। जिस दिन मध्याह्न में नवमी तिथि हो उसी दिन  श्रीराम नवमी का पर्व एवम् उत्सव  मनाते हैं।
यदि  मध्याह्न में नवमी दो दिन हो या दोनो ही दिन नही हो तो उदिया तिथि में वृत और उत्सव करते हैं। यह तो सामान्य है।समझ में आता है।

पर पौराणिक भागवत उदिया नवमी  तिथि में  ही  वृत उत्सव करते हैं। चाहे मध्यान्ह में दशमी तिथि हो। यहाँ वे दशमी युक्त नवमी निषेधाज्ञा का नवरात्रि वाला तर्क त्याग देते हैं।
कुछ लोगों का तर्क है कि,शाक्त सम्प्रदाय में नवरात्रि प्रकरण में  दशमी युक्त नवमी में पुजन निषिद्ध है अतः अष्टमी युक्त नवमी  में (पहली अष्टमी तिथि में) राम नवमी मनाना उचित है। यहाँ उदिया तिथि का आग्रह त्याग दिया।

रामानुज पन्थी निरयन मेष राशि के सुर्य में जिस दिन  सुर्योदय के समय चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में हो उस दिन राम नवमी पर्व और उत्सव मनाते हैं।
है ना विचित्र किन्तु सत्य।

यजुर्वेद पर रावण कृत भाष्य को मुल यजुर्वेद संहिता में गड्डमड्ड करदिये गये  कृष्णयजुर्वेद को दृविड़ वेद के नाम से आदर पुर्वक मान्यता देने वाले दक्षिण भारतीय रामानुजाचार्य की दक्षिण भारतीय परम्परा में  जहाँ  नाक्षत्रीय /  निरयन गणनानुसार सुर्य की राशि और चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर  पर्वोत्सव के दिन निर्धारित किये जाते है।तिथियों के आधार पर दिन निर्धारित नही करते हैं।
इसी परम्परा को श्री कृष्ण चैतन्य (वर्तमान इस्कॉन) सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, कुछ अंशों में वल्लभ सम्प्रदाय वाले भी मानते हैं।
उनके उत्तरभारतीय अनुयायी जो शक संवत के निरयन सौर संस्कृत  चान्द्र मास की तिथियों से वृतोत्सव मनाते हैं । उनने  उदिया तिथी से वृतोत्सव निर्णय की नई खोज करली।वे अलग ही चलते हैं।
पता नही वे लोग श्राद्ध कर्म में मध्यान्ह व्यापी तिथि के स्थान पर उदिया तिथि में करते हों।
विशेषता यह है कि, महाशिवरात्रि पर्व में शिवरात्रि अर्थात चतुर्दशी के  दिन का महत्व नही होकर केवल चतुर्दशी की  रात्रि का ही महत्व है। शिवरात्रि को रात्रि में प्रत्यैक प्रहर में शिव अभिषेक और पुजन होना चाहिए। किन्तु अधिकांश मन्दिर ही मध्यरात्रि में बन्द हो जाते हैं और लोग पारण/ भोजन कर सो जाते हैं।
लोग  शिवरात्रि  के पहले वाली रात्रि में ही शिव पुजन कर आते हैं यहाँ तक कि, उज्जैन का नागचन्द्रेश्वर मन्दिर भी शिवरात्रि के पहले वाली रात्रि में 00:00मध्य रात्रि में खुल जाता है और शिवरात्रि को मध्यरात्रि 00:00 बजे बन्द हो जाता है।

मुहुर्त शास्त्र में भी घाल मेल कर दिया है --
चतुर्थी, अष्टमी,नवमी, और चतुर्दशी, अमावस्या  निषिद्ध / अशुभ तिथियाँ मानी गई है। आश्विन नवरात्रि की भी शुभता नही मानी गयी है। इन तिथियों में शुभ कार्य, संस्कार आदि नही होते।
चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी रिक्ता तिथियाँ है।अष्टमी और अमावस्या भी अशुभ मानी गई है।कही कहीँ द्वादशी तिथि भी त्याज्य है।
पर आजकल भाद्रपद मास में गणेश चतुर्थी, नवरात्रि में अष्टमी और नवमी तथा महाशिवरात्रि में चतुर्दशी तिथि पर कई शुभकार्यों के मुहूर्त बतलाये जा रहे हैं।
कुछ तो गुरुपुष्यामृत योग में विवाह  का मुहूर्त बतलाते हैं जबकि, गुरुपुष्य के दिन विवाह पुर्ण निषिद्ध है।
जब हमें ऐसे उदाहरण बतलाये जाते हैं तो  मौन धारण करना पड़ता है। अब क्या कहें।निन्दा करने और जो व्यक्ति श्रद्धा पुर्वक उक्त गलत मुहूर्त मे कार्य कर चुका उसके मन में शंका उत्पन्नकर उसे भयभीत करने  से मौन ही भला।
निष्कर्ष यह है कि,
1- गलत पञ्चाङ्ग, भारत शासन को तत्काल प्रभाव से इन गलत पञ्चाङ्ग प्रकाशन बन्द कर देना चाहिए।
2 -   और ज्योतिष का ज्ञान रहित पण्डित (गलत या अज्ञानी धर्मशास्त्री और ज्योतिषी),(ऐसे पण्डितों ने स्वविवेक से स्वयम् को समेट लेना चाहिए।फिर अध्यन कर भलैंही वापस कार्यारम्भ करले।)
और3 -  धर्मशास्त्र की तुलना में  साम्प्रदायिक परम्पराओं को वरीयता देना ।

(नोट -- सम्प्रदायों को अपनी गलतियाँ शोधन कर धर्मशास्त्रानुसार सुधार करना ही चाहिए।)
इन तीन कारणों से कोई भी त्यौहार सर्व सम्मति से एक ही दिन नही मन पाते।

बुधवार, 10 अप्रैल 2019

रावण की लंका कहाँ थी? लक्षद्वीप में या सिंहल द्वीप मे?

*लंका की स्थिति*

*जानने का आधार केवल वाल्मीकीय रामायण ही क्यों*--
महर्षि वाल्मीकि जी का निवास अयोध्या के निकट ही होने और उन्हे बहुत काल तक सीता जी का  सानिध्य प्राप्त हुआ इस कारण श्रीरामचन्द्र जी और सीतामाता का प्रमाणिक इतिहास हमे केवल वाल्मीकीय रामायण में ही मिल सकता है ।

श्री राम जी ने लोकोपवाद से बचाव हेतु गर्भवती सीताजी को लक्ष्मण जी के साथ भिजवा कर सीताजी को वाल्मीकि आश्रम में रखा था।जहाँ लव -कुश का बचपन बीता और  लव-कुश का गुरुकुल भी था महर्षि वाल्मीकि का वह आश्रम ही बना जो श्रीराम के राज्यक्षेत्र में और अयोध्या के निकट ही था।
अतः श्रीराम -सीताजी के विषय में किसी एतिहासिक तथ्य की परीक्षा महर्षि वाल्मीकि प्रणीत श्री मद् वाल्मीकीय रामायण से ही प्रमाणित हो सकता है। योग वाशिष्ठ भी कुछ लोग श्रीराम कालीन रचना मानते हैं किन्तु अधिकांश विद्वान आदिशंकराचार्य के बाद की रचना मानते हैं। अतः अन्य कोई ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से प्रामाणिक नही हो सकता।

गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण से श्लोक संख्या अनुवाद --
अब हम वाल्मीकीय रामायण के आधार पर रावण की लंका कहाँ थी कौनसी थी इसकी  की यथार्थ भौगोलिक  स्थिति का परीक्षण करते हैं।
रावण द्वारा सीताजी के अपहरण पश्चात,श्री जटायु द्वारा श्रीराम को बतलाया कि, लंका का राजा राक्षस राज रावण सीताजी का जबरजस्ती अपहरण कर रावण उन्हे दक्षिण दिशा में लंका लंका ले गया है।
सुग्रीव जी की सहायता से सीताजी की खोज की गयी । बालीपुत्र अंगद के नेत्रत्व में  जटायु के भाई सम्पाती जी के मार्गदर्शन से श्री हनुमानजी लंका में सीताजी से मिल कर आये और श्री राम को सीताजी की जानकारी दी।
तब श्रीराम जी ने नल - नील की सहायता से समुद्र पर सेतु बनाकर सीता जी को मुक्त कराया। इतनी जानकारी सबको पता है ।
पर  किसी को सही जानकारी नही मालुम की रावण की लंका कहाँ थी/ कौनसी थी। राम सेतु कितना लम्बा था,और कितने समय में कैसे बना। इसी की जाँच हम वाल्मीकीय रामायण के अरण्य काण्ड, किश्किन्धा काण्ड और युद्ध काण्ड के आधार पर पता लगाने का प्रयत्न करते हैं। सुन्दर काण्ड के अलावा इन्ही तीन काण्डो में लंका की जानकारी दी है।और सेतु निर्माण का विवरण और वर्णन युद्ध काण्ड में है।

सामान्यतया सिंहल द्वीप अर्थात श्रीलंका को रावण की लंका माना जारहा है। जहाँ  रावण ने सीताजी का अपहरण कर उन्हे अशोक वाटिका में अवरुद्ध कर रखा था।
श्रीलंका सरकार का पर्यटन विभाग इसका पुरा लाभ उठाता है।
इसी आधार पर तमिलनाड़ु में धनुष्कोटि, रामसेतु और रामेश्वरम आदि कल्पित किये गये।
जबकि सिंहल द्वीप का नाम श्रीलंका इसलिये पड़ा क्योंकि श्री पाद पर्वत / एडम माउण्टेन पर किन्ही श्रीमान पुरुष के लंक अर्थात पेर के पञ्जे के निशान है।
यहूदियों के अनुसार यहोवा की आज्ञा उल्लघन कर आदम द्वारा बुद्धि वृक्ष का फल खा लेने पर आज्ञा उलंलंघन  के दण्ड स्वरुप आदम को अदन की वाटिका के पुर्वी द्वार से निकाल देने पर वे आदम शिखर पर सिंहल द्वीप पर गिरने सेआदम के पंजे के निशान बन गये ऐसा मानते हैं।
सनातन धर्मी उसे किसी श्रीमान पुरुष के लंक (पेर के पंजे के निशान मानते हैं।इस कारण सिंहल द्वीप को श्रीलंका कहते हैं।केवल लंका नही कहते हैं बल्कि श्रीलंका कहते हैं।
अब देखते हैं वाल्मीकीय रामायण में क्या लिखा है।
काण्ड/सर्ग/ श्लोक संख्या सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण के श्लोकों के अर्थ ही दिये जा रहे हैं।क्योंकि गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशन और उनके द्वारा प्रकाशित पौराणिक ग्रन्थों का अनुवाद भी सर्वाधिक प्रामाणिक मान्य है।
जो वाल्मीकीय रामायण स्वयम् पढ़कर विचार करेंगे उनका ज्ञान वर्धन और भ्रम निवारण अधिक होगा।किन्तु जो नही पढ़ पाये उनके लिये प्रस्तुत है।--

आप भी पढ़िये और विचार- मनन कर निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें।
*पहले अरण्य काण्ड से*--
*वाल्मीकि रामायण /अरण्य काण्ड* / *एकोनसप्तितमः सर्ग* / श्लोक क्रमांक---
श्रीराम को जटायु जी प्राण त्याग के ठीक पहले बतलाते हैं कि यहाँ ( जनःस्थान )  से रावण सीता को साथ लिये यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर गया। -10
वाल्मीकि रामायण /अरण्य काण्ड* / *अष्टषष्टितमः सर्ग*/
श्रीराम लक्ष्मण सीताजी को खोज करते हुए भी पश्चिम में गये। - 1
सीताजी को खोजने दक्षिण दिशा में गये। - 2
*वाल्मीकि रामायण /किष्किन्धा काण्ड/* *एकचत्वारिशः सर्ग*/
पाण्य वंशीय राजाओं के नगरद्वार पर लगे हुए सुवर्णमय कपाट दर्शन करोगे। जो मुक्तामणि यों से विभुषित एवं दिव्य है।
( नोट - यहाँ से पाण्य देश की सीमा आरम्भ होती थी न कि, तंजोर नगर की।किन्तु इस प्रवेश द्वार को  लेण्डमार्क के रुप में देखने भर को ही कहा है।पाण्यदेश/ तमिलनाड़ु में प्रवेश करने का निर्देश नही किया है। अर्थात पुर्वी घाँट की ओर नही बल्कि पश्चम घाँट की ओर ही जाने का अप्रत्यक्ष निर्देश है। शायद राक्षसों का प्रभाव लक्षद्वीप से नाशिक तक पश्चिम में ही अधिक था।
कुछ लोग पाण्यदेश यानी तमिलनाड़ु देखकर ही उत्साहित होकर पुर्वीघाँट की ओर बढ़ने का अनुमान करते हैं। जबकि सुग्रीव ने देखते हुए आगे बढ़ने का निर्देश देते हैं प्रवेश का नही।)

तत्पश्चात समुद्र के तट पर जाकर उसे पार करने के सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्य का भलीभाँति निश्चय करके उसका पालन करना।महर्षि अगस्त ने  समुद्र के भीतर एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत को स्थापित किया, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। उसके शिखर तथा वहाँ के वृक्ष विचित्र शोभा सम्पन्न है।वह शोभाशाली पर्वत श्रेष्ठ समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है।- 19 &20

( रावण की लंका का वर्णन) --

*उस समुद्र के उसपार एक द्वीप है, जिसका विस्तार सौ योजन है।वहाँ मनुष्यों की पहूँच नही है।*-23
(नोट -- सौ योजन विस्तार मतलब लगभग 100 वर्ग योजन अर्थात 1288 वर्गकि.मी. =36×36 वर्ग कि.मी. वर्ग किलोमीटर।*
जबकि श्रीलंका का क्षेत्रफल 65610 वर्ग कि.मी. है।
अर्थात लक्षद्वीप ही सही बैठता है श्रीलंका / सिंहल द्वीप नही।)

  उसशक्तिशाली द्वीप में चारोंओर पुरा यत्न करके सीता की विशेष खोज करना। - 24
वही देश दुरात्मा राक्षसराज रावण का निवासस्थान है।जो हमारा वध्य है। - 25
उस दक्षिण समुद्र के बीच में अङ्गारका नाम से प्रसिद्ध एक राक्षसी रहती है, जो छाया पकड़ कर ही प्राणियों को खीँच लेती है और उन्हे खा जाती है। - 26
(नोट - यहाँ अंगारका राक्षसी कहा है,नागमाता सुरसा का अन्य नाम अंगारका था।)

लंका को लाँघ कर आगे बड़ने पर सौ योजन विस्तृत समुद्र में एक पुष्पितक नामक पर्वत है। - 28
पुष्पितक के  चौदह योजन आगे  सुर्यवान पर्वत बतलाया है। - 31 & 32
सुर्यवान पर्वत के बाद वैद्युत पर्वत है। - 32
फिर कुञ्जर पर्वत है जिसपर अगस्त्य  का सुन्दर भवन है। -34
कुञ्जर पर्वत पर भोगावती नगरी है। -36
भोगावती पुरी में सर्पराज वासुकि निवास करते हैं। - 38
आगे ऋषभ पर्वत पर चन्दन के पेड़ हैं।जिसका स्पर्ष खतरनाक है। 40 & 41
उसके आगे पित्र लोक है जहाँ जाने का निषेध किया है। - 44
( नोट रावण की लंका के आसपास इतने सारे द्वीप होना भी लक्षद्वीप को ही सुचित करता है।
सिंहल द्वीप श्रीलंका के आसपास इतने द्वीप नही है।

अब किश्किन्धा काण्ड से --

वाल्मीकि रामायण/किष्किन्धा काण्ड/पञ्चाशः सर्ग/ 
विन्द्याचल  पर सीता जी की खोज करते करते अंगद, जाम्बवन्त जी और  हनुमानजी सहित वानर विन्द्याचल के नैऋत्य कोण (दक्षिण पश्चिम) वाले शिखर पर जा पहूँचे।वहीँ रहते हुए उनका वह समय जो सुग्रीव ने निश्चित किया था, बीत गया।3
खोजते खोजते उन्हे वहाँ एक गुफा दिखाई दी, जिसका द्वार बन्द नही था। अर्थात खुला था।- 07
वह गुफा ऋक्षबिल नाम से विख्यात थी
।एक दानव उसकी रक्षा में रहता था। वानर गण बहुत थक गये थे, पानी पीना चाहते थे। - 8
लता और वृक्षों से आच्छादित के भीतर से क्रोंच, हंस, सारस,तथा जल से भीगे हुए चक्रवाक पक्षी ( चकवे)  , जिनके अङ्ग कमलों के पराग से रक्त वर्ण के हो रहे थे।, बाहर निकले।उस बिल (गुफा) में उन्हे जल होने का सन्देह हुआ। - 9 & 10
हनुमानजी ने कहा निश्चित ही इसमें पानी का कुआँ, या जलाशय होना चाहिये।तभी इस गुफा के द्वारवर्तीवृक्ष हरेभरे हैं। वानरों ने उस गुफा में प्रवेश किया। - 16 & 17
उस अन्धेरे बिल (गुफा ) से सिंह,मृग और पक्षी निकलते दिखे। - 18
नाना प्रकार के वृक्षों से भरी उस गुफा में वे एक योजन तट एक दुसरे को पकड़े हुए गये। - 21
*(एक योजन चलने पर) तब उन्हें वहाँ प्रकाश दिखाई दिया। और अन्धकार रहित वन देखा, वहाँ के सभी वृक्ष सुवर्णमयी थे।* - 24
*अर्थात गुफा आरपार खुला था।*
साल,ताल,तमाल,नागकेशर, अशोक,धव, चम्पा, नागवृक्ष और कनेर के वृक्ष फुलों से भरे थे। - 26
वानरों ने वहाँ इंट,पत्थर,लकड़ी आदि पार्थिव वस्तुओं से निर्मित और स्वर्ण तथा वैदूर्यमणि से अलङ्कृत भवन देखे। वृक्षों में फुल और फल लगे थे। - 30 , 31 & 32
मणि और सुवर्ण जटित पलंग, तथा आसन, और सोने,चाँदी, तथा कांसे के फुलपात्र , अगरु,चन्दन, फल, मूल आदि भोजन सामग्री, बहुमूल्य सवारियाँ, सरस मधु, मुल्यवान वस्त्र, कम्बल, कालीन,मृगचर्म और स्वर्ण के ढेर देखे। - 32  से 38
वानरों ने उस गुफा में थोड़ी दूरपर किसी स्त्री को.देखा।जो नियमित आहार करती तपस्या में सलग्न थी। हनुमानजी ने उससे उसका परिचय पुछा। - 39 से 41

*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/*  *एकपञ्चाशः सर्ग/*

हनुमानजी ने उसे कहा
हम भूख-प्यास से व्यथित हैं।और जानना चाहते हैं कि,यहाँ यह सब वैभव कैसे है? - 02 से 09
तब उस बिल( गुफा) में स्थित उस मेरुसावर्णी की पुत्री स्वयम्प्रभा नामक उस तपस्वी स्त्री  ने उत्तर दिया - मयासुर दानव पहले दानवों का विश्वकर्मा था। उसने तपस्या कर  ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर शुक्राचार्य का सारा शिल्प - वैभव प्राप्त किया था।
मयासुर दानव ने यहाँ की सारी वस्तुओं का निर्माण करके कुछ काल तक यहाँ निवास किया था। कुछ काल बाद हेमा नामक अप्सरा से मयासुर दानव का सम्पर्क हो गया, यह जानकर जघानेश पुरन्दर (इन्द्र) ने मयासुर को मार भगाया। तत्पश्चात ब्रह्माजी ने यह गुफा और वैभव उस अप्सरा हेमा को सोप दिया।मेरी प्रियसखी हेमा अप्सरा द्वारा प्रदत्त इस भवन की रक्षा करती हूँ। तुमलोग पहले फल-मूल खाकर जलपान कर फिर अपना परिचय और आने का प्रयोजन बतलाना   -11 & 19
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/*  *द्विपञ्चाशः सर्ग/*
भोजन जलपान उपरान्त विश्राम करलेने पर हनुमानजी ने अपने सहित सबका परिचय और  राक्षस रावण और उसके द्वारा अपहृत  सीताजी की खोज का वृतान्त कहकर आने का प्रयोजन बतलाया। -  01 से 08

हनुमानजी के निवेदन पर स्वयम्प्रभा ने बाहर निकलने हेतु नैत्र मुन्दने को कहा ।वानरों के द्वारा आँखे बन्दकर हाथों से ढँकते ही स्वयम्प्रभा ने उन वानरों को गुफा से बाहर पहूँचा दिया।(उस एक योजन लम्बी अर्थात  लगभग 13 कि.मी लम्बी थी ।)
गुफा के बाहर पहूँचाकर उन्हे बतलाया कि, यह विन्द्यगिरि है, इधर  यह प्रसवण गिरि है।सामने सागर लहरा रहा है। ऐसा बतलाकर स्वयम्प्रभा अपनी गुफा म़े लोट गई। - 23 से 32
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/*  *त्रिपञ्चाशः सर्ग/*
तदन्तर उन वानरों ने महासागर देखा । - 1

वानरों का वह एकमास बीत गया, जिसे राजा सुग्रीव ने लोटने का समय निश्चित किया था।  - 2
विन्द्यगिरि के पार्श्ववर्ती पर्वत पर बैठकर वे सभी महात्मा वानर चिन्ता करने लगे। -  3
जो वसन्त ऋतु में फलते हैं उन आम आदि वृक्षों की डालियों को मञ्जरी एवम् फूलों के अधिक भार से झुकी हुई तथा सेकड़ों लता बेलों से व्याप्त देख वे सभी सुग्रीव के भय से थर्रा उठे। -  4
वे एक दुसरे को बताकर कि, अब वसन्त का समय आना चाहता है, राजा के आदेशानुसार एक माह के भीतर जो काम कर लेना चाहिए था , वह न कर सकने के  या उसे नष्ट कर देने के कारण भय के मारे भूमि पर गिर पड़े।- 5
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/*  *चतुःपञ्चाशः सर्ग/*
हनुमानजी जानते थे कि, बालीपुत्र अंगद अष्टाङ्ग बुद्धि, चार प्रकार के बल और चौदह गुणों से सम्पन्न है ।-  2
अष्टांग बुद्धि - 1-  सुनने की इच्छा रखना; 2 सुनना, 3 सुनकर ग्रहण करना, 4 ग्रहणकर धारण करना,  5उहापोह करना,6 अर्थ या तात्पर्य को समझना,7 तत्व ज्ञान सम्पन्न होना।
चार प्रकार के बल - 1 साम, 2 दण्ड,  3 भेद और चौथा दण्ड।
चौदह गुण -01 देशकाल ज्ञान,0 2 दृढ़ता,0 3 सब प्रकार के कष्टों को सहन करने की क्षमता,04  सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त करना,0 5 चातुर्य (चतुरता), 06 उत्साह या बल,07 मन्त्रणा को गुप्त रखना,0 8 परस्पर विरोधी बातें न करना,09 शूरता,10 अपनी और शत्रु की शक्ति का ज्ञान, 11 कृतज्ञता, 12 शरणाङगत वत्सलता, 13 अमर्षशीलता, और 14 अ चाञ्चल्य, ( स्थैर्य या गाम्भीर्य)।
वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/षट्पञ्चाशः सर्ग/
पर्वत के जिस स्थान पर वे सब वानर आमरण उपवास करने बैठे थे उस स्थान पर गृध्रराज सम्पाति आये। - 1 & 2
महागिरि विन्ध्य की कन्दरा से निकलकर सम्पाति ने जब वहाँ बैठे वानरों को देखा तब वे हर्षित होकर बोले - आज दीर्घकाल यह भोजन स्वतः मेरे लिये प्राप्त हो गया । वानरों में जो जो मरता जायेगा उसको में क्रमशः भक्षण करता जाऊँगा। - 3 से 5
यह सुन अङ्गद हनुमानजी से बोले । - 7
विदेह कुमारी सीताजी का प्रिय करने की इच्छा से गृध्रराज जटायु ने जो साहस पुर्ण कार्य किया था , यह सब आप लोगोंने सुना ही होगा। - 9
धर्मज्ञ जटायुने ही श्रीराम का प्रिय किया है। -12
गृध्रराज जटायु ही सुखी हैं जो युद्ध में रावण के हाथ मारे गये।-13
महाराज दशरथ की मृत्यु, जटायु का विनाश और विदेह कुमारी सीता का अपहरण - इन घटनाओं से इस समय वानरों का जीवन संशय में पड़ गया है । - 14

श्रीराम और लक्ष्मण को सीता के साथ वन में निवास करना पड़ा, राघव के बाण से बाली का वध हुआ और अब श्रीराम के कोप से  समस्त  राक्षसों का संहार होगा - ये कैकेयी को दिये वरदान से पैदा हुई है। 15 &16
अङ्गद के मुख से उस वचन को सुन सम्पाति ने उच्च स्वर में पुछा। - 18
यह कौन है जो जो मेरे प्राण प्रिय भाई जटायु के वध की बात कर रहा है। - 19
जनः स्थान में राक्षस का गृध्र के साथ किस प्रकार का युद्ध हुआ? अपने भाई का नाम कई दिनों के बाद सुनाई दिया । - 20
जटायु मुझसे छोटा गुणज्ञ, और पराक्रम के कारण प्रशंसनीय था। - 21
दीर्घकाल के पश्चात आज उसका नाम सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई।आपलोग मुझे नीचे उतार दें । - 22
मुझे मेरे भाई का विनाश का वृतान्त सुनने की इच्छा है।महाराज दशरथ मेरे भाई के मित्र कैसे हुए? - 23

मेरे पंख सुर्य  की किरणों से जल गये हैं,इसलिये मैं उड़ नही सकता। किन्तु इस पर्वत से नीचे उतरना चाहता हूँ। -24
*वाल्मीकि रामायण/ किष्किन्धा काण्ड/* *अष्टपञ्चाशः सर्ग/*
सप्पाति जी ने कहा-
एक दिन मेने भी देखा,दुरात्मा रावण सब प्रकार के गहनों से सजी हुई एक रुपवती युवती को हरकर लिये जा रहा था। - 15
वह भामिनी 'हा राम ! हा राम! हा लक्ष्मण! की रट लगाती हुई अपने गहने फेंकती छटपटा रही थी। - 16
श्रीराम का नाम लेनेसे मैं समझता हूँ, वह सीता ही थी। अब मैं उस राक्षस का घर का पता बतलाता हूँ, सुनो। - 18
रावण नामक राक्षस महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। वह "लंङ्का नामवाली नगरी में निवास करता है।" - 19
(ध्यान दें लंका को केवल नगरी कहा है। सिंहल द्वीप/ श्रीलंका जैसा बड़ा स्थान नही हो सकता।)
*यहाँ से शतयोजन (अर्थात लगभग 1287 कि.मी.) के अन्तर पर समुद्र में एक द्वीप है, वहाँ विश्वकर्मा ने अत्यन्त रमणीय लङ्कापुरी निर्माण किया है।' - 20
(नोट- शत योजन को अनुवादक ने  चारसो कोस लिखा है अर्थात 1287 कि.मी.।)

उस नगरी की चहारदीवारी बहुत बड़ी है। उसी के भीतर पीले रंग की रेशमी साड़ी पहने सीता दीन भाव से निवास करती है। - 23
(नोट- श्रीलंका के आसपास  चाहरदीवारी होना सम्भव नही है।)
बहुत सी राक्षसियों के पहरे में रावण के अन्तःपुर में अवरुद्घ है। - 23
लंका चारों ओर से समुद्र से सुरक्षित है।पुरे सौ योजन (1287 कि.मी.) समुद्र को पार कर उसके दक्षिण तट पर पहूँचने पर रावण को देख सकोगे। - 24 & 25

(नोट - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  के द्वीप पड़ते है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है (या किल्तान द्वीप में हो सकती है। )
(नोट - उल्लेखनीय है कि, श्री लंका / सिंहल द्वीप जाने के लिये  भारत की मुख्य भूमि से जाया जा सकता है।
समुद्र पार कर नही जाया जा सकता।समुद्री मार्ग से जाने पर भारत की मुख्य भूमि की परिक्रमा कर जाना होगा और   बहुत अधिक दूरी हो जायेगी।)

*अब आगे का विवरण युद्ध काण्ड से* --
*वाल्मीकि रामायण/ युद्ध काण्ड/*  *चतुर्थ सर्ग/*
रामचन्द्रजी ने सुग्रीव को कहा --
सुग्रीव ! तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सुर्यदेव दिन के मध्य भाग में पहूँचे हैं।इसलिये इस विजय नामक मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त  होगी।- 3
आज उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र है।कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिये सुग्रीव ! हमलोग आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा करदें। चलते चलते  उन्होनें पर्वत श्रेष्ठ सह्यगिरि को देखा। जिसके आसपास भी सेकड़ों पर्वत थे। - 37
उस समय वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण से सम्मानित हुए धर्मात्मा श्रीराम सेनासहित दक्षिण दिशा की ओर बड़े जा रहे थे। - 42

(आकाश साफ होने का वर्णन। - 46 से 49)
वानर सेना दिन- रात चलती रही। - 68
उन्होने रास्ते में कहीँ दो घड़ी भी विश्राम नही लिया। - 69
चलते चलते वे सह्य पर्वत पर पहूँच कर सब वानर सह्य पर्वत पर चड़ गये। - 70
श्रीरामचन्द्रजी सह्य और.मलय पर्वत के विचित्र काननों, नदियों, तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहेथे। - 71
श्री रामचंद्र जी महेन्द्र पर्वत (शायद कण्णूर का ईजीमाला पर्वत) के पास पहूँच कर उसके शिखर पर चढ़ गये। - 92
महेन्द्र पर्वत पर आरुढ़ हो श्री राम जी ने समुद्र को देखा। -93
इस प्रकार वे सह्य और मलय  को लाँघखर महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहूँचे। - 94
उस (महेन्द्र पर्वत) से उतरकर शीघ्र ही सागर तटवर्ती वन में जा पहूँचे।
रामचन्द्रजी की आज्ञा से सुग्रीव ने समुद्र तटीय वन में सेना को ठहरा दिया। पड़ाव डाला। - 103

(नोट - सुग्रीव बहुत अच्छे भुगोल वेत्ता थे।महेन्द्र  नामक पर्वत बहुत दो से अधिक हैं यह सर्व स्वीकार्य है।सह्य और मलय दोनो पर्वत पश्चिमी घाँट पर है।अतः यह महेन्द्र गिरि निश्चित ही पश्चिमी घाँट पर होगा। कुछ लोग विद्वान परम्परा निर्वाह हेतु  किश्किन्धा काण्ड / एकचत्वारिशः सर्ग/18 से 27 में सुग्रीव जी द्वारा दक्षिणापथ का मार्ग वर्णन करते समय पाण्यदेशान्तर्गत महेन्द्र पर्वत तंजौर अथवा थन्जोर के निकट बतला कर बंगाल की खाड़ी की ओर जाना बतलाते हैं; उनसे मेरा निवेदन है कि, क्या सुग्रीव जी इतने मुर्ख थे कि,पुर्वी घाँट पर उतरने के लिये सेना सहित पहले पश्चिमी पर पहूँच कर श्रम और समय दोनो नष्ट करते? वे पुर्वी घाँट पर वे सीधे ही जा सकते थे।)

दिन के अन्त और रात केआरम्भ में चन्द्रोदय होनेफर समुद्र में ज्वार आ गया। - 110& 111 अर्थात जिस दिन सागर तट पर  पहूँचे उस दिन पुर्णिमा थी।

*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकोनविश सर्ग/*
समुद्र की शरण लेने की विभिषण की सलाह - 31

विभिषण की सलाह पर सर्व सम्मति - 40
श्रीराम समुद्र तट पर कुशा बिछाकर धरना देने बैठे। -41
*वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/एकविंश सर्ग/*
इस प्रकार समुद्र तट पर  तीन रात लेटे लेटे बीतने पर भी समुद्र देव प्रकट नही हुए ।- 11-12
श्रीराम समुद्र पर कुपित हो गये।- 13
श्रीराम ने अपने धनुष सेबड़े भयंकर बाण समुद्र पर छोड़े।-  27
समुद्र मेंहुई हलचल को देख-
लक्ष्मण ने श्री राम का धनुष पकड़ कर रोका ।- 33
वाल्मीकीय रामायण/युद्धकाण्ड/द्वाविंश सर्ग/
श्रीराम ने ब्रह्मास्त का संधान किया -  5
तब समुद्र के मध्य सागर सवयम् उत्थित हुआ। - 17
चमकीले सर्पों के साथ जाम्बनद नामक स्वर्णाभूषण युक्त वैदुर्य मणि के सदृष्य श्याम वर्णीय समुद्र प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ। - 18
समुद्र ने पार होने का उपाय बतलाने का आश्वासन दिया। - 29
श्री राम ने पुछा अमोघ ब्रह्मास्त्र किस स्थान पर छोड़ुँ? - 30
समुद्र ने कहा कि,मेरे उत्तर तट पर द्रुमकुल्य नामक स्थान है। 32
द्रमकुल्य स्थान में आभीर लोग रहते हैं।वे पापी दस्यु हैं।और मेरा ही पानी पीते हैं। - 33
उनके स्पर्ष से मुझे भी पाप लगता है। कृपया उस स्थान पर/ उन पर   ब्रह्मास्त्र छोड़िये। - 34
तदनुसार श्री राम ने द्रमकुल्य देश पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। - 35
वह स्थान पर मरुस्थल बन गया। - 36
उस स्थान का नाम मरुकान्तार पड़ गया।
वह भूमि दुधारू पशुओं और विभिन्न औषधियों से सम्पन्न होगी यह वरदान दिया। - 43
समुद्र ने विश्वकर्मा पुत्र नल का परिचय दिया और बतलाया कि नल समस्त विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) का ज्ञाता है। - 45
यह महोत्साही वानर पिता के समान योग्य है।मैं इसके कार्य को धारण करुँगा। - 46
तब नल ने उठकर श्रीराम से बोला - 48
मैं पिता के समान सामर्थ्य पुर्वक समुद्र पर सेतु निर्माण करुँगा। -  48
समुद्र ने मुझे स्मरण करवा दिया है।मै बिना पुछे अपने गुणों को नही बतला सकता था।  अतः चुप था।- 52
मैं सागर पर सेतु निर्माण में सक्षम हूँ।अतः सभी वानर मिल कर सेतु निर्माण आज ही आरम्भ करदें। 53।वानर गण वन से बड़े बड़े वृक्ष और पर्वत शिखर / बड़े बड़े पत्थर/ चट्टानें ले आये।- 55
महाकाय  महाबली वानर यन्त्रों ( मशीनों) की सहायता से बड़े बड़े पर्वत शिखर / शिलाओं को तोड़ कर/ उखाड़ कर समुद् तक परिवहन (ट्रांस्पोर्ट) कर लाये। -60
कुछ बड़े बड़े शिलाखण्डों से समुद्र पाटने लगे।कोई सुत पकड़े हुए था। - 61
कोई नापने के लिये दण्ड पकड़े था,कोई सामग्री जुटाते थे।वृक्षों से सेतु बाँधा जा रहा था। -  64 & 65

पहले दिन उन्होने चौदह योजन लंबा सेतु बाँधा। -69

(नोट - तट वर्ती क्षेत्र में केवल भराव करने से काम चल गया अतः  180 कि.मी. पुल बन गया। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी हो जायेगी।)

दुसरे दिन बीस का योजन सेतु तैयार हो गया  - 69

(अर्थात दुसरे दिन (20- 14 = 6 योजन  सेतु बना।छः  योजन अर्थात 77 कि.मी. पुल बना कर सेतु की कुल लम्बाई बीस योजन अर्थात 257 कि.मी. होगई। आगे गहराई बढ़ने और तरंगो/ लहरों का वेग बड़ने से गति धीमी होगई।दुसरे दिन गति लगभग आधी ही रह गई।)

तीसरे दिन कुल इक्कीस योजन का सेतु निर्माण कर लिया। - 70
(अर्थात तीसरे दिन एक योजन  यानी 12.87 कि.मी. सेतु बन पाया और सेतु की कुल लम्बाई 21 योजन = 270 कि.मी. हो गई।
(नोट - गति कम पड़ना स्वाभाविक ही है।दुसरे दिन गति आधी रह गई और तीसरे दिन से तो  एक एक योजन अर्थात  प्रतिदिन 12.87 कि.मी. ही पुल  बनेने लगा।)

चौथे दिन वानरों ने बाईस योजन तक का सेतु बनाया। - 71
(अर्थात एक योजन / 12.87 कि.मी.वृद्धि हुई और कुल22 योजन =   283 कि.मी. पुल बना।)
पाँचवें दिन वानरों ने कुल 23 योजन सेतु बना लिया। - 72
(अर्थात एक योजन वृद्धि कर सेतु की कुल लम्बाई 23 योजन = 296 कि.मी. होगई।)
इस प्रकार विश्वकर्मा पुत्र नल ने  ( पाँच दिन में वानरों की सहायता से भारत की मुख्य भूमि से रावण की लंका तक   23 योजन = लगभग 300 कि.मी. का )  सेतु समुद्र में  तैयार कर दिया।
नोट - इस प्रकार भारत की मुख्य भूमि पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कोजीकोड से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. का सेतु / पुल तैयार कर लिया।)

सुचना - पुरातत्व विदों द्वारा केरल के कण्णूर से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप के बीच वास्तविक रामसेतु खोजा जाना चाहिए।

(सूचना - अर्थात रावण की लंका नगरी खम्बात की खाड़ी के तट जहाँ से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  के द्वीप पड़ते है। तथा  पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर  से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है। अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में हो सकती है। कण्णूर और लक्ष्यद्वीप का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्ध भी सदा से रहा है। कण्णूर से सोलोमन के मन्दिर के लिए लकड़ियाँ जहाज द्वारा गई थी।   ईराक के उर से व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।)

(नोट यह विशुद्ध विश्वकर्म / इंजीनियरिंग का कमाल था।न कि राम नाम लिखने से पत्थर तैराने का  कोई चमत्कार। तैरते पिण्डों को बानध कर पुल बनाना भी इंजीनियरिंग ही है किन्तु यहाँ उस तकनीकी का प्रयोग नही हुआ।
किन्तु नाम लिखने से फत्थर नही तैरते बल्कि जैविकीय गतिविधियों से निर्मित कुछ पाषाण नुमा संरचना समुद्र में तैरती हुई कई स्थानों में पायी। जाती है।इसमें कोई चमत्कार नही है।पाषाण नुमा संरचनाएँ जो बीच में पोली / खाली होती है उनमें हवा हरी रह जाती है।ऐसे पत्थरों का घनत्व एक ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर से कम होने के कारण वे भी बर्फ के समान तैरते हैं। )
नोट --श्लोक 76 में सेतु की लम्बाई शत योजन और चौड़ाई दश योजन लिखा है। निश्चित ही यह श्लोक प्रक्षिप्त है क्यों कि,  नई दिल्ली से आन्ध्रप्रदेश के चन्द्रपुर से आगे असिफाबाद तक की दुरी के बराबर  सेतु की लम्बाई 1288 कि.मी. कोई मान भी लेतो 129 कि.मी. चौड़ा पुल तो मुर्खता सीमा के पार की सोच लगती है। दिल्ली से हस्तिनापुर की दुरी भी 110 कि.मी. है।उससे भी बीस कि.मी.अधिक चौड़ा पुल तो अकल्पनीय है।

अस्तु यह स्पष्ट है कि, दासता युग में सूफियों के इन्द्रजाल अर्थात वैज्ञानिक और कलात्मक जादुगरी से प्रभावित कुछ लोगों ने मिलकर पुराने ग्रन्थों में भी ऐसे चमत्कार बतलाने के उद्देश्य से ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक डाल दिये। जो मूल रचना से कतई मैल नही खाते। ऐसे ही

श्लोक 78 में वानरों की संख्या सहत्र कोटि यानी एक अरब जनसंख्या बतलाई है।
भारत की जनसंख्या के बराबर एक अरब वा्नर  श्रीलंका में भी नही समा पाते।

अस्तु शास्त्राध्ययन में स्वविवेक जागृत रखना होता है।

खम्बात की खाड़ी के तट कोरोमण्डल दहेज के लूवारा ग्राम के परशुराम मन्दिर  से हनुमानजी ने सीताजी की खोज हेतू छलांग लगाई थी से दक्षिण में 1287 कि.मी. दुर  लक्षद्वीप समुह  का किल्तान द्वीप पड़ता है। तथा केरल के  पश्चिमी घाँट के  नीलगिरी के कोजीकोड के रामनाट्टुकारा और पन्थीराम्कवु से से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीन सौ तीन कि.मी.है।दोनो ठीक बैठती है।अर्थात लंका लक्षद्वीप में थी।  जिसकी राजधानी कवरत्ती है या किल्तान द्वीप में रावण की लंका हो सकती है।

पुरे प्रकरण को पढ़कर भारत का नक्षा  एटलस  लेकर जाँचे।
कि,  भारत के पश्चिमी घाँट के केरल की नीलगिरी के कण्णूर (केरल) से  किल्तान द्वीप की ओर दुरी लगभग तीनसौ तीन कि.मी. है। और गुजरात के खम्बात की खाड़ी से दहेज नामक स्थान से किल्तान की दुरी भी लगभग 1290 कि.मी. है।
अस्तु लगभग किल्तान द्वीप के आसपास ही रावण की लंका रही होगी। लक्षद्वीप में किल्तान द्वीप राजधानी करवत्ती से उत्तर में है।
अध्ययन कर पता लगाया जा सकता है कि किल्तान या करवत्ती या कोई डुबा हुआ द्वीप में से रावण की लंका कौनसा द्वीप था।
यह कार्य पुरातत्व विभाग और पुरातत्व शास्त्रियों का कार्य है।

रामेश्वरम कहाँ है ---

 परशुराम जी का मूल नाम राम है। परशु धारण करनें के कारण उनका नाम परशुराम पड़ गया। यह भी सम्भव है कि, अयोध्या नरेश श्री राम की ख्याति बड़नें के कारण विशिष्ठिकृत नाम के रूप में परशुराम नाम प्रचलित हुआ हो।

रामायण में श्रीराम द्वारा रामेश्वरम शिवलिङ्ग स्थापना का वर्णन नही है। किन्तु वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद के ग्रन्थ कम्ब रामायण के आधार पर यह मान्य हुआ। 

केरल में त्रिशुर भी गुरुवयूर से 38 कि.मी दूर त्रिशुर के शिवलिङ्ग की स्थापना परशुराम जी ने की थी।

अतः सम्भव है कि, कवि कम्बन ने त्रिशुर वाले रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग का वर्णन करनें में स्व स्थान तमिलनाड़ु में वर्णित कर दिया हो या बाद में किसी ने परिवर्तन किया हो। अतः त्रिशुर ही वास्तविक रामेश्वरम होना चाहिए।