मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

01 जनवरी 2021 की स्थिति में नक्षत्रों के योग तारा की निरयन स्थिति।

कृतिका वृषभ 06°07'07"। 
 21 मई।

मृगशीर्ष मिथुन 00°51'59" । 16 जून।

मघा सिंह 05° 52'14" 
23 अगस्त।

चित्रा कन्या 29°59'01"
17 अक्टूबर।

अयनांश 
01 जनवरी 2021 को 24°07'55 
 और 
01 जनवरी 2022 को 24°08'46" ।

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

मुहूर्त निकालने में अक्षांश का महत्व।

क्या ब्रह्म मुहूर्त, अभिजित मुहूर्त, विजय मुहूर्त आदि तीस मुहुर्त को भी प्रातः,सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न, सायाह्न, प्रदोष, महानिशिथ काल और अरुणोदय काल के समान दीनमान-रात्रिमान के अनुपात में गणना की जाना चाहिए या निश्चित दो घटि (48 मिनट) के ही माना जाना चाहिए।
यह विषय धर्मशास्त्र सम्बन्धित है। इसमें ज्योतिष केवल सहायक की भूमिका में ही रहता है। निर्णय धर्मशास्त्र का ही मान्य होता है।
उपर उल्लेखित ब्रह्म मुहूर्त, अभिजित मुहूर्त, विजय मुहूर्त अथर्ववेद में वर्णित हैं। अतः अथर्ववेद के अनुसार ही मान्य होगा।
 मुहूर्त समय मापन की इकाई है, अतः घटि-पल-विपल के समान ही मुहुर्त मान भी निश्चित और अपरिवर्तनीय होता है। अतः अथर्ववेदोक्त तीस मुहुर्त का मान निश्चिन्त दो घटिका अर्थात 48 मिनट के निश्चित समय के ही होते हैं।
लेकिन प्रातः,सङ्गव आदि कालावधि है, अतः ये दिनमान या रात्रि मान के घटबड़ के अनुपात में घटते-बढ़ते रहते हैं।
इसलिए ये काल या कालावधि 66°40' से अधिक उत्तर दक्षिण अक्षांश पर लागू नहीं होता।
इसी प्रकार 66°40' से अधिक उत्तर अक्षांश पर मकर लग्न उदय होते नहीं दिखता है। और 66°40' से अधिक दक्षिण अक्षांश पर कर्क लग्न उदय होता नहीं देखा जा सकता है।
ध्रुव प्रदेशों में तो दिन और रात ही छः-छः महीने के होते हैं। वहाँ मध्याह्न नहीं होता तथा कोई भी लग्न उदय अस्त नहीं होता। 
अतः वहाँ के लिए मुहूर्त निकालते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

रविवार, 13 अप्रैल 2025

महाभारत युद्ध के बहुत पहले वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ब्रह्म लोक को प्रयाण कर गए थे।

शुकदेव जी ने कभी भी आस्तिक मत से तटस्थता नहीं दर्शाई।
फिर वे कैशोर्य अवस्था तक पहूँचने के पूर्व ही ब्रह्मलोक को सिधार गए।
कृपया महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्षधर्म पर्व/ अध्याय ३३२ एवम् ३३३ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) पृष्ठ ५३२५ से ५३२९ तक  देखें। विशेषकर श्लोक २६-१/२ पृष्ठ ५३२८ देखें।

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

जयन्ती और जन्मोत्सव उदाहरण


जयन्ती शब्द का जीवित और मरने के बाद से कोई सम्बन्ध नहीं है।
जीवित व्यक्ति की भी जयन्ती ही होती है। क्योंकि वह इतने वर्ष तक जी रहा है, यह भी उसकी विजय ही है।
मरे हुओं का भी जयन्ती के दिन उनके जन्म समय पर जन्मोत्सव ही मनाया जाता है।
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा हनुमान जयन्ती है। और सूर्योदय के समय आरती आदि करके जन्मोत्सव मनाया गया।
चैत्र शुक्ल नवमी (राम नवमी) श्रीरामचन्द्र जी की जयन्ती ही है। और मध्याह्न के समय उनका जन्मोत्सव मनाते हैं।
अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) श्रीकृष्ण जयन्ती ही है। और मध्यरात्रि के समय श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
जयन्ती पूरे दिन भर रहती है, जबकि जन्मोत्सव बमुश्किल आदा-एक घण्टा।

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

वैदिक विष्णु के दो हाथ हैं। पुराणों में भूमा (प्रभविष्णु) अष्टभुजा और महाभारत में भी श्रीहरि चतुर्भुज हैं।

ऋग्वेद का विष्णु चार हाथो वाला होने की बजाय दो हाथो वाला है उसके साथ लक्ष्मी भी नहीं है न ही सवारी गुरूड़ है । वेदों के बाद उपनिषद में भी विष्णु चार हाथों वाला लक्ष्मी या गरुण के साथ नहीं है । 
जबकि, बुद्धिज्म में बोधिसत्व वज्रपाणि, बोधिसत्व अमिताब बुद्ध, मंजूसिरी की हाथो में शंख चक्र गदा पद्म देखने को मिलता है फिर अचानक से पुराणों में विष्णु चार हाथो वाला शंख चक्र गदा पद्म और गरुण इत्यादि वाला हो जाता है ।
क्या वेद उपनिषद के रचना के बाद पुराण लेखकों को भगवान विष्णु ने स्वयम् बताया की अब उनका स्वरूप ऐसा हो गया है।
यदि भगवान विष्णु का मूल स्वरूप ऐसा ही होता तो, क्या वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषि और उपनिषद के ऋषियों को जानकारी नहीं होती? वे ही ऐसा उल्लेख कर सकते थे।
अर्थात बौद्ध धर्माचार्यों के शुद्धिकरण पश्चात वैदिक मत में लौटाए गये लोगों ने पुराण लिखे या पुराणों में संशोधन किया  और विष्णु 4 हाथ शंख चक्र गदा पद्म इत्यादि जोड़ लिया ।
वेद उपनिषद में किसी देवता के हाथ में शंख चक्र गदा पद्म है 4 हाथ, उससे ज्यादा है ? जिसे देखकर को देख कर पुराण में ये विष्णु का ऐसा स्वरूप आया ? 
जबकि भारत सहित सभी बौद्ध देशोंमें पुरातत्त्वीय महत्व की मूर्तियों में मंजूसिरी, वज्रपाणि, अवलिकेतेश्वर बुद्ध की मूर्तियो में ही यह स्वरूप दिखता है ।
ऐसे ही चतुर्मुख ब्रह्मा, द्विमुख अग्नि के विषय में भी विचार किया जाना चाहिए।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

सनातन स्वाभिमान और महर्षि दयानन्द सरस्वती का योगदान

जबतक प्रत्येक सनातनी को सैन्य प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा, जब तक सनातनी पराङ्ग्मुखापेक्षी रहेगा तब तक हमारी दब्बू प्रवृत्ति बनी रहेगी।
पहले भी यही हुआ। क्षत्रिय आपस में लड़ते रहे, जन साधारण जमींदारों , ठाकुरों की लठेत सेना के भरोसे छोड़ दी गई।
हम न ईरानी आक्रमण सह पाते, न तजाकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान के शक- कुषाण, हूण आक्रमण रोक पाया,न युनानी आक्रमण रोक पाये, तो इराक, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान-तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान के मुस्लिम आक्रांताओं को रोक पाये और न पूर्तगाल, नीदरलैंड्स के डच, फ्रांस और ब्रिटिश आक्रमण रोक पाये।
हमेशा लुटते-पिटते मन्दिरों में घण्टी बजाते पुजारी- पुरोहित, खेतों में हल जोतते किसान, व्यापारी, कारीगर सब देखते रहे या आक्रमणकारियों की सेना में भर्ती हो गए लेकिन अपने घर- परिवार, कुटुम्ब, ग्राम, राज्य, देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता नहीं की। उसका उत्तरदायित्व क्षत्रियों पर छोड़ दिया।
सारे क्षत्रिय मर खप गये या युद्ध करना छोड़ खेती-बाड़ी करने लग गए तो कुषाण, शक, हूण, खस, ठस, बर्रबरों की शुद्धि कर उन्हें अग्नि वंशीय राजपूत बना दिया। और बाद में शकों को सूर्यवंशी, हूण- गुर्जरों को चन्द्र वंशीय घोषित कर दिया। और देश- धर्म की रक्षा का भार उनको सोप कर फिर से निश्चिन्त हो गये। 
पुराने अनुभव से सीखें बिना लूटते-पिटते रहे, इस्लाम स्वीकार करते रहे। ईसाई बनते रहे। देशद्रोह करते रहे। और अपने घर परिवार में खुश रहे। मन्दिरों में नाच- गान करते रहे।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ललकारा, बाइबल, इसाई मजहब , कुरान, इस्लाम मज़हब और सनातध धर्म के मत पन्थ सम्प्रदाय का खणृडध कर इधर मत, पनृथ सम्प्रदायों को भूलकर भूलकर वेदों की ओर लौटने का कहा, जाति व्यवस्था छोड़कर गुण-कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की ओर लौटने का आह्वान किया तथा मूर्ति पूजा छोड़ वैदिक पञ्च महायज्ञ की ओर लौटने का कहा, मुस्लिम और ईसाई बने सनातनियों की शुद्धि कर वापस सनातनी बनाने लगे तो उन्हें नास्तिक, अंग्रैजों और ईसाइयों का एजेंट कहने लगे।