सिकन्दर के आक्रमण के बाद विदेशी संस्कृति से सम्पर्क बढ़ने के कारण भारत में भी मूर्ति पूजा से आकर्षित जैन सम्प्रदाय ने सर्वप्रथम मूर्तिपूजा अपनाई। क्योंकि उनके तीर्थंकर मानव थे, अतः उनकी मूर्तयाँ बन सकती थी।
भारत में सर्वप्रथम मठ- मन्दिर जैन और बौद्धों ने बनवाना प्रारम्भ किये। बौद्धों नें गुफाओं में मठ स्थापित किए तो जैनों ने पत्थरों से चैत्य खड़े किये।
दक्षिण पूर्वी टर्की में खत्ती/हित्ती सभ्यता में, जोर्डन और (दक्षिण भारत से राजा बलि के साथ गये पणि लोगों द्वारा बसाया) फिनिशिया लेबनानमें भी मूर्ति पूजा होती थी। सीरिया में सूर संस्कृति में, इराक मे असीरिया में असूर सभ्यता में मूर्तिपूजा प्रचलित थी और इराक में ही बेबीलोन में बाल देवता की सांड की आकृति की मूर्ति पूजने वाली सभ्यता थी। इसके उल्लेख बाइबल में बहुतायत से हैं। और पुरातत्व उत्खनन में इन देशों में मुर्तियों और मठ मन्दिरों के अवशेष बहुतायत में प्राप्त हुए हैं।
ईरान में भी मग-मीड संस्कृति में बहुत से देवी-देवताओं की पूजा होती थी। जरथ्रुस्त्र ने ईरान में मग मीडों की मूर्ति पूजा का विरोध किया था इसका वर्णन जेन्द अवेस्ता में है। ईरान के मग ब्राह्मण सूर्य पूजक थे। भारत में सौर सम्प्रदाय उन्ही की देन है। श्रीकृष्ण ने साम्ब की कुष्टरोग चिकित्सा हेतु ईरान से मग ब्राह्मणों को बुलाया था। मग ब्राह्मण अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता की विधि से अथर्ववेदीय होम करते थे। तथा सूर्य की मूर्ति भी पूजते थे। जबकि मीड जन नाथ सम्प्रदाय के समान श्रमण संस्कृति के शैव लोग थे।
चीन, इण्डोनेशिया, फिलिपिंस, वियतनाम, कोरिया, जापान, और कम्बोडिया में मूर्तिपूजा होती थी। वैदिकों के आदि पुरुष नारायण का वास स्थानशश शिशुमार चक्र (लघु सप्त ऋषि मण्डल या उर्सा माइनर) में माना जाता है, इसलिए कम्बोडिया के अंकोरवाट के मन्दिर की रचना शिशुमार चक्र अर्थात लघु सप्तऋषि मण्डल के नक्शे के समान है।
अफ्रीका महाद्वीप में मिश्र में भी सोम वंशियों के आदि पुरुष और इष्ट देव सोम का वास मृगशीर्ष नक्षत्र और व्याघ तारा (ओरायन) में माना जाता है इसलिए पिरामिडों की संरचना ओरायन तारामंडल की प्रतिकृति है। मिश्र की संस्कृति भी मूर्तिपूजक थी।
अफ्रीका मे ही इथियोपिया की शीबारानी जिसने इजराइल के राजा सुलेमान से विवाह किया था उस शीबारानी का साम्राज्य सुडान, सऊदी अरब और यमन तथा इरीट्रिया तक फैला था। यह साम्राज्य शैवमत के सबाई पन्थ का मूल स्थान। इब्राहिमी मत के अनुसार उनके प्रथम आचार्य/ प्रथम नबी इब्राहिम को सबाई पन्थ का संस्थापक माना जाता है। इब्राहीम को ही यमन और सऊदी अरब में इब्राहिम के गुरु शुक्राचार्य जी के नाम काव्य पर काबा का मन्दिर बनाया गया।
भारतीय पौराणिक वर्णन के अनुसार अत्रि ऋषि के पुत्र चन्द्र के पौत्र बुध के पुत्र पुरुरवा थे। पुरुरवा का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इळा के साथ हुआ था। वैवस्वत मनु ने इला को ईरान का इलाका इला को उत्तराधिकार में दिया था। इस इळा या इला के पुत्र आयु को आदम कहा जाता है।
शंकर जी की पुत्री अशोक सुन्दरी के पति राजा नहुष को सीरिया इराक अरब के जल प्रलय का नायक नूह कहा जाता है।
राजा ययाति जिनकी ध्वजा में मयूर चिह्न था इसलिए मोरध्वज भी कहलाते थे, और मोरक्को उन्हीं के राज्यक्षेत्र में था उन ययाति को ही इब्राहिम कहते हैं।
इब्राहीम ने सबाई (शिवाय) पन्थ चलाया था। सुलेमान भी इब्राहीम के अनुयाई थे। इब्राहीम के अनुयाई दाउद ने दाउदी पन्थ चलाया। इब्राहीम, सुलेमान और दाऊद के ही अनुयाई मूसा ने यहुदी पन्थ चलाया । यहुदी पन्थ में भारत बौद्ध मत में दीक्षित हो कर वापस इज्राइल लौट कर यीशु ने यहुदियों को बौद्ध मत के अनुसार सुधार के सुझाव दिए। जो यहुदियों को पसन्द नहीं आये। जिन गिने-चुने यहुदियों को सुधार पसन्द आये उनने यीशु को क्रुस से उतार कर चिकित्सा कर वापस भारत लाये। और बाद में यीशु के बारह शिष्यों ने ईसाई पन्थ चलाया।
सीरिया के ईसाई पादरी से दीक्षित सऊदी अरब के माहमद ने इस्लाम पन्थ प्रवर्तन किया। ये सभी पन्थ इब्राहीम को प्रथम नबी मानते हैं और सबाई/ शिवाई सम्प्रदाय के प्रवर्तक मानते हैं। और इब्राहीम पश्चिम एशिया में मूर्ति पूजा के प्रथम विरोधी माने जाते हैं। इब्राहीम आरामी भाषा बोलते थे। और अरब क्षेत्र में रहते थे। इसलिए इब्राहीम ने महादेव शब्द के पर्यायवाची वैदिक शब्द यह्व के समान याहवेह/ यहोवा शब्द को परमेश्वर का नाम माना। और इला से बने एल शब्द को ईश्वर वाचक माना । सऊदी अरब में इस्लाम में इलाही और अल्लाह शब्द ईश्वर वाचक है।
युनान के मन्दिर और क्रीट के देवी मन्दिर प्रसिद्ध हैं, रोम में भी युनानी सभ्यता का प्रभाव था। रोमन साम्राज्य में भी मूर्ति पूजा होती थी। रोमन कैथलिक ईसाई भी मूर्ति पूजक हैं। जबकि भारत में दो हजार साल पुराना कोई मन्दिर नहीं है। प्राचीन इंग्लैंड और स्कॉटलेण्ड में मूर्ति पूजा होती थी। पितृ पूजक नार्वे में नार्डिक देवताओं की मूर्ति पूजा होती थी।
लैटिन अमेरिका/मध्य अमेरिका में पेरु की तोलन सभ्यता में और उत्तर अमेरिका में मेक्सिको में मय सभ्यता में मूर्ति पूजा होती थी।
दक्षिण अमेरिका में बोलीविया के लोग राजा बलि के वंशज हैं, वे कहते हैं हमारे पुर्वज दानव हैं और बाहर से आकर बोलीविया बसाया। बोलीविया में भी मूर्ति पूजा होती थी। अर्थात विश्व में भारत को छोड़ सब स्थानों पर मूर्ति पूजा ही होती थी।
वैदिक कालीन भारत में केवल विदेशी और तान्त्रिक ही मूर्ति पूजा करते थे। उनमें से तान्त्रिक तो वर्तमान में जैन - बौद्ध हो गये। और विदेशी हमारी जाति-प्रथा में रच-बस गये।
वैदिक काल में लिङ्ग पूजक शिश्नेदेवाः कहलाते थे, वैदिक जन लिङ्ग पूजक शिश्नेदेवाः को देखकर उन्हें यज्ञ से दूर रखते कर देते थे या यज्ञ ही रोक देते थे। यजुर्वेद अध्याय बत्तीस मन्त्र तीन में स्पष्ट लिखा है कि, न तस्य प्रतिमा अस्ति। (यजुर्वेद ३२/३) । अर्थात केवल वैदिक ऋषि और वैदिक जन मूर्ति पूजा नही करते थे। केवल यज्ञ और योग ही करते थे।
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