बुधवार, 29 नवंबर 2023

बच्चों के नामकरण के शास्त्रीय नियम।

बच्चों के नामकरण के शास्त्रीय नियम।

शास्त्रों में लिखा है व्यक्ति का जैसा नाम है समाज में उसी प्रकार उसका सम्मान और उसका यश कीर्ति बढ़ती है.

नामाखिलस्य व्यवहारहेतु: शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु:।
नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्य-स्तत: प्रशस्तं खलु नामकर्म।
{वीरमित्रोदय-संस्कार प्रकाश}

स्मृति संग्रह में बताया गया है कि व्यवहार की सिद्धि आयु एवं ओज की वृद्धि के लिए श्रेष्ठ नाम होना चाहिए.

आयुर्वर्चो sभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहृतेस्तथा ।
नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभि:।।

नाम कैसा हो
नाम की संरचना कैसी हो इस विषय में ग्रह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है पारस्करगृह्यसूत्र 1/7/23 में बताया गया है-

द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यंतरस्थं। 
दीर्घाभिनिष्ठानं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्।। 
अयुजाक्षरमाकारान्तम् स्त्रियै तद्धितम् ।।

इसका तात्पर्य यह है कि

बालक का नाम दो या चारअक्षरयुक्त, पहला अक्षर घोष वर्ण युक्त, 

वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा वर्ण, 

मध्य में अंतस्थ वर्ण, य र ल व आदिऔर नाम का अंतिम वर्ण दीर्घ एवं कृदन्त हो तद्धितान्त न हो।

कन्या का नाम विषमवर्णी तीन या पांच अक्षर युक्त, दीर्घ आकारांत एवं तद्धितान्त होना चाहिए

धर्मसिंधु में चार प्रकार के नाम बताए गए हैं

१ देवनाम
२ मासनाम 
३ नक्षत्रनाम 
४ व्यावहारिक नाम 

नोट - कुंडली के नाम को व्यवहार में नहीं रखना चाहिए क्योंकि जो नक्षत्र नाम होता है उसको गुप्त रखना चाहिए. 

यदि कोई हमारे ऊपर अभिचार कर्म मारण, मोहन, वशीकरण इत्यादि कार्य करना चाहता है तो उसके लिए नक्षत्र नाम की आवश्यकता होती है, 

व्यवहार नाम पर तंत्र का असर नहीं होता इसीलिए कुंडली का नाम गुप्त होना चाहिए।

हमारे शास्त्रों में वर्ण अनुसार नाम की व्यवस्था की गई है ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक, आनंद सूचक, तथा शर्मा युक्त होना चाहिए. 

क्षत्रिय का नाम बल रक्षा और शासन क्षमता का सूचक, तथा वर्मा युक्त होना चाहिए, 

वैश्य का नाम धन ऐश्वर्य सूचक, पुष्टि युक्त तथा गुप्त युक्त होना चाहिए, अन्य का नाम सेवा आदि गुणों से युक्त, एवं दासान्त होना चाहिए।

पारस्कर गृहसूत्र में लिखा है -

शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य

शास्त्रीय नाम की हमारे धर्म में बहुत उपयोगिता है मनुष्य का जैसा नाम होता है वैसे ही गुण उसमें विद्यमान होते हैं. 

बालकों का नाम लेकर पुकारने से उनके मन पर उस नाम का बहुत असर पड़ता है और प्रायः उसी के अनुरूप चलने का प्रयास भी होने लगता है 

इसीलिए नाम में यदि उदात्त भावना होती है तो बालकों में यश एवं भाग्य का अवश्य ही उदय संभव है।

हमारे धर्म में अधिकांश लोग अपने पुत्र पुत्रियों का नाम भगवान के नाम पर रखना शुभ समझते हैं ताकि इसी बहाने प्रभु नाम का उच्चारण भगवान के नाम का उच्चारण हो जाए।

भायं कुभायं अनख आलसहूं। 
नाम जपत मंगल दिसि दसहूं॥

विडंबना यह है की आज पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में नाम रखने का संस्कार मूल रूप से प्रायः समाप्त होता जा रहा है. 

इससे बचें शास्त्रोक्त नाम रखें इसी में भलाई है, इसी में कल्याण है।

मंगलवार, 28 नवंबर 2023

आकाश, दिक, काल,और अन्तरिक्ष, समय और अवकाश (शुन्य)।

वैदिक तत्व मीमांसा दर्शन के अनुसार ---
१ (क) प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म को महाकाश कहा जाता है। 
(ख) पुरुष (सवितृ/ श्रीहरि) को आकाश कहते हैं। प्रकृति (सावित्री/ कमला) को शब्द कहते हैं।
(ग) अणुरात्मा ब्रहस्पति को ख कहते हैं।
(घ) स्वाहा (भारती)/ वैकारिक स्वभाव को भी स्काय कहते हैं। 
(ङ) स्व के भूतादिक स्वभाव (स्वधा) ) से अधिभूत हुआ जिसे हम पञ्च तन्मात्रा और पञ्च महाभूत के रूप में जानते हैं। इसमे शब्द तन्मात्रा से आकाश हुआ। यह तो है आकाश। 

२ (क) जीवात्मा (अपर ब्रह्म) को महाकाल कहते हैं।
(ख) अपर पुरुष (नारायण) को काल कहते हैं।
(ग) त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति, (श्री लक्ष्मी) को समय कहते हैं।
(घ) वषट / तेजस स्वभाव (सरस्वती) को समय (Time) कहते हैं।

३ (क) भूतात्मा (हिरण्यगर्भ) को महादिक कहते हैं। (हिरण्यगर्भ की शक्ति वाणी है।)
 (ख) प्राण/ देही (त्वष्टा) को दिक कहते हैं। धारयित्व/ धृति/ अवस्था (रचना) को दिशाएँ कहते हैं।
(ग) स्वधा भूतादिक स्वभाव (इळा), को स्पेस (Space) कहते हैं।

बौद्ध दर्शन के निकट होने के कारण आधूनिक विज्ञान वेत्ता वैशेषिक दर्शन को अधिमान्य करते हैं।
वैदिक तत्त्वमीमांसा के निकट होने के कारण वेदान्ती सांख्य दर्शन की तत्त्वमीमांसा को अधिक निकट पाते हैं।
सांख्य का आकाश और वैदिक आकाश की उत्पत्ति का वर्णन उपर हो चुका है।---
 स्व के भूतादिक स्वभाव (स्वधा) ) से अधिभूत हुआ जिसे हम पञ्च तन्मात्रा और पञ्च महाभूत के रूप में जानते हैं। इसमे शब्द तन्मात्रा से आकाश हुआ। यह तो है आकाश। 
यहाँ ध्यातव्य है कि, शब्द का अर्थ ध्वनि से नहीं समझा जाए। शब्द की तुलना आधुनिक विज्ञान की ब्लेक इनर्जी से की जा सकती है। इसी प्रकार नील गगन आकाश नही है। आकाश की तुलना ब्लेक मटेरियल से हो सकती है। आकाश ही समस्त आकारों/ आकृतियों का जनक है। मतलब सभी आयाम आकाश से ही व्युत्पन्न है। यहाँ तक कि, समय भी आकाश से व्युत्पन्न है और दिक भी आकाश से ही व्युत्पन्न है। 
बाइबल पुराना नियम में भी कहा गया है कि, पहले केवल शब्द ही था। शब्द जल के उपर डोलता था।

यहाँ मैनें समय शब्द का उपयोग किया है, काल का नही। काल दीर्घवृत्तीय गोल में गतिशील होता है। जबकि समय समरेखिक है। समय में हम आगे पीछे चलते हैं।
काल के अन्तर्गत ही कलन होता है। अर्थात काल में ही गणना होती है। काल स्वयम् दीर्घवृत्तीय गोल में सतत गतिशील होता है। कभी स्थिर नहीं रहता। इसलिए काल को पकड़ा नहीं जा सकता। काल के आधिदैविक रूप को अर्जुन को महाभारत युद्ध के पहले श्रीकृष्ण ने दिखाया था। सभी घटनाएँ काल में ही घटित होती है।
दिक का वर्णन वैशेषिक दर्शन में है। जिसे हम आकाश और दिशाओं के मध्य का तत्व के रूप में समझ सकते हैं।
सभी तरह के ब्रह्मांडों के लिए स्थान तो लगेगा ही वही स्थान दिक है, सूक्ष्मतम परमाणु या क्वांटा या क्वार्क इन सभी की भीतरी संरचना में स्पेस दिक है। क्योंकि वह स्थान भी रिक्त या शुन्य नहीं है। अतः वह अवकाश नहीं है।
जबकि शुन्य या अवकाश सम अवस्था है। जहाँ जहाँ भी सम है, वहीँ शुन्य या अवकाश है। क्योंकि यही वह अवस्था है जहाँ दुसरा कुछ भी नहीं हो सकता। कुछ भी आया कि विचलन होगा और शुन्य नहीं रहा। कुछ भी हटाया नहीं जा सकता। जब कुछ है ही नहीं तो क्या हटाओगे? यह वैसा ही कथन है जैसे कम प्रकाश और अधिक प्रकाश। आधा ग्लास भरा ही सत्य कथन है आधा ग्लास खाली गलत कथन है। क्योंकि वास्तव में सही बात तो यह है कि, ग्लास भरा है। ऐसे ही शुन्य में कुछ भी जोड़ा जाए तो वह शुन्य नही रहता लेकिन शुन्य में से कुछ निकल नहीं सकता। 
और व्यवहार में समुद्र तल से 100 किलो मीटर या 62 मील की ऊंचाई से अंतरिक्ष या स्पेस आरम्भ हो जाता है इसे karman line कारमन रेखा कहते हैं। 
इस आकाश और अन्तरिक्ष के बीच जो है वही दिक है। जिसे स्पेस कहा जाता है।

प्राचीन काल में भारत को छोड़ पूरे विश्व में मूर्ति पूजा होती थी।

भारत के वैदिकों को छोड़कर पूरे विश्व में हर संस्कृति में मूर्ति पूजा होती थी। पूरे विश्व में एकमात्र वैदिक संस्कृति ही मूर्ति पूजा विरोधी थी। इसलिए यहाँ प्राचीन मठ और मन्दिर नही मिलते।
सिकन्दर के आक्रमण के बाद विदेशी संस्कृति से सम्पर्क बढ़ने के कारण भारत में भी मूर्ति पूजा से आकर्षित जैन सम्प्रदाय ने सर्वप्रथम मूर्तिपूजा अपनाई। क्योंकि उनके तीर्थंकर मानव थे, अतः उनकी मूर्तयाँ बन सकती थी।
भारत में सर्वप्रथम मठ- मन्दिर जैन और बौद्धों ने बनवाना प्रारम्भ किये। बौद्धों नें गुफाओं में मठ स्थापित किए तो जैनों ने पत्थरों से चैत्य खड़े किये।
दक्षिण पूर्वी टर्की में खत्ती/हित्ती सभ्यता में, जोर्डन और (दक्षिण भारत से राजा बलि के साथ गये पणि लोगों द्वारा बसाया) फिनिशिया लेबनानमें भी मूर्ति पूजा होती थी। सीरिया में सूर संस्कृति में, इराक मे असीरिया में असूर सभ्यता में मूर्तिपूजा प्रचलित थी और इराक में ही बेबीलोन में बाल देवता की सांड की आकृति की मूर्ति पूजने वाली सभ्यता थी। इसके उल्लेख बाइबल में बहुतायत से हैं। और पुरातत्व उत्खनन में इन देशों में मुर्तियों और मठ मन्दिरों के अवशेष बहुतायत में प्राप्त हुए हैं।
ईरान में भी मग-मीड संस्कृति में बहुत से देवी-देवताओं की पूजा होती थी। जरथ्रुस्त्र ने ईरान में मग मीडों की मूर्ति पूजा का विरोध किया था इसका वर्णन जेन्द अवेस्ता में है। ईरान के मग ब्राह्मण सूर्य पूजक थे। भारत में सौर सम्प्रदाय उन्ही की देन है। श्रीकृष्ण ने साम्ब की कुष्टरोग चिकित्सा हेतु ईरान से मग ब्राह्मणों को बुलाया था। मग ब्राह्मण अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता की विधि से अथर्ववेदीय होम करते थे। तथा सूर्य की मूर्ति भी पूजते थे। जबकि मीड जन नाथ सम्प्रदाय के समान श्रमण संस्कृति के शैव लोग थे।
चीन, इण्डोनेशिया, फिलिपिंस, वियतनाम, कोरिया, जापान, और कम्बोडिया में मूर्तिपूजा होती थी। वैदिकों के आदि पुरुष नारायण का वास स्थानशश शिशुमार चक्र (लघु सप्त ऋषि मण्डल या उर्सा माइनर) में माना जाता है, इसलिए कम्बोडिया के अंकोरवाट के मन्दिर की रचना शिशुमार चक्र अर्थात लघु सप्तऋषि मण्डल के नक्शे के समान है।
अफ्रीका महाद्वीप में मिश्र में भी सोम वंशियों के आदि पुरुष और इष्ट देव सोम का वास मृगशीर्ष नक्षत्र और व्याघ तारा (ओरायन) में माना जाता है इसलिए पिरामिडों की संरचना ओरायन तारामंडल की प्रतिकृति है। मिश्र की संस्कृति भी मूर्तिपूजक थी। 
अफ्रीका मे ही इथियोपिया की शीबारानी जिसने इजराइल के राजा सुलेमान से विवाह किया था उस शीबारानी का साम्राज्य सुडान, सऊदी अरब और यमन तथा इरीट्रिया तक फैला था। यह साम्राज्य शैवमत के सबाई पन्थ का मूल स्थान। इब्राहिमी मत के अनुसार उनके प्रथम आचार्य/ प्रथम नबी इब्राहिम को सबाई पन्थ का संस्थापक माना जाता है। इब्राहीम को ही यमन और सऊदी अरब में इब्राहिम के गुरु शुक्राचार्य जी के नाम काव्य पर  काबा का मन्दिर बनाया गया। 
भारतीय पौराणिक वर्णन के अनुसार अत्रि ऋषि के पुत्र चन्द्र के पौत्र बुध के पुत्र पुरुरवा थे। पुरुरवा का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इळा के साथ हुआ था। वैवस्वत मनु ने इला को ईरान का इलाका इला को उत्तराधिकार में दिया था। इस इळा या इला के पुत्र आयु को आदम कहा जाता है। 
शंकर जी की पुत्री अशोक सुन्दरी के पति राजा नहुष को सीरिया इराक अरब के जल प्रलय का नायक नूह कहा जाता है। 
राजा ययाति जिनकी ध्वजा में मयूर चिह्न था इसलिए मोरध्वज भी कहलाते थे, और मोरक्को उन्हीं के राज्यक्षेत्र में था उन ययाति को ही इब्राहिम कहते हैं।
इब्राहीम ने सबाई (शिवाय) पन्थ चलाया था। सुलेमान भी इब्राहीम के अनुयाई थे। इब्राहीम के अनुयाई दाउद ने दाउदी पन्थ चलाया। इब्राहीम, सुलेमान और दाऊद के ही अनुयाई मूसा ने यहुदी पन्थ चलाया । यहुदी पन्थ में भारत बौद्ध मत में दीक्षित हो कर वापस इज्राइल लौट कर यीशु ने यहुदियों को बौद्ध मत के अनुसार सुधार के सुझाव दिए। जो यहुदियों को पसन्द नहीं आये। जिन गिने-चुने यहुदियों को सुधार पसन्द आये उनने यीशु को क्रुस से उतार कर चिकित्सा कर वापस भारत लाये। और बाद में यीशु के बारह शिष्यों ने ईसाई पन्थ चलाया।
सीरिया के ईसाई पादरी से दीक्षित सऊदी अरब के माहमद ने इस्लाम पन्थ प्रवर्तन किया। ये सभी पन्थ इब्राहीम को प्रथम नबी मानते हैं और सबाई/ शिवाई सम्प्रदाय के प्रवर्तक मानते हैं। और इब्राहीम पश्चिम एशिया में मूर्ति पूजा के प्रथम विरोधी माने जाते हैं। इब्राहीम आरामी भाषा बोलते थे। और अरब क्षेत्र में रहते थे। इसलिए इब्राहीम ने महादेव शब्द के पर्यायवाची वैदिक शब्द यह्व के समान याहवेह/ यहोवा शब्द को परमेश्वर का नाम माना। और इला से बने एल शब्द को ईश्वर वाचक माना । सऊदी अरब में इस्लाम में इलाही और अल्लाह शब्द ईश्वर वाचक है।

युनान के मन्दिर और क्रीट के देवी मन्दिर प्रसिद्ध हैं, रोम में भी युनानी सभ्यता का प्रभाव था। रोमन साम्राज्य में भी मूर्ति पूजा होती थी। रोमन कैथलिक ईसाई भी मूर्ति पूजक हैं। जबकि भारत में दो हजार साल पुराना कोई मन्दिर नहीं है। प्राचीन इंग्लैंड और स्कॉटलेण्ड में मूर्ति पूजा होती थी। पितृ पूजक नार्वे में नार्डिक देवताओं की मूर्ति पूजा होती थी। 
लैटिन अमेरिका/मध्य अमेरिका में पेरु की तोलन सभ्यता में और उत्तर अमेरिका में मेक्सिको में मय सभ्यता में मूर्ति पूजा होती थी। 
दक्षिण अमेरिका में बोलीविया के लोग राजा बलि के वंशज हैं, वे कहते हैं हमारे पुर्वज दानव हैं और बाहर से आकर बोलीविया बसाया। बोलीविया में भी मूर्ति पूजा होती थी। अर्थात विश्व में भारत को छोड़ सब स्थानों पर मूर्ति पूजा ही होती थी।
वैदिक कालीन भारत में केवल विदेशी और तान्त्रिक ही मूर्ति पूजा करते थे। उनमें से तान्त्रिक तो वर्तमान में जैन - बौद्ध हो गये। और विदेशी हमारी जाति-प्रथा में रच-बस गये।
वैदिक काल में लिङ्ग पूजक शिश्नेदेवाः कहलाते थे, वैदिक जन लिङ्ग पूजक शिश्नेदेवाः को देखकर उन्हें यज्ञ से दूर रखते कर देते थे या यज्ञ ही रोक देते थे। यजुर्वेद अध्याय बत्तीस मन्त्र तीन में स्पष्ट लिखा है कि, न तस्य प्रतिमा अस्ति। (यजुर्वेद ३२/३) । अर्थात केवल वैदिक ऋषि और वैदिक जन मूर्ति पूजा नही करते थे। केवल यज्ञ और योग ही करते थे।

रविवार, 26 नवंबर 2023

हमारी दासता का के दस कारण


हमारी दासता का मूल कारण 
१ आद्य शंकराचार्य जी द्वारा बौद्ध जैन आचार्यों को सनातन धर्म में दीक्षित कर उन्हें आचार्य पद पर विराजमान करना, 
२ उनके द्वारा वेद विरुद्ध पुराण रचना करना, 
३ वेदिक मत से भिन्न मत वाले पुराणों को धर्मशास्त्र मानना, 
४ रट्टुओं का ही सम्मान, 
५ खोज, अनुसंधान और विकास को हतोत्साहित करना, 
६ विदेश यात्रा पर प्रतिबंध, 
७ बौद्ध - जैन अहिंसा, 
८ सम्राट अशोक की मुर्खता को आदर्श बतलाकर विदेशों पर आक्रमण नही करना (और उसी मुर्खता को आज भी गौरव बतलाया जाता है।), 
९ गृहयुद्ध और पारस्परिक द्वन्द्वयुद्ध के नियमों को विदेशी आक्रांताओं पर लागू करना (जिसे आंशिक रूप से प्रथम बार शिवाजी ने तोड़ा।), और 
१० पुराने क्षत्रियों में क्षात्र तेज और आत्मविश्वास जगाने के स्थान पर शक, हूण, खस, ठस,बर्बर जैसी तुर्की जातियों को राष्ट्र की सुरक्षा कवच मान बैठना है।

हम दास हुए अपनी मुर्खताओं के कारण तो दुसरों को दोष देकर अपनी कमजोरियाँ छुपाने से क्या लाभ। यदि हम दास होते ही नहीं तो न हमारा साहित्य नष्ट होता, न कौशल नष्ट होता, न हम धर्मभ्रष्ट होते, न सनातनधर्मी हिन्दू कहलाते, न हमारी वैदिक संस्कृति सिमटती, न हिन्दू सभ्यता आती।

शनिवार, 25 नवंबर 2023

केवल रट्टुओं का सम्मान करने और वैज्ञानिक अनुसंधान, उद्योगीकरण पर ध्यान न देकर देश की अत्यन्त हानि हुई।

भारतियों की एक कमजोरी रही कि, हम सदैव रट्टू तोतों को सम्मानित करते रहे और अनुसन्धान कर्ता बच्चो और बढ़ों के कार्य में भी बाधक बने, उनको मान-सम्मान देने के बजाय उपहास किया। और अनुसन्धान कर्ताओं नें भी अपने ज्ञान को सार्वजनिक नही किया, छुपाया। पुराने वैज्ञानिक नये अनुसन्धानों को पेटेण्ट होने के मार्ग में बाधक बनते हैं। अनुसन्धान कर्ता को भी पेटेण्ट करवाने की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं होता और न उतना धन व्यय करने की सामर्थ्य।
हमने संस्कृत श्लोक रटने वाले, गीता- रामायण मुखाग्र करने वाले बच्चों को सम्मानित किया लेकिन कोई बच्चा वैज्ञानिक विवेचना करे, तकनीकी प्रयोग करे तो माता-पिता और शिक्षक डांट कर चुप करा देते हैं।
जबकि, यूरोप में जेम्स बांड ने भाप की शक्ति को जाना तो स्टीम इंजन बना दिया, उसका यान्त्रिक उपयोग किया। उसके परिणाम स्वरूप यूरोप में हुई औद्योगिक क्रान्ति से पूरे विश्व पर यूरोपीय लोगों का शासन हो गया। यूरोपीय संस्कृति पूरे विश्व में छा गई।
जबकि भरद्वाज ने विमान शास्त्र रचा लेकिन विमानों बना कर सार्वजनिक उपयोग में नहीं लाये। अगस्त्य संहिता में लेकलांची सेल बनाकर विद्युत उर्जा बनाने की सम्पूर्ण विधि दी गई है। लेकिन हमने विद्युत उर्जा का उपयोग करना नहीं सीखा, न उसका व्यावसायिक उत्पादन किया न उस ज्ञान का विकास किया।
राजा भोज ने भी वैमानिकी और जहाज बनाने की विधियाँ लिखी लेकिन हवाई जहाज, राकेट और जहाज बनाने का उद्योग खड़ा नहीं किया। ये सभी साहित्य आज भी उपलब्ध हैं। नष्ट नहीं हुए।
हमें पत्थर पिघलानें का ज्ञान था, दक्षिण भारत के मन्दिर इसके प्रमाण हैं लेकिन उसकी विधि नहीं लिखी, परिणाम स्वरूप वह विद्या लुप्त हो गई।विद्युत बनाना जानते थे लेकिन उपयोग करना नहीं सीखा।
राकेट बनाना जानते थे लेकिन उपयोग नहीं सीखा।
परिवहन संसाधन बनाना जानते थे लेकिन उपयोग नही किया। इन्हीं मुर्खताओं के कारण पूरा विश्व पिछड़ गया।
तलपड़े ने विमान बनाया, सार्वजनिक प्रदर्शन किया, और अपना उद्योग खोल कर और बड़े विमान बनाने के बजाय वह माडल भी नष्ट कर दिया। न उसकी विधि लिखी न माडल रहने दिया। परिणाम राइट बन्धुओं को श्रेय भी गया और लाभ भी यूरोपीय देशों नें उठाया।
हमारे यहाँ वर्षों पहले से राकेट उड़ाये जाते थे। दक्षिण में टीपू सुल्तान जैसे मुस्लिम शासकों ने युद्ध में उनका उपयोग किया, लेकिन हमने राकेट बनाने के उद्योग डालकर देशहित नही किया।
बस रट्टुओं का सम्मान करते रहे।