परमात्मा सर्वव्यापी है, परमात्मा के बारे में कुछ भी और कितना ही कहा जाए अपूर्ण ही रहेगा। इस लिए नेति-नेति कहते हैं।
लगभग यही स्थिति ॐ की भी है। सृष्टि उत्पत्ति के लिए परमात्मा का संकल्प ॐ संकल्प कहलाता है। ॐ मतलब कल्याण स्वरूप। यह ॐकार तरङ्गाकार माने जाते हैं।
परब्रह्म (विष्णु-माया) भी सर्वव्यापी हैं। विष्णु का अर्थ ही व्यापक है।विष्णु के हाथ में नियति चक्र है । ऋग्वेदोक्त 90×4 =360 अरों का चक्र है। (नब्भे गुणित चार अर्थात 360अरोंं का संवत्सर चक्र है।) "
विष्णु की मुर्ति शालिग्राम शिला है। लेकिन परवर्ती काल में काले पत्थर से शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी खड़ी या बैबी हुई प्रतिमाएँ भी मिलती है।
ब्रह्म (सवितृ - सावित्री) का अर्थ बढ़ा महा है। सवितृ - सावित्री को ही हरि और कमला कहते हैं।
परब्रह्म महा आकाश हैं। अतः लगभग सर्वव्यापी हैं। इन्हें भी लगभग तरङ्गाकार ही कहा जा सकता है; लेकिन
सवितृ - सावित्री (हरि और कमला) को कमल के अलग-अलग आसन पर विराजित बतलानें की परम्परा है।
अपर ब्रह्म को नारायण और श्री तथा लक्ष्मी के रूप में जानते हैं। नारायण तरङ्गाकार लेकिन दीर्घवृत्तीय गोलाकार (अण्डाकार) हैं।
नारायण को जिष्णु भी कहलाते हैं मतलब स्वाभाविक विजेता या अजेय भी कहते हैं। ये जगदीश्वर कहे जाते हैं इनको शिशुमार चक्र में क्षीर सागर में स्थित बतलाया जाता है। सत्ता ,गुणों, साख और स्थाई सम्पत्ति को श्री तथा रत्न, स्वर्ण, नगदी को लक्ष्मी मानते हैं।
चित्रों और मुर्तियों में शेषशय्या पर विराजमान अष्टभुजा नारायण की पाद सेवा करते हुए लक्ष्मी और चँवर सेवा करते हुए श्रीदेवी बतलाई जाती है।
नारायण महाकाल हैं। इसके पहले काल का अस्तित्व ही नहीं था। अतः इनकी काल गणना आयु आदि नहीं बतलाई जा सकती।
ॐकार, विष्णु, सवितृ (हरि) और अपरब्रह्म (नारायण- श्री और लक्ष्मी) सभी तरङ्गाकार ही कहे जा सकते हैं।
हिरण्यगर्भ की पत्नी (शक्ति) वाणी कहलाती है। पुरुषसूक्त के विश्वकर्मा यही हैं।
हिरण्यगर्भ को त्वष्टा और रचना के रूप में जानते हैं।
ऋग्वेद के अनुसार त्वष्टा नें ब्रहाण्ड के गोलों को सुतार की भाँति घड़ा। अतः ब्रह्माण्ड त्वष्टा की रचना है। हिरण्यगर्भ की आयु दो परार्ध (एकतीस नील, दस खरब, चालीस अरब वर्ष) है। हिरण्यगर्भ अण्डाकार हैं। अतः हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के पाँच मुख कहे गए हैं।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान 1 त्वष्टा-रचना के अलावा 2 सनक, 3 सनन्दन, 4 सनत्कुमार और 5 सनातन तथा 6 नारद , 7 प्रजापति, और 8 एकरुद्र हैं।
अर्थात प्रजापति और सरस्वती हिरण्यगर्भ की मानस सन्तान है।
जैसे सूर्य के साथ ही उसका प्रकाश भी उत्पन्न होता है। सूर्य की शक्ति उसका प्रकाश है। अतः प्रकाश (प्रभा) को सूर्य की पत्नी कहा जाता है। लेकिन साथ साथ जन्मे मानस सन्तान को जुड़वाँ भाई- बहन भी कह सकते हैं। सूर्य कारण है और प्रकाश कार्य है अर्थात सूर्य से उसका प्रकाश होता है, अतः प्रकाश (प्रभा) को सूर्य की पुत्री भी कह सकते हैं। जा की रही भावना जैसी सिद्धान्त से सबने अपनी भावनाओं के अनुसार समझा।
ऐसे ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से उत्पन्न, प्रजापति ब्रह्मा के साथ उत्पन्न, प्रजापति की शक्ति सरस्वती को भी ब्रह्मा की पुत्री और ब्रह्मा की पत्नी वाला विवाद जन्मा।
प्रजापति ब्रह्मा पूर्ण गोलाकार हैं, इसलिए प्रजापति को चतुर्मुख (चारों ओर मूँह वाले) कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और प्रजापति दोनों को ब्रह्मा कहा जाता है। इसलिए एक ब्रह्मा के पाँच मुख और दुसरे ब्रह्मा के चार मुख से भ्रम हुआ तो ब्रह्मा का उपर का मुख रुद्र नें काट दिया; यह कहानी गढ़ ली गई।
इन्द्र - शचि और अग्नि - स्वाहा देवस्थानी प्रजापति कहलाते हैं एवम् एक देवर्षि नारद मुनि हैं इसलिए प्रजापति नही कहे जाते। बल्कि देवर्षि कहलाते हैं।
पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। पितरः ने स्वयम् सप्त पितरों और उनकी शक्ति के रूप में प्रकट किया। जिनमें से १ अग्निष्वात २ बहिर्षद और ३ कव्यवाह तीन निराकार और ४ अर्यमा, ५ अनल ६ सोम और ७ यम चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं।
इन्द्र - शचि और अग्नि - स्वाहा के अलावा निम्नलिखित स्वर्गस्थानी देवगण हुए
रुद्र- रौद्री (शंकर - उमा), धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ (1 श्रद्धा, 2 लक्ष्मी, 3 धृति, 4 तुष्टि, 5 पुष्टि, 6 मेधा, 7 क्रिया, 8 बुद्धि, 9 लज्जा, 10 वपु, 11 शान्ति, 12 सिद्धि, 13 कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है।
रुद्र मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं।
"तीन प्रजापतियों की जोड़ी को भूस्थानी प्रजापति बतलाया गया है।
1 दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, 2 रुचि प्रजापति-आकुति और 3 कर्दम प्रजापति-देवहूति।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।"
इनके अलावा आठ भूस्थानी प्रजापति ये हैं 4 मरीची-सम्भूति, 5 भृगु-ख्याति, 6 अङ्गिरा-स्मृति, 7 वशिष्ट-ऊर्ज्जा, 8 अत्रि-अनसुया, 9 पुलह-क्षमा,10 पुलस्य-प्रीति, 11 कृतु-सन्तति। ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और उनकी पत्नी प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान ब्रह्मर्षि देश (हरियाणा) कहलाता है एवम इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए।
तैंतीस देवता गण - 1 प्रजापति, 2 इन्द्र, 3 से 14 तक द्वादश आदित्य, 15 से 22 तक अष्ट वसु तथा 23 से 33 तक एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं। कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर 1 दस्र और 2 नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।
भूस्थानी प्रजापतियों का वासस्थान या राजधानी क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू, कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ईरान तक था ।
ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है - १ शुभा, २ ममता और ३ तारा।
मुख्य द्वादश आदित्यों को 1 विष्णु, 2 सवितृ, 3 त्वष्टा, 4 इन्द्र, 5 वरुण, 6 विवस्वान, 7 पूषा, 8 भग, 9 अर्यमा, 10 मित्र, 11 अंशु और 12 धातृ के नाम से जाना जाता है।
आदित्यों का भूमि पर वासस्थान भी कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वतमनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।"
ब्रह्मणस्पति की पत्नी (शक्ति) सुनृता है।
मुख्य अष्ट वसुओं के नाम 1 प्रभास, 2 प्रत्युष, 3 धर्म, 4 ध्रुव, 5 अर्क, 6 अनिल, 7 अनल और 8 अप् हैं ।
महारुद्र पशुपति एकादश रुद्र के रूप में प्रकट हुए। महारुद्र नें स्वयम को 1 हर, 2 त्र्यम्बकं, 3 वृषाकपि, 4 कपर्दी, 5 अजैकपात, 6 अहिर्बुधन्य, 7 अपराजित, 8 रैवत, 9 बहुरूप, 10 कपाली और 11शम्भु (शंकर)) के रूप में प्रकट किया। ये अधिकांशतः कैलाश से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैलेहुए थे।
मूलतः गणपति अर्थात गणों (समुदायों) के प्रधान को कहते हैं। रुद्र गणों के महागणाधिपति शंकर जी कहलाते हैं। उनने व्रात गणों के गणपति विनायक को गणपति का दायित्व सौंपा इसलिए विनायक भी गणपति कहाने लगे।
वेदों में सोम राजा और वरुण महाराज कहलाते हैं। वरुण, सोम और स्वायम्भूव मनु को गणपति कहा जा सकता है। स्वायम्भूव मनु की शक्ति शतरूपा है।
सभी प्राचीन ऋषि और ब्राह्मण 1 दक्ष - प्रसुति , 2 रुचि - आकुति, 3 कर्दम- देवहुति, 4 मरीची-सम्भूति, 5 भृगु-ख्याति, 6 अङ्गिरा-स्मृति, 7 वशिष्ट-ऊर्ज्जा, 8 अत्रि-अनसुया, 9 पुलह-क्षमा, 10 पुलस्य-प्रीति, 11 कृतु-सन्तति आदि भूस्थानी ग्यारह प्रजापतियों की सन्तान हैं। तथा सभी प्राचीन क्षत्रिय स्वायम्भूव मनु की सन्तान हैं।
ब्राह्मणों और क्षत्रियों में से ही वैष्य हुए। क्षत्रियों और वैष्यों में से कुछ कार्मिक (सेवक) शुद्र हुए। वैश्यों और शुद्रों में से कुछ पञ्चम (चाण्डाल) हुए। शुद्रों और पञ्चमों में से कुछ म्लेच्छ हुए।
बाद में इससे उलट भी हुआ। कुछ शुद्र, वैश्य और क्षत्रियों नें ब्राह्मणत्व भी प्राप्त किया।
सदसस्पति की शक्ति मही के तीन स्वरूप १ भारती २ सरस्वती और ३ इळा को तिस्रो देवताः कहा जाता है।
अष्टादित्यों के नाम 1 मार्तण्ड (विवस्वान), 2 इन्द्र, 3 वरुण, 4 मित्र, 5 धाता, 6 भग, 7 अंश और 8 अर्यमा) कश्यप और अदिति के पुत्र हैं।
दुसरे अष्ट वसु (1 द्रोण, 2 प्राण, 3 ध्रुव, 4 अर्क, 5 अग्नि 6 दोष, 7 वसु और 8 विभावसु ) कहते हैं। ये पूर्वकथित अष्ट वसु से भिन्न हैं।
दुसरे एकादश रुद्र (1मन्यु, 2 मन , 3 महिनस, 4 महान, 5 शिव, 6 उग्ररेता, 7 भव, 8 काल, 9 वामदेव, 10 धृतवृत और 11 मृगव्याध हैं। या मतान्तर से अन्य नाम 1 सर्प,2 निऋति,3 पिनाकी, 4कपाली,5 स्थाणु, 6 ईशान नाम और 7 दहन भी।
पञ्च मुख्य प्राण और पञ्च उपप्राण 1 उदान -देवदत्त, 2 व्यान - धनञ्जय,3 प्राण - कृकल, 4 समान - नाग, 5 अपान -कुर्म के रूप में जानते हैं। इनके अधिदेवता द्वादश तुषितगणों के नाम 1 बुद्धि, 2 मन,3 उदान, 4 व्यान, 5 प्राण, 6 समान, 7 अपान, 8 श्रोत, 9 स्पर्ष, 10 चक्षु, 11 रसनाऔर 12 घ्राण के रूप में भी जाने जाते हैं।
2 अध्यात्म को हम पञ्चज्ञानेन्द्रिय तथा पञ्च कर्मेन्द्रिय १ श्रोत - वाक (कण्ठ) , २ त्वक - हस्त , ३ चक्षु - पाद , ४ रसना - उपस्थ और ५ घ्राण - पायु के रूप में जानते हैं।
इनके अधिदेवता शक्तियों सहित उनचास मरुद्गण है।
उनचास मरुद्गणों में सात प्रमुख माने गये हैं
1 आवह, 2 प्रवह, 3 संवह, 4 उद्वह, 5 विवह, 6 परिवह और 7 परावह है।
ये सातों सैन्य प्रमुख समान गणवेश धारण करते है। इनके प्रत्येक के छः छः स्वरूप (या पुत्र) अर्थात बयालीस मिलाकर उनचास मरुद्गण हुए।
ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप कर्मदेव (देवता श्रेणी) में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।
3 अधिभूत को हम पञ्च महाभूत और पञ्च तन्मात्रा 1 आकाश -शब्द, 2 वायु - स्पर्ष, 3 अग्नि - रूप, 4 जल - रस और 5 भूमि - गन्ध के रूप में जानते हैं।
( तन्मात्राओं का सम्बन्ध उर्जाओं से जोड़ा जा सकता है --1 शब्द -ध्वनि से, 2 स्पर्ष विद्युत से, 3 रूप प्रकाश से सीधे सम्बंधित हैं, 4 रस का सम्बन्ध भी पकानें के रूप में ऊष्मा से लगता है। 5 किन्तु गन्ध का ही सीधा सम्बन्ध चुम्बकत्व नही दिखता है )) "
द्वादश साध्यगण के नाम 1 मन, 2 अनुमन्ता, 3 प्राण, 4 अपान, 5 विति , 6 हय, 7 हन्स, 8 विभु, 9 प्रभु, 10नय, 11 नर और 12 नारायण ) हैं।
चक्र और चार उप चक्र के नाम 1 ब्रह्मरन्ध्र चक्र - आज्ञा चक्र, 2 अनाहत- विशुद्ध चक्र, 3 मणिपुरचक्र - स्वाधिस्ठानचक्र और 4 मूलाधार चक्र - कुण्डलिनी।
चक्रों के अधिदेवता चौरासी सिद्धगण हैं।
प्रभास वसु और ब्रहस्पति की बहन वरस्त्री के पुत्र देवशिल्पी विश्वकर्मा हुए।
संस्थान और तन्त्र 1 मस्तिष्क - तन्त्रिका तन्त्र, 2 हृदय - श्वसन तन्त्र, 3 यकृत - पाचन तन्त्र और 4 लिङ्ग - जनन तन्त्र हैं।
अष्ट सिद्धि (चार मुख्य सिद्धि एवम चार उप सिद्धि) 1 ईशित्व- वशित्व, 2 अणिमा-लघिमा, 3 महिमा- गरिमा और 4 प्रकाम्य - प्राप्ति के रूप में जानते हैं।
सिद्धियों के अधिदेवता अष्ट विनायक 1 सम्मित-उस्मित, 2 मित- देवयजन, 3 शाल - कटंकट और 4 कुष्माण्ड - राजपुत्र ये आठों पिशाच हैं और शिवगण हैं।
(सुचना - ये मूलतः पिशाच हैं। ये शुभकार्यों में विघ्नकर्ता ग्रह हैं। तन्त्र में विनायक शान्ति प्रयोग द्वारा विघ्नबाधाएँ दूर करनें का विधान है। )
दस विश्वैदेवगण - 1 दक्ष (द्वितीय), 2 कृतु, 3 सत्य, 4 काल (यम) 5 काम, 6 मुनि, 7 एल पुरुरवा, 8 श्रव, 9 रोचमान, 10 आर्द्रवान हैं।
तीन नाड़ियाँ १ सुषुम्ना २ पिङ्गला और ३ इड़ा है।
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