गुरुवार, 21 सितंबर 2023

वैदिक और पौराणिक अयन - ऋतु और पर्वोत्सव में अन्तर।

दिनांक २३ सितम्बर २०२३ शनिवार को दोपहर १२:२० बजे शरद सम्पात, सातन तुला संक्रान्ति होगी।
दिन- रात बराबर होंगे, सूर्य भू-मध्य रेखा पर पहूँच कर दक्षिण गोलार्ध में प्रवेश करेगा। दक्षिण ध्रुव पर सूर्योदय और उत्तर ध्रुव पर सूर्यास्त होगा।
अर्थात वैदिक दक्षिणायन प्रारम्भ होगा। देवताओं का सूर्यास्त और पितरों का सूर्योदय होगा। यह वैदिक पर्व है।
 
वैदिक काल में आर्यावर्त पामीर के पठार से दक्षिण में तिब्बत, तुर्किस्तान, कश्मीर से विन्द्याचल या नर्मदा तक था। अतः कालगणना का का केन्द्र धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र था। तब संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण प्रारम्भ, वसन्त ऋतु प्रारम्भ और मधुमास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, सायन मेष संक्रान्ति (अर्थात वर्तमान में २०/२१ मार्च) से होता था। उस दिन भी दिन- रात बराबर होंते हैं। उसी समय सूर्य भू-मध्य रेखा पर पहूँच कर उत्तर गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तर ध्रुव पर सूर्योदय और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। देवताओं का सूर्योदय और पितरों का सूर्यास्त होता है। वैदिक काल का यह सबसे बड़ा महत्वपूर्ण पर्व, उत्सव और त्योहार था।
लेकिन, जब दक्षिण भारत में भी जनसंख्या बढ़ने लगी और तिब्बत, तुर्किस्तान में शक आदि म्लेच्छ जातियाँ बस गई तो आर्यावर्त के निवासी दक्षिण में विन्द्याचल पर बसने लगे कुछ विन्द्याचल पार कर दक्षिण में बस गए। तब पौराणिक काल में ज्योतिर्गणना का केन्द्र उज्जैन को घोषित किया गया। उत्तर परम क्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति से उत्तरायण प्रारम्भ, शिशिर ऋतु का प्रारम्भ और तपस मास घोषित किया गया। वसन्त ऋतु और मधु मास सायन मीन संक्रान्ति (वर्तमान १८ फरवरी) से घोषित किया गया। इस प्रकार उत्तरायण तीन महीने पहले होने से वर्षा ऋतु पौराणिक दक्षिणायन में पड़ने लगी। तो उत्तरायण में निकलने वाले मुहुर्त में वर्षा ऋतु पड़ने से होने वाली बाधाएँ समाप्त हो गई।

भारत के सांस्कृतिक इतिहास के जानकार जानते हैं कि, जब वामन ने बलि को निष्कासित किया तो दक्षिण भारतीय पणि, दासजन, चौल आदि बलि के साथ सिन्ध - अफगानिस्तान - ईरान होते हुए लेबनान में बसे। वहाँ से बलि तो दासो सहित बोलीविया (दक्षिण अमेरिका) में बस गया लेकिन पणियों ने लेबनान में फोनिशिया बसाया। इन लोगों को ईरानियों ने काले होने के कारण हिन्दू कहा। महर्षि अगस्त द्वारा विन्द्याचल पार का सुगम मार्ग खोजा गया। श्री राम ने दण्डकारण्य को राक्षसों से मुक्त किया तो आर्यावर्त के निवासी दक्षिण भारत में बसने लगे।  तब वैदिक कैलेण्डर के अनुसार उत्तरायण में दक्षिण और मध्य भारत में वर्षा ऋतु के कारण उत्तरायण में होने वाले धार्मिक - सामाजिक उत्सवों में वर्षा से बाधा उत्पन्न होने लगी। विद्वानों ने विचार कर उज्जैन को काल गणना का केन्द्र बनाया। पुराणों में मधु माधव मास के स्थान पर चैत्र - वैशाख चान्द्रमासों की तिथियों से व्रत पर्व, उत्सव और त्योहार तथा मुहुर्त घोषित किए गए। इसमें सम्राट विक्रमादित्य और उनके राज ज्योतिषी आचार्य वराहमिहिर की भूमिका सर्वोपरि रही।
उल्लेखनीय है कि, महाभारत काल में प्रत्येक अट्ठावन चान्द्रमासों के बाद दो अधिक मास (अधिक मास की ऋतु) होती थी। १९ वर्षीय, १२२ वर्षीयऔर १४१ वर्षीय चक्र वाले निरयन सौर मासाधारित चान्द्र वर्ष (शकाब्द) के माहों और महाभारत के मासों में नाम साम्य दिखता है लेकिन है नही। इसी कारण महाभारत की काल गणना समझने में विद्वान भी उलझ जाते हैं।
कृपया ग. वा. कविश्वर की पुस्तकें महाभारत के तेरह वर्ष और महाभारत के गूढ़ रहस्य तथा गीता तत्व मीमांसा पढ़ें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें