शनिवार, 26 अगस्त 2023

सायन निरयन विवाद का हल

वैदिक संहिताओं में निर्दिष्ट वर्णाश्रम धर्मानुसार पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्ग योग, तप, व्रत और बुद्धियोग का परिपालन कर बिना शासन के भी समाज व्यवस्था जब सुचारू अनुशासित  रूप से चलती थी उसे ऐतिहासिक ग्रन्थो में शुद्ध वैदिक युग कहते हैं।  पुराणों में इसे सतयुग कहा है।
ब्राह्मण ग्रन्थों के रचयिता ऋषियों के निर्देश पर राजन्य और आचार्य  वर्ग जब बड़े बड़े नैमित्तिक यज्ञों में प्रवृत्त हो नई नई खोजबीन करने लगे उस काल को उत्तर वैदिक युग कहते हैं। पुराणों में इसे त्रेता युग कहा है।
उत्तर वैदिक युग के अन्त में सूत्र ग्रन्थों की रचना और सूत्र ग्रन्थों के आधार पर दैनिक क्रियाओं, और बड़े-बड़े यज्ञयाग होने लगे, संस्कारों की संख्या बढ़ने लगी षड दर्शन की रचना भी इसी समय होनें से शास्त्रार्थ होने लगे तब उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। पुराणों में इसे द्वापर युग कहा जाता है। 
ऐतिहासिक ग्रन्थो में इन तीनों कालों को वैदिक काल ही कहा है। वैदिक काल में आर्यावर्त  का विस्तार ब्रह्मावर्त की सीमा पामीर के पठार, तिब्बत, तुर्की तथा ईरान से विंध्याचल तक  तक था। 
इसके बाद स्मृतियों को राजाओ और राज्यों का संविधान मानकर शासनकाल स्मार्त काल कहलाता है। 
रामायण - महाभारत की अवधि महाकाव्य काल कहा जाता है। महाकाव्य काल और पौराणिक काल में जब भारतीय जनसंख्या दक्षिण भारत और सिंहल द्वीप (श्रीलंका) तक बढ़ गई। 
पुष्यमित्र शुंग और विक्रमादित्य के बाद का काल पौराणिक युग कहलाता है।

वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ तथा वैदिक मधु माधव आदि मास की व्यवस्था तिब्बत, ईरान, तुर्की तथा उत्तरी भारत के क्षेत्र को ध्यान में रख कर की गई थी। इसलिए वैदिक ग्रंथों में संवत्सर, उत्तरायण/ उत्तरगोल, वसन्त ऋतु और मधुमास का प्रारम्भ वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वसन्त सम्पात दिवस से शुन्यक्रान्ति से प्रारम्भ होकर उत्तर गोल में सूर्य वाला काल वैदिक उत्तरायण / उत्तर गोल कहलाता था तथा शरद सम्पात दिवस से शुन्यक्रान्ति से प्रारम्भ होकर दक्षिण गोल में सूर्य वाला काल  वैदिक दक्षिणायन/ दक्षिण गोल कहलाता है।
उत्तर परमक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला वैदिक काल उत्तर तोयन (पौराणिक उत्तरायण) कहलाता है तथा दक्षिण परमक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला काल वैदिक दक्षिणायन/ दक्षिणगोल कहलाता है।

जब विन्द्याचल से दक्षिण भारत में जनसंख्या बढ़ी तब वैदिक उत्तरायण में वैदिक वर्षा ऋतु पढ़ने के कारण वैदिक उत्तरायण में विवाह, उपनयन, मुण्डन आदि संस्कारों के उत्सव मनाया जाना कठिन लगने लगा तो पौराणिकों नें और ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थकारों और संहिता ज्योतिष के विद्वानों और धर्मशास्त्रियों नें मिलकर मध्य भारत के उज्जैन को केन्द्र मानकर अयन, तोयन, ऋतुओं और मासों का प्रारम्भ दिन पुनर्निर्धारित किया गया। जिसका वर्णन आगे किय गया है।

ऋतुएँ सूर्य की क्रान्ति और भूमि के अक्षांशों पर निर्भर करती है। केवल सूर्य की क्रान्ति और सायन सौर मासों के आधार पर भूमि के अक्षांशों को छोड़कर ऋतुओं को नही जाना जा सकता। प्रकृति में भी टेसु के फूल (पलाश के पूष्प/ किंशुक कुसुम) तथा आमृ बोर (आम के फूल) दक्षिण भारत में जनवरी में ही आजाते हैं।  तथा कर्नाटक का बादाम आम सबसे पहले बाजार में आ जाता है; जबकि, उत्तर प्रदेश के वाराणसी का लंगड़ा और लखनऊ का दशहरी आम की फसल सबसे बाद में जून जूलाई तक आती है। दक्षिण गोलार्ध में ऋतु चक्र उत्तरी गोलार्ध के ठीक विपरीत होता है। यह भूमि के अक्षांशों का महत्व प्रमाणित करता है।

सर्वश्री बालगंगाधर तिलक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, व्यंकटेश बापूजी केतकर, दीनानाथ शास्त्री चुलेट, नीलेश ओक आदि महाराष्ट्र प्रान्त के कई विद्वान तेत्तरीय संहिता, तेत्तरीय ब्राह्मण और अथर्ववेद के आधार पर यह सिद्ध कर चुके हैं कि,

१ वैदिक काल में वसन्त सम्पात (अर्थात सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च) से ही संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास प्रारम्भ होता था। 
संवत्सर का मान ३६५.२४२१९ दिन के लगभग ही था।
२ वैदिक काल में शरद सम्पात (अर्थात  सायन तुला संक्रान्ति २३ सितम्बर) से दक्षिणायन, शरद ऋतु और ईष मास प्रारम्भ होता था।
३ उत्तर परमक्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति २२/२३ जून) से दक्षिण तोयन तथा शचि मास प्रारम्भ होता था।
४ दक्षिण परमक्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति २२/२३ दिसम्बर) से उत्तर तोयन तथा सहस्य मास प्रारम्भ होता था।
५ क्रान्ति आधारित संक्रान्ति अर्थात सायन संक्रान्ति प्रचलित थी। सायन मधु- माधवादि मास ३०° के होते थे। लेकिन सावन मास ३० दिन के होते थे।
६ सायन राशियाँ/ मास की गणना विषुव वृत्त में की जाती थी।
७ विषुववृत्त का प्रारम्भ बिन्दु वसन्त सम्पात माना था।
८ नक्षत्रों की गणना/ निरयन गणना क्रान्तिवृत में की जाती थी।
९  चित्रा नक्षत्र के योग तारा को आकाश या क्रान्तिवृत का मध्य बिन्दु अर्थात १८०° माना जाता था। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु नक्षत्र पट्टी का प्रारम्भ बिन्दु अर्थात अश्विनी नक्षत्र का आदि बिन्दु माना जाता था। अश्विनी आदि नक्षत्रों की गणना चित्रा तारे के १८०° से ही प्रारम्भ होती थी। 
१० ताराओं से निर्मित आकृति विशेष को नक्षत्र कहते थे।असमान भोगमान वाले सत्ताइस नक्षत्र और अट्ठाइस नक्षत्र दोनों प्रचलित थे। सब नक्षत्रों के भोगमान प्रथक-प्रथक थे। १३°२०' के नक्षत्र प्रचलित नही थे। 
११ क्रान्तिवृत की नक्षत्र पट्टी से दूर हो जाने के कारण बाद में अभिजित नक्षत्र को छोड़ दिया गया और केवल २७ नक्षत्रों को मान्यता मिली।
१२ नाक्षत्रीय गणना अर्थात निरयन गणना में राशियों के नाम मेष- वृषभादि प्रचलित नही थे, किन्तु ३६०° का नाक्षत्रीय वर्ष जिसका मान ३६५.२५६३६३ दिन के लगभग ही था। और ३०° के निरयन मास थे। 
१४ निरयन मास पर आधारित चैत्र - वैशाख आदि अमान्त चान्द्रमास प्रचलन में आने लगे थे।
१५ भारत में दस दिन का दशाह प्रचलित था। सम्भवतः श्रमिकों का पारिश्रमिक वितरण दशाह के अन्तिम दिन होता था। लेकिन दशाह के वासरों के नाम ग्रहो आदि के नाम से प्रचलित नही थे। वेदों में सप्ताह शब्द भी आया है, लेकिन सप्ताह का व्यावहारिक पक्ष ज्ञात नही है। सप्ताह के वासरों के नाम भी ग्रहो आदि के नाम से प्रचलित नही थे।
१६  मेष - वृषभादि राशियाँ तथा १३°२०' के एक समान भोगमान वाले नक्षत्र प्रचलित नही थे। मेष - वृषभादि राशियाँ,  होरा और सप्ताह के वारों के ग्रहों से सम्बेबन्धित नाम बीलोनिया (इराक), मिश्र और यूनान से वराहमिहिर के समय भारत में आये। १३°२०' के निश्चित भोगमान वाले नक्षत्र भी सम्भवतः वराहमिहिर के समय ही प्रचलन में आये।
१७ निरयन मासाधारित चैत्रादि जिस मास में वसन्त सम्पात पड़ता था उसी माह को प्रथम मास माना जाता था। 
इस कारण कहीँ माघ, कहीँ मार्गशीर्ष, कहीँ कार्तिक, कहीँ वैशाख तो कहीँ चैत्र को प्रथम मास कहा गया। यह प्रमाणित करता है कि, वैदिकों को अयन चलन और अयनांश का ज्ञान था।
रामायण काल में संवत्सर के प्रथम दिन अर्थात वसन्त सम्पात के दिन अर्थात सायन मेष संक्रान्ति को होने वाला इन्द्र ध्वजारोहण समारोह निरयन सौर मासाधारित आश्विन मास में होता था इस कारण नेपाल में आज तक निरयन सौर मासाधारित आश्विन मास में इन्द्र ध्वजारोहण होता है। जबकि भारत में निरयन सौर मासाधारित चैत्र मास में शुक्ल प्रतिपदा को इन्द्र ध्वजारोहण होता है। इसे ब्रह्मध्वज भी कहते हैं। महाराष्ट्र में गुड़ी कहते हैं।
१८ ऐसे ही जिस नक्षत्र में वसन्त सम्पात पड़ता था उसे प्रथम नक्षत्र माना जाता था। 
इस कारण प्राचीन शास्त्रों में कहीँ - कहीँ धनिष्ठा को, कहीँ चित्रा को, कहीँ मघा को, तो तेत्तरीय संहिता और अथर्ववेद में कृतिका को और वर्तमान में अश्विनी को प्रथम नक्षत्र कहा जाकर नक्षत्र गणना की जाती है। यह भी प्रमाणित करता है कि, वैदिकों को अयन चलन और अयनांश का ज्ञान था।
१९ व्यापार व्यवहार में ३६० दिन का सावन वर्ष और ३० दिन के सावन मास प्रचलित थे।
ऋतु आधारित सायन सौर वर्ष से मिलान हेतु पाँच प्रकार से वर्षान्त में अधिक मास करके दोनों गणना में समरूपता लाई जाती थी। 
संक्रान्ति अर्थात जिसका सम्बन्ध क्रान्ति से हो वही संक्रान्ति कहलाती है। जो क्रान्ति सम्बद्ध नही वह संक्रान्ति भी नही कहला सकती है।
संक्रान्ति के बिना वैदिक सौर मास नहीं होता।
जब क्रान्ति साम्य वाली संक्रान्ति अर्थात सायन संक्रान्ति के बिना मास सिद्धि ही नही होती तो, वैदिक अधिक मास कहाँ से सिद्ध होगा। उल्लेखनीय है कि, वेदों में अधिक मास की ऋतु का उल्लेख भी आया है। इससे सिद्ध होता है कि,  उस समय व्यापार व्यवहार में प्रचलित सावन मास में ही अधिक मास होता था। 
क्रान्ति सम्बद्ध वैदिक सौर मास आधारित चान्द्र मास और निरयन सौर मास आधारित चान्द्रमास में ही अधिक मास और क्षय मास बाद में प्रचलित होना सिद्ध होता हैं। 

समय समय पर परम क्रान्ति में परिवर्तन होता रहा है। उल्कापात, ज्वालामुखी फटने, भूकम्प आने, सुनामी आने, ज्वारभाटा और परमाणु विस्फोट आदि अलग - अलग कारणो से परम क्रान्ति में परिवर्तन होता रहा है। वैज्ञानिकों ने भी समय समय पर भूमि की कर्करेखा और मकर रेखा का स्थान परिवर्तन माना है। 
पौराणिकों नें मार्कण्डेय पुराण में इसे महिषासुर के द्वारा भूमि का घुर्णन अत्यन्त तेज करने जैसे वर्णन के रूप में तथा वराह अवतार द्वारा भूमि को पुनः अपनी कक्षा में स्थापित करने का वर्णन किया है।

संवत्सर,अयन, तोयन, ऋतु और मास सूर्य से सम्बन्धित गणना है।  नक्षत्र चन्द्रमा से सम्बन्धित गणना है। लेकिन तिथि, करण और योग सूर्य और चन्द्रमा दोनों की संयुक्त गणना से सम्बन्धित है।

यदि सूर्य के केन्द्र से भूमि के केन्द्र की अधिकतम और न्यूनतम दूरी, भूमि के केन्द्र से चन्द्रमा के केन्द्र की अधिकतम और न्यूनतम दूरी (लम्बन), आवर्तकाल, दीर्घवृत्ताकार कक्षा आदि में परिवर्तन कर के किसी भी सुत्र से गणना करो तो उत्तर गलत ही आयेगा।
ऐसे ही यदि सुत्र गलत ले लिया जाए तो भी गणना गलत ही होगी।
प्राचीन सिद्धान्तकारों में वराह मिहिर कृत पञ्च सिद्धान्तिक में उल्लेखित सूर्यसिद्धान्त तथा  नवीन सूर्य सिद्धान्त और भास्कराचार्य कृत सिद्धान्त शिरोमणि के सुत्र अधिक समीचीन हैं। तो आधुनिक सिद्धान्तकारों में व्यंकटेश बापूजी केतकर के  ग्रहगणितम और वैजयंती के सुत्र अधिक समीचीन है।
वैदिक, स्मार्त पौराणिक धर्म-कर्म में दृकतुल्य तिथि ही लेना चाहिए इस सम्बन्ध में स्व. श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट द्वारा इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन समिति की रिपोर्ट (पृष्ठ ७३ से ९५ तक) में तथा १९५५ ई. की केलेण्डर रिफार्म कमेटी की रिपोर्ट में अनेक प्रमाण और विस्तृत लेख उपलब्ध हैं।
व्यंकटेश बापूजी केतकर के  ग्रहगणितम और वैजयंती नामक ग्रन्थों के आधार पर तिथि साधन करने पर निरयन मास, निरयन मास आधारित चान्द्रमास, अधिक मास क्षय मास भी सही आते हैं तथा तिथि, करण, नक्षत्र और योग की गणना सही होती है। 
ग्रह लाघव और मकरन्द करण ग्रन्थ से तिथि साधन करने पर बाण वृद्धि रस क्षय वाला गलत तिथिमान और नक्षत्र मान आता है। नक्षत्र भी गलत ही आते हैं। करण और योग भी गलत ही आते हैं। इन पञ्चाङ्गों के अधिक मास क्षय मास भी कई बार गलत सिद्ध हो चुके हैं।
उज्जैन की महाकाल पञ्चाङ्ग और जबलपुर के लाला रामस्वरूप जी.डी. एण्ड सन्स तथा लाला रामस्वरूप रामनारायण केलेण्डर पञ्चाङ्ग ग्रह लाघव और मकरन्द करण ग्रन्थों के आधार पर बनते हैं। इसलिए ये धर्मशास्त्रोक धर्म कर्म में उपयोगी नही है।

वैदिक उत्तरायण / उत्तरगोल- दक्षिणायन / दक्षिणगोल तथा वैदिक उत्तर तोयन - दक्षिण तोयन (अर्थात पौराणिक उत्तरायण - दक्षिणायन), वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ, (पौराणिक ऋतुएँ), वैदिक मधु- माधव आदि मास (पौराणिक मधु-माधव मास) आदि  क्रान्ति साम्य युक्त सायन सौर संक्रान्तियों से ही सिद्ध होते हैं। 
नाक्षत्रीय गणना या निरयन सौर गणना तथा सायन सौर संक्रान्ति तुल्य चान्द्रमासों या निरयन सौर मासानुसार चान्द्रमासों या शुद्ध चान्द्र मासों से अयन, तोयन, ऋतुएँ और मधु - माधव आदि वैदिक मास सिद्ध नही होते।

सायन राशियों, सायन नक्षत्रों और सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना आवश्यक है। साथ ही कुछ निरयन राशियों के नाम बदल कर भारतीय परिप्रेक्ष्य में नवीन नामकरण करना आवश्यक है।
भारतीय सत्ताइस - अट्ठाइस नक्षत्र, आधुनिक एस्ट्रोनॉमी के अठासी या नवासी नक्षत्र,  बेबीलोन (इराक), मिश्र और युनान की संस्कृति के बारह निरयन राशियों या आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह राशियों के नाम क्रान्तिवृत के उत्तर और दक्षिण में आसपास आठ/ नौ अंश की पट्टी में अर्थात भचक्र ( Fixed zodiac) में ताराओं के समुह से बनी आकृतियों के सादृश्य आकृति वाली वस्तुओं या जीवों के नामों के आधार पर रखे गए हैं। परवर्ती काल में अभिजित नक्षत्र क्रान्तिवृत से दूर हो जाने के कारण भारत में भी केवल सत्ताइस नक्षत्र ही प्रचलन में रहे।
आकृति आधारित उक्त नाक्षत्रीय पद्यति पर आधारित नामकरण  विषुववृत्त में गणना किये जाने वाले विषुवांशों वाली सायन पद्यति में लागू नहीं होती। क्योंकि सायन पद्यति की राशि किसी स्थिर नक्षत्र मण्डल में ही नही रह पाती, ५०.३ विकला प्रति वर्ष की पूर्व से पश्चिम की ओर वार्षिक वाम गति से सतत परिवर्तनशील है।
सायन पद्यति में वसन्त सम्पात से गणना करने के कारण कोई स्थाई तारा समुह को एक राशि या नक्षत्र नही कहा जाता है। इसलिए इनके नाम करण भी आकृति आधारित नही हो सकते। इसलिए सायन राशियों और नक्षत्रों के नाम करण संख्यात्मक या किसी अन्य आधार पर करना आवश्यक है। 

वस्तुतः नाक्षत्रीय पद्धति में निरयन राशियों के उक्त प्रचलित नाम बेबीलोन (इराक), मिश्र और युनानी सभ्यता की दैन है। वराहमिहिर आदि नें युनानी और अरबी भाषा के राशि नामों का संस्कृत में अनुवाद कर निरयन राशियों के संस्कृत में नाम रख दिए थे।

वस्तुतः नाक्षत्रीय प्रणाली में भी भारतीय दृष्टि से इन राशियों के नाम सही नही लगते हैं।  
मध्य एशियाई और युनानी दृष्टिकोण से आकृतियों को भारतीय जन मानस नही समझ पाते हैं। क्योंकि हमारे दिमाग में नक्षत्रों की आकृतियाँ छाई रहती है। अतः निरयन राशियों की आकृतियों के भी नामकरण भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखना उचित होगा।

पहले भी कहा जा चुका है कि, वैदिक काल में आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त का विस्तार पामीर के पठार, ईरान और तुर्किस्तान से विंध्याचल तक था। अधिकांश वैदिक जन इसी क्षेत्र में निवास करते थे। विंध्याचल और नर्मदा पार कर महर्षि अगस्त्य, उनके शिष्य गण, महर्षि अत्रि और उनके अनुयाई और महर्षि दधीचि जैसे कुछेक ऋषि ही दक्षिण भारत में रहते थे। इसलिए वैदिक ग्रंथों में वैदिक उत्तरायण - दक्षिणायन, वैदिक उत्तर तोयन, वैदिक वसन्त आदि ऋतुएँ तथा वैदिक मधु माधव आदि मास की व्यवस्था उत्तरी भारत, ईरान, तुर्की तथा तिब्बत के क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष, संक्रान्ति २०/२१ मार्च से वैदिक उत्तरायण, वैदिक वसन्त ऋतु, वैदिक मधु मास प्रारम्भ होते थे। 
 
लेकिन महाकाव्य काल और पौराणिक काल में जब भारतीय जनसंख्या दक्षिण भारत और सिंहल द्वीप (श्रीलंका) तक बढ़ गई तब वैदिक वर्षा ऋतु उत्तरायण में पढ़ने के कारण उत्तरायण में विवाह, उपनयन, मुण्डन आदि संस्कारों के उत्सव मनाया जाना कठिन लगने लगा तो मध्य भारत के उज्जैन को केन्द्र मानकर अयन, तोयन, ऋतुओं और मासों का प्रारम्भ दिन पुनर्निर्धारित किया गया। इस काल में संहिता ज्योतिष का जन्म हुआ जिसका ज्योतिषिय आधार नक्षत्रों में ग्रहों का भ्रमण रहा। अत निरयन ग्रह गणित का आविष्कार किया गया।
पौराणिक काल में काल गणना परिवर्तन कर वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च से शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति २२ सितम्बर तक चलने वाले वैदिक उत्तरायण को पौराणिक उत्तर गोल नामकरण किया गया।
शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति २३ सितम्बर से वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति २० मार्च तक चलने वाले वैदिक दक्षिणायन को पौराणिक दक्षिण गोल नामकरण किया गया।

दक्षिण परम क्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति २२/२३ दिसम्बर से उत्तर परम क्रान्ति दिवस, सायन कर्क संक्रान्ति २२/२३ जून तक चलने वाले वैदिक उत्तर तोयन को पौराणिक उत्तरायण नाम दिया गया। और पौराणिक वर्षा ऋतु प्रारम्भ माना गया। एवम् 
उत्तर परमक्रान्ति दिवस सायन कर्क संक्रान्ति (२२ जून) से दक्षिण परमक्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति (२२ दिसम्बर) तक वैदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक दक्षिणायन किया गया और पौराणिक शिशिर ऋतु का प्रारम्भ किया जाने लगा।
वसन्त सम्पात से प्रारम्भ होने वाला वैदिक वसन्त ऋतु और वैदिक मधुमास सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) के स्थान पर सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से प्रारम्भ किया जाने लगा। और 
वैदिक शरद ऋतु और ईषमास सायन तुला संक्रान्ति (२३ सितम्बर) के स्थान पर सायन कन्या संक्रान्ति (२२/२३ अगस्त) से प्रारम्भ किया जाने लगा।
परिणाम स्वरूप उत्तरायण का उत्तरार्ध और वसन्त ऋतु का उत्तरार्ध तथा माधवमास संवत्सर के प्रारम्भ में पड़ने लगा तथा उत्तरायण का पूर्वार्ध और  वसन्त ऋतु का पूर्वार्ध तथा मधुमास संवत्सर के अन्त में पड़ने लगा। या प्रकारान्तर से
आधा उत्तरायण और आधी वसन्त ऋतु गत वर्ष में और आधा उत्तरायण और आधी वसन्त ऋतु में वर्तमान संवत्सर में आने लगी। 
 संवत्सर का प्रारम्भ माधव मास से होने लगा और मधुमास संवत्सर के अन्त में आने लगा। मधु-माधव मास की जोड़ी टूट गई।
इस विचित्र अव्यवस्था से भी सन्तोष नही हुआ तो वैदिक मास बन्द कर पहले तो विक्रम संवत के साथ निरयन सौर मास प्रचलित किये जो आज तक पञ्जाब हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाडु और केरल में प्रचलित हैं। दक्षिण भारत में मेष- वृष मास कहलाते हैं जबकि उत्तर भारत में वैशाख, ज्येष्ठ आदि नाम से प्रचलित है। 
फिर १३५ वर्ष पश्चात शकाब्द के साथ निरयन मासों पर आधारित चैत्र - वैशाख आदि अमान्त चान्द्रमासों को लागू किया गया। जो अभी भी कर्नाटक, तेलङ्गाना, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में प्रचलित है। ये चान्द्रमास ऋतुओं से पूर्णतः असम्बद्ध है। और उसके बाद तो हद ही होगई कि, अमान्त चान्द्रमासों के स्थान पर पूर्णिमान्त चान्द्रमास लागू किए गए। जो आज भी मध्यप्रदेश , राजस्थान , उत्तर प्रदेश तथा बिहार में प्रचलित है। 
पूर्णिमान्त चान्द्रमास में आधा चैत्र मास अर्थात चैत्र शुक्ल पक्ष संवत्सर के प्रारम्भ में पड़ने लगा और आधा चैत्र अर्थात चैत्र कृष्ण पक्ष संवत्सर के अन्त में पड़ने लगा। 
*वस्तुतः प्राचीन चैत्र मास निरयन मेष मास में ही पड़ता था, जिसे वराहमिहिर के काल में फाल्गुन मास नाम दिया गया था। और निरयन मीन मास में चैत्र मास का प्रारम्भ करने लगे। 
वर्तमान में निरयन मीन मासारम्भ १४ मार्च से निरयन मेष मासारम्भ १४ अप्रेल के बीच निरयन मीन राशि का सूर्य पड़ता है। इसलिए निरयन सौर संस्कृत अमान्त चैत्र मास १४ मार्च से १३ अप्रेल के बीच ही प्रारम्भ होता है। और अमान्त वैशाख मास १४ अप्रेल से १४ मई के बीच निरयन मेष मास में प्रारम्भ होता है।
लेकिन, लगभग ४१० वर्ष बाद निरयन मेष मास में २०/२१ मार्च से प्रारम्भ होने लगेगा। तब परम्परागत निरयन मेष मास आधारित वैशाख मास भी २०/२१ मार्च से १९ अप्रेल के बीच प्रारम्भ होने लगेगा।* 
चूंकि, वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति २० / २१ मार्च को पड़ती है, तब निरयन सौर मेष मास और निरयन मेष मास आधारित चान्द्रमास वैशाख मास रहेगा। इस प्रकार वास्तविक चैत्र मास वैदिक मधुमास (२०/२१ मार्च से १९/२० अप्रेल तक) से सम्बद्ध हो पायेगा।* 
तब
*कुछ पौराणिक धर्मशास्त्री ज्योतिषियों के अनुसार ४१० वर्ष बाद परम्परागत वैशाख को प्रथम मास घोषित करना चाहेंगे। क्योंकि  निरयन मेष मास को वैशाख मास कहा जाता है।*
*तो कुछ पौराणिक सायन मतावलम्बी धर्मशास्त्री ज्योतिषियों के अनुसार ४१० वर्ष बाद फाल्गुन मास को प्रथम मास घोषित करना चाहेंगे। क्योंकि वसन्त सम्पात तब निरयन मासाधारित फाल्गुन मास में वसन्त सम्पात पड़ेगा।* 

ऐसे ही
सन १३१७५ ईस्वी में चित्रा तारे का सायन भोगांश १८०° होगा। 
तब 
जिस समय सूर्य चित्रा नक्षत्र पर होगा उस समय क्या उस सायन तुला राशि में कहीं भी तुला की आकृति दिखाई देगी? 
कदापि नहीं। 
उस समय भचक्र (Fixed zodiac) में सायन तुला राशि के तारा समुह भी तुला कहलाने योग्य नही होंगे।
उस समय सायन तुला राशि में ताराओं से बनने वाली आकृति निरयन मेष राशि के तारा मण्डल वाली ही रहेगी।
अतः सायन राशियों के नाम अन्य किसी आधार पर ही रखना होगा।

सन १३१७५ ईस्वी में सायन कन्या संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति के बीच सायन कन्या राशि के सूर्य में पड़ने वाली अमावस्या से (औसत पन्द्रह दिन) बाद की पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा के स्थान पर चैत्र पूर्णिमा नही कहा जा सकता। क्योंकि उस समय सूर्य चित्रा नक्षत्र के योग तारे पर होगा और चन्द्रमा चित्रा तारे से १८०° पर होगा।

*निरयन सौर मासाधारित चान्द्र महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन नक्षत्र योग तारा युति के आधार पर नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के आधार पर ही किये गये हैं।* 
*जब अयन बिन्दु चित्रा नक्षत्र पर होगा तब, जिस पूर्णिमा को चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर होगा तब भी वह चैत्र पूर्णिमा ही कहलायेगी लेकिन, उस समय सूर्य सायन तुला राशि पर होनें से उसे वैदिक मधु मास या पौराणिक माधव मास की पूर्णिमा नही कह सकते। 
अस्तु  सायन सौर संक्रान्ति आधारित महीनों के नवीन नाम करण करना अत्यावश्यक है।

*चैत्र पूर्णिमा को जब चन्द्रमा चित्रा तारे पर  होता है, तब सूर्य निरयन मेषादि बिन्दु पर (रेवती योगतारा के निकट) होगा। यह आवश्यक है। लेकिन तब सदा ही मधुमास हो यह सम्भव नही है।* 
लगभग यही बात *फाल्गुने/फल्गुनीपूर्णमासे दीक्षेरन्, चित्रापूर्णमासे दीक्षेरन् (कृष्णयजुर्वेदीयतैत्तिरीयसंहितायाम् ७/४/८, सामवेदीये ताण्ड्यब्राह्मणे ५/९)*  में भी दर्शित है।

मैरे मतानुसार ---
क- 
१ सायन राशियों के नाम आकृति आधारित नही हो सकते अतः सायन राशियों के नाम संख्यात्मक - प्रथम द्वितीय आदि या किसी अन्य आधार पर रखे जाने चाहिए।

२ सायन नक्षत्रों के नाम भी आकृति आधारित न होकर किसी अन्य आधार पर रखे जाने चाहिए। ताकि संहिता ज्योतिष में नक्षत्रों पर आधारित मानसून / मौसम को समझा जा सके।

३ कुछ निरयन राशियों के नाम परिवर्तन भी भारतीय दृष्टिकोण से किये जाना उचित होगा।

४ सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना आवश्यक है। संख्यात्मक नामकरण किया जा सकता है। यथा प्रथम मास, द्वितीय मास आदि।

ख - 
व्रत पर्व उत्सवों और त्योहार कब मनाएँ जाएँ ? अर्थात 
सूर्य की किस स्थिति मे व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाये जाएँ? या 
सूर्य और चन्द्रमा की किस स्थिति मे व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहार मनाये जाएँ? 
इसके लिए सुझाव निम्नानुसार है।⤵️

१ *संवत्सर प्रारम्भ, अयन प्रारम्भ, ऋतु प्रारम्भ, मधु - माधवादि मासारम्भ/ संक्रान्ति पर्व, और जिनकी गणना वेधशाला में वैध लेकर सिद्ध की जा सके ऐसे कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार शुद्ध सायन सौर गणना के आधार पर मनाये जाएँ।* 

२  कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय सौर मेष- वृषभादि मास के गतांश या वर्तमानांश या गते के आधार पर मनाये जाएँ।* 
३ *रामनवमी , जन्माष्टमी, दसरा दीपावली जैसे ऋतु आधारित कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार सायन सौर मधु- माधवादि मास आधारित चान्द्रमासों की तिथियों के आधार पर मनाने चाहिए।* 
४  *दक्षिण भारत में सिंह राशि के सूर्य में श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा के दिन ओणम मनाया जाता है ऐसे कुछ व्रत पर्व उत्सव और त्योहार सायन सौर मास या निरयन सौर मास में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मनाए जाएँ।

५ *पौराणिक कथा के अनुसार शिवरात्रि पर्व की पूरी रात्रि में बहेलिया द्वारा मृगशीर्ष नक्षत्र और व्याघ के तारे को देखने का वर्णन के आधार पर यह घटना निरयन निरयन धनु के २०° पर या इसके आसपास सूर्य होनें पर ही सम्भव है। अर्थात ऐसे कुछ व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय गणना के आधार पर ही सिद्ध होंगे, उन्हें भी मान्यता देनी होगी। 
अतः* 
 *महाशिवरात्रि जैसे कुछ तिथि, व्रत, उत्सव, त्योहार नाक्षत्रीय गणना आधारित मेष - वृषभ आदि मासों पर आधारित चैत्र वैशाखादि मासों की तिथियों के आधार पर मनाये जाएँ।* 

६ बङ्गाल में नवरात्र में सरस्वती आव्हान, पूजन, विसर्जन आदि कुछ तिथि, व्रत, पर्व और उत्सव, त्योहार निरयन मेष वृषभादि सौर मासाधारित चान्द्र मासों में चन्द्रमा के नक्षत्र  के आधार पर मनाए जाते हैं। अतः ऐसे व्रत, पर्व और उत्सव, त्योहार निरयन मेष वृषभादि सौर मासाधारित चान्द्र मासों में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर मनाए जाना चाहिए।*
७ अथवा सर्वश्रेष्ठ होगा यदि सभी व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों को सायन सौर वैदिक मधु-माधव आदि मासों के दिनांक से निर्धारित कर दिया जाए।

पुनश्च 
सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मासों के नवीन नामकरण करना इसलिए आवश्यक है; क्योंकि, परम्परागत पञ्चाङ्ग का निरयन मीन मास आधारित चान्द्रमास चैत्र मास कहा जाता है। 
वैदिक तपस्य मास या पौराणिक मधुमास १८ फरवरी से २१ मार्च तक को राष्ट्रीय केलेण्डर का चैत्र कहा जाता है।और 
मोहन कृति आर्ष पत्रकम् में सायन मीन राशि के सूर्य वैदिक तपस्य मास या पौराणिक मधुमास १८ फरवरी से २० मार्च के बीच प्रारम्भ होने वाले चान्द्रमास को चैत्र कहा जाता है। ऐसे तीन चैत्र मास से जन सामान्य का भ्रमित होना स्वाभाविक है। 
अतः सायन सौर संक्रान्तियों और सायन सौर संक्रान्तियों  पर आधारित चान्द्रमासों नवीन नामकरण आवश्यक है।

विशेष --
पूर्व दिशा में उदयीमान अंशादि को लग्न कहते हैं। लग्न को केन्द्र में रखकर द्वादश कोणों में सूर्य, चन्द्रमा और ग्रह तथा पात दर्शा कर एक प्रकार भचक्र का मानचित्र (नक्षा) दर्शाने का सबसे सरल और सहज उपाय है।
यह तथ्य शुल्बसुत्रों के जानकार ही समझते हैं।  होरा शास्त्री अर्थात तथाकथित जातक फलित विद्या विद देवज्ञ जन नही जानते। इसलिए विवाह टीप बनाकर देनें वाले भी यह नहीं जानते कि, हम यह टाईम कैप्सूल तैयार कर रहे हैं।
हमारे पञ्चाङ्गकार जब उक्त तथ्यों पर एकमत होंगें तभी जाकर दिगंश (Azimuth) और ऊँचाई (Altitude) गणना तथा विशुवांश/ दायाँ आरोहण (Right Ascension) की सही सही गणना समझ और कर पाएंगे और ग्रहण की गणना में भी आत्मनिर्भर हो पाएंगे।



शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

श्रीमद्भगवद्गीता में काम-वासना को जीतने का क्या उपाय बताया है?

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने काम-वासना को जीतने का क्या उपाय बताया है?

श्रीमद्भगवद्गीता ३/४० में काम का वास स्थान इन्द्रियाँ, मन और बद्धि बतलाया है। अतः मन को वश में करनें से आरम्भ करते हैं क्योंकि, श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण नें कहा है।

श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*

62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।*

अर्थात -- विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।

63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मृति विभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से व्यक्तित्व का पतन होकर नष्ट हो जाता है।*

अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृति विभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपना व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। गिर जाता है।

64 -- *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।*

अर्थात - जिसने पञ्च महा यज्ञ और अष्टाङ्ग योग के अभ्यास से अपने अन्तःकरण चतुष्टय (मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त) को वश में कर लिया उसके लिए तो कर्म और भोग भी ईश्वरीय कृपा में सहायक ही होते हैं।

65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।*

*मन को वश में करनें का उपाय*

*भूमिका में स्थित प्रज्ञ लक्षण*

श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54 से 59 तक।

54- प्रश्न --अर्जुन ने पूछा--

हे केशव स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या होती है? स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? वह जगत में कैसा रहता है? कैसे व्यवहार करता है? स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं?

उत्तर -- भगवान बोले

55 - मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी ,अपने आप में ही सन्तुष पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है

56 - दुःखो से उद्विग्न नही होने वाला, सुखों में निस्पह अनुकूलता की इच्छा रहित और प्रतिकूलता से द्वेष रहित निर्भय, क्रोध रहित, मौन (शान्तचित्त) स्थिरबुद्धि कहलाता है।

57-- जो सर्वत्र स्नेह (लगाव) रहित, हुआ उन शुभाशुभ (फलों) को प्राप्त होकर न अभिनन्दन करता है न द्वेष करता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है

अर्थात अनूकूल परिस्थिति आने पर अतिप्रसन्नता पूर्वक उछलता नही और प्रतिकूलता आने पर विशाद नही करता वह स्थितप्रज्ञ है ।

58 - जैसे कछुआ अपने सभीअंङ्गों को सब (ओर से) समेट लेता है वैसे ही जो समस्त इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों (शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गन्ध) का संहार कर देता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।

59 -- इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रयों से ग्रहण न करनें वाले निराहार देही (प्राणी) (हटयोगी) के भी केवल विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है पर इन्द्रियों से विषयों को हटालेने पर भी मन से रस लेना नही छूटता। आत्मसाक्षात्कार कर लेने पर ही (उस) परम दृष्टा पुरुष के विषयों के (प्रति लगाव और) रस से भी निवृत्ति होजाती है।

*अब आते हैं मूल विषय मन पर नियन्त्रण पर।*

*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60-61*

*60-- हे कुन्तीपुत्र!(अनेक प्रकार से) यथार्थ तत्व को अच्छी तरह जानने वाले विवेकी पुरुष (विपश्चितः) द्वारा अनेक यत्न करने पर भी प्रमथन स्वभाव वाली मथ देने वाली ये इन्द्रियाँ मन को बल पू्वक जबर्जस्ती (प्रसभम्) हर लेती है।*

61 -- जिसकी इन्द्रियाँ वश में है वही स्थितप्रज्ञ है। उन सभी इन्द्रियों को संयमित करके मेरे परायण होजा।

*(आगे विशेष निर्देश किया हे कि, --*
इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती।

*केवल इन्द्रिय जय होना ही पर्याप्त नही है बल्कि ईश्वर प्रणिधान भी आवश्यक है। क्योकि, यदि ईश्वरार्पण नही हुआ तो --)*

*मूल प्रश्न भाग 1 इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती का उत्तर तो मिल गया। अब*

*मूल प्रश्न भाग 2 इन्द्रियों और मन को वश में कैसे करें का उत्तर पहले बतलाया जा चुका है। अभ्यासार्थ पुनर्स्मरण कराया जा रहा है।--*

*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*

62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।*

अर्थात -- विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।

63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मृतिविभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से नष्ट हो जाता है।*

अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृतिविभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपनी स्थिति से गिर जाता है, नष्ट हो जाता है। 

64 -- *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।*

65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।*

66 -- *अयुक्त की (जो योगस्थ नही हुआ हो/ परमात्मा में तल्लीन न हो उसे) बुद्धि (प्रज्ञा) नही होती, अयुक्त में भावना भी नही होती; भावनहीन को शान्ति नही मिलती, अशान्त को सुख कहाँ (मिल सकता है)।*

67 -- *जैसे जल वायु नाव को हर लेती है।वैसे ही इन्द्रियों में विचरता हुआ मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, उस इन्द्रिय से युक्त मन वाले की प्रज्ञा (बुद्धि) को हर लेती है।*

68 -- *हे महाबाहो ! जिस पुरूष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषय से सब प्रकार निग्रह की हुई है उसी की प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर है।*

शेष 69 से 72 तक के श्लोकों में स्थितिप्रज्ञ की विशेषताओं का वर्णन है।
श्रीमद्भगवद्गीता 3/9 *यज्ञ के लिए कर्मों के अतिरिक्त कर्म ही बांधने वाले हैं।*

3/10 *प्रजापति का प्रजाओं को रचकर दिया यज्ञ का उपदेश ही निष्कामता का वास्तविक स्वरूप है।*

3/17 *इसके विरुद्ध आचरण ही पाप है।*

3/36 *अर्जुन का प्रश्न मन पाप में क्यों प्रेरित होता है।*

3/37 *रजोगुण से उत्पन्न काम ही क्रोध है। यही पाप में लगाता है। इसे ही वैरी जान।*

3/40 *इन्द्रियाँ, मन , बुद्धि इसके वास स्थान हैं।*

*मन को वश में करनें का उपाय* --

श्रीमद्भगवद्गीता 06/35

हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र (यह) अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से हीकाबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35

【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के नाम और गुणों का भजन, कीर्तन,श्रवण,मनन, चिन्तन तथा श्वास के द्वारा जप (प्राणायाम पूर्वक जप), और भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन इत्यादिक चेष्ठाओं से है।* 】

श्रीमद्भगवद्गीता 12/09

हे अर्जुन! *यदि (तु) चित्त को समाधि में (चित्त को सम करनें मे) (चित्त को) मुझमे स्थिर समर्थ नही है, तो अभ्यास योग से मुझको प्राप्त करनें की इच्छा कर।* 12/09

(इस युद्धकाल में तु इतना भी कुछ करनें में भी असमर्थ हैं उनके लिए भी उपाय है।-- --

श्रीमद्भगवद्गीता 12/10 एवम् 11 में बतलाये हैं। वे उपाय अभ्यास काल में किये जाने योग्य है। यह उनका महत्व श्रीमद्भगवद्गीता 12/12 में बतलाया है। किन्तु भक्तिमार्गियों नें बस इसी को आधार बना लिया है। जबकि सदाचार का कोई विकल्प है ही नही।)

श्रीमद्भगवद्गीता 6/36

*जिसका मन वश में किया हुआ नही है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्राप्य है। और वश में किये हुए मन वाले प्रयत्न शील पुरूष द्वारा साधन से (उसका) प्राप्त होना सहज है - ऐसा मेरा मत है।* 6/36

श्रीमद्भगवद्गीता 12/08

*(निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा) मन को (दृढ़तापूर्वक) मुझमें ही स्थिर कर, बुद्धि को मुझमें ही लगा इसके उपरान्त (तु) मुझमें ही स्थित हो जायेगा अर्थात मुझमें ही तेरा वास होगा या तु मुझमें ही निवास करेगा।(इसमें कुछ भी) संशय नही है / सन्देह नही है।* 12/08

अतः इन्द्रियों को मन के वश में, मन को बुद्धि के वश में। बुद्धि को स्थिर रखते हुए निश्चयात्मिका बुद्धि से चित्त को सम कर (समाधि में) स्थित रहने से तेज और ओज वर्धन होगा। चित्त को तेज से अभिभूत कर ओज में स्थित करने से धृति वर्धन होगा। धृति वृद्धि से धीरबुद्धि होगा। इसके बाद ही यज्ञ में स्वाहा और समर्पण की सार्थकता होगी।

आशा है इतना पर्याप्त है। उत्तर तो इतना बड़ा हो सकता है कि, कई पुस्तकें तैयार होजाये। किन्तु समझदार को ईशारा काफी मानकर यहीँ विश्राम देता हूँ।

गुरुवार, 10 अगस्त 2023

वेदों के दृष्टा देवता ऋषि।

वेदों के दृष्टावेदों के दृष्टा देवता ऋषि कौन हैं? एवम वेदों में क्या बतलाया गया है?

शतपथ ब्राह्मण ११/५/२/३ में कहा गया है कि,

तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेद:सूर्यात्सामवेद :।

मनुस्मृति के प्रथम अध्याय मन्त्र २३ में भी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के दृष्टा ऋषि अग्नि, वायु और सूर्य को बतलाया है। -

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋग्यजु: सामलक्षणम् ।मनुस्मृति (१/२३) 

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम्॥ 
का हिन्दी अर्थ है ।⤵️
उस (ब्रह्म)- परमात्मा ने, (यज्ञसिध्यर्थम्)- यज्ञ सिद्धि हेतु, (त्र्यं सनातनम्)- तीनो सनातन वेदों (ऋग्यजुःसाम्) ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश, (लक्षणम्)- समान गुण वाले, (अग्निवायुरविभ्यस्तु)- अग्नि, वायु और सूर्य को, (दुदोह) - दिया।
 भावार्थ- इसके पश्चात उस परमात्मा ने यज्ञों की सिद्ध हेतु तीनो सनातन वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश समान गुण वाले अग्नि वायु और सूर्य को दिया। 

मनुस्मृति में गुरुकुल में रह कर वेद शिक्षा ग्रहण करने की अवधि भी बतलाई है।

मनुस्मृति (३/१) में कहा है कि,
षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम् ।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥ मनुस्मृति (३/१) 

षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम् ।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥
का हिन्दी अनुवाद ⤵️
(गुरौ)- गुरूकुल में ब्रह्मचारी को ( षट्त्रिशदाब्दिकं)- छत्तीस वर्ष तक निवास करकें, (त्रैवैदिकं व्रतम्) - तीनों वेदों (ऋक्, यजुः और साम) का पूर्ण अध्ययन, (चर्य्यं)- करना चाहिए, छत्तीस वर्ष तक सम्भव न होने पर (तद् अधिकम्)- उसके आधे अर्थात अट्ठारह वर्ष तक, (वा) - या उतना भी सम्भव न होने पर, (पादिकं)- उसके आधे अर्थात नौ वर्ष तक, (वा) - या उतने काल तक जितने में, (ग्रहण अन्तिकम्) - वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए। 

वेदत्रयी - ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद।

कहा जाता है कि, सृष्टि के आदि में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने प्रजापति ब्रह्मा को वेद ज्ञान प्रदान किया।

ऋग्वेद 
प्रजापति ने अग्नि को ऋग्वेद के मन्त्र कविता शैली के मन्त्र का ज्ञान दिया। 
ऋग्वेद में परमात्मा, विश्वात्मा ॐ, प्रज्ञात्मा (परम दिव्य अक्षर पुरुष- पराप्रकृति) परब्रह्म ( विष्णु -  माया), प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) (पुरुष  - प्रकृति) ब्रह्म (सवितृ/ हरि सावित्री कमला) , जीवात्मा (अपर पुरुष जीव- त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति आयु) अपर ब्रह्म (नारायण- श्री लक्ष्मी), भूतात्मा (प्राण/ देही - धारयित्व / अवस्था) हिरण्यगर्भ (त्वष्टा- रचना), सुत्रात्मा (ओज- आभा) प्रजापति (दक्ष-प्रसुति, रुचि - आकुति, कर्दम - देवहुति), अणुरात्मा (तेज- विद्युत) वाचस्पति (इन्द्र - शचि), विज्ञानात्मा (विज्ञान/ चित्त - विद्या/ वृत्ति) ब्रहस्पति (आदित्य और उनकी शक्ति) , ज्ञानात्मा (बुद्धि- मेधा / बोध) ब्रह्मणस्पति (वसु और उनकी शक्ति), लिङ्गात्मा (अहंकार - अस्मिता) पशुपति (रुद्र - रौद्री), मनसात्मा (मन - संकल्प एवम् विकल्प ) गणपति (स्वायम्भूव मनु - शतरूपा) ,स्व सदसस्पति -  (स्वभाव मही, स्वाहा भारती, वषट सरस्वती, स्वधा ईळा)  तथा सृष्टि उत्पत्ति और जगत व्यवस्था ऋत तथा ब्रह्माण्ड विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद का वर्णन है। 
ऋग्वेद में आयुर्वेद, अश्विनी कुमार और ऋभुगणों द्वारा चिकित्सा और शल्य चिकित्सा का विषद वर्णन होनें के कारण आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद मानते हैं।

यजुर्वेद 
प्रजापति नें वायु को यजुर्वेद गद्यात्मक शैली में कर्म प्रधान - व्यवहार प्रधान, धर्म व्यवस्था की संहिता का ज्ञान दिया। कर्मकाण्ड, अर्थशास्त्र, शासन व्यवस्था, समाज शास्त्र, सैन्य विज्ञान धनुर्वेद का वर्णन है। इसलिए धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद मानते हैं।
यजुर्वेद के दो भाग हैं। 
१ शुक्ल यजुर्वेद जिसका अन्तिम (चालीसवाँ) अध्याय ईशावास्योपनिषद है। शुक्ल यजुर्वेद के ऋषि याज्ञवल्क्य हैं।
२ कृष्ण यजुर्वेद के ऋषि वैशम्पायन हैं। लेकिन कृष्ण यजुर्वेद में अथर्ववेद से प्रभावित ब्राह्मण ग्रन्थ भी मिश्रित (गड्ड-मड्ड) कर दिया गया है। इसलिए कृष्ण यजुर्वेद को अशुद्ध और अप्रामाणिक मानते हैं। 
श्वेताश्वतरोपनिषद भी कृष्ण यजुर्वेद का ही उपनिषद है।

सामवेद 
प्रजापति नें सूर्य (रवि) को सामवेद गायन योग्य गीत, कला प्रधान संहिता का ज्ञान दिया। इसमें अधिकांश भाग ऋग्वेद से लिया है। सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद है। जिसमें सङ्गीत और नाट्यशास्त्र का वर्णन है।

वेद त्रयी की ज्ञान मीमांसा

वेद त्रयी की ज्ञान मीमांसा ईशावास्योपनिषद में व्यक्त की गई है। इसके अतिरिक्त पूरुष सूक्त, उत्तर नारायण सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, देवी सूक्त, अस्यवामिय सूक्त, नासदीय सूक्त और श्वेताश्वतरोपनिषद में स्पष्ट झलकती है।
ईशावास्योपनिषद की व्याख्या में ही ब्राह्मण आरण्यकों में उल्लेखित शेष बारह उपनिषद (१ श्वेताश्वतर, २ केन, ३ कठ, ४ एतरेय, ५  तेत्तरीय, ६ प्रश्न, ७ मण्डुक, ८ माण्डुक्य, ९ छान्दोग्य , १० वृहदारण्यक , ११ कोषितकी, १२ मैत्रायणी उपनिषद) रचे गए हैं।
इनके अनुसार ईशावास्यम् इदम् सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत‌, खल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्  त्वम् असि, प्रज्ञानम् ब्रह्म।
अर्थात जो कुछ है वह सब परमात्मा ही है। परमात्मा के अलावा कुछ है ही नही।  जैविक प्रकृति (जीव) और जड़ जगत ( त्रिगुणात्मक प्रकृति) के रूप में परमात्मा स्वयम् ही प्रकट हो रहा है।
सृष्टि रचना हेतु परमात्मा नें संकल्प कर जगत सञ्चालन हेतु परब्रह्म स्वरूप में प्रकट हो विष्णु और विष्णु की माया के रूप में परमात्मा ही प्रकट हो रहा है। इसलिए विष्णु को परमपद और परमेश्वर कहा है।
ऋत के माध्यम से जगत सञ्चालन हेतु ब्रह्म  स्वरूप में प्रकट हो  सवितृ और सावित्री के रूप में प्रकट हुआ।
जगत के पालनार्थ अपर ब्रह्म  स्वरूप में प्रकट हो नारायण और श्री लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुआ।

ब्रह्माण्ड की रचना के लिए हिरण्यगर्भ  स्वरूप में प्रकट हो त्वष्टा और उसकी शक्ति रचना के रूप में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड के तारा मण्डल और ग्रहों को घड़ा। तथा प्रजापति के रूप में प्रकट होकर दक्ष - प्रसुति, रुचि - आकुति और कर्दम - देवहुति  रूप में जैविक जगत में मैथुनिक सृष्टि की। 
जगत की प्रशासनिक व्यवस्था हेतु वाचस्पति  स्वरूप में प्रकट हो देवराज इन्द्र और शचि के रूप में प्रकट हुआ। ऐसे ही ब्रहस्पति  स्वरूप में प्रकट हो द्वादश आदित्य, ब्रह्मणस्पति  स्वरूप में प्रकट हो अष्ट वसु और पशुपति  स्वरूप में प्रकट हो ग्यारह रुद्र के रूप में भी वही परमात्मा प्रकट हो रहा है। परमात्मा ने ही गणाध्यक्ष गणपति  स्वरूप में प्रकट हो स्वायम्भूव मनु और शतरूपा के रूप में मानवीय सृष्टि की। और  सदसस्पति और उसकी शक्ति सदसस्पति की शक्ति मही जिसके तीन स्वरूप भारती, सरस्वती और ईळा के रूप में प्रकट होकर जगत के सभी कार्यों का निर्वहन कर रहा है।

अथर्ववेद 
यहाँ तो ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तीन वेदों के बारे में ही बतलाया गया है तो फिर; अथर्ववेद कहाँ से आया?
ऐसा माना जाता है कि, प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र महर्षि अथर्वा नें अथर्ववेद की रचना की एवम् महर्षि अङ्गिरा नें अथर्ववेद का संकलन - सम्पादन किया। इसलिए अथर्वेद की गणना वेद त्रयी में नही होती।
अथर्ववेद अकेला है, जिसमें चार या अधिक ऋत्विजों के स्थान पर चरक अकेला होम हवन करता है।
अथर्ववेद में प्रथम बार गन्धर्वों और यक्षों को आहूति देने की व्यवस्था की गई। 
कृष्ण यजुर्वेद पर अथर्ववेद का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
महर्षि अङ्गिरा के पुत्र दधीचि हुए जिनकी अस्थियों से इन्द्र का शस्त्र वज्र बना। दधीचि परम शैव थे। दधीचि के पुत्र पिप्पलाद हुए। पिप्पलाद ने पीपल वृक्ष की पूजा का प्रचार किया।
अथर्ववेद में विज्ञान और तकनीकी का वर्णन है। स्थापत्य वेद या शिल्प वेद अथर्ववेद का उपवेद है।

अथर्ववेद की ज्ञान मीमांसा

अथर्ववेद मौक्ष पुरुषार्थ का अधिकार तभी मानता है, जब आप शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ्य और सुव्यवस्थित जीवन जी सकें तथा जीवन में स्थायित्व हो।
इसके लिए अथर्ववेद ने तत्व मीमांसा के लिए सांख्यशास्त्र, चित्त वृत्ति निरोध के लिए अष्टाङ्गयोग और स्थापित जीवन के लिए बुद्धियोग (श्रीमद्भगवद्गीता) को भूमि प्रदान की। ध्यान रखें श्रीकृष्ण घोर आङ्गिरस के शिष्य थे। कुछ लोग महर्षि सान्दीपनी को ही घोर आङ्गिरस मानते हैं।
अस्वस्थ शरीर को स्वस्थ करने के लिए आयुर्वेद और अस्वस्थ चित्त को स्वस्थ करने के लिए मन्त्र शास्त्र दिया है।
अथर्ववेद का प्रतिनिधि सूक्त प्रिथ्विसुक्त को माना जाता है. 
अथर्ववेद में जीवन के सभी पक्षों – कृषि की उन्नति, गृह निर्माण, व्यापारिक मार्गों का गाहन [खोज], समन्वय, रोग निवारण, विवाह व प्रणय गीतों, राजभक्ति, राजा का चुनाव, बहुत सी ओषधियों व वनस्पतियों, शाप, वशीकरण, प्रायश्चित, मातृभूमि महातम्य, आदि का वर्णन किया गया है।
अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण है। 
अथर्ववेद का कोई आरण्यक नही है। 
अथर्ववेद के उपनिषद १ प्रश्नोपनिषद २ मण्डुकोपनिषद और ३ माण्डुक्योपनिषद है।
अथर्ववेद का मुख्य उपवेद स्थापत्य वेद या शिल्पवेद है। लेकिन 
अथर्ववेद में आयुर्वेद पर पर्याप्त प्रकाश डालने के कारण कुछ लोग अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद को मानते हैं; जो ऋग्वेद का उपवेद है।

अथर्ववेद के निम्नांकित उपवेद हैं ⤵️
"अथर्ववेद के पांच उपवेदों का 'गोपथ ब्राह्मण' में उल्लेख है। 
१ सर्पवेद- सर्पविष चिकित्सा,
२ पिशाचवेद- पिशाचों राक्षसों का वर्णन,
३ असुरवेद - अथर्ववेद में असुरों को यातुधान कहा गया है । इसमें 'यातु' (जादू-टोना) आदि का वर्णन है । ४ इतिहासवेद- प्राचीन आख्यान तथा राजवंशों का परिचय । 
५  पुराणवेद- इसमें रोग निवारण, कृत्या प्रयोग, अभिचार कर्म, सुख-शान्ति, शत्रुनाशक इत्यादि मंत्र है।"

श्रमण परम्परा, शैव और शाक्त पन्थ तथा तन्त्र  की उत्पत्ति अथर्ववेद से ही हुई है। 
प्राचीन ईरान का धर्मग्रन्थ अवेस्ता अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ था। मीड लोग अवेस्ता के अनुसार श्रमण परम्परा निर्वाह करते थे। शंकर जी को मीढीश कहते हैं। प्राचीन बौद्ध और जैन परम्परा भी अथर्ववेद से ही निकली है‌। अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर जरथुस्त्र ने जेन्द व्याख्या ईरानी भाषा में की। फिर मूल अवेस्ता में जेन्द व्याख्या (भाष्य) गड्ड-मड्ड (मिश्रित) कर दिया। पारसी अपना धर्मगन्थ इसी जेन्दावेस्ता को मानते हैं। लेकिन जेन्दावेस्ता में अङ्गिरा मेन्यू को शैतान बतलाया गया है। ऐसे ही परम शैव रावण को जैन सम्प्रदाय वाले अपना अगला तीर्थंकर मानते हैं। 

आद्य शंकराचार्य जी का काल

आद्य शंकराचार्य जी का काल

भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।

आदिशंकराचार्य जी ने जो चार पीठ स्थापित किये, उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ--

1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ : स्थापना-युधिष्ठिर संवत् 2641-2645

2. पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648

3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648

4. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655

आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे।

शारदा पीठमें लिखा है -

"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।
……तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।
"अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था]

राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है-

'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र
मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्
यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15।
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था। उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं। इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है।

सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा"में कुछ श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-

तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि ।
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥"
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना| [कलिसंवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ] तदनुसार 3102-2593=509 BC में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।

कुमारिल भट्ट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -

ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्।
एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। ।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।
जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।

श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष सिद्ध होता है।

"जिनविजय" में शंकराचार्यजीके देहावसान के विषयमें लिखा है --

ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात्।
एकत्वेन लभेतांकस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥
2157 यु. सं. (जैन) 476 B.C. में आचार्य शंकर ब्रह्मलीन हुए !

बृहत्शंकरविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--

षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे। ।
………………………………|
प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम्।।
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 में अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गयाहै।
वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788 - 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल आचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है!

मूर्तिपूजा

वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि चेतन से जड़ की ओर चेतना के पतन का परिणाम है।  तदनुसार सनातनधर्मी मानते हैं कि, प्रजापति, दक्ष - प्रसुति, रुचि - आकुति, कर्दम- देवहुति और स्वायम्भूव मनु- शतरूपा आदि भू प्रजापतियों की सन्तान द्विपद (ब्राह्मण और क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र मानव) सुसंस्कृत और वैदिक वर्णाश्रम धर्म में दीक्षित ही जन्में थे। तब पञ्चम और म्लेच्छ वर्ण नहीं बनें थे।
जबकि,
आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार सृष्टि अचेतन से चेतना की ओर विकास माना जाता है। तदनुसार वनवासी आदिम जातियों में धर्म का विकास हुआ।
आदिम जातियों का सामाजिक अध्ययन नृतत्व शास्त्र/ मानव शास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजि  Anthropology) तथा सभ्य समाज का अध्ययन समाजशास्त्र में उल्लेखित सिद्धान्तों के आधार पर धर्म की उत्पत्ति प्राकृतिक घटनाओं - दुर्घटनाओं और मृत्यु के भय से माना जाता है।कारण  पूर्वजों के गाँत्ये (प्रतीक) रखकर पूजने को मूर्तिपूजा का आधार बतलाया गया है। 
भारत में सारस्वत सिन्धु सभ्यता में मिली पशुपति एवम् मातृका देवी की नग्न मूर्तियों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं नें निष्कर्ष निकाला कि, उस समय वैदिक वर्णाश्रम धर्म के साथ श्रमण संस्कृति भी थी जो तान्त्रिक विधि  के अनुयाई थे एवम् तान्त्रिक तरीके से मूर्तियों का पूजन आदि करते थे। वे लोग शवों को भूमि में गाड़ते थे। जबकि वैदिक जन अन्त्येष्टि में शव दाह करते थे।
वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड में माता कोशल्या जी महल में ही एक स्थान विशेष पर विष्णु पूजा करतीं हैं, अयोध्या काण्ड में माता कोशल्या श्री राम को कहतीं हैं कि, तुम जिन स्थानों पर आराधना-उपासना करने जाते हों वहाँ हो आओ। महाभारत में भी भीष्म पर्व में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक पत्र- पुष्पादि मुझे अर्पित करता है, उसे में ग्रहण करता हूँ। इससे अनुमान लगाया जाता है कि तब ऐसे स्थानक थे जहाँ व्यक्ति आराधना-उपासना करता था। उक्त ग्रन्थों में इन प्रकरणों में कहीं भी मुर्ति या प्रतिमा का उल्लेख नहीं किया गया है। क्योंकि ये पूजा-आराधना- उपासना किसी देवालय में नहीं अपितु, स्थान विशेष में की जाती थी। ऐसे आराधना स्थल होते हैं, जहाँ व्यक्ति धारणा- ध्यान के माध्यम से अपने इष्ट देव के निकट होने की अनुभूति करता है। वह सगुणोपासक भी हो सकता है लेकिन सगुण होने और साकार होने में बहुत अन्तर होता है। और साकार रूप के ध्यान में और किसी प्रतीक में बहुत अन्तर होता है। इसी प्रकार प्रतीक और प्रतिमा में भी आकाश- पाताल का अन्तर होता है। अतः साकार मानना मूर्ति पूजा का कोई प्रमाण नहीं होता।
जबकि, उसी वाल्मीकि रामायण में युद्ध काण्ड में वर्णन है कि, रावण की लंका में रावण की कुल देवी निकुम्भला के अनेक देवालय थे, जिनकी मूर्तियाँ तोड़ी और देवालय हनुमानजी ने ध्वंस किये थे।
अर्थात वैदिकों के आश्रम और श्रमणों के मठ और अनार्यों, दास- दस्युओं द्वारा देवालय सब प्रथक-प्रथक उद्देश्य से बनाये जाते थे।

लेकिन फिर भी

भारत में मूर्ति पूजा विकास का परिणाम नहीं है।
भारत में सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात मूर्ति पूजा ईराक और यूनान से सीख कर सर्वप्रथम श्रमण जैनों नें फिर वज्रयान बौद्धों ने अपनाई। फिर महायान बौद्धों ने अपनाई ।
फिर सनातनधर्मी श्रमण शैवों और शाक्तों ने अपनाई। फिर सौर सम्प्रदाय नें मन्दिर बनवाने प्रारम्भ किया ।फिर गाणपत्यों नें अपनाई। और अन्त में वैष्णवों नें अपनाई।

बुधवार, 9 अगस्त 2023

युधिष्ठिर संवत और कलियुग संवत

युधिष्ठिर संवत ईसापूर्व ३१३७-३८ में प्रवृत्त हुआ। जबकि कलियुग संवत ३१०१ ईस्वी पूर्व में प्रवृत्त हुआ।
अर्थात युधिष्ठिर के राज्यारोहण के ३८ वर्ष बाद कलियुग लगा। इसलिए कलियुग संवत ५१२५ में १४ अप्रेल २०२४ से युधिष्ठिर संवत ५१६३ रहेगा। 

आद्य शंकराचार्य जी का काल

आद्य शंकराचार्य जी का काल

भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।

आदिशंकराचार्य जी ने जो चार पीठ स्थापित किये, उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ--

1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ : स्थापना-युधिष्ठिर संवत् 2641-2645

2. पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648

3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648

4. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655

आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे।

शारदा पीठमें लिखा है -

"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।
……तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।
"अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था]

राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है-

'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र
मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्
यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15।
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था। उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं। इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है।

सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा"में कुछ श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-

तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि ।
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥"
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना| [कलिसंवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ] तदनुसार 3102-2593=509 BC में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।

कुमारिल भट्ट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -

ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्।
एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। ।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।
जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।

श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष सिद्ध होता है।

"जिनविजय" में शंकराचार्यजीके देहावसान के विषयमें लिखा है --

ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात्।
एकत्वेन लभेतांकस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥
2157 यु. सं. (जैन) 476 B.C. में आचार्य शंकर ब्रह्मलीन हुए !

बृहत्शंकरविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--

षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे। ।
………………………………|
प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम्।।
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 में अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गयाहै।
वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788 - 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल आचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है!