प्रत्येक व्रत का नियम है, व्रत पूर्ण होनें के दुसरे दिन पारण होनें पर ही व्रत पूर्ण माना जाता है। यदि आपने अष्टमी का उपास किया है तो नवमी में पारण आवश्यक है। दशमी में पारण किया तो अष्टमी का व्रत भङ्ग हो जाएगा।
यदि नवमी को व्रत रखा है तो दशमी में भोजन कर पारण करना आवश्यक है।
यदि एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि में नही किया और त्रयोदशी तिथि में भोजन किया तो एकादशी का व्रत भङ्ग माना जाएगा।
यदि द्वादशी तिथि में पारण हो सके तभी दशमी विद्धा एकादशी में व्रत नही करें। लेकिन यदि द्वादशी में पारण नही हो सकता हो तो दशमी विद्धा एकादशी में ही व्रत करना आवश्यक होनें से दोष नही है।
क्योंकि, जहाँ दो धर्म नियम परस्पर विरुद्ध जाते हों तो परमार्थ साधक स्थाई और प्राथमिक नियम को प्रधानता दी जाती है।
यहाँ द्वादशी में पारण सभी व्रतों के समान ही एकादशी व्रत का मुख्य नियम है। इस पारमार्थिक नियम का त्याग नही किया जा सकता। अतः द्वादशी में पारण अनिवार्य होनें के सर्वहितकारी नियम के सम्मुख स्वहितकारी दशमी विद्धा एकादशी के त्याग का नियम गौण होनें से छोड़ा जाना चाहिए।
यह धर्मशास्त्र का नियम है। स्वयम् के लोभ के पीछे धर्म की हानि करने वाले की रक्षा धर्म नही करता। धर्म की रक्षा करने वाले की रक्षा स्वयम् धर्म करता है।
पारण करनें का नियम यह है कि, अतिथि,गौ, कुत्ता, कव्वा, चीटी को भोजन अर्पित करने रूपी पञ्चबलि उपरान्त, वृद्ध, बालकों और आश्रितों को पहले भोजन करवा कर ही स्वयम् भोजन करना चाहिए।
पारण का मतलब यही है कि, निराहार व्रत करनें वाले आचमन भी करले तो पारण कहलाता है। सामान्य अर्थ तो भोजन करना ही है।
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