वैदिक नव संवत्सर स्पष्टीकरण
वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, श्रोतसुत्रों, गृह्य सुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, रामायण-महाभारत आदि इतिहास और पुराणों में जिन मास और दिनों का वर्णन है वह सायन सौर संवत्सर,सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित है। अर्थात सायन सौर संक्रान्तियों पर से आरम्भ होनेवाले मधुमाधवादि मासों पर आधारित, सायन सौर सूर्य के अंश/ या संक्रान्ति गते आधारित, दशाह के वासर आधारित है। इसके साथ ही सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर के मास और तिथियों के अनुसार ही बतलाये हैं। है।
(सुचना - पुराणों की रचना के समय सप्ताह को मान्यता मिली। इसके पहले सप्ताह प्रचलित नही था दस दिन का दशाह ही प्रचलन में था।)
क्योंकि वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्रों, स्मृतियों, रामायण-महाभारत आदि इतिहास और पुराणों में संवत्सर और मासों को ऋतुओं से सम्बद्ध बतलाया गया है। सभी व्रत, पर्व और उत्सवों का वर्णन ऋतु आधारित है।
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कृपया निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान दीजिएगा---
संवत्सरारम्भ वसन्त ऋतु में ही होना चाहिए।
श्री राम जन्म वसन्तऋतु में हुआ था।
कोकिला वृत ग्रीष्मान्त और वर्षा ऋतु के आरम्भकाल से सम्बन्धित है।
हरियाली अमावस्या , हरियाली तीज , श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, कुशोत्पाटिनी अमावस्या और यशोदा माता का जलवा पूजन देव झुलनी एकादशी वर्षा ऋतु से सम्बन्धित हैं।
शारदीय नवरात्र और शरद पुर्णिमा के नाम से ही स्पष्ट है कि यह शरद ऋतु में ही होना चाहिए। इसी कारण वर्षाकाल समाप्त होने पर यात्रा आरम्भ का पर्व दसरा / विजया दशमी (जिसे लोकभाषा मे दशहरा बोलते हैं) मनाया जाता है।
दीपावली पर किया जाने वाला दीप यज्ञ में (धान सेक कर बनाई गई) साल की धानी, ज्वार और गन्ने का हवन किया जाना; दीवाली के दूसरे दिन बलिप्रतिपदा पर अन्नकूट होना और मार्गशीर्ष मास की अग्रहायणी पूर्णिमा/ अमावस्या को नव धान्य यज्ञ कर यज्ञभाग आवण्टन का पर्व नव धान्य फसल आने पर ही मनाये जाते हैं।
(सायन) मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) को ही सूर्य परम दक्षिण क्रान्ति को प्राप्त हो, भूमि की मकर रेखा पर लम्बवत होता है। ठण्ड में ही जब नये तिल आते हैं, नवीन तिलों का उपयोग आरम्भ होता है। तिल-गुड़ का प्रयोग शिशिर ऋतु / ठण्ड में ही उचित है। तिलषटा एकादशी भी इसी उपलक्ष्य में मनाई जाती है
होली पर्व पर नवस्येष्टि यज्ञ होना, खलिहान से नई फसल का गुरुकलों, ऋषियों, ब्राह्मणों को धर्मबलि के रूप में देना ( अर्थात धार्मिक कर अदायगी करना ), राज्य को लगान/ कर देना, और शुद्रों को सेवा शुल्क के रूप में अनाज देकर पुरस्कृत करना इस रूप मे यह यज्ञभाग आवण्टन करने का पर्व है, होली को वसन्तारम्भ का उल्लास उत्सव, धुलोत्सव, रङ्गोत्सव, वसन्तोत्सव भी वसन्त ऋतु के आरम्भ में ही मनाया जाता है। उक्त उदाहरणों से सिद्ध है कि, व्रत, पर्व और उत्सव ऋतु आधारित होते हैं।
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यदि परम्परागत पञ्चाङ्ग चलती रही तो ११०२७ ईस्वी के बाद
गुड़ी पड़वा हेमन्त ऋतु में आयेगी।
होली वर्षा ऋतु में आयेगी।
निरयन मकर संक्रान्ति वर्षा ऋतु में पड़ेगी।
अग्रहायण वसन्त अन्त ग्रीष्म आरम्भ मे होगा।
जन्माष्टमी हेमन्त ऋतु (ठण्ड के आरम्भ) में आयेगी।
शारदीय नवरात्र, दसरा, शरद पूर्णिमा, दीपावली शिशिर ऋतु के अन्तिम माह (कड़ाके की ठण्ड) में आयेगी।
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इससे सिद्ध है कि,
संवत्सर आरम्भ, वैदिक अयन (पौराणिक गोल), वैदिक तोयन (पौराणिक अयन), ऋतुएं और वैदिक मधु-माधवादि मास ३६५ दिन ०५ घण्टे ४८ मिनट ४५.६ मिनट अर्थात (३६५.२४२१९० दिन) वाले सायन सौर वर्ष से ही सिद्ध होती है। इसी प्रकार; सूर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त, लग्नारम्भ साधन, ख स्वस्तिक साधन (दशम भाव स्पष्ट), भाव स्पष्ट साधन, सूर्य ग्रहण-चन्द्र ग्रहण साधन, ग्रह लोप- दर्शन साधन, अगस्तादि तारा उदयास्त साधन, ग्रहों का वक्री-मार्गी और उदयास्त साधन आदि समस्त गणनाएँ केवल सायन गणना से ही सिद्ध होती है।
उक्त किसी भी गणना में ३६५ दिन ०६ घण्टे ०९ मिनट, ०९.८ सेकण्ड वाले अर्थात ३६५.२५६३६३ दिन वाले नाक्षत्रीय वर्ष / निरयन सौर वर्ष गणना का किञ्चित मात्र भी उपयोग नही है।
केवल नाग पञ्चमी का सम्बन्ध आर्द्रा नक्षत्र पर सूर्य होने से सम्बंधित है और शिवरात्रि के वर्णन में ही व्याघ (बहेलिया) द्वारा मृगशीर्ष नक्षत्र के ताराओं और व्याघ तारा को रातभर देखने का वर्णन है। अन्य किसी व्रत, पर्व, उत्सव में नाक्षत्रीय गणना उपयोगी नही है।
नक्षत्रों के साथ ग्रहों की युति या नक्षत्र योगतारा से १८०° पर ग्रह होने (दृष्टि) के आधार पर संहिताओं और जातक शास्त्र/ होरा शास्त्र (फलित ज्योतिष) में ही नाक्षत्रीय गणना/ निरयन पद्यति का उल्लेख है। अन्यत्र कहीं नही। मतलब निरयन गणना का प्रचलन होरा स्कन्द/ जातक शास्त्र / फलित ज्योतिष के विकास के साथ हुआ पहले नही था।
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अस्तु
कलियुग संवत ५१२३ का शुभारम्भ २१ मार्च २०२२ सोमवार से होगा।(संकल्पादि मे प्रयुक्त होगा।)
वैदिक नव संवत्सरारम्भ, वैदिक उत्तरायण आरम्भ / (पौराणिक उत्तरगोल आरम्भ), ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त्त में वसन्त ऋतु आरम्भ, कलियुग संवत ५१२३ का प्रारम्भ, वसन्त विषुव, सायन मेष संक्रान्ति दिनांक २० मार्च २०२२ रविवार को २१:०३ बजे होगा।
इस दिन देवताओं का सूर्योदय होगा, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होगा। दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त होगा, असुरों का सूर्यास्त होगा।
चूंकि, संकल्पादि में वर्तमान काल का उच्चारण होता है और संक्रान्ति सूर्योदय पश्चात संक्रान्ति होगी इस कारण संकल्पादि में कलियुग संवत ५१२३ का प्रयोग २१ मार्च २०२२ सोमवार को सूर्योदय से होगा।
इन्दौर में २१ मार्च २०२२ सोमवार को मध्याङ्ग सूर्योदय ०६:३४ बजे होगा।
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सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ दिनांक ०२ मार्च २०२२ बुधवार को २३:०६ बजे से सायन मीन संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति समय (२३:०६ बजे) होगा।
लेकिन संकल्प में वर्तमान समय लिया जाता है अतः व्यवहार में सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र संवत्सर युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ दिनांक ०३ मार्च २०२२ गुरुवार से संकल्पादि में आरम्भ होगा ।
सामान्यतः यह संवत ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। और अधिक मास वाले वर्ष में यह संवत ३८३.८९७६५७ दिन का होता है।
प्रायः बत्तीस से अड़तीस मास पश्चात अधिक मास होता है।
सुचना - इस गणना में संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित चैत्रादि मासो में से निश्चित मास में नही होते हुए लगभग २१४८ वर्ष में एक-एक मास आगे खिसकता जाता है। तदनुसार ईस्वी सन २४३३ में इस संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा।
इस गणना पर आधारित एकमात्र पञ्चाङ्ग ग्रेटर नोएडा उत्तर प्रदेश के आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश कृत श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् का परिचय आलेख के अन्त में दिया है। इस गणना के अनुसार कोई और पञ्चाङ्ग नही निकलती है।
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नाक्षत्रीय नव संवत्सर आरम्भ/ विक्रम संवत २०७९ आरम्भ पञ्जाब हरियाणा, जम्मु, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखण्ड के कुछ भागों में वैशाखी/ निरयन मेष संक्रान्ति गुरुवार १४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे होगा।
इस समय सूर्य के केन्द्र से देखने पर इस दिन (१४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे) भूमि चित्रा तारे के ठीक सामने दिखेगी। तदनुसार भूमि के केन्द्र से देखने पर सूर्य चित्रा नक्षत्र के योग तारे से १८०° पर दिखेगा।
सूर्योदय पश्चात आरम्भ होने से संकल्पादि में पञ्जाब-हरियाणा, दिल्ली, हिमालय प्रदेश, जम्मु, और उत्तराखण्ड के कुछ भाग में विक्रमादित्य राज्यारोहण संवत/ विक्रम संवत २०७९ का प्रयोग दिनांक १५ अप्रेल २०२२ शुक्रवार के सूर्योदय से होगा।
इन्दौर में मध्याङ्ग सूर्योदय ०६:१० बजे होगा।
सुचना - उक्त नाक्षत्रीय संवत्सर ऋतु आधारित नही है। चित्रा तारे से १८०° पर स्थित एक निश्चित तारे से आरम्भ होकर उसी तारे पर (Fixed star) पूर्ण होनें के कारण इस संवत्सर का नाम नाक्षत्रीय वर्ष (Sidereal year) कहलाता है। किन्तु वर्तमान में आकाश में उस बिन्दु फर कोई तारा (Star) नही है।
इस गणना का उपयोग यह है कि, सूर्य चन्द्रमा एवम् कोई ग्रह किस नक्षत्र में भ्रमण कर रहा है यह केवल नङ्गी आँखों से देखा जा सकता है।
यह संवत ऋतु आधारित नहीं है। प्रत्येक २१४८ वर्ष में कलियुग संवत से एक मास बाद आरम्भ होता है।
तदनुसार ४२९६ वर्ष में यह एक ऋतु आगे आरम्भ होता है।
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निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शक नववर्षारम्भ शकब्द १९४४ का प्रारम्भ ०१ अप्रैल २०२२ शुक्रवार को पूर्वाह्न ११:५३ बजे से हो जायेगा।
किन्तु संकल्पादि में प्रयोग दिनांक ०२ अप्रेल २०२२ शनिवार को सूर्योदय से होगा।
इन्दौर में सूर्योदय ०६:२२ बजे होगा।
सामान्यतः यह संवत ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। और अधिक मास वाले संवत में यह ३८३.८९७६५७ दिन का होता है।
प्रायः बत्तीस से अड़तीस मास पश्चात अधिक मास होता है।
सुचना - उक्त शकाब्द संवत्सर ऋतु आधारित नही है। इसका आरम्भ सदा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। शकाब्द का प्रचलन (मथुरा एवम्) उत्तर भारत में कनिष्क ने और (पैठण तथा) मध्य भारत और महाराष्ट्र कर्नाटक में गोतमिपुत्र सातकर्णी द्वारा प्रारम्भ किया गया। वर्तमान प्रचलित सभी पञ्चाङ्ग इसी गणना पर आधारित निकलती है।
यह संवत ऋतु आधारित नहीं है। प्रत्येक २१४८ वर्ष में युधिष्ठिर संवत से एक मास बाद आरम्भ होता है।
तदनुसार ४२९६ वर्ष में यह एक ऋतु आगे आरम्भ होता है।
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शुद्ध चान्द्र संवत्सर भारत में और सनातन धर्म में प्रचलित नही है।
सिद्धान्त ग्रन्थोक्त निरयन सौर (नाक्षत्रीय) कल्प संवत के अहर्गण निकालकर शुद्ध चान्द्रवर्ष की अवधि ३५४.३६७०६८ दिन का भाग लगाकर शेष दिनों को भुक्त मास- तिथ्यादि मानकर गणना करनें पर भी प्रथम मास अरबी कमरी मास मोहरम ही आया। इसी अहर्गण से सप्ताह का वार भी ठीक बैठता है।
अतः मोहरम मास को प्रथम मास मान कर मोहर्रम मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुद्ध चान्द्र संवत्सर आरम्भ माना जा सकता है। लेकिन भारत में सनातन धर्म में इस प्रकार का कोई संवत्सर प्रचलित नही है। अतः इसके अधिक विवेचन की आवश्यकता भी नही है।
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सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर पञ्चाङ्ग परिचय।
द्वारका के शारदामठ के शंकराचार्य जी ने इन्दौरी पञ्चाङ्ग के सम्पादक श्री वीसा जी रघुनाथ लेले को सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र मास के पक्ष में सम्मति प्रदान कर इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी में प्रस्तुत करने हेतु विक्रम संवत १९४९, शके १८१४ (ईस्वी सन १८९३ में) फाल्गुन कृष्णाष्मी को दी थी। उक्त कमेटी के अध्यक्ष श्री वि.भु. दीनानाथ शास्त्री चुलैट थे।
मुम्बई और पुणें में पञ्चाङ्ग शोधन समितियों में भी कई बार सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र मास के पक्ष में मत प्रस्तुत किये गये थे।
भारत शासन द्वारा स्थापित केलेण्डर रिफार्म कमेटी के अध्यक्ष श्री एम.एन. साहा भी सायन सौर संवत्सर और मासों के पक्ष मे़ं ही थे।
लेकिन प्रचलित पञ्चाङ्गकारों की आर्थिक लॉबी ने इन प्रयासों पर पानी फेर दिया।
सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर का प्रचलन शकारम्भ तक रहा था। कुशाण वंशीय राजा कनिष्क द्वारा मथुरा क्षेत्र और उत्तर भारत में तथा सातवाहन राजा गोतमिपुत्र सातकर्णी द्वारा पैठण महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य भारत में शकाब्द लागु किया। इसके पश्चात सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र संवत्सर वाली पञ्चाङ्ग अप्रचलित हो गई थी।
लगभग एक हजार नौ सौ वर्ष बाद काशी वाराणसी के बापु शास्त्री ने सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर वाला पञ्चाङ्ग जारी किया लेकिन लोक प्रचलित नही होने से उन्हें अपना मत परिवर्तन करना पड़ा। महाराष्ट्र में व्यंकटेश बापूजी केतकर ने भी वैजन्ती ग्रन्थ में सायन गणनानुसार पञ्चाङ्ग का समर्थन किया किन्तु बाद में मत परिवर्तन कर ग्रह गणितम की रचना कर निरयन पञ्चाङ्ग का गणित रचा।
विगत कुछ वर्षों से ग्रेटर नोएडा (उतर प्रदेश) के आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् नाम से सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर और मासों वाली पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ कर इसे पुनर्जीवित किया है। इसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। इस पञ्चाङ्ग पर आधारित दो-तीन वाल केलेण्डर भी पूणे और बेंगलूर से प्रकाशित होने लगे हैं। दक्षिण भारत में यह पञ्चाङ्ग पर्याप्त लोकप्रिय होने लगा है।
मोहन कृति आर्ष पत्रकम् को श्रङ्गेरी मठाधीश शंकराचार्य स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती जी एवम् ज्योतिर्मठ तथा द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी , स्वामी श्रीमद्गङ्गाधरेन्द्र सरस्वती, शारदापीठ कश्मीर के स्वामी श्री अमृतानन्द देवतीर्थ और का आशीर्वाद और उत्तर कर्नाटक के श्री सोन्द स्वर्णवल्ली महासमर्थ जी (Shri Sonda Swarnavalli Mahasamartham) का आशिर्वाद और अनुमोदन प्राप्त है। तथा आर्यसमाज के आर्ष गुरुकुल, वङ्लुरु ,कामारेड्डी , जिला - इब्दुरु, आन्ध्र प्रदेश का भी पूर्ण समर्थन है।
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श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम / पञ्चाङ्ग में संवत्सर सायन मीन संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति के बीच पड़नें वाली अमावस्या समाप्ति समय से और संकल्पादि में दुसरे दिन प्रतिपदा से आरम्भ होता है। इसके अधिक मास क्षय मास भी सायन संक्रान्तियों पर ही आधारित होते हैं। इसमें नक्षत्र योग ताराओं से आरम्भ कर दुसरे नक्षत्र के योग तारा तक भोग वाले /असमान भोग वाले अट्ठाइस सुक्ष्म नक्षत्र मान्य किये गये हैं। तदनुसार व्यतिपात, वैधृतिपात योग भी सूर्यचन्द्र क्रान्तिसाम्य आधारित योग ही स्वीकार किये गये हैं। ग्रह गणना भी सायन भोगांश ही दिये हैं।
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