सोमवार, 31 जनवरी 2022

निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन भाग २

निम्बार्क का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन ---

 निम्बार्काचार्य जीव (चित्) और जगत (अचित्)  के ब्रह्म (ईश्वर/ श्रीहरि) से भेदान्वित अभेद सम्बन्ध को प्रतिपादित करते हैं। मतलब जीव और जगत का ब्रह्म से भेद होते हुए भी उनमें आधारगत अभेद सम्बन्ध है।

निम्बार्काचार्य अपने स्वाभाविक द्वैताद्वैतवाद में जीव और ब्रह्म में समान रूप से भेद और अभेद स्वीकार करने से भेदवादी भक्त और अभेदवादी ज्ञानी को सन्तुष्ट रखने में समर्थ हुए।  इसी प्रकार वे फलदाता ईश्वर और कर्म के कर्ता भोक्ता भक्त जीव के प्राथक्य पर आधारित कर्मकाण्ड प्रधान धर्माचरण वादियों और संसार में व्याप्त अनेकता में एक्य स्थापित करने वाले, एक से ही अनेक की उत्पत्ति की समुचित व्याख्या करने में समर्थ दार्शनिकों दोनों की आवश्यकताओं को  सन्तुष्ट करनें में समर्थ हुए।
क्योंकि, स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन कर्मवादी भक्त और ज्ञानी के मध्य का दर्शन है तथा धार्मिक और दार्शनिक अतियों के मध्य का दर्शन है।

निम्बार्काचार्य समान रूप से सत्य और नित्य तीन द्रव्यों में विश्वास करते हैं।
१ नियन्ता ब्रह्म जो सभी दिव्य गुणों के आश्रय श्रीहरि हैं जिन्हें वे वे ही राधा कृष्ण भी कहते हैं।  
२ चित् जीवात्माएँ जो संख्या में अनन्त अणुरूप है, ज्ञाता और ज्ञान दोनों है तथा कर्ता-भोक्ता है। और
३ अचित यानी जड़ जगत जो भोग्य पदार्थ है।

निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन के अनुसार  ब्रह्म इस विश्व का निमित्तोपादान कारण है। यह समस्त जगत-व्यापार उसकी लीला है और जगत उत्पत्ति उसकी लीला का परिणाम है।
ब्रह्म अन्तर्वर्ति और लोकातीत  (Immanent & Transcendent) दोनों है। वह विश्व के कण-कण में व्याप्त है फिर भी यह सम्पूर्ण विश्व उसका एक पाद (चरण) मात्र है। शेष तीन पाद उससे अतीत है।
अणुरूप जीवात्माएँ ब्रह्म (श्रीहरि) से वैसे ही सम्बन्धित है जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से सम्बन्धित है। 
जैसे सागर से अलग लहरों की कोई सत्ता नही है अतः सागर से अभिन्न है लेकिन लहरें स्वयम् सागर नहीं है अतः सागर से भिन्न भी है। इसी प्रकार जीव, जगत और ब्रह्म में स्वाभाविक भेदाभेद है।
जीव ब्रह्म (ईश्वर) का वास्तविक अंश हैं । लेकिन जीव और जगत का ब्रह्म से न पूर्ण एक्य है न पूर्ण भेद है। यही उनके बीच भेदाभेद सम्बन्ध है।
जीव और जगत ब्रह्म से अभिन्न हैं क्योंकि, ब्रह्म जीव और जगत में अन्तर्वर्ति होनें से उनमें व्याप्त है और उनका स्वरूप निर्माण करता है। साथ ही जीव और ब्रह्म जगत से भिन्न भी है क्योंकि, ब्रह्म जीव और जगत से अतीत है और उनके गुण भी ब्रह्म से भिन्न है। इस भिन्नता और अभिन्नता का कोई कारण नहीं है। 
ब्रह्म साकल्य और जीव अंश है इस प्रकार अभिन्न है। ब्रह्म नियन्ता और जीव नियन्त्रित है। इस प्रकार भिन्न भी है। अतः जीव भक्त और ब्रह्म भगवान है।
 
निम्बार्काचार्य के अनुसार जीव दो प्रकार के होते हैं। बद्ध और मुक्त।
मुक्त जीवों में भी कुछ नित्य मुक्त हैं। ऐसे नित्य मुक्त जीव गरुड़ और विश्वक्षेण संजीव हैं तथा ईश्वर की बांसुरी और उनके आभुषण जैसे निर्जीवों को भी नित्य मुक्त जीव माना है। 
मुक्त जीवों को उनके जन्म के समय ईश्वर की कृपादृष्टि पड़नें के कारण मुमुक्षु प्रवृत्ति होजानें से गुरुकृपा प्राप्त कर गुरु के मार्गदर्शन में सद्कर्म और उपासना कर विद्या प्राप्त कर अर्थात ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण रूप प्रपत्ति और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण रूप गुरुपासत्ती के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध कर लेनें पर ईश्वरीय कृपा से  सांसारिक सुखों से विरक्त और मुमुक्षु भक्त के विदेहमुक्ति प्राप्त करने योग्य होनें पर प्रारब्ध भोग पर्यन्त जीवन व्यतीत कर  मरणकाल में ईश्वर के ध्यान में मग्न भक्त को गुरुकृपा से ईश्वर ने कृपा कर उन्हे क्रममुक्ति प्रदान की हैं। 
जबकि कुछ जीवों के जन्म के समय उनपर ईश्वर की कृपा दृष्टि पड़ने से मुमुक्षु हो सद्कर्म और ईश्वरोपाससना कर विद्याप्राप्ति कर निर्मल अन्तःकरण से प्रपत्ति और गुरुपासत्ती के माध्यम से मुक्ति के मार्ग में अग्रसर हैं। 
लेकिन कुछ जीव अभी भी सांसारिक भोगों में रस लेनें के कारण बद्धावस्था में ही हैं। 
निम्बकाचार्य जी के अनुसार द्विज अर्थात  ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैष्य वर्णीय भक्त को सद्कर्म, उपासना और विद्या प्राप्ति/ ज्ञान प्राप्ति से भी ईश्वर कृपा से मुक्ति की पात्रता प्राप्त हो सकती हैं लेकिन शुद्र की मुक्ति में प्रपत्ति (पूर्ण ईश्वर समर्पण) और  गुरुपासत्ती (सद्गुरु पर पूर्ण समर्पण) ही उपाय हैं।

समस्त वैष्णवाचार्यों की भाँति निम्बार्काचार्य भी सद्योमुक्ति को स्वतोव्याघाती पद कहकर असम्भव मानते हैं। उनके अनुसार जीव द्वारा शरीर त्यागनें पर देवयान मार्ग से यात्रा कर ईश्वरीय कृपा से क्रमशः वैकुण्ठ वास यानी सालोक्य मुक्ति, भगवान के समान वैभव/ ऐश्वर्य प्राप्ति रूप सार्ष्टि मुक्ति, सदैव भगवान के ही निकट रहना सामीप्य मुक्ति, श्रीवत्स चिन्ह और कोस्तुभ मणि को छोड़कर श्रीहरि का रूप मिलना यानी सारूप्य और अन्त में भगवान श्रीहरि से ही युक्त हो जाना/  जुड़ जाना/  किन्तु लय नहीं होना रूप सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।

मुक्तावस्था में जीव ब्रह्म और जगत के सम्बन्धों को जान कर जगत के नानात्व से भ्रमित नहीं होकर जगत के नानात्व को ब्रह्म से स्वतन्त्र देखता है तथा  स्वयम् के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास की अवस्था प्राप्त कर ब्रह्म के श्रीवत्स चिह्न और कौस्तुभ मणि को छोड़ भगवान के श्री हरि स्वरूप प्राप्त करले था है। और  जगत सम्बन्धी कार्य और व्यापार तथा दिव्य कृपा प्रदान करनें के ईश्वरीय अधिकारों को छोड़ भगवान श्री हरि के शेष गुणों को भी प्राप्त कर लेता है।  जीव मुक्त अवस्था में सदा सर्वदा ईश्वर भक्ति में ही लीन रहता है। 
निम्बार्काचार्य भी सभी वैष्णवाचार्यों की भाँति ही मुक्ति को भक्ति की दासी मानते हैं।   

रविवार, 30 जनवरी 2022

नारद पुराणोक्त एकादशी व्रत।

एकादशी के सम्बन्ध में नारद पुराण में राजा रुक्माङ्गद की कथा । 
कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६१२ से ६३९ तक देखें।
नारद पुराण में  एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने वाले राजा रुक्माङ्गद  द्वारा ब्रह्मा की मानस पुत्री मोहिनी को कार्तिक मास की महिमा बतलाते हुए एकादशी को व्रत रखने के उल्लेख और अगले अध्याय में राजा रुक्क्माङ्गद की आज्ञा से रानी संध्यावली द्वारा कार्तिक मास में कृच्छ्व्रत आरम्भ करने और राजा रुकमाङ्गद एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने की घोषणा, उसके बाद मोहिनी द्वारा बुलवाये गये गोतम ब्राह्मणों द्वारा एकादशी व्रत अवैदिक बतलाने पर भी राजा रुक्माङ्गद का वैष्णवों के लिए एकादशी व्रत की अनिवार्यता बतलाने के प्रकरण से एकादशी तिथि को व्रत रखने की परम्परा का आरम्भ माना जाता है। 

[विशेष सुचना --- गोतम ब्राह्मणों का कथन असत्य नही था। वेदों में तिथियों का उल्लेख नही है, उस समय सौर गणना (केलेण्डर) प्रचलित थी। सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र के अनुसार जैसे आज भी दक्षिण भारत में व्रत उत्सव होते हैं, बङ्गाल में दुर्गा पूजा में तिथियों की तुलना में चन्द्रमा के नक्षत्रों के अनुसार दुर्गा का आव्हान, पूजन, बलिदान और विसर्जन निर्धारित किया जाता है, वैसे ही कुछ व्रत उत्सव सायन सौर मधु - माधवादि मासों और चन्द्रमा के नक्षत्रों के अनुसार निर्धारित होते थे। तिथियों का उल्लेख तो वाल्मीकि कृत मूल रामायण में भी नही है। महाभारत में अवश्य तिथियों का उल्लेख है।
अतः एकादशी वैदिक व्रत नही है यह गोतम ब्राह्मणों की का कथन पूर्ण प्रामाणिक सत्य था।
राजा मोरध्वज से पुत्र का बलिदान करवानें की कथा में उक्त बलिदान करवानें वाले दिन एकादशी तिथि थी। इस आधार पर मेसोपोटामिया के चन्द्रवंशियों में एकादशी तिथि प्रचलन में आई थी। तब भारत में ऐसा कोई व्रत प्रचलित नही था। चन्द्रवंशियों द्वारा भारत में तिथि वाला उन्नीस वर्षीय चक्र वाली सौर चान्द्र गणना (केलेण्डर) प्रचलित किया। जिसे अन्त में विक्रमादित्य के समय वराहमिहिर ने प्रचलित करवाया।]

इस प्रकार राजा रुक्माङ्गद नें चन्द्र वंशियों में प्रचलित परम्परा अनुसार एकादशी व्रत भारत में भी आरम्भ करवाया।
जिसमें एकादशी के पूर्वदिन सायंकालीन भोजन का त्याग, एकादशी के दिन प्रातः कालीन भोजन का त्याग और द्वादशी के दिन निराहार उपवास करना उल्लेखित है।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में राजा रुक्माङ्गद की उक्त कथा में ब्राह्मणों के शाप से मोहिनी को किसी भी लोक में स्थान न पाने पर ब्रह्मा जी ने मोहिनी को दशमी तिथि अन्तिम भाग में स्थान देकर के तेरहवें मुहुर्त के पश्चात अरुणोदय से सूर्योदय तक व्रत में रहकर दशमी विद्धा एकादशी करने वाले ब्राह्मणों के एकादशी व्रत के पुण्य फल प्राप्त करने का अधिकार दिया।  इसलिए एकादशी व्रत करने वाले दशमी विद्धा एकादशी में व्रत नहीं करते। किन्तु वैध कब से आरम्भ हो इसपर स्मार्त, पौराणिक और महाभागवतों में मतभेद हैं।

एकादशी में दशमी वैध -- 

गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में उल्लेख के अनुसार दशमी तिथि समाप्ति और एकादशी तिथि आरम्भ के समय के अनुसार तीन प्रकार के वैध बतलाते गये हैं।

१ गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ पर श्रोत्रिय/ वैदिकों और स्मार्तों अर्थात केवल वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों, वेदाङ्गो, षड्शास्त्रों (षड दर्शनों) और स्मृतियों को ही धर्मशास्त्र मानने वाले स्मार्तों के लिए सूर्योदय समय या सूर्योदय के बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ होने पर दूसरे दिन / परा अर्थात् उदिता एकादशी में व्रत करना। 

[विशेष सुचना --- लेकिन वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, ग्रह्य सुत्रों, श्रोतसुत्रों सभी में एक निश्चित नियम है कि, व्रत की पूर्णता व्रत के पारण पर ही होती है, इसलिए व्रत रखनें की अगली तिथि में पारण आवश्यक है।
यदि एकादशी का व्रत करना है तो द्वादशी में पारण आवश्यक है। यदि द्वादशी में पारण नही होता तो एकादशी का व्रत अपूर्ण माना जाएगा।]

२ गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३८ पर पौराणिक वैष्णवों के लिए अरुणोदय विद्धा एकादशी का त्याग कहा है। और रात्रि के अन्तिम दो मुहुर्त को अरुणोदय बतलाया है। 
सामान्यतया पौराणिक वैष्णव छप्पन घटि का वैध मानते हैं। अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे २४ मिनट बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो पौराणिक वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में  एकादशी का व्रत करते हैं।
 रामानुजन सम्प्रदाय वाले अरुणोदय पचपन घटि पर मान कर पचपन घटि का वैध मानते हैं अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो रामानुजन सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।

३  गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ  ६३८ में उल्लेख निष्काम एवम् विरक्त वैष्णव परम भागवत जन अर्धरात्रि के समय भी दशमी विद्ध एकादशी को त्याग देते हैं वचन के अनुसार  निम्बार्क सम्प्रदाय मध्यरात्रि या पैंतालीस घटि का वेद मानते हैं। तदनुसार मध्यरात्रि या सूर्योदय के अठारह घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो निम्बार्क सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।

निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन भाग १

स्वाभाविक भेदाभेद
श्रीनिम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र​ शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद के विपरीत​ मत वाली स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिऔन्न रूपत्व) भी​ आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही वचन धर्म हैं। किसी एक वचन को​ उपादेय तथा अन्य वचन को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से​ सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की​ कल्पना करना उचित नहीं है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न​ रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने परमात्मा, जीव और जगत के बीच स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी​ परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध​ मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।
कुछ श्रुति वाक्यों में भेद का बोध  होता हैं तो कुछ श्रुति वाक्य अभेद का​ निर्देश देते हैं। 
यथा- 
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १)
 आत्मा वा इदमेकमासीत्’  (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.३/१४/१) और  
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
जबकि,
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८) 
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१) 
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) । 
‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८) 
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान
बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म,जीव और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।
 श्रुति​ स्मृतियों का निर्णय है कि,वेद सर्वांशतया प्रमाण है।। अतः तुल्य होने से भेद दर्शक वचन और अभेद दर्शक वचन दोनों को ही प्रधान​ मानना होगा। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो​ जावे। यह समन्वय ही भेदाभेद दर्शन है।
‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से​ अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा जब बन जाती है।तब मिट्टीके बिना घडे​ की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान ररहता हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक्​ रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य​ रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
 ‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ०’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही​ अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने​ से यह अभेद सवाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है।
अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह​ ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (​तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं। ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल​ भुगताता है।
अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत्​ का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही​ है।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का​ निर्देश देती हैं।
यथा-
ब्रह्म मकड़ी के जाले के​ समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह​ ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०)
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ।(​तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।

बुधवार, 26 जनवरी 2022

निम्बार्क सम्प्रदाय

निम्बार्क संप्रदाय के चिन्ह (शंख, चक्र व उर्ध्वपुंड निम्बार्क तिलक)
 निम्बार्काचार्य, निम्बार्क सम्प्रदाय और स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन/स्वाभाविक द्वेताद्वेत दर्शन।
(स्रोत - विकिपीडिया)
निम्बार्काचार्य और निम्बार्क सम्प्रदाय
निम्बार्क सम्प्रदाय सनक सम्प्रदाय के नाम से भी विख्यात है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि श्री निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव द्वापर के अन्त में श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ और परीक्षित के पुत्र जनमेजय के समय ३०९६ ईसापूर्व में कार्तिक पूर्णिमा को सायंकाल में महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट मूंगीपैठनमें वैदुर्यपत्तन (दक्षिण काशी) के तैलंगदेशीय सुदर्शनाश्रम में भृगुवंशीय अरुण ऋषि की धर्मपत्नी श्रीजयन्तीदेवी जी के गर्भ से श्रीसुदर्शन चक्र के अवतार के रूप में हुआ। 
जन्म के समय इनका नाम 'नियमानन्द' रखा गया और बाल्यकाल में ही ये ब्रज में आकर बस गए। मान्यतानुसार अपने गुरु नारद की आज्ञा से नियमानंद ने गोवर्धन की तलहटी को अपनी साधना-स्थली बनाया। श्रीनिम्बार्काचार्य ने स्वाभाविक द्वैताद्वैतवाद अर्थात स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन प्रतिपादित किया।
श्रीमद्‌भागवत में परीक्षित द्वारा भागवतकथा श्रवण के प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर इनके पिता अरुण ऋषि की उपस्थिति को विशेष रूप से उल्लेख है। 
एक बार गोवर्धन स्थित इनके आश्रम में केवल दिन में भोजन करने वाले दिवाभोजी यति सन्यासी आये।  शास्त्र-चर्चा में काफी समय व्यतीत हो गया और सूर्यास्त हो गया। दिवाभोजी यति बिना भोजन किए जाने लगे। तब बालक नियमानन्द ने  सुदर्शन चक्र को नीम के वृक्ष पर स्थापित कर नीम के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, आप भोजन कर लीजिए। यति जी भोजन करके उठे तो देखा कि रात्रि के दो पहर बीत चुके थे। यति के रूप में वास्तव में ब्रह्माजी थे। ब्रह्माजी ने कहा- आपने मुझे निम्ब पर अपना तेज दिखलाया अतः अब आप लोक और शास्त्र में निम्बार्क नाम से प्रख्यात होंगे।
 हे चक्रराज सुदर्शन ! आपका अवतार जिस कार्य के लिए हुआ है अब आप वही कार्य कीजिये। थोड़े ही समय बाद यहाँ नारदजी भी पधारने वाले हैं। वे आपको सनकादिक से प्राप्त ज्ञान देंगे। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये।
अरुण ऋषि के सुपुत्र होने के कारण 'आरुणी', जयन्ती के लाल होने के कारण 'जायन्तेय' एवं वेदार्थ का विस्तार करने के कारण आप 'नियमानन्द' नाम से विख्यात हुए। 
थोड़े ही समय के पश्चात् वहाँ वीणा बजाते हुए नारदजी पहुँचे। नियमानन्द (श्रीनिम्बार्काचार्य) ने उनकी पूजा की और सिंहासन पर विराजमान करके प्रार्थना की- जो तत्व आपको श्रीसनकादिकों ने बतलाया था उसका उपदेश कृपाकर मुझे कीजिये। तब नारदजी ने श्रीनिम्बार्काचार्य को विधिपूर्वक पञ्च संस्कार करके श्रीगोपाल अष्टादशाक्षर मन्त्रराज की दीक्षा दी। उसके पश्चात् श्रीनिम्बार्काचार्य ने नारदजी से और भी कई प्रश्न किये, देवर्षि ने उन सबका समाधान किया।  इनका संकलन- 'श्रीनारद नियमानन्द गोष्ठी' के नाम से प्रख्यात हुआ। 
एकादशी व्रत
निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुसार यदि दशमी तिथि मध्य रात्रि (४५ घटि) तक रहने के उपरान्त एकादशी तिथि लगे तो एकादशी तिथि में व्रत न करते हुए द्वादशी तिथि में व्रत किया जाता है।
अरुण ऋषि ने स्वयम् के सुपुत्र श्रीनिम्बार्काचार्य के मुख से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करके सन्यास गृहण कर तीर्थाटान पर चले गए। श्रीनिम्बार्काचार्य ने माता जी को भी इसी प्रकार धर्मोपदेश किया ।
सम्प्रदाय का आचार्यपीठ श्रीनिम्बार्कतीर्थ,किशनगढ़, अजमेर,राजस्थान में स्थित है।
संक्षिप्त में स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन/
स्वाभाविक द्वेताद्वेत दर्शन।
श्रीनिम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र वेद शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद के विपरीत​ मत वाली स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी​ आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही वचन धर्म हैं। किसी एक वचन को​ उपादेय तथा अन्य वचन को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से​ सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की​ कल्पना करना उचित नहीं है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न​ रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने परमात्मा, जीव और जगत के बीच स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी​ परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध​ मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।
कुछ श्रुति वाक्यों में भेद का बोध  होता हैं तो कुछ श्रुति वाक्य अभेद का​ निर्देश देते हैं। 
यथा- 
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/ १)
 आत्मा वा इदमेकमासीत्’  (तै०२/१) 
तत्त्वमसि’ (छा./१४/ ३) 
‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) 
सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.३/१४/१) और  
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/) इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
जबकि,
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८) 
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१) 
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) । 
‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३)
‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान
बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ (गीता १०/८) 
इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म,जीव और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।
श्रुति​ स्मृतियों का निर्णय है कि,वेद सर्वांशतया प्रमाण है। अतः तुल्य होने से भेद दर्शक वचन और अभेद दर्शक वचन दोनों को ही प्रधान​ मानना होगा। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो​ जावे। यह समन्वय ही भेदाभेद दर्शन है।
‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से​ अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही जब घड़ा बन जाती है तब मिट्टीके बिना घडे़​ की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक्​ रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य​ रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
 ‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ०’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही​ अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने​ से यह अभेद सवाभाविक है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है।
अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह​ ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है। यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः। स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०) ‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (​तै. २/६) इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं कि, ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल​ भुगताता है।
अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत्​ का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही​ है।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का​ निर्देश देती हैं।
यथा-
ब्रह्म मकड़ी के जाले के​ समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।। (श्वे० ६/१०)
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ।(​तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।

विशेष -
एकादशी के सम्बन्ध में नारद पुराण में राजा रुक्माङ्गद की कथा । 
कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६१२ से ६३९ तक देखें।
नारद पुराण में  एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने वाले राजा रुक्माङ्गद  द्वारा ब्रह्मा की मानस पुत्री मोहिनी को कार्तिक मास की महिमा बतलाते हुए एकादशी को व्रत रखने के उल्लेख और अगले अध्याय में राजा रुक्क्माङ्गद की आज्ञा से रानी संध्यावली द्वारा कार्तिक मास में कृच्छ्व्रत आरम्भ करने और राजा रुकमाङ्गद एकादशी व्रत दृढ़तापूर्वक करने की घोषणा, उसके बाद मोहिनी द्वारा बुलवाये गये गोतम ब्राह्मणों द्वारा एकादशी व्रत अवैदिक बतलाने पर भी राजा रुक्माङ्गद का वैष्णवों के लिए एकादशी व्रत की अनिवार्यता बतलाने के प्रकरण से एकादशी तिथि को व्रत रखने की परम्परा का आरम्भ माना जाता है। 
जिसमें एकादशी के पूर्वदिन सायंकालीन भोजन का त्याग, एकादशी के दिन प्रातः कालीन भोजन का त्याग और द्वादशी के दिन निराहार उपवास करना उल्लेखित है।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में राजा रुक्माङ्गद की उक्त कथा में ब्राह्मणों के शाप से मोहिनी को किसी भी लोक में स्थान न पाने पर ब्रह्मा जी ने मोहिनी को दशमी तिथि अन्तिम भाग में स्थान देकर के तेरहवें मुहुर्त के पश्चात अरुणोदय से सूर्योदय तक व्रत में रहकर दशमी विद्धा एकादशी करने वाले ब्राह्मणों के एकादशी व्रत के पुण्य फल प्राप्त करने का अधिकार दिया।  इसलिए एकादशी व्रत करने वाले दशमी विद्धा एकादशी में व्रत नहीं करते। किन्तु वैध कब से आरम्भ हो इसपर स्मार्त, पौराणिक और महाभागवतों में मतभेद हैं।

एकादशी में दशमी वैध -- 
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ से ६३८ तक में उल्लेख के अनुसार दशमी तिथि समाप्ति और एकादशी तिथि आरम्भ के समय के अनुसार तीन प्रकार के वैध बतलाते गये हैं।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३७ पर श्रोत्रिय/ वैदिकों और स्मार्तों अर्थात केवल वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों, वेदाङ्गो, षड्शास्त्रों (षड दर्शनों) और स्मृतियों को ही धर्मशास्त्र मानने वाले स्मार्तों के लिए सूर्योदय समय या सूर्योदय के बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ होने पर दूसरे दिन / परा अर्थात् उदिता एकादशी में व्रत करना।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ ६३८ पर पौराणिक वैष्णवों के लिए अरुणोदय विद्धा एकादशी का त्याग कहा है। और रात्रि के अन्तिम दो मुहुर्त को अरुणोदय बतलाया है। 
सामान्यतया पौराणिक वैष्णव छप्पन घटि का वैध मानते हैं। अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे २४ मिनट बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो पौराणिक वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में  एकादशी का व्रत करते हैं।
 रामानुजन सम्प्रदाय वाले अरुणोदय पचपन घटि पर मान कर पचपन घटि का वैध मानते हैं अर्थात सूर्योदय से २२ घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो रामानुजन सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।
 गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त नारद पुराण पृष्ठ  ६३८ में उल्लेख निष्काम एवम् विरक्त वैष्णव जन अर्धरात्रि के समय भी दशमी विद्ध एकादशी को त्याग देते हैं वचन के अनुसार  निम्बार्क सम्प्रदाय मध्यरात्रि या पैंतालीस घटि का वेद मानते हैं। तदनुसार मध्यरात्रि या सूर्योदय के अठारह घण्टे बाद दशमी तिथि समाप्त होकर एकादशी आरम्भ हो तो निम्बार्क सम्प्रदाय वाले वैष्णव दुसरे दिन उदिता एकादशी न हो तो द्वादशी तिथि में में एकादशी का व्रत करते हैं।

 वैध रहस्य तन्त्रोक्त मतानुसार --
परमादरणीय गुरुदेव श्री ब्रजेन्द्र शरण श्रीवास्तव महोदय के लेख के अनुसार श्री स्वामी विष्णु तीर्थ ने श्रीचक्र की व्याख्या में बतलाया है कि, तन्त्रशास्त्र के अनुसार पञ्चदशी के अक्षरों के सम्बन्ध प्रतिपदा से पूर्णिमा तक के पन्द्रह तिथियों से है।तथा षोडशी का सोलहवाँ अक्षर चितिरूपा अमावस्या है। तदनुसार मूलाधार से आज्ञा चक्र के उपर निरोधिका तक दशमी तिथि आती है। निरोधिका पर एकादशी आती है और नाद पर द्वादशी तिथि का स्थान है।
ऐसे ही तिथियों का सम्बन्ध पञ्च कर्मेंद्रियों, पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, अन्तःकरण चतुष्ठय और अमावस्या का सम्बन्ध समाधि से है। विश्वैदेवाः की एकादशी तिथि मन से सम्बन्धित तथा विष्णु की तिथि द्वादशी को बुद्धि से सम्बन्धित मानते हैं। यदि एकादशी अर्थात मन इन्द्रियों यमराज की दशमी तिथि से सम्बद्ध हो तो मन/ एकादशी (अन्तर्मुखी) निराहार  यानी उपोष्या (उपास रखा हुआ) नहीं मान सकते। जबकि द्वादशी यानी बुद्धि युक्त एकादशी अर्थात मन अन्तर्मुखी अर्थात उपोष्य (निराहार) रहता है।
उक्त आधार पर दशमी विद्धा एकादशी को व्रत न करने के निर्देश की सार्थकता सिद्ध करते हैं।

बुधवार, 19 जनवरी 2022

महाकाली, महालक्ष्मी, उमा-पार्वती (गौरी), महासरस्वती (कौशिकी), कालिका- (उमा-पार्वती/ गड़कालिका)- और काली (चामुण्डा) देवी, नौदुर्गा, चण्डिका-शक्ति एवम् अवतार वर्णन ।

मार्कण्डेय पुराण के सावर्णि मनु की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में देवी महात्म्य के अन्तर्गत उल्लेखित

१ दुर्गा सप्तशती प्रथम अध्याय / प्रथम चरित्र में उल्लेखित 
 मूल स्वरूपा देवी महामाया -- महाकाली अवतार -- योगनिद्रा --  कमला, श्रीलक्ष्मी, इन्दिरा, रुक्माम्बुजासना,  (स्वर्णकमलासना) तामसी,नन्दा,
जिनके दश मुख,दशभुजा, दशपदा (दस पैर) हैं और पूर्णकृष्णवर्णा (पूरी काली) हैं। ये मूलतः नारायणी हैं जिनके रुप श्री और लक्ष्मी हैं। जो सृष्टि के आरम्भ में योगनिद्रा का आश्रय ले शेषशय्या पर सोये भगवान नारायण के नैत्रों से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की स्तुति पर प्रकट हुई। तब भगवान नारायण ने मधुकैटभ का संहार किया। इनके ही सब अवतार और स्वरुप अन्य सभी देवियाँ है।

२ दुर्गासप्तशती द्वितीयोऽध्याय / मध्यम चरित्र में उल्लेखित
 चण्डिका देवी - महालक्ष्मी अवतार -- अम्बिका, जगदम्बा, रक्तदन्तिका, महिशासुर मर्दिनी -- 
 जो देवताओं की स्तुति पर सभी देवताओं के शरीर से प्रकट तेज के संघनित होकर प्रकट हुई जो विचित्रवर्णा, अष्टादशभुजा हैं।
जिनने महिषासुर मर्दन किया। ये नारायणी की प्राकृत अवतार है।

३ दुर्गासप्तशती पञ्चमोऽध्याय, उत्तर चरित्र में उल्लेखित
चण्डीदेवी कौशिकी -- उमा, सती- पार्वती,  गौरी, कालिका, कात्यायनी, कौशिकी । 
वे सती-पार्वती के देहकोश से प्रकट हुई इसलिए कौशिकी कहलाती हैं।  जिनके द्वारा शुम्भ- निशुम्भ का वध किया गया। वे अत्यन्त गौरवर्णा और अष्टादशभुजा चण्डीदेवी कौशिकी है। 

४ दुर्गा सप्तशती पञ्चमोऽध्याय मन्त्र ८४ से ८८ तक 
 कालिका - सती -पार्वती के शरीर से कौशिकी के निकलने पर पार्वती जी कृष्णवर्णा/ कृष्णा (काली) होगयी थी। उस समय वे कालिका और हिमालय में विचरण करने वाली गढ़कालिका कहलायी।

चण्डीदेवी कौशिकी के शरीर से उत्पन्न  और  अन्त में इनके ही देहकोश में लय होजाने वाली दो देवियाँ काली और चण्डिका-शक्ति (शिवदूति) ---

५ दुर्गासप्तशती सप्तमोऽध्याय/मन्त्र ६ तथा महाभारत/ शान्तिपर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक 
काली -- चामुण्डा, कात्यायनी, भीमा, एकवीरा, कालरात्रि,और कामदा --
दक्ष के यज्ञ के विध्वन्स के लिए शंकरजी के मुख से उत्पन्न वीरभद्र की सहायतार्थ उमा पार्वती के क्रोध से उत्पन्न काली देवी या भद्रकाली देवी ही कौशिकी के क्रोधित होने पर उनके ललाट मध्य से जो प्रकट हुई थी। वे चतुर्भुजा अत्यन्त काली,अत्यन्त कृषकाय, विशालमुखा, अत्यन्त भयानक हैं  वे कालीदेवी ही चण्डमुण्डविनाशिनि होने का कारण  चामुण्डा कहलाती हैं। 

६ दुर्गासप्तशती/अष्टमोऽध्याय/ मन्त्र १२-१३ से २१ तक।
कौशिकी की सहायतार्थ प्रकट हुई और उनके ही देह कोश में लय हो जाने वाली नौ दुर्गा  --
0 कौशिकी की सहयोग कर्ता नौ देवियाँ जो कार्य सम्पन्न कर पूनः उनके कोश में समागयी --- 
 1 चण्डिका-शक्ति (शिवदुती) 2 काली या चामुण्डा 3 वैष्णवी, 4 ब्राह्मी या ब्रह्माणी 5 ऐन्द्री, 6 माहेश्वरी 7 कौमारी 8 वाराही, 9 नारसिंही  ।

७ दुर्गासप्तशती/अष्टमोऽध्याय/ मन्त्र २३ में कौशिकी के शरीर से उत्पन्न देवी चण्डिका-शक्ति
चण्डिका-शक्ति -- शिवदुती और  भ्रामरी -- 
कौशिकी के कोश से प्रकट हुई और शिवजी को दूत बनाकर शुम्भ - निशुम्भ के पास भेजकर कहलाया कि सभी असुर पाताल लोट जायें तथा देवताओं को निर्द्वन्द्व करदें। शिवको दूत बनाने के कारण शिवदुती कहलायी।

८ दुर्गासप्तशती/एकादशोऽध्याय/ मन्त्र ४९ से ५५ तक में भावी अवतारों के वर्णन में मन्त्र ४८-४९ में शाकम्बरी का वर्णन है। वे कौशिकी ही है। दुर्गासप्तशती / मुर्तिरहस्य मन्त्र १२ से १७ शाकम्भरी आदि अवतारों का अन्यदेवियों के रूप में वर्णन यथा -
 १ नन्दा, प्रकृति, इन्दिरा, कमला, श्री-लक्ष्मी, योगनिद्रा, महामाया, योगमाया, रूक्माम्बुजा, महाकाली। 
 २ रक्तदन्तिका, रक्तचामुण्डा, योगेश्वरी, काली।
३ उमा, कौशिकी,कालिका, चण्डी, दुर्गा, शाकम्भरी, शताक्षी ।
४ भीमा, एकवीरा, कालरात्रि, कामदा।
५ भ्रामरी, चित्रभ्रामरी, महामारी, पाणी‌

मन्त्रार्थ सहित प्रमाण --
मार्कण्डेय पुराण के सावर्णि मनु की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में देवी महात्म्य के अन्तर्गत उल्लेखित दुर्गा सप्तशती प्रथमोऽध्याय से त्रयोदशोऽध्याय के अनुसार महाकाली (अर्थात भगवान नारायण की योगनिद्रा महाकाली)। 
हिमालय वासिनि उमा पार्वती के शरीर कोश से कौशिकी देवी के प्रादुर्भाव के पश्चात भगवती उमा के काले हो जाने पर  कालिका और हिमालय पर विचरण करने वाली लोक प्रसिद्ध गढ़कालिका हुई।
उमा पार्वती के शरीर कोश से उत्पन्न कौशिकी देवी के रोष से उनका मुख काला पड़ जानें और भृकुटी टेड़ी हो जाने पर उनके भृकुटी से उत्पन्न काली देवी। काली देवी द्वारा चण्ड मुण्ड का वध कर उनके मुण्ड कौशिकी देवी को सोपनें पर कौशिकी देवी द्वारा काली देवी ने कहा लोक में तुम चामुण्डा नाम से प्रसिद्ध होगी। अतः काली का ही नाम चामुण्डा है।

सुचना - ये काली देवी/ चामुण्डा देवी मूलतः महाभारत शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८३ से २८४ तक  दक्षयज्ञ का भङ्ग और उनके क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप के अन्तर्गत अध्याय २८४ 

मन्त्र २९ - अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय पत्नी उमा से ऐसी बात कहकर भगवान ने अपने मुख से एक अद्भुत एवम् भयंकर प्राणी (वीरभद्र) को प्रकट किया, जो उनका हर्ष बढ़ाने वाला था। ३०

मन्त्र ३१ -  उस समय भवानी के क्रोध से प्रकट हुई अत्यन्त भयंकर रूपवाली महाभीमा महाकाली महेश्वरी वें भी अपना पराक्रम दिखाने के लिए सेवकों सहित उस वीरभद्र के साथ प्रस्थान किया था। ३१ उत्तरार्ध तथा ३२ पूर्वार्द्ध।

पार्वती जी के क्रोध से उत्पन्न महाभीमा महाकाली जिनके द्वारा वीरभद्र के साथ मिलकर दक्षयज्ञ विध्वन्स किया गया था वे काली ही दुर्गा सप्तशती सप्तमोऽध्याय मन्त्र ६ की काली एवम् मन्त्र २७ की चामुण्डा हैं।

(कृपया गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पञ्चम खण्ड,शान्ति पर्व/ मौक्ष पर्व/ अध्याय २८४ पृष्ठ ५१६६ या संक्षिप्त महाभारत का पृष्ठ १२८१ देखें।)

१ महाकाली देवी
दुर्गा सप्तशती प्रथमोऽध्याय मन्त्र ६८ से ७१ तक तथा ७३ से ८७ तक प्रजापति ब्रह्मा जी द्वारा नारायण की योगनिद्रा की स्तुति की।
 मन्त्र ८९ से ९१ तक
जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान नारायण के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी की दृष्टि के समक्ष  खड़ी हो गई।
दुर्गा सप्तशती वैकृतिकम् रहस्यम्  मन्त्र १ से १६ तक से।
तमोगुणमयी  महाकाली भगवान विष्णु की योगनिद्रा कहीं गई है। मधु और केटभ का नाश करने के लिए ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्ही का नाम महाकाली है। मन्त्र२
उनके दस मुख,दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रङ्ग की हैं। तथा तीस नेत्र की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं। मन्त्र ३
भूपाल! उनके दाँत और बाढ़ें चमकती रहती है । यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवम्  महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्ति स्थान) हैं। मन्त्र ४
वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र,शंख, भुशुण्डि, परिचय, धनुष तथा कटा हुआ सिर धारण करती हैं जिससे रक्त छूता रहता है। मन्त्र ५
ये महाकाली वैष्णवी माया (भगवान विष्णु की दुष्कर माया) है। आराधना करने पर ये चराचर जगत को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं। मन्त्र ६

दुर्गा सप्तशती पञ्चमोऽध्याय मन्त्र ८४ से ८८ तक में उल्लेखित कालिका/ गड़ कालिका देवी जो मूलतः उमा पार्वती देवी ही हैं।
इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गङ्गाजी के जल में स्नान करने के लिए वहाँ आयी। मन्त्र ८४
उन सुन्दर भौंहों वाली भगवती ने देवताओं से पुछा - आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं? तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवा देवी बोली -।  मन्त्र ८५
शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। मन्त्र ८६
पार्वती के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिए वे समस्त लोकों में "कौशिकी" कहीं जाती हैं। मन्त्र ८७
कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रङ्ग का हो गया। अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी नाम से विख्यात हुईं। मन्त्र ८८

दुर्गा सप्तशती सप्तमोऽध्याय  मन्त्र ६ से ८ में उल्लेख के अनुसार-

कौशिकी देवी के रोष के कारण उनका मुख काला हो गया और भौंहें टेड़ी हो गई, और वहाँ से विकरालमुखी काली प्रकट हुई। जो तलवार और पाश धारण किये हुई थी। मन्त्र ६
 काली देवी विचित्र खट्वाङ्ग धारण किये हुए थी और चीते के चर्म की साड़ी पहने नरमुण्डों की माला से सुशोभित थी। उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थी।मन्त्र ७
काली देवी का मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थी। उनकी आँखें भीतर की ओर धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजा रही थी।मन्त्र ८

दुर्गा सप्तशती सप्तमोऽध्याय  मन्त्र २६ से २८ में उल्लेख के अनुसार-
वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चण्डिका (कौशिकी) देवी ने काली से सुमधुर वाणी में कहा-  मन्त्र २६)
देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास लायी हो, इसलिये संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी। मन्त्र २७

काली देवी जिन्हें चण्ड-मुण्ड वध करनें के कारण कौशिकी देवी ने चामुण्डा नाम दिया वे काली/ चामुण्डा देवी देवी हैं।
ये (१)महाकाली, (२)कालिका या गढ़कालिका (उमा/ पार्वती देवी)  तथा  (३)काली/ चामुण्डा देवी तीनों परस्पर भिन्न भिन्न स्वरूप हैं।

 काली/चामुण्डा देवी की प्रतिमा --
उड़ीसा के जाजपूर में प्राप्त आठवीं शताब्दी की काली/ चामुण्डा की चतुर्भुज प्रतिमा। 
जिनका वामपद (बायाँ पेर) सर्प मुख के समान है। वे नरमुण्डों की माला धारण किये शवासन पर बैठी हुई हैं। उनके दक्षिण हस्तों में दो मुख, और घण्टा है तथा वाम हस्तों में शंख और रक्त टपकता नर मुण्ड  है।  
नीचे दाँई ओर व्रजासनस्थ वीर (हनुमान) है तथा बाँयी ओर भैरव है तथा बाँयी ओर ही  5 गीदड़ है।
सुचना --- यह चित्र मुझे क्वोरा पर श्री रवि पतोण्ड (Patond) महोदय के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। इसलिए क्वोरा और श्री रवि पतोण्ड (Patond) महोदय का आभारी हूँ।
चित्र ⤵️

मंगलवार, 4 जनवरी 2022

भारतीय राजनीतिक दलदल

आजकल भारतियों को सबकुछ पका-पकाया ही चाहिए। नकल करनें में ही महानता समझनें लगे हैं।
भाषा, भुषा,भवन निर्माण प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, राजनीतिक प्रणाली, शासन प्रणाली,आर्थिक प्रणाली,औद्योगिकीकरण प्रणाली,  नगरीकरण प्रणाली सभी तो विदेशों से, यूरोप- अमेरीका से नकल की है।
राजनीतिक दलों के नाम तक विदेशियों की देन है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (मतलब भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन) किसी राजनीतिक दल के रूप में इस नाम का क्या अर्थ ? कुछ भी नहीं। क्योंकि,  कांग्रेस के संस्थापक एक अंग्रेज ए.ओ. ह्युम थे और वर्तमान संचालक (अध्यक्ष सोनिया गांधी) इटली की है। मतलब आरम्भ से आजतक सोच विदेशी, नेता विदेशी सबकुछ विदेशी ही है। 
कांग्रेस की विचारधारा का पता लगने पर ही उस टिप्पणी कर पाऊँगा। कई शोधार्थी कांग्रेस की विचारधारा की शोध में मर खप जायें तो भी कांग्रेस की विचारधारा पता नहीं लगा पायेंगे। जो है ही नहीं, उसे कैसे खोजेंगे?
जनसंघ -  जन संघ मतलब  लोक संगठन। जिसे जन  अर्थात भारतीय जनता नें कभी पसन्द नहीं किया। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मक मानवतावाद जनसंघ के जमानें में भी उनके नेताओं को समझ नहीं पड़ा।
मोरारजी प्रधानमंत्री बन गये और अटल बिहारी देखते रह गये। जनसंघ चला नहीं तो नये दल का नया नाम भारतीय जनता पार्टी  रख लिया पाकिस्तान पिपुल्स पार्टी की नकल में ।
भारतीय जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी इनकी आर्थिक नीति उनके नेताओं को भी पता नहीं तो मुझे कहाँ से पता चले। एकात्मक मानवतावाद का तो कई नेताओं को तो भी शायद नाम मालूम न हो। 
राजीव गांधी , नरसिंहा राव, मनमोहनसिंह की जिस जिस  आर्थिक नीति का विरोध किया उन सब नीतियों को अपनी सत्ता में प्राथमिकता से लागू किया।
जनसंघ / भाजपा की राजनीति भी बड़ी सरल है केवल विरोध करना। जनसंघ के अध्यक्ष श्री बलराज मधोक का विरोध कर उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और उमा भारती का विरोध कर उन्हें भी पार्टी से निकाल दिया। आडवानी जी और गोविन्दाचार्य जी को साइड लाइन में कर दिया।  
बैचारे सत्ता में रहकर भी विरोध ही करते रहते हैं। गांधी को मरे पचहत्तर वर्ष होगये, नेहरू को मरे अट्ठावन हो गये। इन्दिरा गांधी को मरे सैंतीस वर्ष होगये , राजीव गांधी को मरे तीस वर्ष होगये पर भाजपाइयों के दिमाग में आज भी छाये हुए हैं। सपनें में भी शायद नेहरू ही दिखते होंगे । तभी तो  वैशभुषा तक नेहरू जैसी ही रखते हैं। 

कम्युनिस्ट पार्टि का तो नाम, विचारधारा, कार्यप्रणाली सबकुछ विदेशी है यह सर्वमान्य है ही।

समाजवादी पार्टी - वाह ! दुनिया भर के राजनीतिशास्त्री आरम्भ से आजतक समाजवाद क्या होता है, इसे नही जान-समझ पाये। समाजवादी पार्टी के नेताओं को तो समाजवाद के विषय में सोचनें की न आवश्यकता नहीं पड़ी ।उन्हें तो कमानें से ही फुर्सत नहीं है।
लोकदल, लोजपा, जैसे की दल नाम मात्र के रह गये हैं। इसलिए इनपर विचार व्यर्थ है।
आप का नाम दिल्ली में बहुत है। बाहर आप को कोई नहीं पूछता है। इसलिए आप पर विचार कर आपका समय बर्बाद नहीं करना चाहता। बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश तक, तृणमूल कांग्रेस प. बङ्गाल तक, डी. एम.के., ए.डी.एम.के. तमिलनाडु तक, वार.एस.आर. तेलंगाना तक, शिवसेना महाराष्ट्र तक सीमित है।
क्षेत्रीय दलों को राजनितिक दल मानना चुनाव आयोग की विशेषता है।  राजनीतिक दल की किसी कसोटी पर क्षेत्रीय दलों को कोई राजनीति शास्त्री भी राजनितिक दल सिद्ध नहीं कर सकता। पर चुनाव आयोग की ही विशेषता है कि, उसने इन्हें राजनीतिक दल मान लिया।

इसलिए मैं भी एक दल दल बनानें पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर रहा हूँ। नाम सच्चा है ना? दलदल। 
विचार ही करूँगा और कुछ नहीं।  इससे आगे कुछ किया भी नहीं जा सकता।
दलदल का घोषणा-पत्र पढ़कर ही सब पगला जायेंगे।
घोषणा-पत्र की बानगी प्रस्तुत है।--
१ आपको कुछ नहीं करना होगा, सभी कार्य रोबोट ही करेगा। यहाँ तक की आपको खाने-पीने की भी आवश्यकता नहीं । 
(खाओगे कहाँ से, कोई उपजायेगा, पकायेगा तभी तो खाओगे ना!)
२ ठण्ड, गर्मी से बचाव के लिए व्यवस्था प्राकृतिक ही रखी जायेगी। 
(जब कोई कुछ काम नहीं करेगा तो अपने आप जंगल उग ही जायेंगे। सब प्राकृतिक होगा।)
३ आपको जब, जहाँ जो कुछ भी चाहिए तत्काल उपलब्ध कराया जाएगा। 
(हमें आपकी आवश्यकताओं की जानकारी समय पर न लगे तो कुछ नहीं कर पायेंगे। समय निकल जाने पर आपकी आवश्कता भी तो बदल ही जायेगी। अतः करना धरना तो हमें भी कुछ नहीं है। आखिर हम भी तो आप में से ही हैं।)
मैं समझता हूँ निकम्मों के लिए इतनी घोषणा ही पर्याप्त है। जिन्हें सबकुछ फ्री में चाहिए, जिन्हें स्वयम् को स्वस्थ्य रखनें की सावधानी रखने हेतु भी डण्डे की मार आवश्यक लगती हो, उन्हें रिझाने (और खिझाने) के लिए इतनी घोषणा ही पर्याप्त है।