निम्बार्क का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन ---
निम्बार्काचार्य जीव (चित्) और जगत (अचित्) के ब्रह्म (ईश्वर/ श्रीहरि) से भेदान्वित अभेद सम्बन्ध को प्रतिपादित करते हैं। मतलब जीव और जगत का ब्रह्म से भेद होते हुए भी उनमें आधारगत अभेद सम्बन्ध है।
निम्बार्काचार्य अपने स्वाभाविक द्वैताद्वैतवाद में जीव और ब्रह्म में समान रूप से भेद और अभेद स्वीकार करने से भेदवादी भक्त और अभेदवादी ज्ञानी को सन्तुष्ट रखने में समर्थ हुए। इसी प्रकार वे फलदाता ईश्वर और कर्म के कर्ता भोक्ता भक्त जीव के प्राथक्य पर आधारित कर्मकाण्ड प्रधान धर्माचरण वादियों और संसार में व्याप्त अनेकता में एक्य स्थापित करने वाले, एक से ही अनेक की उत्पत्ति की समुचित व्याख्या करने में समर्थ दार्शनिकों दोनों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करनें में समर्थ हुए।
क्योंकि, स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन कर्मवादी भक्त और ज्ञानी के मध्य का दर्शन है तथा धार्मिक और दार्शनिक अतियों के मध्य का दर्शन है।
निम्बार्काचार्य समान रूप से सत्य और नित्य तीन द्रव्यों में विश्वास करते हैं।
१ नियन्ता ब्रह्म जो सभी दिव्य गुणों के आश्रय श्रीहरि हैं जिन्हें वे वे ही राधा कृष्ण भी कहते हैं।
२ चित् जीवात्माएँ जो संख्या में अनन्त अणुरूप है, ज्ञाता और ज्ञान दोनों है तथा कर्ता-भोक्ता है। और
३ अचित यानी जड़ जगत जो भोग्य पदार्थ है।
निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक भेदाभेद दर्शन के अनुसार ब्रह्म इस विश्व का निमित्तोपादान कारण है। यह समस्त जगत-व्यापार उसकी लीला है और जगत उत्पत्ति उसकी लीला का परिणाम है।
ब्रह्म अन्तर्वर्ति और लोकातीत (Immanent & Transcendent) दोनों है। वह विश्व के कण-कण में व्याप्त है फिर भी यह सम्पूर्ण विश्व उसका एक पाद (चरण) मात्र है। शेष तीन पाद उससे अतीत है।
अणुरूप जीवात्माएँ ब्रह्म (श्रीहरि) से वैसे ही सम्बन्धित है जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से सम्बन्धित है।
जैसे सागर से अलग लहरों की कोई सत्ता नही है अतः सागर से अभिन्न है लेकिन लहरें स्वयम् सागर नहीं है अतः सागर से भिन्न भी है। इसी प्रकार जीव, जगत और ब्रह्म में स्वाभाविक भेदाभेद है।
जीव ब्रह्म (ईश्वर) का वास्तविक अंश हैं । लेकिन जीव और जगत का ब्रह्म से न पूर्ण एक्य है न पूर्ण भेद है। यही उनके बीच भेदाभेद सम्बन्ध है।
जीव और जगत ब्रह्म से अभिन्न हैं क्योंकि, ब्रह्म जीव और जगत में अन्तर्वर्ति होनें से उनमें व्याप्त है और उनका स्वरूप निर्माण करता है। साथ ही जीव और ब्रह्म जगत से भिन्न भी है क्योंकि, ब्रह्म जीव और जगत से अतीत है और उनके गुण भी ब्रह्म से भिन्न है। इस भिन्नता और अभिन्नता का कोई कारण नहीं है।
ब्रह्म साकल्य और जीव अंश है इस प्रकार अभिन्न है। ब्रह्म नियन्ता और जीव नियन्त्रित है। इस प्रकार भिन्न भी है। अतः जीव भक्त और ब्रह्म भगवान है।
निम्बार्काचार्य के अनुसार जीव दो प्रकार के होते हैं। बद्ध और मुक्त।
मुक्त जीवों में भी कुछ नित्य मुक्त हैं। ऐसे नित्य मुक्त जीव गरुड़ और विश्वक्षेण संजीव हैं तथा ईश्वर की बांसुरी और उनके आभुषण जैसे निर्जीवों को भी नित्य मुक्त जीव माना है।
मुक्त जीवों को उनके जन्म के समय ईश्वर की कृपादृष्टि पड़नें के कारण मुमुक्षु प्रवृत्ति होजानें से गुरुकृपा प्राप्त कर गुरु के मार्गदर्शन में सद्कर्म और उपासना कर विद्या प्राप्त कर अर्थात ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण रूप प्रपत्ति और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण रूप गुरुपासत्ती के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध कर लेनें पर ईश्वरीय कृपा से सांसारिक सुखों से विरक्त और मुमुक्षु भक्त के विदेहमुक्ति प्राप्त करने योग्य होनें पर प्रारब्ध भोग पर्यन्त जीवन व्यतीत कर मरणकाल में ईश्वर के ध्यान में मग्न भक्त को गुरुकृपा से ईश्वर ने कृपा कर उन्हे क्रममुक्ति प्रदान की हैं।
जबकि कुछ जीवों के जन्म के समय उनपर ईश्वर की कृपा दृष्टि पड़ने से मुमुक्षु हो सद्कर्म और ईश्वरोपाससना कर विद्याप्राप्ति कर निर्मल अन्तःकरण से प्रपत्ति और गुरुपासत्ती के माध्यम से मुक्ति के मार्ग में अग्रसर हैं।
लेकिन कुछ जीव अभी भी सांसारिक भोगों में रस लेनें के कारण बद्धावस्था में ही हैं।
निम्बकाचार्य जी के अनुसार द्विज अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैष्य वर्णीय भक्त को सद्कर्म, उपासना और विद्या प्राप्ति/ ज्ञान प्राप्ति से भी ईश्वर कृपा से मुक्ति की पात्रता प्राप्त हो सकती हैं लेकिन शुद्र की मुक्ति में प्रपत्ति (पूर्ण ईश्वर समर्पण) और गुरुपासत्ती (सद्गुरु पर पूर्ण समर्पण) ही उपाय हैं।
समस्त वैष्णवाचार्यों की भाँति निम्बार्काचार्य भी सद्योमुक्ति को स्वतोव्याघाती पद कहकर असम्भव मानते हैं। उनके अनुसार जीव द्वारा शरीर त्यागनें पर देवयान मार्ग से यात्रा कर ईश्वरीय कृपा से क्रमशः वैकुण्ठ वास यानी सालोक्य मुक्ति, भगवान के समान वैभव/ ऐश्वर्य प्राप्ति रूप सार्ष्टि मुक्ति, सदैव भगवान के ही निकट रहना सामीप्य मुक्ति, श्रीवत्स चिन्ह और कोस्तुभ मणि को छोड़कर श्रीहरि का रूप मिलना यानी सारूप्य और अन्त में भगवान श्रीहरि से ही युक्त हो जाना/ जुड़ जाना/ किन्तु लय नहीं होना रूप सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।
मुक्तावस्था में जीव ब्रह्म और जगत के सम्बन्धों को जान कर जगत के नानात्व से भ्रमित नहीं होकर जगत के नानात्व को ब्रह्म से स्वतन्त्र देखता है तथा स्वयम् के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास की अवस्था प्राप्त कर ब्रह्म के श्रीवत्स चिह्न और कौस्तुभ मणि को छोड़ भगवान के श्री हरि स्वरूप प्राप्त करले था है। और जगत सम्बन्धी कार्य और व्यापार तथा दिव्य कृपा प्रदान करनें के ईश्वरीय अधिकारों को छोड़ भगवान श्री हरि के शेष गुणों को भी प्राप्त कर लेता है। जीव मुक्त अवस्था में सदा सर्वदा ईश्वर भक्ति में ही लीन रहता है।
निम्बार्काचार्य भी सभी वैष्णवाचार्यों की भाँति ही मुक्ति को भक्ति की दासी मानते हैं।