शनिवार, 28 नवंबर 2020

अवसाद चिकित्सा

बच्चे के जन्म के बाद प्रायः हर माँ को डिप्रेशन होता है। पढ़ाई पूर्ण होनें पर हर विद्यार्थी को अवसाद होता है। व्यवसाय में नौकरी में उतार चड़ाव पर हर व्यक्ति को अवसाद होता है। यह जीवन के व्यस्थापन की मूलभूत प्रणाली है इसे बदला नही जा सकता। तो फिर इसकी चिन्ता क्यों पाली जाये।
जो सम्पूर्ण जगत का सञ्चालन कर रहा है वही इसकी भी व्यवस्था करेगा। आपसे यदि कोई गलती हो भी गई हो तो उस व्यवस्थाप के सामने अपना दोष स्वीकार कर व्यवस्था उसपर छोड़दो। यह हमारा कार्य नही है। वही निबटेगा। हम क्यों सोचे।
किसी नें हमारे साथ अनुचित किया है तो यह जान समझ लो कि, इसकी सुचना भी व्यवस्थापक को है और उसकी स्व नियन्त्रित प्रणाली (ऑटोमेटिव सिस्टम) में इसकी व्यवस्था भी हो चुकी है। (प्रोसेस हो चुकी है।) पर हर रिपोर्ट आपके ध्यान में लाई जाये यह आवश्यक नही है। आपकी क्षमता जितना झेल सकती है और जिस पर आपको कुछ करना आवश्यक हो उतनी ही जानकारी आप तक पहूँचाई जाती है। पुरी जगत की जानकारी आप झेल नही सकते। अतः उसे व्यवस्थाप पर ही छोड़ो।
इसकी चिकित्सा उच्च स्वर में भजन करना है न कि, उसी बात को बार बार सोचना।
भजन में आनन्द तो है ही सर्वकष्ट निवारण शक्ति भी होती है।
प्रत्यैक व्यक्ति के जीवन में उतार चड़ाव आते हैं। यदि श्री राम और श्री कृष्ण के जीवन का अध्ययन करें तो सर्वाधिक कष्ट उनके जीवन में आये। लेकिन उनने उनका निवारण किया चिन्तन नही।
आशा और विश्वास के योग्य केवल परमात्मा, ॐ, विष्णु ही है।अपनें आत्म स्वरूप का ध्यान, (परम आत्म यानी वास्तविक मैं का सदैव स्मरण रखना) परमात्मा का स्मरण - ध्यान ही है। 
सम्पुर्ण जगत में परमात्मा को ही देखना, परमात्मा के अलावा कुछ है ही नही यह ध्यान रखते हुए जगत से व्यवहार करना विश्वात्मा ॐ का ध्यान है।
सबकुछ परम आत्म परमात्मा ही है। वही जगत है वही मैं हूँ, परम आत्म (वास्तविक मैं) ही सबकुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ हो ही नही सकता तो कौन मैं कौन तु, क्या मेरा,क्या तेरा सबकुछ तो मैं ही हूँ।
सोते समय और जागनें के बाद और बिस्तर छोड़नें/ उठने के पहले यह ध्यान करना। 
यही विष्णु का ध्यान है।
यही वास्तविक आराधना उपासना है। और जगत से व्यवहार के समय भी यही तथ्य याद रखते हुए ही व्यवहार करना है।
सदैव परमात्मा (आत्म स्वरूप/परम आत्म / परम मैं) का ध्यान रखना और हर समय जगत की सेवा में तत्पर रहना यही जीवन है।
यह समझ लेना ही वास्तविक जाग्रति। वास्तविक जागरण है।
जगत में न कोई भलाई है न कोई बुराई है। वह तो अपना दृष्टिकोण बदलने पर बदल जाता है। जगत वास्तवमें ऐसा नही है जैसा हम समझ रहे हैं। जिसे हम जगत / ब्रह्माण्ड कहते समझते हैं यह केवल हमारी सोच समझ में ही है। आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकारनें लगा है। अतः जगत चिन्तन त्याग कर आत्म चिन्तन करो।
दुसरों की भलाई-बुराई जो हम जान समझ रहे हैं यह यथार्थ से बहुत परे है।
जागो दुनिया वह नही है जो तुम देख समझ रहे हो। दुनिया को अपने आप में खोजो।जगत भी मैं ही हूँ यह ध्यान रखो। याद रखो आत्म से परे कुछ नही है।

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

दान देने के नियम।

दान देनें के नियम।

दान देनें के लिये सुयोग्य पात्र मिलनें पर दानगृहिता द्वारा दान गृहण करनें की स्वीकृति प्रदान करनें पर दानगृहिता का आभार मानना चाहिए
जिन्हे दान गृहण करनें हेतु निवेदन करने, निमन्त्रण देनें और आमन्त्रित करनें जा रहे हैं वे , या बलिवैश्वदेव कर्म के समय बिना बुलाये अचानक उपस्थित अतिथि और याचक जिसकी प्रार्थना या यााचना पर दान देनें जा रहे हैं इन तीनों की जाँच परख करना अत्यावश्क है।

दान देने के पूर्व यह निश्चित करलें कि, दान गृहिता निर्व्यसनी, अहिंसक, सत्यवादी, सदाचारी, निर्लोभ, अपरिग्रही (अकारण संग्रह न करने वाला न हो), ब्रह्म की ओर चलनेवाला ब्रह्मचारी, स्वच्छ, पवित्र, शुद्ध अन्तःकरण वाला, प्राप्ति में सन्तुष्ट, विद्यध्ययन , दान देनें, परमार्थ कर्म और सेवा करने यानी यज्ञ करने में, ईश्वर भक्ति करनें में सदा असन्तूष्ट हो। स्वधर्म पालन में आनेवाली बाधाओं का सक्षमता पुर्वक सामना कर निवारण करनें में होनें वाले कष्टों को सहर्ष सहन करनें वाला तपस्वी, सत्शास्त्राध्ययन, मनन, चिन्तन और अनुशिलन करनें वाला योगाभ्यासी, और परमात्मा में एकनिष्ठ समर्पित हो ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ दान देनें के लिए सुपात्र होता है।

1- दानगृहिता का आभार मानना चाहिए ।क्योंकि दानगृहिता नें  हमे इस योग्य माना कि, वे दान गृहण करें/ हमसे दान स्वीकार करलें। इस प्रकार उननें हमारा सम्मान किया है।

2 - नियमानुसार दानदाता को दानगृहिता के पास स्वयम् जाना चाहिए। यदि उन्हे घर बुलाकर दान देना चाहे तो उन्हें पहले सादर निमन्त्रित करें, फिर मार्गव्यय और उनके समय की क्षतिपूर्ति पहले ही करके आमन्त्रित करना चाहिए। दानगृहण करने पर आभार प्रदर्शन कर उनके द्वारा दान गृहण क्रिय और कर्म के लिये पारिश्रमिक स्वरूप योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

3 - यदि वे बिना बुलाये अतिथि स्वरूप उपस्थित होगये हों तो बिन्दु 2 में उल्लेखित भार अधिक मानकर सवाया दान दक्षिणा देना चाहिए।

4 - आमन्त्रित और अतिथि दोनों को घर के बाहर दस कदम छोड़नें जाना और चरण वन्दन और पुनः आभार प्रदर्शन कर बिदा करना चाहिए।
5 सन्तुष्ट होनें पर ही दान गृहिता आपको शुद्ध अन्तःकरण से शुभाशीष प्रदान करेंगे।

सज्जन और दुर्जन की परीक्षा का एक आसान उपाय श्लेष अलंकार में बतलाया गया है।
मंगत देखत देत पट। 
यहाँ पट शब्द के दो अर्थ हैं प्रथम (धारण किये हुए) वस्त्र और द्वितीय (घर के) द्वार
सज्जन वह जो याचक को देखकर अपने पहने हुए वस्त्र (पट) तक उतार कर दे दे। और
दुर्जन वह जो याचक / भिक्षुक को देखकर  घर के पट (द्वार) बन्द करदे।

तुलसीदास जी और रहीम का निम्नांकित संवाद स्मरणीय है।⤵️

ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
  ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
                          #तुलसीदास

 देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
 लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
                              #रहीम

अर्थ
हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं। देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए। लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है। मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगने वाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो।

पहले भगवान/ ईश्वर हमें धन,धान्य, सम्पदा, सामर्थ्य और सहृदयता का भाव देता है, तभी तो हम किसी को कुछ दे पाते हैं, किसी की कुछ सहायता कर पाते हैं। तो इसमें हमारा महत्व कुछ भी नही है। यह तो ईश्वरीय कृपा है जो उसनें हमें माध्यम बनाया।
अतः देनें वाला /कर्ता यह भ्रम कभी न पाले कि, मैं दे रहा हूँ या मैं मैं कर रहा हूँ।

दान, दक्षिणा, सहायता और भिक्षा में अन्तर।
ये सभी कर्तव्य है।

१ आय का १०% दान और उसपर दान ग्रहिता द्वारा दान प्राप्त करने हेतु किये गए श्रम के लिए उपयुक्त दक्षिणा देना नित्य कर्म है। क्योंकि, दान ग्रहिता दान लेकर आप पर उपकार करता है।
दान किसी व्यक्ति या संस्था या दोनों को दिया जाता है।

२ अबला, बालक, वृद्ध,  असहाय, रुग्ण, अपङ्ग, दरीद्र, दुःखी की बिना माँगे/ अयाचित करुणार्द्र होकर की गई सहायता दान नही कहलाता।  क्योंकि इसमें कोई दक्षिणा का प्रावधान नही है। यह सहायता कहलाती है। शरण देना भी इसी श्रेणी में आता है। इसका कोई निर्धारित समय नही हो सकता। ये अवसर मिलने पर ईश्वरीय कृपा समझना चाहिए।

३ उक्त कथित ये लोग ही यदि  याचक बनकर माँगे तब, इनको दी गई वस्तु भिक्षा कहलाती है। इसमें भी कोई दक्षिणा नही दी जाती। इसका समय भी निश्चित नही है। उनने आपको योग्य समझा यह उनकी कृपा है।

४ किसी कर्मकाण्ड की क्रिया करवानें के उपरान्त दी गई दक्षिण (फीस) भी दान नही है, बल्कि श्रम मुल्य है। जैसे ट्युटर, डॉक्टर, इञ्जिनयर, कारीगर आदि को फीस दी जाती है।


बुधवार, 18 नवंबर 2020

सिद्धान्त ज्योतिष की सायन गणना - निरयन गणना,नाक्षत्रीय गणना, सायन सौर संस्कृत चान्द्र गणना, निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणना, और शुद्ध चान्द्र गणना सभी का महत्व है।

सायन सौर गणना आधारित वेदिक संवत्सर,वेदिक वर्ष या वेदिक अयन (जिसे पौराणिक गोल कहते हैं।) ,वेदिक तोयन (जिसे पौराणिक अयन कहते हैं।),वेदिक ऋतु, वेदिक मास - और उनके गतांश और गते, तथा सुर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त , ग्रहों के दर्शन - अदर्शन  इसे भी उदय अस्त ही लिखा जाता है।अगस्तादि तारों का उदय - अस्त, तारों और ग्रहों के लोप -दर्शन, ग्रहण, होराशास्त्र के दशमभाव और लग्नादि की गणना सायन बिना नही हो सकती।
किसी योगतारा का  सायन भोगांश और निरयन भोगांश दोनों उल्लेख करनें पर भविष्य में इतिहास लेखकों को समय निर्धारण आसान होगा। 
ऐसे ही थोड़े से अभ्यास से सुर्योदय के पहलें  पूर्व में लुप्त होनें के पहले और पश्चिम में क्षितिज के नीचे भूमि की आड़ में छुपनें को तैयार किसी तारों को देखकर और और सुर्यास्त के बाद पूर्व में उदय होनेंवाले तारों और पश्चिम में ठीक क्षितिज पर के तारों को देखकर निरयन मास और संक्रान्ति गतांश और गते  अर्थात संक्रान्ति गत दिवस बतलाये जा सकते हैं। ग्रामीण किसान पहले यह आसानी से समझलेते थे।
चन्द्रमा की कला और कटा हुआ  भाग पु्र्व और पश्चिम की और देखकर पक्ष का ज्ञान हो सकता है जबकि चन्द्रमा का आकार / कला देखकर तिथि का अनुमान किया जा सकता है। अतः चान्द्र गणना का भी अपना महत्व है।
हमारे सौर मण्डल का सुर्य मार्तण्ड भी गेलेक्सी के केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है। ऐसे ही नक्षत्रमण्डल में कोई भी तारा अचल नही है।  केन्द्र से दूरी के अनुसार सभी तारों की गति भी अलग अलग होती है। अतः
आकाश का नक्षा या दृष्य कभी एकसा नही रहता। जैसे कुछ दिनों और महिनों में तारों के सापेक्ष मे ग्रहों का स्थान बदलता बदलता रहता है। ठीक वैसे ही नक्षत्र मण्डल के और अन्य सभी तारे भी परस्पर / सापेक्ष अपना स्थान बदलते रहते हैं। इनके लिये  बिन्दू रूप में ऐसा कोई नही खोजा जा सका जिसे आधार माना जा सके। समझनें के लिये भूमिवासी अपनें स्थान के ख स्वस्तिक (मेरेडियन कॉईल) के आधार पर ही तारासमुहों से निर्मित आकृतियों का सहारा लेते हैं। जिन्हे राशि नाम दे दिया गया। किन्तु,
न सायन राशियाँ अपनें पुरानें आकार में बची है  भारतीय नक्षत्रों की आकृति और स्थान वैसे ही पुर्ववत नही रहे। और भविष्य में और बदल जायेंगे। एन्ट्रापी प्रभाव पूर्ण जगत में दिखता है। 
तारे परस्पर भी और अपनें केन्द्र से दूर होते जा रहे हैं। गेलेक्सी भी अपनें केन्द्र से और एक दुसरे से दूर होती जा रही है। इस क्रम में कभी कभार परस्पर टकराव भी होता है। अतः आकाश की एकरूपता सम्भव ही नही है।
सभी आकाशीय पिण्डों का परिक्रमा मार्ग दीर्घवृत्ताकार है इसकारण मन्दोच्च शिघ्रोच्च का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। क्योकि मन्दोच और शिघ्रोच्च की भी चलनशिलता /  गति होती है। व्यतिपात वैधृतिपात  में भी चन्द्र नक्षत्रों के बीच चलनशिलता / गति है। इनका उल्लेख भी इतिहास काल गणना में सहायक होता है।
अतः इस / उक्त आधार पर सायध गणना और निरयन गणना का औचित्य निर्धारण और एक को सही और दुसरे को गलत ठहराया जाना सम्भव नही है।
 सायन गणना का अपना उपयोग है, निरयन गणना का अपना उपयोग है।कोई किसी को प्रस्थापित नही कर सकता।
निष्कर्ष य  की सबका अपना - महत्व है। किन्तु जहाँ जिसकी आवश्यकता हो वहाँ उसीका उपयोग करना चाहिए।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुर्तिपूजा उचित है या अनुचित ?, मुर्तिपूजा से क्या हानि है?

मुर्तिपूजा के पक्ष - विपक्ष में तर्क।

जो व्यक्ति जिस भाव से जिस विधि से जिस आस्था - विश्वास से परमात्मा के जिस स्वरूप में श्रद्धा पुर्वक जिस किसी देवता की आराधना उपासना करता है,  उस व्यक्ति की उसी परमात्मा के उसी स्वरूप में, उसी देवता में, उसी विधि विधान में, वैसी ही आस्था - विश्वास और भावना दृढ़ हो जाती हैं।
प्रकारान्तर से यही बात श्रीमदभगवदगीता 04/11 एवम् 12 तथा 09/22 एवम् 23  में भी कही है।

वेदों में ईशावास्यमिदम् सर्वम यत्किञ्च जगत्याम् जगत कहकर सर्वखल्विदम् ब्रह्म की घोषणा की है। परमात्मा ही इस जगत इस सृष्टि का निमित्तोपादन कारण कहा है। प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्माब्रह्म (अयम्आत्मा ब्रह्म) , तत्वमसि (तत् त्वम् असि) और अहम्ब्रह्मास्मि (अहम् ब्रह्म अस्मि) कहकर जीवन्मात्र का भी परमात्मा से अभेद प्रतिपादित किया है। 
जब परमात्मा को छोड़ कर अन्य कुछ है ही नही तो कौन पूज्य और कौन पूजारी? क्या मूल और क्या प्रतिमा? सबकुछ वही (परमात्मा) ही तो है। उसके (परमात्मा के) सिवा कुछ है ही नही।
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 3 में न तस्य प्रतिमा अस्ति कहकर परमात्मा की प्रतिमा की कल्पना को ही स्पष्ट नकार दिया है।
तान्त्रिक लोगों द्वारा शिष्ण और योनि को जगत्कारण बतला कर शिष्ण और योनि को लिङ्ग (पहचान चिह्न) के रूप में की जानें वाली प्रतिमा पूजन के कारण उन्हें शिश्णेदेवाः कहकर उनके कृत्य  को  दोषपूर्ण निषिद्ध कर्म बतला कर  स्पष्ट कहा है कि,यज्ञकरते समय  लिङ्गपूजकों की छाँया भी यज्ञ में पड़़ जाये तो  यज्ञ बन्द कर स्नानादि से शुद्ध हो पुनः यज्ञ आरम्भ करें।

वेदों में मुर्तिपूजा निषेध होनें का कारण यह है कि, 
1 सर्वव्यापी को सिमित बतलाना, 
2 वैष्णवों के मत में मुर्ति के सामने या मन्दिर में सुरापान, हिन्सा और अश्लीलता निशेध बतला कर अप्रत्क्ष रूप से ऐसे दुष्कर्मों को अन्यत्र करने की छूट देदी गई।
3 उसमें भी विशेषता यह कि, तान्त्रिकों द्वारा तो पञ्चमकार (मुद्रा,मदिरा सेवन कर, मत्स्य, मान्स खाकर, माता, बहन, बैटी, पुत्रवधु आदि को भैरवी बनाकर उसे भी मदिरा सेवन करवा कर मत्स्य - मान्स खिलाकर अश्लील मुद्राएँ दिखाकर उनके  साथ मैथून कर उसी अपवित्र अवस्था में) में ही लिङ्ग (योनि में समाये हूए शिश्ण की प्रतिमा) की पूजन की जाती है। (देखिये पाण्डुरङ्ग वामन काणे रचित धर्मशास्त्र का  इतिहास पञ्चम भाग / अध्याय 26)।
4 विधर्मी आक्रान्ताओं द्वारा मुर्ति भञ्जन से अश्रद्धा, अनास्था उत्पन्न होना। और आक्रांताओं का पन्थ ग्रहण करना।
5 सनातन वेदिक धर्म में ही मुर्ति, पूजन विधि आदि के आधार पर सेकड़ों पन्थ/ सम्प्रदाय बनगये और बन रहे हैं।
अतः मुर्तिपूजन गलत तो है ही।

भारत में प्रतिमा पूजन का इतिहास।
तान्त्रिकों द्वारा लिङ्ग अर्थात शिष्ण और योनि, एवम् योगीराज और योगिनी , शंकर और मात्रका की मुर्तियों/ प्रतिमाओं की पूजा और शत्रु का पुतला बना कर उसे प्रताड़ित करनें की प्रथा तन्त्र के आरम्भ अर्थात वेदिक काल के उत्तरार्ध से ही त्वष्टापुत्र विश्वरूप, शंकर -पार्वती, शुक्राचार्य और उनके पुत्र त्वष्टा ने कर दी थी। जिसे बादमें अत्रिपुत्र दत्तात्रय और उनके शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून एवम् रावण ने बढ़ाया। फिर जैनों और बौद्धों ने इसका अति विकास किया। अन्त में गिरनार पर्वत और आबु शिखर पर एक मुखी दत्तात्रेय ने नाथ सम्प्रदाय में नेपाल के मत्स्येंद्रनाथ और  गोरखनाथ, जालन्धर नाथ आदि उनके आठ शिष्यों के माध्यम से बहुत व्यापक प्रचारित कर दिया।
उनकी प्रतिस्पर्धा में नागा सम्प्रदाय नें भी अपने अपने मठों में अपने आराध्य की प्रतिमा और प्रतीक रखकर पूजना प्रारम्भ कर दिया। नागाओं के मठों में देवी देवताओं की सात्विक मुर्तियाँ लोक लुभावन रही।
फिर भी मुर्तिपूजा के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि, भारत भूमि में ईस्वी सन की सातवीँ - आठवीँ सदी के पहले वैष्णव और सौर सम्प्रदायों की प्रतिमाएँ नही मिलती।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जैन सम्प्रदाय नें तिर्थंकरों और यक्षों की प्रतिमाएँ गड़ना और पूजना आरम्भ की। जिसमें तान्त्रिकों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
बाद में बौद्धों नें गोतम बुद्ध की पूजा हेतु विशिष्ट प्रकार का लिङ्ग (प्रतीक चिह्न) बनाकर पूजा आरम्भ की। 
दोनों सम्प्रदायों में चैत्यालय बनानें की होड़ लग गई जो, जैनों में आजतक जारी है।
फिर सनातन धर्म में शैवों ने शिवलिङ्ग ( प्रतीक चिह्न) की पूजा आरम्भ हुई। इसमें तान्त्रिकों के लिङ्ग यानी शिश्ण - योनि का सभ्यस्वरूप निर्धारित किया गया।
विनायक गजानन की प्रतिमा निर्माण पश्चिम एशिया से सीखकर गजानन विनायक की मुर्तियाँ बनने लगी। यह प्रतिमा बनाना सबसे आसान माना जाता है।
सातवीँ सदी के अन्त में और आठवीँ सदी के अन्त में मुर्तिकला का विकास होनें के साथ ही वैष्णव और सौर प्रतिमाएँ बनने लगी।
 साथ ही काली, दुर्गा आदि की मुर्तियाँ बनने लगी।
मानवी स्वरूप की प्रतिमा निर्माण कठिन है। इस कला में युनानी विशेषज्ञ थे।अतः सिकन्दर आक्रमण के पश्चात युनानी सम्पर्क से वैष्णव, सौर शैव शाक्तों नें मानवीय स्वरूप गड़ना आरम्भ किया। और मुर्तिपूजा सम्पूर्ण जोर शोर से सनातन धर्म में भी आरम्भ होगई।

अब मुर्तिपूजकों के पक्ष में तर्कों पर भी विचार किया जाये --

1 ,हरियाणा के ऋषिदेश और पञ्जाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिन्ध, राजस्थान, गुजरात, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, अफगानिस्तान, और पूर्वी ईरान तक बसे पञ्चमहायज्ञों के माध्यम से प्रकृति की सेवा करनें वाले मूल वेदिक धर्मी प्रजापतियों की सन्तानों और स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों के देश वासियों का सम्पर्क; (तिब्बत कश्मीर में आकर बसे कश्यप की सन्तान) द्वादश आदित्यों में से एक विवस्वान की सन्तान सुर्य वंशियों से और  ( मृगशीर्ष नक्षत्र / ओरायन में स्थित सोमलोकपति) सोम के उपासक (चन्द्रमा- तारा के पुत्र बुध की पत्नी ईला जो वैवस्वत मनु की सन्तान थी के पुत्र) पुरुरवा (की पत्नी उर शहर में जन्मी इन्द्र के दरबार की नर्तकी अप्सरा उर्वशी) के पुत्र आयु के वंशज चन्द्रवंशियों से हुआ जो दक्षिण पूर्व टर्की से भारत में कश्मीर तरफ आये थे और सिरिया से आये नागवंशियों तथा पश्चिमी तुर्कीस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान की ओर से आये आग्नेयों के बीच जब परस्पर संयोग हुआ तो; ऐसे सम्पर्कों सें सांस्कृतिक घालमेल होनें से वेदिक धर्म में पर्वतों, नदियों, सागर, कूप - तड़ाग (तालाब), पेड़-पौधों, वक्षोंं की पूजा आरम्भ हूई।
2 जब हम उक्त प्रकार से पूर्ण प्रकृति में ही परमात्म भाव रखते हुए प्रकृति पूजन कर सकते हैं तो उसी प्रकृति से निर्मित प्रतिमा में परमात्मा का भाव क्यों नही रख सकते?
3 मुर्तिपूजा में मुर्तिपूजक जीते जागते लीलामय अपनें ईष्ट को ही देखते हैं किसी पाषाणादि में निर्मित किसी प्रतिमा की।

इन तर्कों को भी एकदम नकारना भी सम्भव नही है। अतः मुर्तिपूजा में केवल दोष दर्शन भी तो अनुचित ही है।

निष्कर्ष

जब हम विवशता में नाग - असुर, यक्ष - राक्षसों ,दैत्य- दानवों के आराधकों उपासकों को सह सकते हैं तो देवों - देवताओं को ईष्ट मानकर उनकी मुर्ति बनाकर पूजनें वालों को क्यों नहीँ सह सकते।