शनिवार, 19 सितंबर 2020

विक्रमादित्य, विक्रम संवत और गुप्त संवत

विक्रम संवत और गुप्त संवत
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ कालक आचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।
अवन्तिका अर्थात उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने ई.पू. 58 में निरयन मेष संक्रान्ति से विक्रम संवत चलाया था। कुछ स्थानों पर इसे मालव संवत के नाम से भी उल्लेख किया गया है।
निरयन मेष संक्रान्ति वर्तमान में प्रायः 14 अप्रेल को पड़ती है। हर 71 वर्ष में निरमन वर्ष का आरम्भ सायन वर्ष की एक दिन बाद के दिनांक से आरम्भ होता है।
ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन वर्ष पर आधारित है अतः हमारे सामनें ही निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को पड़ने लगी है।
पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मु, हिमाचल प्रदेश, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु,और केरल में निरयन सौर वर्ष आज भी प्रचलित है। किन्तु निरयन सौर वर्ष के साथ विक्रम संवत वर्तमान में केवल पञ्जाब में ही प्रचलित रह गया है।
हिन्दीभाषी क्षेत्रों में  निरयन सौर वर्ष से  संस्कारित चान्द्र वर्ष  शक संवत के आरम्भ दिवस यानि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत का आरम्भ होता है। जबकि गुजरात में दिवाली के दुसरे दिन अर्थात उक्त शक संवत के कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत का आरम्भ होता है।
विक्रमादित्य कौन थे इसे जानने के लिए वेबदुनिया की लिंक प्रस्तुत है। कृपया अवश्य देखें।

https://m-hindi.webdunia.com/indian-history-and-culture/emperor-vikramaditya-117121300044_1.html?amp=1

गुप्त संवत का आरम्भ चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त प्रकाल नाम से 319 ई. में किया था। किन्तु यह वर्तमान में अप्रचलित है। किन्तु गुप्तकालीन दस्तावेजों में गुप्त प्रकाल का उल्लेख मिलता है।
कुछ लोग चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य समझने की भूल करते हैं।
चन्द्रगुप्त प्रथम को जानने के लिए गुप्तवंश का इतिहास विकिपीडिया पर देखने का कष्ट करें। लिंक प्रस्तुत है।

https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6
इसके अतिरिक्त हिन्दी क्वोरा पर दिनांक 21 मार्च 2020 को  शक संवत का प्रारम्भ कब किया गया था प्रश्न पर मेरा उत्तर भी पढ़ने का कष्ट करें। 






शक संवत का प्रारंभ कब किया गया था?

शक संवत का प्रारंभ कब किया गया था?
भारत में वेदिक काल में संवत्सरारम्भ वसन्त विषुव से होता था। जिस दिन सुर्य भुमध्य रेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश करता है, पुरे विश्व में दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सुर्यास्त होता है, सुर्योदय के समय सुर्य ठीक पुर्व में उदय होता है और सुर्यास्त के समय सुर्य ठीक पश्चिम में अस्त होता है उस दिन को वसन्त विषुव कहते हैं। तीनसौ साठ दिन के सावन वर्ष में अन्तिम पाँच/ छः दिन यज्ञ होता था तथा पाँच वर्ष उपरान्त पुरे माह यज्ञसत्र चला कर वसन्त विषुव से संवत्सरारम्भ करते थे।

महाभारत काल के ज्योतिष के अनुसार हर अट्ठावन माह पश्चात दो माह अधिक मास मान कर इकसठवें माह को नियमित मास माना जाता था। यह गणना कठिन थी जिसे भीष्म पितामह द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन भी नही समझ पाया था।

आकाश की मध्य रेखा विषुववृत (Meridian) पर उत्तर की ओर जहाँ भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत्त क्रास करता है उसे वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेषादि बिन्दु कहते हैं। इसी बिन्दु पर भूमि के केन्द्र से सुर्य का केन्द्र दिखने को महा विषुव या वसन्त विषुव कहते हैं। यही समय वेदिक संवत्सरारम्भ का है। इस गणना का लाभ यह है कि यह ऋतु चक्र के बिल्कुल अनुकुल होने से इसके मास और मासांश दिवसों को ऋतु ठीक ठीक बैठती है। दिनमान रात्रिमान , सुर्योदयास्त समय प्रति वर्ष ठीक ठीक समान समय पर ही आवृत्ति होती है।

 20 मार्च 2020 शुक्रवार को पुर्वाह्न 09:20 बजे वसन्त विषुव हुआ। इस समय सुर्य का सायन मेष संक्रमण हुआ। अर्थात वेदिक नव संवत्सर आरम्भ हुआ। कल्प संवत्सरारम्भ, सृष्टि संवत्सरारम्भ, और कलियुग संवत्सरारम्भ इसी दिन को माना जाना चाहिए।

महर्षि विश्वामित्र जी ने नवीन गणना प्रणाली का सुत्रपात किया जिसे नाक्षत्रीय गणना कहा जाता है। जब सुर्य के केन्द्र भू केन्द्र और चित्रा नक्षत्र के योग तारा (Spica Virginia) का केन्द्र एक रेखा में हो तब सुर्य अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है जिसे निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं। इस गणना का लाभ यह है कि, चलते रास्ते भी चन्द्रमा, और ग्रहों के नक्षत्रचार देखे जा सकते हैं। कौनसा ग्रह किस निरयन राशि और किस नक्षत्र पर है किसान भी बतला देते हैं। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति 13/14 अप्रेल को पड़ती है। इसी दिन वैशाखी मनाई जाती है।इस दिन से निरयन संवत्सरारम्भ माने जाना लगा।

इस वर्ष 13 अप्रेल 2020 सोमवार को 20:23 बजे (अपराह्न 08:23 बजे रात में) निरयन मेष संक्रान्ति से कल्पारम्भ गताब्ध संवत 1,97,29,49,121 का आरम्भ होगा , सृष्टिगताब्ध संवत 1,95,58,85,121 का आरम्भ होगा। एवम् युधिष्ठिर संवत तथा कलियुग संवत 5158 का आरम्भ होगा। पञ्जाब हरियाणा उड़िसा, दिल्ली में विक्रम संवत 2077 का आरम्भ मनाया जायेगा। पञ्जाब का मालव संवत भी इसीदिन आरम्भ होता है।

शक और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे।
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ।  इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत  तथा गुजरात में में चलाया। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में मथुरा विजय कर कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में पूणे- नासिक क्षेत्र में पेठण में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
नेटपर सर्च करने पर आपको निम्नांकित तथ्य मिलेंगे।
शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (आर। ५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे। [४४] इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (आर। ४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ।  इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।


इसके पहले भारत में निरयन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से वृतोत्सव मनाने का प्रचलन था जो दक्षिण भारत मेंअभी भी प्रचलित है। जैसे निरयन सिंह के सुर्य में श्रवण नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो वामनावतार जयन्ति ओणम मनाते हैं। गया में कन्या राशि के सुर्य में कृष्ण पक्ष में श्राद्ध का विशेष महत्व है। बंगाल में भी नवरात्रि में तुला राशि के सुर्य और मूल, पुर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा में ही देवी आव्हान, स्थापना, पुजन, बलिदान और विसर्जन होता है।

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर के चैत्रादि मास प्रचलित हो चुके थे। किन्तु तब केवल सुर्य चन्द्र ग्रहण और इष्टि के लिये अमावस्या, पुर्णिमा, तथा अर्ध चन्द्र दिवस उपरान्त अष्टका एकाष्टका के लिये अष्टमी तिथियाँ ही मुख्य रुप से प्रचलित थी। एकादशी का प्रचलन चन्द्रवंशी ययाति के समय हुआ। तिथी वार, नक्षत्र , योग और करण युक्त पञ्चाङ्गों का प्रचलन वराहमिहिर के बाद ही हुआ।


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

विक्रम संवत एवम् शकाब्द

महाराज नाबोवाहन ने कुरुक्षेत्र हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ आचार्य कालक ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है। इस कथा में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।

सामान्यतः तो पञ्चाङ्गों में दोनो संवत एक साथ लिखे जाते हैं।
निरयन सौर विक्रम संवत लागु होने के मात्र 135 वर्षों बाद ही निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनात्मक शकाब्ध लागु होगया। उत्तर भारत में शक वंशी कुशाणों ने इसे लागु किया और दक्षिण भारत में सातवाहनों ने इसे लागू किया।

कुशाणों में कनिष्क और सातवाहनों में गोतमीपुत्र सातकर्णि बड़े लोकप्रिय और निरङ्कुश शासक हुए। जनता में इनका प्रभाव बहुत था। बौद्ध शकों के काफी निकट थे और उज्जेन के एक जैनाचार्य अफगानिस्तान से कुशाणों को स्वयम् आमन्त्रित कर भारतीय मुख्य भूमि में लाये थे अतः इन दोनों सम्प्रदायों में शक संवत की गहरी पैठ रही। सातवाहनों को दक्षिण भारतीय ब्राह्मण मानते थे इसलिए दक्षिण भारतीय सनातन धर्मियों में भी यह अधिमान्य होगया। बादमें सातवाहनों के उत्तराधिकारी के रुप में पेशवाओं के नेत्रत्व में मराठा साम्राज्य उत्तर भारत तक फैल गया।

परिणाम स्वरूप निरयन सौर विक्रम संवत के वैशाखी / बैसाखी पर्व मनाने वाले मालव गणों के उत्तरवर्ती पञ्जाब - हरियाणा और हिमाचल प्रदेश तक ही विक्रम संवत के साथ निरयन सौर केलेण्डर सिमट गया। पुर्व में उड़िसा, बङ्गाल, असम, और दक्षिण में तमिलनाड़ु और केरल में निरयन सौर गणनात्मक केलेण्डर प्रचलित रहा किन्तु विक्रम संवत के साथ केवल पञ्जाब हरियाणा तक सीमित रहा।

निरयन सौर विक्रम संवत निरयन मेष संक्रमण से प्रारम्भ होता है। इसका प्रथम माह वैशाख कहलाता है। दिनांक के लिए संक्रान्ति गत दिवस का उपयोग होता है। ज्योतिर्गणना और धर्मशास्त्र में गतांश का प्रयोग होता है। वर्तमान में 13/14 अप्रेल को निरयन सौर मेष संक्रमण होता है। हर इकहत्तर वर्ष में यह अगले दिनांक को होने लगेगी । थोड़े वर्षों में आप 15 अप्रेल को निरयन मेष संक्रमण होते हुए देखेंगे।  अभी निरयन मिथुन राशि के 19°08'25" पर भूमि सुर्य से सर्वाधिक दूर रहती है इस कारण इसके आसपास के 90° -90° तक के माह 31 दिन के होते हैं। मिथुन मास तो 32 दिन तक का हो जाता है और निरयन धनु राशि के 19°08'25" के पर भूमि सुर्य के निकट होने के कारण शेष मास प्रायः 30 दिन के होते हैं। स्वयम् धनुर्मास तो 29 दिन का ही रहता है।

निरयन सौर मेष संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा) से आरम्भ होता है। इसमें प्रायः तीसरे वर्ष (अट्ठाइस से अड़तीस माह के अन्तराल से) एक अधिक मास होता है और 19 वर्ष, 122 वर्ष और 141 वर्ष के क्रम में एक क्षय मास होता है। जिस वर्ष क्षय मास होता है उसी क्षय मास के आगे पीछे एक एक अधिक मास पड़ता है। इस प्ररकार 282 वर्ष मेंइस  पञ्चाङ्ग की पुनरावरृत्ति होती रहती है।

अमावस्या से अमावस्या तक चान्द्रमास होता है। मा मतलब चन्द्रमा अतः अमा मतलब जिसदिन आकाश में चन्द्रमा न दिखे और पुर्णिमा मतलब जिसदिन  चन्द्रमा पूर्ण दिखे। इस बीच शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। सुर्य और चन्द्रमा में 12° का अन्तर तिथि कहलाता है। सुर्य और चन्द्रमा में 06 ° का अन्तर करण कहलाता है। चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ कर चन्द्रमां के प्रत्यैक 13°20' एक नक्षत्र कहलाता है। सूर्य के अंशादि और चन्द्रमा के अंशादि के योग का सत्ताइसवाँ भाग योग कहलाता है। दो सुर्योदयों की बीच की अवधि वासर या वार कहलाती है। तिथि,वार, नक्षत्र, योग, करण ये पाँचो मिलकर पञ्चाङ्ग कहलाती है।

इस तिथि पत्रक से व्रत, पर्व उत्सव मनाने का मुख्य आधार मास और पर्वकाल की तिथि है। पर कभी कभी विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर शेष आधी तिथि में ही व्रत पर्व उत्सव मनाते हैं। तिथि के साथ नक्षत्र के योग का भी धर्मशास्त्रीय महत्व है। कुछ व्रत पर्व उत्सवों में इस योग का भी ध्यान रखा जाता है। कभी कभार शुभ वार भी महत्व रखते हैं। मुहुर्त में पूर्व दिशा में उदय हो रही राशि अर्थात लग्न सबसे महत्वपूर्ण होता है।

इस विषय में मेरे अन्य आलेख भी देखनें का कष्ट करेंगे तो विस्तृत जानकारी मिलेगी। इस आलेख में वे सब क्लिष्ट गणनाएँ हैं छोड़ रहा हूँ।
उल्लेखनीय है कि, नेटपर सर्च करने पर भी निम्नलिखित तथ्य मिलेंगे।
शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे।  इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर) में 98 ई.पू. में हुआ। और निधन 44 ई. मे हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्म से यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संक्रमण पर आधारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में लागू किया तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने शालिवाहन शक नाम से प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में लागू किया गया जबकि दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
उक्त जानकारी स्पष्ट कर देती है कि, 19 वर्ष,122 वर्ष और 141 वर्ष में आवृत्ति वाला निरयन सौर संक्रमण आधारित शकाब्द पञ्चाङ्ग (केलेण्डर) विदेशी परम्परा है। जबकि वैदिक परम्परा में सायन सौर संवत्सर और सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ गतांश और संक्रान्ति गत दिवस  चलते थे। कभी कभी कुछ विशिष्ठ धार्मिक प्रकरणों में सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ चन्द्रमा का नक्षत्र को ध्यान रखा जाता था। जबकि अन्वाधान और इष्टि भें पुर्णिमा/ अमावस्या एवम् अष्टका एकाष्टका में अर्धचन्द्र की तिथि जिसे वर्तमान में हम अष्टमी तिथि कहते हैं देखी जाती थी। वेदों में केवल अमावस्या, पूर्णिमा, एकाष्टका और अष्टका (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी) तथा व्यष्टिका (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा) तथा बालेन्दु (प्रथम चन्द्र दर्शन) का ही उल्लेख है।
तथाकथित उत्तरवैदिक काल में चान्द्रमास के मध्य की तिथि पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर बने चैत्र- वैशाखादि मास और तिथियाँ प्रचलित हुई। लेकिन तब भी संवतरारम्भ सायन सौर मेष संक्रान्ति को आधार मानकर सायन सौर मीन संक्रान्ति और सायन सौर मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद वाली शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही संवत्सर आरम्भ करते थे। जैसा कि, वर्तमान में आचार्य दार्शनेय लोकेश श्री मोहनकृति आर्ष पत्रकम् ग्रेटर नोएडा से प्रकाशित करते हैं। 



संवत्सर आरम्भ और वसन्त विषुव

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत का आरम्भ प्रायः मार्च - अप्रेल माह में ही आरम्भ होता है? ऐसा क्यों? 
वेदिक युग में नवसंवत्सरोत्सव, वसन्तोत्सव, नव सस्येष्टि ये सभी उत्सव उस दिन मनाये जाते थे जिस दिन सुर्य ठीक भूमध्यरेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश.करता है। उस दिन दिन - रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सुर्यास्त होता है । सुर्योदय सुर्यास्त के समय सुर्य भूमध्य रेखा पर होने के कारण सुर्योदय ठीक पुर्व दिशा में और सुर्यास्त ठीक पश्चिम दिशा में होता है।उस दिन मध्याह्न की छाँया देखकर स्व स्थान का अक्षांश देशान्तर ज्ञात करना आसान होता है।उक्त दिवस को महा विषुव, और वसन्त विषुव कहा जाता है। इसे ज्योतिषीय भाषा में सायन मेष संक्रान्ति कहते हैं। मूलतः कलियुग संवत का आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति से होता है।

22 मार्च 1957 से भारत शासन ने भी भारतीय राष्ट्रीय शक केलेण्डर के रुप में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। इसमें महान ज्योतिषी स्व. श्री निर्मल चन्द्र लाहिरी जी का विशेष योगदान रहा।

पहले लगभग पुरे विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में ही इसी दिन नववर्ष मनाया जाता था। जमशेदी नवरोज नामक पारसी नववर्ष आज भी इसी दिन मनाते हैं। चीनी केलेण्डर भी सायन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर है। जिसमें नव वर्ष सायन सौर संस्कृत चान्द्र माह के अनुसार सायन कुम्भ संक्रान्ति और सायन मीन संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद से नववर्ष होता है।

सऊदी अरब और ईराक में भी सायन मेष संक्रान्ति वाले माह के आसपास वाले दो माह वसन्त ऋतु आरम्भ के पु्र्व वाला माह और वसन्त ऋतु आरम्भ के बादवाला माह को रबीउल अव्वल और रबीउस्सानी कहते हैं।

ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार 1975 ईस्वी के पहले यह प्रायः 20 मार्च को पड़ता था एवम् 1975 ई. के बाद आगामी हजारों लाखों वर्ष तक यह अधिकांशतः 21 मार्च को होता है और होगा।

चुँकि, ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर वर्ष गणना आधारित केलेण्डर है तथा चार वर्षों में प्लुत वर्ष में एक दिन बढ़ा कर,तथा प्रति 400 वर्षों में प्लुत वर्ष नही करना जैसे सन 1900 ई. में फरवरी 28 दिन का ही था और प्रत्येक 400 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष करना जैसे फरवरी 2000 29 दिन का था।और प्रत्यैक 4000 वर्ष में पुनः प्लुत वर्ष न करना इस प्रकार ग्रेगोरियन केलेण्डर में स्थाई रुप से एक दिन या एक तारीख का अन्तर हजारों लाखों वर्ष में ही आयेगा। तब सायन मेष संक्रान्ति 22 मार्च को पड़ने लगेगी।

इसके अतिरिक्त वेदिक काल में ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा नाक्षत्रिय गणना आधारित वर्षगणना प्रचलित की। इस पद्यति में नाक्षत्रिय या निरयन मेष संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ होता है। आज भी पञ्जाब, उड़िसा, बङ्गाल, तमिलनाड़ु, केरल आदि अनेक राज्यों में निरयन मेष संक्रान्ति से ही संवत्सरारम्भ होता है। मूलतः युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत निरयन मेष संक्रान्ति से ही आरम्भ होता है।

सन 285 ईस्वी में दिनांक 22मार्च 285 ई. को सायन और निरयन मेष संक्रान्ति एकसाथ हुई थी। तब से लगभग हर 71 वर्ष में निरयन मेष संक्रान्ति एक दिनांक बाद में होते होते आजकल दिनांक 14 अप्रेल को होने लगी है।अर्थात 1735 वर्षों में 24 दिन का अन्तर पड़ गया है। सन 2189 में 22 अप्रेल को निरयन मेष संक्रान्ति आयेगी। ऐसे ही तथा 12890 वर्ष में पुरे छः मास का अन्तर पड़ जायेगा। और 25780 वर्ष में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ने से सायन कलियुग संवत 28882 और निरयन युधिष्ठिर संवत 28881 होगा यानि एक वर्ष का अन्तर होगा।

उत्तर भारत में कुशाण राजाओं विशेषकर कनिष्क द्वारा और दक्षिण भारत में सातवाहन राजाओं विशेषकर शालवाहन सातकर्णि द्वारा चलाये गये निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।

निरयन मीन राशि में सुर्य हो तब अर्थात वर्तमान में लगभग14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच जो अमावस्या होती है उस दिन निरयन सौर संस्कृत शक संवत का वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष नया शकाब्ध आरम्भ होता है।

जब दो संक्रान्तियों के बीच अमावस्या न पड़े या यों कहें कि जब दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति पड़े तो वह क्षय मास कहलाता है सन 1982 में आश्विन मास क्षय हुआ था। इसके पहले 1963 ई. में भी क्षय मास आया था। माघ मास को छोड़ कोई भी मास क्षय हो सकता है। क्षय मास वाले वर्ष में क्षय मास के पहले और बादमें अधिक मास पड़ते हैं। ऐसा प्रत्यैक 19 वर्ष, 122वर्ष और 141 वर्ष में होता है। 1963 ई. में 141 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था। 1982 में 19 वर्ष बाद क्षय मास पड़ा था और अब 122 वर्ष बाद वाला क्षय मास सन 2104 ईस्वी में पड़ेगा।

इसी 19,122,141 वर्षों के क्रम से निरयन सौर संस्कृत संवत्सर मे पञ्चाङ्ग के मासा, तिथि, करण, नक्षत्र, और योग तथा सुर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहणों की आवृत्ति होती रहतीहै।

इसी प्रकार जब दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े या यों कहें कि अमावस्याओं के बीच कोई संक्रान्ति न पड़े तो अधिक मास होता है। ये चैत्र से कार्तिक तक कोई भी मास अधिकमास हो सकता है।

ऐसे अधिक मास और क्षय मास के प्रावधान कर 354 दिन के चान्द्र वर्ष को 365.256363 दिन के निरयन सौर वर्ष से बराबरी कर ली जाती है।

अब चुँकि अभी निरयन मेष संक्रान्ति 14 मार्च से 13 अप्रेल के बीच पड़ती है इसलिये 15 मार्च से 13 अप्रेल के बीच ही शकाब्ध आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पड़ती है। लगभग 1130 वर्ष बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अप्रेल माह में ही पड़ा करेगी।

सुचना -

1 प्लुत वर्ष यानि अन्तिम माह में एक दिन अधिक होना । पहले फरवरी अन्तिम माह था।

2 भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के गोलाध्याय (यानि खगोल विज्ञान और भुगोल) में पुरे विश्व के लिये पुर्व पश्चिम दिशा भूमध्यरेखा पर ही मान्य है। वेधलेनें वाले के अक्षांश पर पुर्व पश्चिम मानने से पुर्व पश्चिम दिशा अर्थहीन हो जायेगी। क्यों कि प्रत्यैक देशान्तर के लिये तो पुर्व पश्चिम अलग अलग होती ही है। भारत वासियों का पुर्व और अमेरिका वासियों का पश्चिम लगभग एक ही होता है। ऐसे में यदि अलग अलग अक्षांशों पर उत्तराभिमुख खड़े अक्षांशों वेध लेनें वाले के 90° दाँयें बाँयें पुर्व पश्चिम मानें तो कम्युनिकेशन असम्भव सा होजायेगा। सभी अक्षांशों के पुर्व पश्चिम अलग अलग होंगें।

3 जब सुर्य को केन्द्र मानकर देखनें पर भूमि कृतिका नक्षत्र के सम्मुख दिखे यानि सुर्य, भूमि और चित्रा नक्षत्र का तारा एक पङ्क्ति में दिखे। केन्द्रीय ग्रह स्पष्ट में भूमि चित्रा नक्षत्र के योग तारा का भोग एक ही हो या जब चित्रा तारे से भूमि की युति हो तब निरयन मेष संक्रान्ति होती है।

4 सायन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष गणना लागु करने का प्रयोग काशी के बापुशास्त्री जी ने किया था और कई वर्षों तक सायन सौर संस्कृत पञ्चाङ्ग प्रकाशित किया। किन्तु धर्माचार्यों के असहयोग और लोकप्रिय नही होने के कारण उन्हें प्रकाशन बन्द करना पड़ा। खेर।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

परमात्मा से प्रजापति तक।

परमात्मा से प्रजापति तक कहें या कहें प्रजापति से परमात्मा तक।

सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप), ब्रह्माण्ड स्वरूप, महादेव (देवों में सबसे महत , पितामह) हैं। प्रजापति की शक्ति अथवा पत्नी सरस्वती है। सुत्रात्मा प्रजापति की आयु  हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प तुल्य है।
मुर्तिरहस्य में सुत्रात्मा प्रजापति को चतुर्मुख बतलाया जाता है। अर्थात चारों ओर मुख वाला मानते हैं। अर्थात पूर्ण गोलाकार स्वरूप में समझा जा सकता है।
इन्हे रेतधा - स्वधा युग्म या ओज - आभा और संज्ञान - संज्ञा अध्यात्मिक स्वरूप में समझा जा सकता है।
आधिदेविक स्वरूप में ये बाईस स्वरूप में प्रकट हुए। १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इन्द्र - शचि,  ८ अग्नि - स्वाहा,  ९ पितरः अर्यमा - स्वधा, १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष -  प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति, १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ,  १५ मरिची - सम्भूति, १६  महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति 
(सुचना  इनमें १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद (ये पाँचों ब्रह्मचारी रहे।), ७ इन्द्र - शचि, ८ अग्नि - स्वाहा, ९ पितरः अर्यमा - स्वधा देवस्थानी प्रजापति हैं। १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष - प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति (नामक प्रजापतियों के जोड़े भू स्थानी हुए। दक्ष, रुचि और कर्दम प्रजापति की पत्नियाँ प्रसुति, आकूति एवम् देवहूति तीनों स्वायम्भूव मनु - शतरुपा की पुत्रियाँ भी मानी गई है।), १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (जो दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ थी।) एवम् १५ मरिची - सम्भूति, १६ महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति नामक ब्रह्मर्षि गण हुए (जिनकी पत्नियाँ दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए। सभी ब्राह्मण इनके वंशज और शिष्य मानें जाते हैं।)

चूँकि हिरण्यगर्भ से प्रजापति प्रकट हुए और प्रजापति ने स्वयम् को उक्त २२ स्वरूप में प्रकट किया अतः ये बाईस भी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की ही सन्तान मानी जाती है। और चूँकि इनका प्रकटीकरण प्रजापति से हुआ इसलिए इन्हें कहीँ - कहीँ प्रजापति से उत्पन्न भी कहा जाता है। केवल कथन का ढङ्ग भिन्न है लेकिन तात्पर्य एक ही है पर लोग भ्रमित हो जाते हैं।

सुत्रात्मा प्रजापति के कारण भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, विश्वकर्मा हैं। पुरुष सुक्त के हिरण्यगर्भ प्रथमो जायते कहा है। अर्थात हिरण्यगर्भ जन्मलेनें वालों में प्रथम हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की शक्ति अथवा पत्नी वाणी है।
जो महादिक, अधिभूत, हैं इनकी आयु दो परार्ध है। अर्थात इकतीस नील दस खरब, चालीस अरब सायन सौर वर्ष है। ये प्रथम भौतिक वैज्ञानिक तत्व हैं अर्थात ये अनुभव गम्य हैं। मुर्तिरहस्य मे इन्हें पञ्चमुखी बतलाया गया है। अर्थात ये अण्डाकार हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा श्री लक्ष्मीनारायण की नाभी (केन्द्र) से उत्पन्न कमलासनस्थ बतलाया जाता है। 
अध्यात्मिक स्वरूप में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को देही - अवस्था , प्राण - धारयित्व और चेतना - धृति के  युग्म मे जानते हैं।

आधिदेविक स्वरूप में ये त्वष्टा - रचना कहलाते हैं। वेदों में कहा गया है कि, त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्डों के गोलों और लोकों, भुवनों को बढ़ाई  (इंजीनियर) की भाँति घड़ा। किन्तु ये देवलोक के विश्वकर्मा (आर्किटेक्ट) से ये उच्चतर देव हैं। ईश्वरत्व या ईश्वर श्रेणी के देवताओं में ये अन्तिम हैं।

भूतात्मा हिरण्यगर्भ का कारण जीवात्मा अपरब्रह्म विराट है। 
पुरुष सुक्त के विराट ये ही हैं। जो सर्वप्रथम उत्पन्न हुए। ये  श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद अध्याय 11 मन्त्र 32 में उल्लेखित काल हैं  जिस स्वरूप का दर्शन करके अर्जुन भयभीत होगये थे।  श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद में इन्हे स्व भाव और अध्यात्म (अधि आत्म) , और क्षर कहा है। जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) को प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता,और गुण सङ्गानुसार योनियों में भ्रमण करनें वाला कहा है।
विष्णु पुराण में जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) का वास स्थान शिशुमार चक्र (उर्सामाइनर) कहा गया है। यह प्रथम साकार स्वरूप है। जिसे तरङ्गाकार के रूप में समझा जा सकता है।
मानवीय सोच के अनुसार हम स्त्री-पुरुष या शक्ति और शक्तिमान के रूप में समझनें के आदि हैं तदनुरूप ---
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट को जीव और आयु के युग्म में  अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। इसे वेदों, उपनिषदों में अपर पुरुष- त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति भी कहा जाता है। या सांख्य दर्शन में अपर पुरुष और अपरा प्रकृति को पुरुष और प्रधान कहा गया है। 
इस स्वरूप को ही विवेक और विद्या भी कहा गया है।
अपर पुरुष - त्रिगुणात्मक प्रकृति को  वेदों में आधिदेविक स्वरूप में धातृ और धरित्री (नारायण - श्री एवम लक्ष्मी ) के स्वरूप में कहा गया हैं। ये जिष्णु  अर्थात स्वाभाविक रूप से विजेता कहे गये हैं। 
ऋग्वेद के अनुसार जो का 90× 4 = 360 अरों का नियती चक्र या संवत्सर चक्र है अर्थात काल वह भी ये ही हैं।  नारायण और श्री एवम् लक्ष्मी के स्वरूप में पुराणों वर्णन किया गया है। ये प्रकृतिस्थ हैं इसलिए इन्हें नारायण कहागया। इन्हे जगत का ईश्वर या जगदीश कहा जाता है। पुराणों में इनका वासस्थान क्षीर सागर भी बतलाया गया है।
अवतारी पुरुषों के नियन्ता ये ही हैं। इनके निर्देशानुसार ही ब्रह्मज्ञ सिद्ध पुरुषों को निर्धारित कार्य पुर्ण करनें हेतु सिमित समय के लिए भूलोक की व्यवस्था बनाये रखनें हेतु युगान्त में भेजा जाता है।

जीवात्मा अपरब्रह्म विराट  का कारण --
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म, विधाता है। विधि विधाता स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं। विधाता ही ऋत के अनुसार  सृष्टि संचालन करते हैं। ये महाकाश हैं श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हे क्षेत्र और अधिदेव कहा गया है। प्रत्यगात्मा ब्रह्म को सर्वगुण सम्पन्न, कालातीत, सुख दुःख का हेतु कहा गया हैं।
उपनिषद वाक्य सर्वखल्विदम् ब्रह्म, और महावाक्य -  प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, अहम ब्रह्मास्मि, तत्वमसि में इसी प्रत्यगात्मा ब्रह्म का निर्देश किया गया है। 
आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान यहीँ से आरम्भ होता है। अर्थात ये प्रज्ञान हैं
यह प्रत्यैक का नीज स्वरूप है। ये ही समाने वृक्षे द्वासुपर्णा का मधुर फल भक्षी पक्षी हैं।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता को मानवीय स्वभावानुसार --
पुरुष और प्रकृति, प्रज्ञान और प्रज्ञा के अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। आधिदेविक दृष्टि से सवितृ - सावित्री कहलाते हैं। (गायत्री मन्त्र का देवता सवितृ है।) 
पुराणों में  हरि और कमला देवी (कमलासना) के रूप में वर्णित हैं।
ये अज (अजन्मा), और प्रभविष्णु  जिनसे सब कछ हुआ ऐसा कहा जाता है। ये महेश्वर (महा ईश्वर) हैं।
मुर्ति रहस्य में इन्हें इन्हें साथ साथ बैठे नही बतलाते हुए दो अलग अलग कमल पुष्पों पर विराजित बतलाया जाता है।  इनकी मुर्ति या चित्र प्रायः गौर वर्णी ही बतलाई जाती है। इन्हें ब्रह्म सावित्री भी बोला जाता है। इसकारण लोग इन्हें हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और शारदा देवी / सरस्वती मान लेते हैं।

प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता का कारण ---प्रज्ञात्मा परब्रह्म है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सनातन, अव्यक्त, अव्यय, कुटस्थ, परमधाम, परमगति कहलाते हैं। "समाने वक्षे द्वासुपर्णा" मन्त्र के दृष्टा पक्षी ये ही हैं।
श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हें अधियज्ञ और क्षेत्रज्ञ  तथा  उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता,भोक्ता महेश्वर कहा है जो भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नही होता। अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रज्ञात्मा परब्रह्म का अस्तित्व समस्त उत्पन्न होने वाले/ प्रकट होनें वालों के नष्ट होनें पर यथावत बना रहता है।  अन्त में प्रज्ञात्मा परब्रह्म ही शेष रहते हैं/  विद्यमान रहते हैं।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म को मानवीय 
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सर्व गुणों वाला प्रथम सगुण स्वरूप है।  
समझनें की दृष्टि से अध्यात्मिक स्वरूप में अक्षर, दिव्य, परम पुरुष तथा - परा प्रकृति के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है।  आधिदेविक स्वरूप में 
 प्रज्ञात्मा परब्रह्म को सर्वव्यापी विष्णु और सत् असत् अनिर्वचनिय माया कहाते है। विष्णु ही परमेश्वर हैं।

विष्णु अनन्त सुर्यों के समान अत्यन्त प्रकाश स्वरुप/ ज्ञानस्वरूप माया से आवृत्त होने से अपृकट /अप्रत्यक्ष है।
अर्थात माया का यह आवरण हटनें पर  विष्णु प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
चुँकि, विष्णु सगुण निराकार स्वरूप हैं। अतः  विष्णु का साक्षात्कार होने पर ही विष्णु ॐ  का साक्षात्कार करवा सकते हैं ।

प्रज्ञात्मा परब्रह्म परमात्मा के  ॐ संकल्प के साथ प्रकट हुए। अर्थात प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण परमात्मा का  ॐ संकल्प को कह सकते हैं।
अर्थात विश्वात्मा ॐ को   प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण हैं। किन्तु  प्रज्ञात्मा परब्रह्म के साथ ही कार्य - कारण सम्बन्ध का अन्त हो जाता है।
दिव्य अक्षर पुरुष विष्णु का ज्ञान होते ही विश्वात्मा ॐ तथा परमात्मा में स्थिति हो जाती है।

सृष्टि के स्वरूप में प्रकट होनें के लिए हुआ परमात्मा का संकल्प ॐ कहलाता हैं। परमात्मा के उस  ॐ (कल्याण स्वरूप)  संकल्प से ही अनन्त, सत, चित , आनन्द  हुआ जो परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सर्वव्यापी, विश्वात्मा कहलाता है। ॐ संकल्प ही ऋत है। 

परमात्मा तो सत असत दोनों से परे है। परमात्मा का साक्षात्कार होते ही वास्तविक सत्य से साक्षात्कार अर्थात आत्म साक्षात्कार होकर अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। केवल परमात्मा (परम आत्म) ही रह जाता है। वेदों में इसे ही मौक्ष कहा है।