सर्वप्रथम यह जान समझ लें कि, धर्म आस्था और विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि प्रमाणों र तर्क पर आधारित आचरण और व्यवहार है।
आस्था और विश्वास के आधार पर मत, पन्थ और सम्प्रदाय बनते हैं। इसलिए अब्राहमिक मजहब आस्था और विश्वास पर ही टिका है।
लेकिन सनातन धर्म का आधार वेद अर्थात ज्ञान है। अर्थात अवलोकन, प्रयोगों, निरीक्षणों और गणनाओं पर आधारित ज्ञान है।
सनातन धर्म के वास्तविक धर्म ग्रंथ ---
वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, षड वेदाङ्ग के अन्तर्गत कल्प अर्थात शुल्ब सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्म सूत्र तथा पूर्व मीमांसा दर्शन और उत्तर मीमांसा दर्शन ही प्रामाणिक धर्मग्रंथ हैं।
वेदों को जानने- समझने हेतु गुरुकुल में पढ़ाये जाने वाले शास्त्रों का महत्व और क्रम---
वेदों में कविता, गद्य और गान के रूप में मन्त्र हैं। जिसको जिस शास्त्र का ज्ञान है उसे उन वेद मन्त्रों में तत्सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान और दर्शन दृष्टिगोचर होता है। सायणाचार्य पौराणिक आख्यानों के ज्ञाता थे तो उन्होंने वेदों की व्याख्या पौराणिक चरित्रों और घटनाओं के आधार पर वेद भाष्य लिखा।
आचार्य महिधर अध्यात्मिक ज्ञानी थे, तो उन्होंने अध्यात्म परक वेद भाष्य लिखा।
दयानन्द सरस्वती जी भाषाशास्त्री थे, उच्चारण शिक्षा व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और और शब्दकोश निघण्टु तथा छन्दशास्त्र के ज्ञाता थे अतः उन्होंने भाषाई आधार पर शुद्धतम अनुवाद कर संस्कृत में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका लिखकर हिन्दी भाषा में वेदों का भाष्य लिखा।
उपर्युक्त कोई भी भाष्य न गलत है न पूर्ण है। ऐसे और भी कई प्रकार से भाष्य हो सकते हैं जो सभी सही लेकिन अधूरे ही रहेंगे।
आगे वेदों की व्याख्या जानने-समझने की गुरुकुल पद्यति लिखी गई है। उससे ब्राह्मण वेदों का तात्पर्य हर दृष्टिकोण से जान-समझ पाता है।
वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थों में है। ब्राह्मण ग्रन्थों का पूर्व भाग व्यवहार और कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है। जो ब्रह्मचर्य आश्रम और ग्रहस्थ आश्रम मे उपयोगी है।
उत्तर भाग आरण्यक है, जो वानप्रस्थाश्रम में उपयोगी है । और अन्तिम भाग उपनिषद अर्थात ज्ञान काण्ड है।
वेदों की भाषा समझने हेतु उच्चारण शिक्षा, व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और शब्दकोश निघण्टु तथा छन्द शास्त्र का ज्ञान आवश्यक है ।
उचित स्थान पर उचित समय पर किया गया कर्म ही सफल होता है, इसलिए भूगोल, खगोलशास्त्र और काल गणना का ज्योतिष ज्ञान आवश्यक है।
लेकिन उचित स्थान पर उचित समय पर किया गया कार्य भी तभी सफल होता है जब शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही किया जाए। और निषिद्ध कर्मो के प्रति पूर्ण उपरामता हो। अर्थात निषिद्ध कर्मों का संकल्प भी मन में न आए न चित्त में कोई ऐसा विचार हो तभी एकाग्रता पूर्वक कार्य किया जा सकता है। अतः वेदों के अनुसार आचरण करने में विधि और निषेध का ज्ञान अर्थात धर्म सूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति आदि स्मृतियाँ इन्हीं धर्म सूत्रों की व्याख्या हैं। लेकिन स्मृतियों का स्थान प्रमाण कोटि में नहीं आता है।
फिर भी कर्म करते समय विरोधी भासने वाले वाक्यों और मिश्र वाक्यों या स्वविवेक पर निर्णय करने वाले आदेशों के पालन में महाभारत युद्ध के समय अर्जुन जैसे ज्ञानी को मति भ्रम हो गया था। इसलिए धर्म मीमांसा रूप श्रीमद्भगवद्गीता का गहन अध्ययन आवश्यक है।
कर्म करने हेतु खगोलीय परिस्थितियों की अनुरूपता आवश्यक है, इसके लिए गणितीय आधार वाले शुल्ब सूत्रों के आधार पर उचित प्रकार के मण्डप में, उचित प्रकार के मण्डल पर प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं और देवों को स्थापित करने हेतु उचित प्रकार के मण्डल बनाना आवश्यक है; तब जाकर उचित प्रकार की वेदी बनाकर आहूत प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं और देवों को आहुति देकर उनके प्रति कर्तव्य पालन किया जा सकता है। इसके लिए शुल्बसूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।
लेकिन प्रत्येक कर्म की एक निर्धारित विधि होती है, और उमें बाधाएँ न आए इसलिए कुछ निषेध भी होते हैं। इसलिए छोटे कर्मकाण्ड, नित्यकर्म, दैनिक अग्निहोत्र, पञ्चमहायज्ञ, संस्कार प्रयोग, उत्सव मनाने के विधि निषेध हेतु गृह्यसूत्रों का ज्ञान आवश्यक है।
फिर बड़े बड़े सत्र , बड़े यज्ञों के अनुष्ठान करने की विधि और निषेध जानना आवश्यक है, इसके लिए श्रोत सूत्रों का ज्ञान आवश्यक होता है।
लेकिन इन सबके ज्ञान होने पर भी कभी-कभी विरोधी वाक्य भ्रम पैदा कर देते हैं, इसलिए जेमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।
वेदों का ज्ञान विज्ञान समझे बिना उनका व्यावहारिक उपयोग नहीं किया जा सकता, इसके लिए आयुर्वेद , धनुर्वेद , गन्धर्ववेद और स्थापत्य वेद यानी शिल्प वेद और अर्थशास्त्र नामक उपवेद के ग्रन्थों का ज्ञान आवश्यक है। इनके अलावा धर्म प्रबोधनकारी कोई ग्रन्थ नहीं है।
सफलता पूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन जी लेने के बाद आता है वानप्रस्थ आश्रम का समय, इसके मार्गदर्शन हेतु ही ब्राह्मण ग्रन्थों का अन्तिम भाग अर्थात आरण्यका ज्ञान आवश्यक है। फिर जिज्ञासा होती है कि, यह जगत क्या है? यह जगत किस पदार्थ से बना? इस जगत का मूल क्या है? यह जगत कैसे बना? क्या इस जगत का कोई निर्माता है? या यह स्वयमेव विकसित हो गया? और विकसित हो रहा है? यदि कोई इस जगत का रचयिता है या यह स्वयम् विकास का परिणाम है तो भी, इसका इतना कुशल और व्यवस्थित सञ्चालन किस प्रकार हो रहा है? क्या इसके सञ्चालन के कुछ नियम है? क्या यह स्व सञ्चालित हो रहा है या कोई शक्ति इसे सञ्चालित कर रही है?
देवता क्या हैं? देवता कौन हैं? देवता कितने हैं? देवताओं की क्या-क्या श्रेणियाँ है? इन देवताओं का शासक ईश्वर क्या है? ईश्वर कौन है? ईश्वरों में भी ईश्वर, महेश्वर, जगदीश्वर और परमेश्वर श्रेणियाँ सुनी जाती है, ये ईश्वर, महेश्वर, जगदीश्वर और परमेश्वर कौन है?
मैरा इस जगत से क्या सम्बन्ध है? वह सम्बन्ध कैसा है? वह सम्बन्ध क्यों है? इस जगत में मेरी क्या भूमिका है? जगत और ईश्वर के बीच मैरी क्या स्थिति है? क्या इस जगत में व्यवहार करते हुए भी मैं तटस्थ रह सकता हूँ?
फिर प्रश्न उपस्थित होते हैं कि, मैं क्या हूँ, क्या मैं देही हूँ, या भूतात्मा हूँ, या जीव हूँ, या जीवात्मा हूँ, या प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) हूँ या प्रज्ञात्मा हूँ?
मैरा अपना वास्तविक अस्तित्व क्या है? मैरा अपना वास्तविक स्वरूप क्या है? विश्वात्मा क्या है? परमात्मा क्या है? क्या वह मैं ही हूँ? या मुझसे कुछ उच्च स्तर हैं? क्या मैं वहीं हो सकता हूँ?
ये सब जिज्ञासाएँ हर बच्चे के मन में उठती है। चूंकि माता-पिता और हमारे आसपास घूम रहे कथावाचक, कर्मकाण्डी पण्डित, संसार में रह कर सांसारिक जीवन जीते हुए संन्यासी कहलाने के शौकीन बाबाओं के पास भी इनके कोई उत्तर नहीं मिलते।
इनके उत्तर दिये गए हैं वेदों के अन्तिम अध्यायों में। जिन्हें उपनिषद कहते हैं। इन्हें ब्रह्मसूत्र कहा जाता है। इन उपनिषदों मे या ब्रह्म सूत्रों में दिखने वाले विरोधी वाक्यों और मिश्रित वाक्यों की मीमांसा बादरायण के उत्तर मीमांसा दर्शन मे अर्थात शारीरिक सूत्र में है। इसलिए इस ग्रन्थ को भी ब्रह्म सूत्र कहा जाता है। इन उपनिषदों अर्थात ब्रह्म सूत्रों का ज्ञान भी आवश्यक है। तभी हमारे भ्रम निवारण हो सकते हैं।
हमे हमारे देश- समाज की महत्वपूर्ण घटनाएँ, हमारे आदर्श पुरुषों का जीवन चरित्र , उनका दुष्टों के साथ संघर्ष का सच्चा इतिहास जानने की जिज्ञासा होती है, लेकिन इसके प्रामाणिक ग्रन्थ वैदिक इतिहास-पुराण और गाथाएँ अब उपलब्ध नहीं है। फिर भी वाल्मीकि रामायण और वेदव्यास कृत महाभारत में ही जितना इतिहास मिलता है उतना ही इतिहास प्रामाणिक है।
विष्णु पुराण महर्षि पराशर जी की रचना मानी जाने के कारण सबसे प्राचीन पुराण माना जाता है। इस कारण विष्णु पुराण केवल अवलोकनीय ग्रन्थ माना जाता है। लेकिन स्मृतियों के समान विष्णु पुराण को भी प्रमाण नहीं माना जाता है।परवर्ती पुराण आदि तथा संस्कृत साहित्य तो केवल लौकिक साहित्य मात्र हैं; प्रमाण नहीं है।
क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है।
उक्त ज्ञानार्जन केवल गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ही सम्भव है।
इन सबका ज्ञान केवल गुरुकुल में ही हो सकता है।
घर में या होस्टल में रहकर आधुनिक शिक्षा से केवल किसी बड़े व्यवसाई द्वारा स्थापित या शासकीय उपक्रम में नौकर बनकर अर्थार्जन करने की ही शिक्षा देती है। उनमें कुछ समझदार ही स्वालम्बी व्यवसाय कर के अर्थार्जन कर गृहस्थी चलाने को ही जीवन की सफलता मान लेते हैं। उस गृहस्थी में कुछ कर्मकाण्डी पण्डितों से पूजा पाठ करवाना, तपस्वियों के प्राकृतिक तपस्थलों पर बने तीर्थों और उनके वर्तमान उत्तरवर्ती महन्तों के मठ, मन्दिरों में जाकर पूजा-पाठ, दान-पुण्य आदि सकाम उपासना करके स्वयम् को परम धार्मिक समझ लेते हैं। और उन बाबाओं द्वारा बतलाई गई साधना- प्रणाली को अपना कर स्वयम् को स्वनाम धन्य अध्यात्मिक घोषित कर लेते हैं। जबकि उन साधनाओं से आजतक कोई सफल नहीं हुआ।
लेकिन वास्तविक सफल जीवन कुछ भिन्न ही है।
सनातन वैदिक धर्मी के लक्षण एवम् पहचान ---
सदैव मन ही मन ॐ का उच्चारण करते हुए चित्त में परमात्मा का निरन्तर ध्यान रखते हुए सत्कर्म ही करते हुए सदाचार पूर्वक जीवन यापन करना, ईश्वर प्रदत्त इस देह को स्वस्थ्य, सुघड़, बलवान देहयष्टि बनाये रखकर देश-धर्म की रक्षार्थ सदैव तत्पर रहने को छोड़कर कोई धर्म मार्ग नहीं है। सनातन वैदिक धर्मी का यह प्रथम कर्तव्य और पहचान है। इसके बिना कोई सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता।
वैदिक धर्म में यज्ञ, योग और ज्ञान साधना थी।
पञ्च महायज्ञ नित्यकर्म थे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपी धर्म धारण किए बगैर सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता यह द्वितीय कर्तव्य है।
शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूपी नियमों का दृढ़तापूर्वक निर्वहन किये बिना कोई सनातन वैदिक धर्मी नहीं हो सकता यह तृतीय कर्तव्य है।
वेदाध्ययन, चिन्तन मनन, सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त पूर्व सन्ध्या करना, योगासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि अभ्यास रूपी ब्रह्म यज्ञ प्रत्येक सनातन वैदिक धर्मी का चतुर्थ कर्तव्य है।
सूर्योदय पश्चात अग्निहोत्र रूपी देव यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का पञ्चम कर्तव्य है।
ब्रह्मचारी, संन्यासी, आगंतुक, जरुरत मन्द, वृद्ध, रोगी, विकलाङ्ग, निराश्रित,बालक और अबला महिलाओं की सेवा सुश्रुषा, गुरुकुल, महाविद्यालय , चिकित्सालय, औषधालय , धर्मशाला, अतिथिगृह, पेयजल आपूर्ति (प्याऊ), सदावर्त निर्माण और सञ्चालन में यथा सामर्थ्य, यथा शक्ति तन-मन-धन से सहयोग रूपी नृयज्ञ या अतिथि यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का षष्ठ कर्तव्य है।
पशु-पक्षी, चीटी-मछली जैसे छोटे-छोटे जीवों, पाल्य जीव जन्तुओं तथा पैड़-पौधों की यथोचित सेवा व्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण रूपी भूत यज्ञ सनातन वैदिक धर्मी का सप्तम कर्तव्य है।
मृत्युशय्या पर पड़े व्यक्ति की सेवा - सुश्रुषा, उन्हें ईशावास्योपनिष, श्रीमद्भगवद्गीता सुनाना, ॐ संकिर्तन के द्वारा उनका ध्यान परमात्मा में लगाना, शव को वैदिक ऋति से मन्त्राग्नि देकर अन्त्येष्टि करना, और तीसरे दिन श्मशान की सफाई कर अस्थि-भस्म का समुचित विसर्जन करना, मृतक की कोई सामाजिक उत्थान - समाज सेवा सम्बन्धित अधूरी इच्छा; यथा - कूप-तड़ाग, प्याऊ, विद्यालय, चिकित्सालय, श्मशान आदि के निर्माण की इच्छा आदि अधुरे संकल्प को पूर्ण करने में सहयोग रूपी श्राद्धकर्म करके पितृयज्ञ करना सनातन वैदिक धर्मी का अष्टम कर्तव्य है।
उक्त आठ कर्तव्यों को धारण करने वाला और समस्त निषिद्ध कर्मो के प्रति उपराम व्यक्ति ही सच्चा सनातन वैदिक धर्मी होता है।
और
ऐसे आचरण वाले व्यक्ति को ही सत्गुरु - ॐ तत्सत्, सञ्चिदानन्द ब्रह्म, सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का बोध करा कर; तत्वमस्यादि महावचन सुनाकर; सर्व खल्विदम् ब्रह्म, प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोऽहम् और अहम्ब्रह्मास्मि का बोध करा सकते हैं।
तभी वह सद्योमुक्त होकर जगत में विचरण करता है और देह त्याग पश्चात जन्म मरण के बन्धन से सदा के लिए मुक्त हो सकता है।
इसको छोड़ कर अन्य कोई धर्म मार्ग नहीं है।
ऐसे सद्योमुक्त में से कुछ विशेष विभूतिवान परुषों को देवगण आग्रह करते हैं तो उनके आग्रह पर वह अपने प्रज्ञात्मा को विश्वात्मा और परमात्मा में लय न करके सप्त ऋषियों के समान किसी भी लोक में रहकर लोक कल्याणकारी कर्म करने को रह सकता है। और आवश्यकता पूर्ति होने पर जीवन- मरण से मुक्त हो सकता है।
या देवताओं के अनुरोध पर अपनी अन्तरात्मा को भी प्रज्ञात्मा में लय न करके किसी लोक विशेष में रहकर यथा आवश्यकता निर्धारित कार्य की पूर्ति हेतु पृथ्वी पर जन्म लेकर अर्थात अवतार ग्रहण कर कार्य पूर्ण कर पुनः उसी लोक में लौट सकता है। या जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है।
गुरुकुल में सर्व प्रथम वेदमन्त्र पहले रटवाये जाते हैं। लेकिन केवल रटने से स्मृति नहीं बढ़ती अपितु ,उनका उपयोग सीखने, जानने और उपयोग करने से ही स्मृति बढ़ती है।
इसलिए
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली ---
पहले गुरुकुल ब्रह्मचर्य आश्रम में भिक्षा मांगने, आश्रम की साफ-सफाई, पैड़ पौधों और गो की सेवा करने, आश्रम की लिपाई-छबाई, रखरखाव करने, कुटीर बनाने, गो चराने, कृषि करने, अतिथि सेवा करने से ब्रह्मचारी का अहंकार नष्ट हो जाता था। कार्य के दौरान ब्रह्मचारी को के समक्ष नई नई चीजें दिखती थी और नई नई समस्याएँ आती थी । इस कारण उसके मस्तिष्क में जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती थी। जिसका समाधान वहीं पर किया जाता था।इस कारण ब्रह्मचारी
व्यवहार में दक्ष हो जाता था। तब उसे वेदपाठ अभ्यास और योगाभ्यास करवाया जाता था,
इसमें आई समस्याओं के लिए उसे वेदमन्त्रों के उच्चारण की विधि अर्थात शिक्षा, वैदिक व्याकरण, शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र निरुक्त और छन्द शास्त्र और भूगोल, खगोल तथा काल गणना ज्ञान हेतु ज्योतिष का ज्ञान प्रदान किया जाता था। फिर खगोल के पेटर्न के अनुसार शुल्बसूत्रोक्त मण्डप, मण्डल और बेदी बनाने की विधि सम्बन्धित ज्ञान प्रदान किया जाता था। फिर नित्योपयोगी, दैनिक कर्मकाण्ड गृह्यसूत्र और अर्थशास्त्र तथा आयुर्वेद आदि का ज्ञान दिया जाता था। फिर कर्म में उनका उपयोग करवाया जाता है; ताकि, वह व्यावहारिक जीवन जी सके और कर्मकाण्ड और संस्कार आदि के समय वह स्वयम् वेदमन्त्र का उच्चारण करे। इसका ज्ञान नहीं होने के कारण आजकल पुरोहित भी पुस्तक देखकर मन्त्रोच्चार करता है। और जातिगत ब्राह्मण यजमान भी केवल मम् बोलता है। लेकिन समझता कुछ नहीं है।तब जाकर बटुक वैष्य वर्णोचित ज्ञानार्जन कर द्विजत्व को प्राप्त होता था। फिर व्यावहारिक और व्यावसायिक जीवन में उनका उपयोग सिखाया जाता था। तब व्यक्ति वैश्य बनता था।
धर्म सूत्रोक्त धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन करवा कर धर्म मीमांसा का ज्ञान प्रदान कर, वाद्य यन्त्र बजाने, और बनाने, सामगान करने, नाट्यशास्त्र का अध्ययन , शस्त्रास्त्र सञ्चालन और निर्माण करने, रथ हांकने और रथ निर्माण करने की विद्या धनुर्वेद और शिल्पवेद अर्थात स्थापत्य वेद सीख कर क्षात्र धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना सीखता था। फिर उनका तकनीकी उपयोग सिखाया जाता है तब व्यक्ति क्षत्रिय बनता है।
पूर्व मीमांसा श्रोत सुत्रोक्त बड़े यज्ञ करने, प्रवचन सुनने छोटे बटुकों का अध्यापन करने, प्रवचन करने, यज्ञ करवाने के अभ्यास करवाया जाता था। फिर अन्त में उनका वास्तविक आषय समझाया जाता है तब ब्रह्मचारी विप्र बनता है।
इसके बाद ब्रह्मचारी के माता-पिता एवम् स्वयम् ब्रह्मचारी यदि चाहें तो उसका समावर्तन संस्कार करवा कर गृहस्थ धर्म में प्रवेश कर सकता था।
लेकिन यदि ब्रह्मचारी अभी और भी ज्ञानार्जन करना चाहता हो तो गुरुकुल के आचार्य गण, कुलपति ब्रह्मचारी की योग्यता परखकर ब्रह्मचारी से कृच्छ चन्द्रायण तप करवा के समाधि अभ्यास करवाते थे। जब समाधि अभ्यास से वह वेद मन्त्रों का भाव स्वतः दर्शन करता है तब मन्त्र दृष्टा हो जाता है। जब वेद का पूर्णतः दृष्टा हो जाता है तब ब्राह्मण कहलाता है।
ऐसा ब्राह्मण ही ब्रह्मर्षि हो सकता है। और ऐसा ब्रह्मर्षि जब सांसारिक जीवन छोड़कर संन्यास ग्रहण कर, निर्जन वन में, पर्वत कन्दराओंमें एकान्त वासी हो जाता है, तब वह मुनि कहलाता है।
इन सबके बिना क्या कभी किसी को ऋषि बनने का कोई किस्सा सुना है?
नहीं ना।
अतः सदाचार पूर्वक, स्व स्थ रहने (स्व में स्थित रहने) का अभ्यास, वास्तविक मैं , परम आत्म परमात्मा के अर्थ में ॐ शब्द नाद और ॐकार का ध्यान करते हुए सदैव परमात्मा का स्मरण रखकर प्रकृति, जगत, संसार और शरीरों की सेवा करना ही मानव जीवन है।
यही सनातन धर्म है।
वेदव्यास जी के बाद कोई महर्षि सुना है?
शुकदेव जी के बाद कोई मुनि सुना है?
योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्ण के बाद हठयोगी तो बहुत हुए लेकिन कोई वास्तविक योगी नहीं हुआ।
कारण एक ही है कि, महाभारत युद्ध में भारत के सभी ज्ञानी-ध्यानी, विद्वान, कर्मठ, वीर समाप्त हो गये।
वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति समाप्त हो गये, नये-नये मत पन्थ विकसित हो गये।
गुरुकुल समाप्त हो गये।
परिणाम स्वरूप अधिकांश जनता जैन-बौद्ध या नास्तिक (आजीवक) हो गई।
आचार्य कुमारील भट्ट और शंकराचार्य जी की कृपा से वैदिक मत में वापसी तो हुई, लेकिन विभिन्न सम्प्रदायों में बंट गए।
यज्ञ करते समय यदि शिश्नेदेवाः (तान्त्रिक लिङ्ग पूजकों) की छाया भी पड़ जाए तो ऋग्वेद में यज्ञ बन्द करदेने का निर्देश है। यजुर्वेद में भी न सत्य प्रतिमा अस्ति कह कर प्रतिमा का निषेध किया गया है। इसलिए उस समय गुरुकुल शिक्षित प्रत्येक व्यक्ति पञ्चमहायज्ञ सेवी ही होता था।
तब भारत पर किसी आसुरी शक्ति की दृष्टि पढ़ने पर साक्षात धर्म हमारी रक्षार्थ उपस्थित हो जाता था। महर्लोक और उससे उच्च लोको से सहायता प्राप्त हो जाती थी।
यूनानी आक्रमण के बाद जैन और बौद्ध आचार्य इराक में प्रचलित मूर्ति पूजा ले आये। भगवान आद्य शंकराचार्य जी के द्वारा शुद्धि करवा कर बौद्धाचार्यों और जैनाचार्यों को सनातन धर्म में ले आये । सनातन धर्म में लौटे इन पूर्व बौद्धाचार्यो और पूर्व जैनाचार्यों ने पुरुष सूक्त आदि वैदिक मन्त्रों से उनके मठ मन्दिरों में प्रतिष्ठित मुर्तियों की षोडशोपचार पूजा करना प्रारम्भ कर दी। जबकि, पुरुष सूक्त का पूजन में विनियोग नहीं है। अपितु सृष्टि उत्पत्ति रहस्य प्रकाशक उपनिषद है। पूरुष सूक्त का पूजन विधि के कर्म से दूर तक का भी कोई सम्बन्ध नहीं है।
जब हमने अपना धर्म - संस्कृति सब छोड़ दिये तो धर्म हमारी रक्षा क्यों करेगा?