सायन संक्रान्ति, सूर्य का नक्षत्र परिवर्तन, शुक्ल पक्ष की अष्टमी (एकाष्टका), पूर्णिमा,चन्द्रग्रहण,
कृष्ण पक्ष की अष्टमी (अष्टका) और अमावस्या, सूर्यग्रहण और सायन सौर मधु-माधव आदि मासों में चन्द्रमा का किसी नक्षत्र विशेष में होने के दिन तीर्थ स्थानों में पर्व स्नान का विशेष माहात्म्य बतलाया गया है इसलिए लोग उक्त पर्वों पर गङ्गा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों में विशेषकर नदियों के सङ्गम स्थल पर और किसी ऋषि मुनि के तपस्या स्थली अर्थात तीर्थ स्थानों के कुण्डों में स्नान करने जाते हैं। सूर्य ग्रहण अमावस्या-प्रतिपदा संधी काल में और चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा-प्रतिपदा संधी काल में ही होते है। इसलिए इस पर्व का विशेष महत्व बतलाया गया है।
ऐसे ही नवरात्र भी चार होते हैं। चारों नवरात्र के प्रारम्भ दिन शुक्ल प्रतिपदा का सम्बन्ध भी विषुव संक्रान्ति या सूर्य की परम क्रान्ति से है। जैसे चैत्र नवरात्र वसन्त विषुव (सायन मेष संक्रान्ति) से सम्बन्धित है। शारदीय नवरात्र शरद विषुव (सायन तुला संक्रान्ति) से सम्बन्धित है। आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ गुप्त नवरात्र उत्तर परम क्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति) से सम्बन्धित है। माघ शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ गुप्त नवरात्र दक्षिण परम क्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति) से सम्बन्धित है।
आपने देखा होगा कि, कहीं अश्विनी को प्रथम नक्षत्र मानते हैं, तो कहीं कृतिका को।
कुछ जगहों पर मघादि गणना भी प्रचलित है। तो कहीं धनिष्ठा नक्षत्र से गणना प्रारम्भ की गई है।
ये सब तत्कालीन वसन्त सम्पात की उस नक्षत्र पर स्थिति के कारण बतलाए गए हैं। यह कोई मतभेद नहीं है। दिनांक २२ मार्च २८५ ईस्वी को वसन्त सम्पात अश्वीन्यादि बिन्दु पर था। इसलिए वर्तमान में अश्विनी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानते हैं।
इसी कारण चैत्र मास को प्रथम मास मानते हैं। जबकि, १३१७५ ई.पू. में वसन्त सम्पात चित्रा तारे पर था तब आश्विन मास को प्रथम मास माना जाता था। ऐसे ही गुजरात में कार्तिकादि गणना चलती है। केरल में मघा नक्षत्र पर सूर्य होने के दिन निरयन सिंह संक्रान्ति से वर्षारम्भ मानते हैं।
लगधाचार्य नें ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष ग्रन्थ में माघ को मुख्यता देते हुए प्रथम मास माना है। अर्थात उस समय मघा नक्षत्र पर पूर्णिमा के समय मघा तारे से १८०° पर वसन्त सम्पात रहा होगा। तभी से माघी गुप्त नवरात्र प्रारम्भ हुआ होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऋतुओं में वसन्त और माहों में मार्गशीष को मुख्य बतलाया है। अर्थात किसी समय मृगशीर्ष नक्षत्र के योग तारा से १८०° पर वसन्त सम्पात होगा। क्योंकि पूर्णिमा को चन्द्रमा से १८०° पर सूर्य होता है। और वैदिक काल से यह परम्परा जारी है कि, सूर्य जब वसन्त सम्पात पर होता है तभी से संवत्सर प्रारम्भ होता है।
ब्राह्मण ग्रन्थों और सुत्रों में उल्लेखित चैत्र-वैशाख आदि मास पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के नक्षत्र विशेष में भ्रमण होने के आधार पर हैं। जैसे जिस पूर्णिमा को चन्द्रमा चित्रा तारे के आसपास हो वह चैत्र पूर्णिमा। जिस पूर्णिमा को चन्द्रमा मघा नक्षत्र के आसपास हो वह माघी पूर्णिमा।
प्रकृति के निकट रहने वाले उस समय के लोग चलते रास्ते देखकर बतला सकते थे कि, पूर्णिमा का चन्द्रमा अमुक नक्षत्र के साथ है मतलब यह माह चल रहा है।
स्पष्टीकरण - वासन्तिक विषुव - शुन्य क्रान्ति (सायन मेष संक्रान्ति २०/२१ मार्च), उत्तर परम क्रान्ति (सायन कर्क संक्रान्ति २२/२३ जून), शारदीय विषुव - शुन्य क्रान्ति (सायन तुला संक्रान्ति २३ सितम्बर), दक्षिण परम क्रान्ति (सायन मकर संक्रान्ति २२/२३ दिसम्बर) के आधार पर शेष आठ सायन संक्रान्ति भी संक्रान्ति कहलाती है।
वैदिक काल में इन सायन संक्रान्तियों के आधार पर ही संवत्सर, गोल, अयन, ऋतु और मधु-माधवादि मासों का प्रारम्भ माना जाता था। और ग्रहों की स्थिति नक्षत्रों (तारा मण्डलों) में बतलाई जाती थी। राशियाँ प्रचलित नहीं थी। राशियाँ बेबीलोन और यूनान में प्रचलित थी। जो आचार्य वराहमिहिर के समय भारत में प्रचलित हुई। ऐसे ही दशाह के स्थान पर सप्ताह भी आचार्य वराहमिहिर के समय भारत में प्रचलित हुआ।
लेकिन जैसे उज्जैन की देशान्तर रेखा को उदय रेखा माना जाता है; आजकल थोड़े संशोधन के साथ ग्रीनविच रेखा को शुन्य देशान्तर मानते हैं वैसे ही, चित्रा तारे को भचक्र (क्रान्तिवृत के उत्तर दक्षिण में आठ-आठ अंश फैली नक्षत्र पट्टी) का मध्य बिन्दु मानते हैं। तदनुसार उससे १८०° पर अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ बिन्दु मानते हैं और परवर्ती काल में अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ बिन्दु को निरयन मेषादि बिन्दु मानकर और चित्रा तारे को तुलादि बिन्दु मानकर किसी ने निरयन राशियों की अवधारणा प्रस्तुत की गई जो वर्तमान में प्रचलित है।
भारत में सब काम ऋषि मुनियों के नाम पर बतलाने और हर चीज को वैदिक कहने की परम्परा के कारण इस अवधारणा या संकल्पना के जनक की वास्तविक जानकारी नहीं है।
श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् के सम्पादक एवम् गणित कर्ता ग्रेटर नोएडा के आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश जी के अनुसार ८५४ से ९३२ ईस्वी में लघुमानसकरण और मानस ग्रंथ के रचयिता भारद्वाज गोत्रीय आचार्य मुञ्जाल ने अयन चलन की गति की गणना कर अयनांश निरुपण कर अयनांश संस्कार बतलाकर निरयन प्रणाली की त्रुटि से अवगत करवाया था। इनका उल्लेख भास्कराचार्य ने भी किया है। इनने अयन गति १' कला प्रतिवर्ष मानी है। मुनीश्वर ने मरीचि में अयनगति विषयक इनके मानस नामक ग्रन्थ से कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं, लेकिन मानस नामक ग्रंथ वर्तमान में उपलब्घ नहीं है।
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