बुधवार, 23 मार्च 2022

पाँच प्रकार के प्रचलित संवत्सर।

सायन सौर वर्ष --- वैदिक संवत्सर --- कलियुग संवत

वैदिक युग में नव संवत्सर वसन्त विषुव से आरम्भ होता था। अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से नव संवत्सर आरम्भ होता था। 
कल्प संवत, सृष्टि संवत और युग संवत प्रचलित थे।  सायन संक्रान्तियों से आरम्भ होने वाले मधु-माधवादि मास प्रचलित थे। अतः यह संवत्सर पूर्णतः ऋतु बद्ध और वैज्ञानिक है। मधु-माधवादि मास और उसके अंशों से और सूर्य संक्रान्ति गते (संक्रान्ति से व्यतीत दिन संख्या) द्वारा दिनांक / मिति दर्शाये जाते थे। दस दिन के दशाह के वासर (वार) प्रचलित थे।
सायन सौर मास के अंश/ संक्रान्ति गत दिवस के साथ ही नाक्षत्रमान से सूर्य और चन्द्रमा किस नक्षत्र के साथ है यह दर्शाया जाता था।

सुचना - 
तब सप्ताह नही चलता था। भारत में सप्ताह सम्राट विक्रमादित्य ने वराहमिहिर की सलाह पर प्रचलित किया।
वैदिक काल में अभिजित सहित अट्ठाइस नक्षत्र प्रचलित थे। जो क्रान्तिवृत में सम्बन्धित नक्षत्र के योगतारा के आसपास के अंशों में फैला रहता था। योगतारा की स्थिति से दो योगताराओं के मध्य बिन्दु को सन्धि स्थान मानकर दो सन्धियों के बीच का बिन्दु को आरम्भ / अन्त बिन्दु माना जाता था। लेकिन उसकी सुचि उपलब्ध नही है। 
अतः इसे योगतारा की वर्तमान स्थिति से दो योगताराओं के मध्य बिन्दु को सन्धि स्थान मानकर दो सन्धियों के बीच का बिन्दु को आरम्भ / अन्त बिन्दु माना जा सकता है।
नीचे उदाहरण में तत्सम्बन्धी सारणी के  अभाव में वर्तमान प्रचलित सत्ताईस नक्षत्रों और चरणों को दर्शाया है।

जैसे इस वर्ष इस कलियुग संवत ५१२३ का आरम्भ २० मार्च २०२२ रविवार को २१:०३ बजे वसन्त विषुव अर्थात सायन मेष संक्रान्ति से होगा। संकल्पादि में और व्यवहार मे २१ मार्च २०२२ रविवार को सूर्योदय के साथ कलियुग संवत ५१२३ का आरम्भ होगा।
उस समय को ऐसे लिखा जायेगा ---
कलियुग संवत ५१२३ मधु गतांश ००° गते ०० । सूर्य उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र प्रथम चरण में और चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र चतुर्थ चरण में। 
कृष्ण पक्ष में उज्वलार्ध चल रहा है। 
रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होने वाला है। रात्रि का चतुर्थ मुहुर्त आरम्भ हुआ है। 
पूर्व दिशा में स्वाती नक्षत्र का प्रथम चरण उदय हो रहा है। आकाश के मध्य में ख स्वस्तिक पर पुष्य नक्षत्र का तृतीय चरण दर्शन दे रहा है। 
साथ ही उस समय कोई ग्रह आकाश में दृष्ट होता तो उसकी स्थिति नक्षत्र में दर्शाई जाती। 

मतलब संवत्सर विषुद्ध सायन संक्रान्तियों पर आधारित था। और आकाश दर्शन का वर्णन नाक्षत्रीय पद्यति से (नक्षत्रों में) किया जाता था। 
शुक्ल पक्ष / कृष्ण पक्ष और मास का उज्वलार्ध है या तमार्ध यह बतलाया जाता था।
पूर्णिमा और अमावस्या अथवा अर्धचन्द्र ही बतलाते थे। अन्य कोई तिथि प्रचलित नही थी।  अन्य कलाओं को चन्द्रमा का वक्र इस दिशा में है ऐसा ही कहा जाता था।यदि सूर्य ग्रहण/ चन्द्र ग्रहण हो तो उसका अवश्य किया जाता था।
इस प्रकार आकाश का नक्षा उभर कर सम्मुख आ जाता है।
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२  सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर --- युधिष्ठिर संवत

ब्राह्मण ग्रन्थों ,उपवेदों और वेदाङ्गो के समय पूर्वोक्त युग संवत (जैसे वर्तमान में कलियुग संवत है वैसे ही उस युग का युग संवत) सूर्य के मधु माधव आदि मास, गते, वासर के साथ साथ संवत्सर प्रवर्तक उस युग के महत्वपूर्ण सम्राट के नाम का संवत्सर प्रचलित थे। (जैसे वर्तमान मे युधिष्ठिर संवत चल रहा है।) संवत के साथ चैत्र वैशाख मासों की कलाओं के आधार पर तिथि भी दर्शाने लगे। साथ ही आकाश का नक्षा नाक्षत्रीय पद्यति से दर्शाया जाता था।
जैसे इस वर्ष युधिष्ठिर संवत  ५१२३ का प्रारम्भ ०२ मार्च २०२२ बुधवार को २३:०६ बजे (अमान्त माघ की) अमावस्या समाप्त होने के साथ होगा। तथा व्यवहार में तथा संकल्प में ०३ मार्च २०२२ को सूर्योदय से युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ (अमान्त फाल्गुन) शुक्ल प्रतिपदा से होगा।
कलियुग संवत ५१२२ तपस्य मास गतांश १२° गते १२ दर्शाते थे। सूर्य शतभिषा नक्षत्र चतुर्थ चरण में और चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र चतुर्थ चरण में है। युधिष्ठिर संवत ५१२३ के चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि। रात्रि का द्वितीय प्रहर। रात्रि का षष्ट मुहुर्त। पूर्व दिशा में विशाखा नक्षत्र का प्रथम चरण। आकाश के मध्य में ख स्वस्तिक पर आश्लेषा नक्षत्र का तृतीय चरण। 
साथ ही उस समय कोई ग्रह आकाश में दृष्ट होता तो उसकी स्थिति नक्षत्र में दर्शाई जाती। 

लेकिन इस युधिष्ठिर संवत का आरम्भ मास प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक-एक मास आगे खिसकता जाता है। तदनुसार युधिष्ठिर संवत ५५३४  (ईस्वी सन २४३३) में इस संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित वैशाख शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा।
युधिष्ठिर संवत सायन सौर संक्रान्तियों से आधार पर चलने वाला सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर है। अतः यह संवत्सर भी लगभग ऋतुबद्ध ही है। केवल  लगभग २९.५३०५८९ दिन अर्थात एक चान्द्रमास आगे होकर लगभग २८ से ३८ माह में अधिक एक मास होकर पूनः बराबर हो जाता है। 
इसका चक्र १९ वर्ष और १४१ वर्ष का होता है। प्रायः प्रत्येक १९, ३८,५७,७६,९५, ११४, १२२,१४१ वें वर्ष में पुनः वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होता है।
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३  नाक्षत्रीय वर्ष / निरयन सौर वर्ष--- विक्रम संवत

विक्रमादित्य ने राज्यारोहण के समय राज्य ज्योतिषी आचार्य वराहमिहिर की राय पर नाक्षत्रीय संवत्सर को ही राजकीय संवत्सर के रूप में तथा सप्ताह के वारों को प्रचलित किया। जो आज भी पञ्जाब, हरियाणा, जम्मू, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के कुछ भागों में यथारूप प्रचलित है। और बङ्गाल, असम, तमिलनाड़ू, केरल में अन्य नामों से प्रचलित है।
विक्रम संवत का आरम्भ वैशाखी अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति से होता है। इसके आरम्भ के समय सूर्य के केन्द्र से भूमि चित्रा तारे के ठीक सीध में दिखती है और भुमि के केन्द्र से देखने पर चित्रा तारे से १८०° पर सूर्य दिखता है।
नाक्षत्रीय संवत्सर चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य के आने से आरम्भ होकर वापस चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु पर सूर्य के आने पर ही पूर्ण होता है।
लेकिन नाक्षत्रीय ऋतुबद्ध नही है। वेदों में संवत्सर को प्रजापति कहा है। और वसन्त विषुव को संवत्सर की आत्मा माना है।
अतः वैदिक परम्परानुसार नाक्षत्रीय संवत्सरारम्भ का प्रथम मास बदलता रहता है। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति से आरम्भ होता है। विक्रम संवत 
प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक मास आगे खिसक जाता है। और प्रत्येक ४२९६ वर्ष में एक ऋतु आगे खिसक जाता है।
मतलब  (२८५ ईस्वी को २२ मार्च को) विक्रम संवत ३४२ वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति के साथ आरम्भ होता था। वर्तमान में लगभग २४ दिन आगे बड़ गया है और १४/१५ अप्रेल से आरम्भ होता है। ईस्वी सन २४३३ में यह सायन वृष संक्रान्ति २० अप्रेल से आरम्भ होने पर इसे निरयन मीन संक्रान्ति से आरम्भ किया करना होगा। अन्यथा मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में विक्रम संवत आरम्भ होगा। और ईस्वी सन ४५८१ में यह सायन मिथुन संक्रान्ति २१ मई से आरम्भ होगा। तदनुसार मालवा प्रान्त में  ग्रीष्म ऋतु के मध्य में प्रारम्भ में और ब्रह्मावर्त एवम् उत्तरी आर्यावर्त्त में ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ मे विक्रम संवत आरम्भ होगा। इसलिए संवत्सर को ऋतुबद्ध रखने के लिए प्रत्येक २१४८ वर्ष में एक नाक्षत्रमास पीछे करना पड़ता है।
अलग अलग नक्षत्रों का प्रथम नक्षत्र होने और अलग अलग महिनों को प्रथम मास होने के प्रमाण वैदिक साहित्य में भरपूर है।
लगभग २५७८० वर्ष में यह पूनः वसन्त विषुव से आरम्भ होने लगता है। लेकिन  कलियुग संवत एक वर्ष अधिक हो जायेगा और विक्रम संवत एक वर्ष कम रह जायेगा। कलियुग संवत २९१६६ में विक्रम संवत २६१२१ होगा। अन्तर ३०४५ वर्ष का हो जाएगा जबकि आज ३०४४ वर्ष का अन्तर है।
इसमें विक्रम संवत के साथ मेष, वषभादि मास (या पञ्जाब-हरियाणा में वैशाख, ज्यैष्ठादि मास) के साथ सूर्य की निरयन संक्रान्ति गत दिवस (गते) दर्शाया जाता है। सप्ताह के वार दर्शाते हैं।

इस वर्ष विक्रम संवत २०७९ का प्रारम्भ १४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे नाक्षत्रीय वर्षारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति से होगा। तथा व्यवहार एवम् संकल्प में १५ अप्रेल २०२२ शुक्रवार वैशाखी से विक्रम संवत २०७९ का आरम्भ होगा।
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४  निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष ---- शकाब्द

आपने देखा प्रत्येक संवत्सर आरम्भ कर्ता नवीन प्रणाली लागू करता है। युधिष्ठिर ने शुद्ध सायन सौर वर्ष को बदल कर सायन सौर संक्रान्तियों से सम्बन्धित चान्द्र मासों वाला संवत्सर लागू किया। ऐसे ही सम्राट विक्रमादित्य ने सायन सौर संवत्सर के स्थान पर नाक्षत्रीय वर्ष वाला निरयन सौर संवत्सर लागु किया।
विक्रमादित्य के १३५ वर्ष बाद विक्रम संवत १३६ के आरम्भ में पेशावर के कुषाण वंशीय क्षत्रप कनिष्क ने मथुरा विजय के उपलक्ष्य में मथुरा और उत्तर भारत में नाक्षत्रीय संवत आधारित चान्द्र संवत शकाब्द लागू किया। लगभग उसी समय पैठण महाराष्ट्र के सातवाहन राजा गोतमिपुत्र सातकर्णी ने महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलङ्गाना, और मध्य भारत में नाक्षत्रीय संवत आधारित चान्द्र संवत  शकाब्द लागू किया।
शकाब्द विक्रम संवत का अनुगामी है इसके मास निरयन सौर संक्रान्तियों पर आधारित हैं। अर्थात शकाब्द का आरम्भ निरयन मीन संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति के बीच होनें वाली अमावस्या के समाप्ति समय से होता है। यदि निरयन मीन मास में दो अमावस्या पड़े तो (बादवाली) दूसरी अमावस्या समाप्ति के समय से शकाब्द आरम्भ होता है। और पहले वाला चान्द्रमास अधिक माना जाता है। तथा दुसरा चान्द्रमास चैत्र मास कहलाता है। संकल्पादि में और व्यवहार में शकाब्द का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है।
शकाब्द का आरम्भ सदैव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नही होता है।  युधिष्ठिर संवत के समान ही आरम्भ का चान्द्रमास बदलता रहता है, 
इस वर्ष शकाब्द १९४४ का प्रारम्भ ०१ अप्रेल २०२२ शुक्रवार को पूर्वाह्न ११:५३ बजे अमान्त फाल्गुन अमावस्या समाप्ति समय से होगा। तथा व्यवहार और संकल्प में दिनांक ०२ अप्रेल २०२२ शनिवार को सूर्योदय से शकाब्द १९४४ का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होगा।
नाक्षत्रीय विक्रम संवत पर आधारित होनें के कारण विक्रम संवत के समान ही शकाब्द भी ऋतु आधारित संवत नही है।
प्रत्येक २१४८ वर्ष में शकाब्द का आरम्भ भी विक्रम संवत के समान ही एक मास पीछे खिसक जाता है। और प्रत्येक ४२९६ वर्ष में एक ऋतु पीछे खिसक जाता है।
मतलब शकाब्द २०७ (२८५ ईस्वी को २२ मार्च को) यह वसन्त विषुव सायन मेष संक्रान्ति के साथ आरम्भ होता था। वर्तमान में लगभग २४ दिन आगे बड़ गया है। ईस्वी सन २४३३ में यह सायन वृष संक्रान्ति २० अप्रेल से आरम्भ होगा इसलिए इसे फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ करना पड़ेगा। अन्यथा मालवा प्रान्त में ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में शकाब्द आरम्भ होगा। और ईस्वी सन ४५८१ में शकाब्द सायन मिथुन संक्रान्ति २१ मई से आरम्भ होने लगेगा; मालवा प्रान्त में  ग्रीष्म ऋतु के मध्य में प्रारम्भ होगा और ब्रह्मावर्त एवम् उत्तरी आर्यावर्त्त में ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ मे शकाब्द आरम्भ होगा। अतः एव शकारम्भ माघ शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ करना होगा।
 अतः हर २१४८ वर्ष में विक्रम संवत के अनुसार ही एक-एक मास आगे से संवत्सर आरम्भ करना होता है। वैदिक साहित्य में इसके भरपूर प्रमाण हैं।
लगभग २५७८० वर्ष में यह पूनः वसन्त विषुव से आरम्भ होने लगता है। लेकिन युधिष्ठिर संवत एक वर्ष अधिक हो जाता है और शकाब्द  एक वर्ष कम रह जाता है।
इसमें चैत्र, वैशाख आदि मासों की तिथियाँ दर्शाई जाती है। साथ ही सप्ताह के वार और चन्द्रमा की १३°२०' के निश्चित भोगांश वाले सत्ताईस नक्षत्र सूर्य चन्द्रमा के निरयन भोगांशो के योग को सत्ताईस से विभाजित कर तदनुसार योग एवम् तिथ्यार्ध करण दर्शाते हैं। इन पाँचों को मिलाकर पञ्चाङ्ग कहलाती है।
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५  शुद्ध चान्द्र वर्ष ---- भारत और सनातन धर्म मे अप्रचलित है। (केवल इस्लामी क्षेत्रों में प्रचलित है।)

भारतवर्ष और सनातन धर्म में ३५४.३६७०६८ दिन का शुद्ध चान्द्र वर्ष अप्रचलित है। यह केवल सऊदी अरब और इस्लामी राष्ट्रों में ही मोहर्रम आदि मासों के साथ हिजरी सन नाम से  प्रचलित है।
इसमें न कोई अधिक मास होता है न क्षय मास। अत: शुद्ध चान्द्र वर्ष ऋतुओं से पूर्णतः असम्बद्ध है।
शुद्ध चान्द्र वर्ष युधिष्ठिर संवत और शकाब्द के माहों की तुलना में तीन वर्ष में माह पीछे हो जाता है। और छः वर्ष में एक ऋतु पीछे हो जाता है। एवम् तैंतीस वर्ष में पूरा एक वर्ष अधिक हो जाता है।
मुस्लिम देशों में मोहर्रम से आरम्भ होता है।
कल्प संवत को नाक्षत्रीय संवत मानकर अहर्गण प्राप्त कर ३५४.३६७०६८ दिन का भाग देने पर शेष बचे माह के अनुसार शुद्ध चान्द्र वर्ष का प्रथम मास मोहर्रम आता है। लेकिन यदि अरबी में इन मोहर्रम आदि के अर्थ देखें तो रबिउल अव्वल अर्थात वसन्त का प्रथम मास और रबिउल उस्सानी यानी वसन्त का दुसरा मास। तदनुसार ये सायन सौर मास रहे होंगे। जिन्हें बाद में शुद्ध चान्द्र वर्ष के माह मान लिया गया।
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६  सावन वर्ष --- अप्रचलित
सावन वर्ष ३६० दिन का होता था‌। लेकिन या तो इसे वसन्त विषुव से जोड़ कर शेष पाँच छः दिन का अवकाश रखकर यज्ञादि धार्मिक कर्म और क्रीड़ा, नाट्य, पुराण श्रवण आदि में व्यतीत किया जाता था जो आज भी पारसियों में प्रचलित है। और गुजरात में भी दीपावली (वर्षान्त) की पूजा कर सौभाग्य पञ्चमी तक पाँच दिन पूर्ण अवकाश रखते हैं। या 
प्रति पाँच वर्ष में अधिक मास करके उस अवधि को उपर्युक्त कार्यों में व्यतीत किया जाता था।
जैसा कि, लगधाचार्य के वेदाङ्ग ज्योतिष में बतलाया है।
वर्तमान में यह संवत अब कहीँ भी प्रचलित नही है।
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सोमवार, 21 मार्च 2022

होली - नव सस्येष्टि और धुलिवन्दन तथा रङ्गोत्सव

होली मनाने का पारम्परिक तरीका प्रतिकात्मक रह गया है। सही ढङ्ग से वैदिक परम्परा में नव सस्येष्टि और वसन्तोत्सव के रूप में मनती थी। अब केवल प्रतिकात्मक रूप से वही सब होता है।

वैदिक यूग में अन्तिम मास मे अर्थात सायन मीन संक्रान्ति से संवत्सर आरम्भ दिवस सायन मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के दुसरे दिन से अन्तिम चान्द्रमास आरम्भ होता था। इस अन्तिम चान्द्र मास की पूर्णिमा को यज्ञबेदी में समिधाएँ जमाकर अन्वाधान किया जाता था। और दुसरे दिन प्रतिपदा में होने वाले सामुहिक यज्ञ अर्थात इष्टि के समय नवान्नेष्टि यानी नव सस्येष्टि की जाती थी।

सम्पूर्ण ग्राम वासी एक ही स्थान (होली टेकरी) पर नवीन फसल यव (जौं), गेहूँ, आदि अन्न का यज्ञ सामग्री के साथ हवन करते थे। फिर अपनी फसल का एक भाग यज्ञ भाग के रूप में ब्राह्मणों की संस्था/ गुरुकुल आदि के लिए, एक भाग राज्य के कोष में लगान के रूप में। एक भाग संकट काल के लिए ग्राम प्रमुख के अनुसार ग्रामीण भाण्डार में जमा होता। कुछ अनाज कुम्हार, बढ़ाई, लोहार आदि शुद्रों (सर्विस सेक्टर में कार्यरत) लोगों को आवण्टन होता था, इसे यज्ञभाग वितरण कहते थे। ऐसी ही नव धान्येष्टि अग्रहायण पर्व पर भी होती थी।

धूलि वन्दन कर धूल और यज्ञ की भूत का तिलक कर सामुदायिक उत्सव मनाया जाता, कुछ लोग जो मिट्टी से स्नान करते उन्हें सब मिलकर कीचड़ से स्नान करवाया जाता। 
फिर सामुहिक भोज होता, घुड़दौड़, पशुओं की दौड़, बैलगाड़ी दौड़, मल्ल, अग्नि में दौड़ना आदि क्रीड़ा होती थी।

वसन्तोत्सव के रूप में पलाश पुष्प अर्थात टेसु के फूल / किंशुक कुसुम से केसरिया रङ्ग बना कर रङ्ग खेला जाता था।अलग अलग ग्रामों में अलग अलग दिन पड़ोसी ग्राम वासी जाकर रङ्ग खेलते। वसन्तोत्सव मनाते थे। नव वर्ष के यज्ञ के लिए होली से ही अग्नि लाकर घरों में स्थापित की जाती थी। यज्ञ समापन दिवस को भी रङ्गोत्सव होता था।


प्रतिकात्मक रूप से आज होली में गेहूँ की बाली सेकी जाती है। पहले लोग होली से अङ्गारे भी लाते थे। रङ्ग आज भी खेलते हैं। सैल आज भी होती है। सैल में बच्चे और युवा खेलते भी हैं।

कुछ स्थानों पर यह आठ दिन, कुछ स्थानों पर सात दिन और कुछ स्थानों पर पाँच दिवसीय कार्यक्रम था। पाँचवे, सातवें या आठवें दिन होली ठण्डी करना मतलब यज्ञ समापन कर रंगोत्सव मनाया जाता था।
आज भी महाराष्ट्र तथा  मध्य प्रदेश के मराठा शासित क्षेत्र इन्दौर, उज्जैन, देवास, धार, ग्वालियर में रङ्ग पञ्चमी को, गुजरात और गुजरात से लगे मध्यप्रदेश के धार जिले के पश्चिमी भाग, और झाबुआ में शील सप्तमी और राजस्थान तथा राजस्थान से लगे मध्यप्रदेश में शीतलाष्टमी को होली ठण्डी कर रङ्गोत्सव मनाते हैं।
इसके पीछे सूर्य रश्मियों के सतरङ्गों को विष्णु के रङ्ग अवतार की कथा भी जुड़ी है। विष्णु भगवान ने सर्वप्रथम धुलेण्डी को धुलिवन्दन कर रङ्गावतार धारण किया था। अतः सप्तरङ्ग से सप्तमी और पचरङ्गी से पञ्चमी को रङ्गोत्सव मनाया जाता है।
दशमी तिथि पर दशा पूजन भी मूलतः वर्षान्त के पञ्च दिवसीय यज्ञ में वर्ष में स्वयम् द्वारा किए गये शुभाशुभ कर्मों का लेखा (बेलेंस शिट) तैयार कर अपनी गलतियों को सुधारनें  और अच्छाइयों को बढ़ानें के दृढ़ निश्चय का दिन दशापूजन है।
इसके साथ ही पञ्च दिवसीय उत्सव आरम्भ होता था।
पारसियों में यह प्रथा आंशिक रूप में आज भी प्रचलित है। गुजरात में दिवाली दीपावली के बाद का पञ्चदिवसीय अवकाश भी इसी का प्रतीक है।
वहाँ दीपावली को संवत्सर पूर्ण होता है।

शनिवार, 12 मार्च 2022

वैदिक नव संवत्सर आरम्भ विमर्श।

वैदिक नव संवत्सर स्पष्टीकरण

वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, श्रोतसुत्रों, गृह्य सुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, रामायण-महाभारत आदि इतिहास और पुराणों में जिन मास और दिनों का वर्णन है वह सायन सौर संवत्सर,सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित है। अर्थात सायन सौर संक्रान्तियों पर से आरम्भ होनेवाले मधुमाधवादि मासों पर आधारित, सायन सौर सूर्य के अंश/ या संक्रान्ति गते आधारित, दशाह के वासर आधारित है। इसके साथ ही  सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर के मास और तिथियों के अनुसार ही बतलाये हैं। है। 
(सुचना - पुराणों की रचना के समय सप्ताह को मान्यता मिली। इसके पहले सप्ताह प्रचलित नही था दस दिन का दशाह ही प्रचलन में था।) 
क्योंकि वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों, सुत्रों, स्मृतियों, रामायण-महाभारत आदि इतिहास और पुराणों में संवत्सर और मासों को ऋतुओं से सम्बद्ध बतलाया गया है।  सभी व्रत, पर्व और उत्सवों का वर्णन ऋतु आधारित है।
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कृपया निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान दीजिएगा---
संवत्सरारम्भ वसन्त ऋतु में ही होना चाहिए।
श्री राम जन्म वसन्तऋतु में हुआ था।
कोकिला वृत ग्रीष्मान्त और वर्षा ऋतु के आरम्भकाल से सम्बन्धित है।
हरियाली अमावस्या , हरियाली तीज , श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, कुशोत्पाटिनी अमावस्या और यशोदा माता का जलवा पूजन देव झुलनी एकादशी वर्षा ऋतु से सम्बन्धित हैं। 
शारदीय नवरात्र और शरद पुर्णिमा के नाम से ही स्पष्ट है कि यह शरद ऋतु में ही होना चाहिए। इसी कारण वर्षाकाल समाप्त होने पर यात्रा आरम्भ का पर्व दसरा / विजया दशमी (जिसे लोकभाषा मे दशहरा बोलते हैं) मनाया जाता है। 
दीपावली पर किया जाने वाला दीप यज्ञ में (धान सेक कर बनाई गई) साल की धानी, ज्वार और गन्ने का हवन किया जाना; दीवाली के दूसरे दिन बलिप्रतिपदा पर अन्नकूट होना और मार्गशीर्ष मास की अग्रहायणी पूर्णिमा/ अमावस्या को नव धान्य यज्ञ कर यज्ञभाग आवण्टन का पर्व नव धान्य फसल आने पर ही मनाये जाते हैं।
(सायन) मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) को ही सूर्य परम दक्षिण क्रान्ति को प्राप्त हो, भूमि की मकर रेखा पर लम्बवत होता है। ठण्ड में ही जब नये तिल आते हैं, नवीन तिलों का उपयोग आरम्भ होता है। तिल-गुड़ का प्रयोग शिशिर ऋतु / ठण्ड में ही उचित है।  तिलषटा एकादशी भी इसी उपलक्ष्य में मनाई जाती है  
होली पर्व पर नवस्येष्टि यज्ञ होना, खलिहान से नई फसल का गुरुकलों, ऋषियों, ब्राह्मणों को धर्मबलि के रूप में देना ( अर्थात धार्मिक कर अदायगी करना ), राज्य को लगान/ कर देना, और शुद्रों को सेवा शुल्क के रूप में अनाज देकर पुरस्कृत करना इस रूप मे यह यज्ञभाग आवण्टन करने का पर्व है, होली को वसन्तारम्भ का उल्लास उत्सव, धुलोत्सव, रङ्गोत्सव, वसन्तोत्सव भी वसन्त ऋतु के आरम्भ में ही मनाया जाता है। उक्त उदाहरणों से सिद्ध है कि, व्रत, पर्व और उत्सव ऋतु आधारित होते हैं।
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यदि परम्परागत पञ्चाङ्ग चलती रही तो ११०२७ ईस्वी के बाद
गुड़ी पड़वा हेमन्त ऋतु में आयेगी।
होली वर्षा ऋतु में आयेगी।
निरयन मकर संक्रान्ति वर्षा ऋतु में पड़ेगी।
अग्रहायण वसन्त अन्त ग्रीष्म आरम्भ मे होगा।
जन्माष्टमी हेमन्त ऋतु (ठण्ड के आरम्भ) में आयेगी।
शारदीय नवरात्र, दसरा, शरद पूर्णिमा, दीपावली  शिशिर ऋतु के अन्तिम माह (कड़ाके की ठण्ड) में आयेगी।
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इससे सिद्ध है कि,
संवत्सर आरम्भ, वैदिक अयन (पौराणिक गोल), वैदिक तोयन (पौराणिक अयन), ऋतुएं और वैदिक मधु-माधवादि मास ३६५ दिन ०५ घण्टे ४८ मिनट ४५.६ मिनट अर्थात (३६५.२४२१९० दिन) वाले सायन सौर वर्ष से ही सिद्ध होती है। इसी प्रकार; सूर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त, लग्नारम्भ साधन,  ख स्वस्तिक साधन (दशम भाव स्पष्ट), भाव स्पष्ट साधन, सूर्य ग्रहण-चन्द्र ग्रहण साधन, ग्रह लोप- दर्शन साधन, अगस्तादि तारा उदयास्त साधन, ग्रहों का वक्री-मार्गी और उदयास्त साधन आदि समस्त गणनाएँ केवल सायन गणना से ही सिद्ध होती है। 
उक्त किसी भी गणना में ३६५ दिन ०६ घण्टे ०९ मिनट, ०९.८ सेकण्ड वाले अर्थात ३६५.२५६३६३ दिन वाले नाक्षत्रीय वर्ष / निरयन सौर वर्ष गणना का किञ्चित मात्र भी उपयोग नही है।
केवल नाग पञ्चमी का सम्बन्ध आर्द्रा नक्षत्र पर सूर्य होने से सम्बंधित है और शिवरात्रि के वर्णन में ही व्याघ (बहेलिया) द्वारा मृगशीर्ष नक्षत्र के ताराओं और व्याघ तारा को रातभर देखने का वर्णन है। अन्य किसी व्रत, पर्व, उत्सव में नाक्षत्रीय गणना उपयोगी नही है।
नक्षत्रों के साथ ग्रहों की युति या नक्षत्र योगतारा से १८०° पर ग्रह होने (दृष्टि) के आधार पर संहिताओं और जातक शास्त्र/ होरा शास्त्र (फलित ज्योतिष) में ही नाक्षत्रीय गणना/ निरयन पद्यति का उल्लेख है। अन्यत्र कहीं नही। मतलब निरयन गणना का प्रचलन होरा स्कन्द/ जातक शास्त्र / फलित ज्योतिष के विकास के साथ हुआ पहले नही था।
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अस्तु 

कलियुग संवत ५१२३ का शुभारम्भ २१ मार्च २०२२ सोमवार से होगा।(संकल्पादि मे प्रयुक्त होगा।)

वैदिक नव संवत्सरारम्भ, वैदिक उत्तरायण आरम्भ / (पौराणिक उत्तरगोल आरम्भ), ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त्त में वसन्त ऋतु आरम्भ, कलियुग संवत ५१२३ का प्रारम्भ, वसन्त विषुव, सायन मेष संक्रान्ति दिनांक २० मार्च २०२२ रविवार को २१:०३ बजे होगा। 
इस दिन देवताओं का सूर्योदय होगा, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होगा। दक्षिणी ध्रुव पर सूर्यास्त होगा, असुरों का सूर्यास्त होगा।

चूंकि, संकल्पादि में वर्तमान काल का उच्चारण होता है और संक्रान्ति सूर्योदय पश्चात संक्रान्ति होगी इस कारण  संकल्पादि में कलियुग संवत ५१२३ का प्रयोग २१ मार्च २०२२ सोमवार को सूर्योदय से होगा। 
इन्दौर में २१ मार्च २०२२ सोमवार को मध्याङ्ग सूर्योदय ०६:३४ बजे होगा।
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सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ दिनांक ०२ मार्च २०२२ बुधवार को २३:०६ बजे से सायन मीन संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति समय (२३:०६ बजे)  होगा। 

लेकिन संकल्प में वर्तमान समय लिया जाता है अतः व्यवहार में सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र संवत्सर युधिष्ठिर संवत ५१२३ का आरम्भ दिनांक ०३ मार्च २०२२ गुरुवार से संकल्पादि में आरम्भ होगा ।
सामान्यतः यह संवत ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। और अधिक मास वाले वर्ष में यह संवत ३८३.८९७६५७ दिन का होता है।
प्रायः बत्तीस से अड़तीस मास पश्चात अधिक मास होता है।
 
सुचना - इस गणना में संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित चैत्रादि मासो में से निश्चित मास में नही होते हुए लगभग २१४८ वर्ष में एक-एक मास आगे खिसकता जाता है। तदनुसार ईस्वी सन २४३३ में इस संवत्सर का आरम्भ वर्तमान प्रचलित फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा। 
इस गणना पर आधारित एकमात्र पञ्चाङ्ग ग्रेटर नोएडा उत्तर प्रदेश के आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश कृत श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् का परिचय आलेख के अन्त में दिया है। इस गणना के अनुसार कोई और पञ्चाङ्ग नही निकलती है।
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नाक्षत्रीय नव संवत्सर आरम्भ/ विक्रम संवत २०७९ आरम्भ पञ्जाब हरियाणा, जम्मु, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखण्ड के कुछ भागों में वैशाखी/ निरयन मेष संक्रान्ति गुरुवार १४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे होगा। 
इस समय सूर्य के केन्द्र से देखने पर इस दिन (१४ अप्रेल २०२२ गुरुवार को पूर्वाह्न ०८:४० बजे)  भूमि चित्रा तारे के ठीक सामने दिखेगी। तदनुसार भूमि के केन्द्र से देखने पर सूर्य चित्रा नक्षत्र के योग तारे से १८०° पर दिखेगा।

सूर्योदय पश्चात आरम्भ होने से संकल्पादि में पञ्जाब-हरियाणा, दिल्ली, हिमालय प्रदेश, जम्मु, और उत्तराखण्ड के कुछ भाग में विक्रमादित्य राज्यारोहण संवत/ विक्रम संवत २०७९ का प्रयोग दिनांक १५ अप्रेल २०२२ शुक्रवार के सूर्योदय से होगा। 
इन्दौर में मध्याङ्ग सूर्योदय ०६:१० बजे होगा।

सुचना - उक्त नाक्षत्रीय संवत्सर ऋतु आधारित नही है। चित्रा तारे से १८०° पर स्थित एक निश्चित तारे  से आरम्भ होकर उसी तारे पर (Fixed star) पूर्ण होनें के कारण इस संवत्सर का नाम नाक्षत्रीय वर्ष (Sidereal year) कहलाता है। किन्तु वर्तमान में आकाश में उस बिन्दु फर कोई तारा (Star) नही है। 
इस गणना का उपयोग यह है कि, सूर्य चन्द्रमा एवम् कोई ग्रह किस नक्षत्र में भ्रमण कर रहा है यह केवल नङ्गी आँखों से देखा जा सकता है। 
यह संवत ऋतु आधारित नहीं है। प्रत्येक २१४८ वर्ष में कलियुग संवत से एक मास बाद आरम्भ होता है।
तदनुसार ४२९६ वर्ष में यह एक ऋतु आगे आरम्भ होता है।
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निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शक नववर्षारम्भ शकब्द १९४४ का प्रारम्भ ०१ अप्रैल २०२२ शुक्रवार को पूर्वाह्न ११:५३ बजे से हो जायेगा।
किन्तु संकल्पादि में प्रयोग दिनांक ०२ अप्रेल २०२२ शनिवार को सूर्योदय से होगा। 
इन्दौर में सूर्योदय ०६:२२ बजे होगा।
सामान्यतः यह संवत ३५४.३६७०६८ दिन का होता है। और अधिक मास वाले संवत में यह ३८३.८९७६५७ दिन का होता है।
प्रायः बत्तीस से अड़तीस मास पश्चात अधिक मास होता है।
 सुचना - उक्त शकाब्द संवत्सर ऋतु आधारित नही है। इसका आरम्भ सदा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। शकाब्द का प्रचलन (मथुरा एवम्) उत्तर भारत में कनिष्क ने और (पैठण तथा) मध्य भारत और महाराष्ट्र कर्नाटक में गोतमिपुत्र सातकर्णी द्वारा प्रारम्भ किया गया। वर्तमान प्रचलित सभी पञ्चाङ्ग इसी गणना पर आधारित निकलती है।
यह संवत ऋतु आधारित नहीं है। प्रत्येक २१४८ वर्ष में युधिष्ठिर संवत से एक मास बाद आरम्भ होता है।
तदनुसार ४२९६ वर्ष में यह एक ऋतु आगे आरम्भ होता है।
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शुद्ध चान्द्र संवत्सर भारत में और सनातन धर्म में प्रचलित नही है।
सिद्धान्त ग्रन्थोक्त निरयन सौर (नाक्षत्रीय) कल्प संवत के अहर्गण निकालकर शुद्ध चान्द्रवर्ष की अवधि ३५४.३६७०६८ दिन का भाग लगाकर शेष दिनों को भुक्त मास- तिथ्यादि मानकर गणना करनें पर भी प्रथम मास अरबी कमरी मास मोहरम ही आया। इसी अहर्गण से सप्ताह का वार भी ठीक बैठता है।
अतः मोहरम मास को प्रथम मास मान कर मोहर्रम मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुद्ध चान्द्र संवत्सर आरम्भ माना जा सकता है। लेकिन भारत में सनातन धर्म में इस प्रकार का कोई संवत्सर प्रचलित नही है। अतः इसके अधिक विवेचन की आवश्यकता भी नही है।
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सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर पञ्चाङ्ग परिचय।
द्वारका के शारदामठ के शंकराचार्य जी ने इन्दौरी पञ्चाङ्ग के सम्पादक श्री वीसा जी रघुनाथ लेले को  सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र मास के पक्ष में सम्मति प्रदान कर इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी में प्रस्तुत करने हेतु विक्रम संवत १९४९, शके १८१४ (ईस्वी सन १८९३ में) फाल्गुन कृष्णाष्मी को दी थी। उक्त कमेटी के अध्यक्ष श्री वि.भु. दीनानाथ शास्त्री चुलैट थे। 
मुम्बई और पुणें में पञ्चाङ्ग शोधन समितियों में भी कई बार सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र मास के पक्ष में मत प्रस्तुत किये गये थे। 
भारत शासन द्वारा स्थापित केलेण्डर रिफार्म कमेटी के अध्यक्ष श्री एम.एन. साहा भी सायन सौर संवत्सर और मासों के पक्ष मे़ं ही थे।
लेकिन प्रचलित पञ्चाङ्गकारों की आर्थिक लॉबी ने इन प्रयासों पर पानी फेर दिया।
सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर का प्रचलन शकारम्भ तक रहा था। कुशाण वंशीय राजा कनिष्क द्वारा मथुरा क्षेत्र और उत्तर भारत में तथा सातवाहन राजा गोतमिपुत्र सातकर्णी द्वारा पैठण महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य भारत में शकाब्द लागु किया। इसके पश्चात सायन संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर, मास और चान्द्र संवत्सर वाली पञ्चाङ्ग अप्रचलित हो गई थी। 
लगभग एक हजार नौ सौ वर्ष बाद काशी वाराणसी के बापु शास्त्री ने सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर वाला पञ्चाङ्ग जारी किया लेकिन लोक प्रचलित नही होने से उन्हें अपना मत परिवर्तन करना पड़ा। महाराष्ट्र में व्यंकटेश बापूजी केतकर ने भी वैजन्ती ग्रन्थ में सायन गणनानुसार पञ्चाङ्ग का समर्थन किया किन्तु बाद में मत परिवर्तन कर ग्रह गणितम की रचना कर निरयन पञ्चाङ्ग का गणित रचा। 
विगत कुछ वर्षों से ग्रेटर नोएडा (उतर प्रदेश) के आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् नाम से सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित संवत्सर और मासों वाली पञ्चाङ्ग प्रकाशित करना आरम्भ कर इसे पुनर्जीवित किया है। इसके लिए वे साधुवाद के पात्र है। इस पञ्चाङ्ग पर आधारित दो-तीन वाल केलेण्डर भी पूणे और बेंगलूर से प्रकाशित होने लगे हैं। दक्षिण भारत में यह पञ्चाङ्ग पर्याप्त लोकप्रिय होने लगा है।
मोहन कृति आर्ष पत्रकम् को श्रङ्गेरी मठाधीश शंकराचार्य स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती जी एवम् ज्योतिर्मठ तथा द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी , स्वामी श्रीमद्गङ्गाधरेन्द्र सरस्वती, शारदापीठ कश्मीर के स्वामी श्री अमृतानन्द देवतीर्थ और का आशीर्वाद और उत्तर कर्नाटक के श्री सोन्द स्वर्णवल्ली महासमर्थ जी (Shri Sonda Swarnavalli Mahasamartham) का आशिर्वाद और अनुमोदन प्राप्त है। तथा आर्यसमाज के आर्ष गुरुकुल, वङ्लुरु ,कामारेड्डी , जिला - इब्दुरु, आन्ध्र प्रदेश का भी पूर्ण समर्थन है।
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 श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम / पञ्चाङ्ग में संवत्सर सायन मीन संक्रान्ति से सायन मेष संक्रान्ति के बीच पड़नें वाली अमावस्या समाप्ति समय से और संकल्पादि में दुसरे दिन प्रतिपदा से आरम्भ होता है। इसके अधिक मास क्षय मास भी सायन संक्रान्तियों पर ही आधारित होते हैं। इसमें नक्षत्र योग ताराओं से आरम्भ कर दुसरे नक्षत्र के योग तारा तक भोग वाले /असमान भोग वाले अट्ठाइस सुक्ष्म नक्षत्र मान्य किये गये हैं। तदनुसार व्यतिपात, वैधृतिपात योग भी सूर्यचन्द्र क्रान्तिसाम्य आधारित योग ही स्वीकार किये गये हैं। ग्रह गणना भी सायन भोगांश ही दिये हैं।