बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

नवरात्र मे देव्याराधन-उपासना में किन किन देवियो के नामोल्लेख मिलते हैं?


देवियों के नामों सुची -- जिनकी पूजा नवरात्र में होती है।

वैदिक दृष्टि से सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का निमित्तोपादान कारण परमात्मा ही है। परमात्मा ने अपने ॐ संकल्प से स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप में प्रकट किया। इसी प्रज्ञात्मा को अध्यात्मिक दृष्टि से परम दिव्य पुरुष और पराप्रकृति कहते हैं और परब्रह्म को विष्णु और माया के आधिदैविक स्वरूप में जानते हैं।

ये विष्णु माया ही प्रथम आदिदेवी हैं। अन्य सभी देवियाँ इन माया देवी के ही अंशभूत स्वरूप हैं। जो क्रमशः (पराप्रकृति) माया -> (प्रकृति) सावित्री-> (अपरा त्रिगुणात्मक प्रकृति) श्रीलक्ष्मी-> (धारयित्व) रचना (वाणी/ब्राह्मी)  -> (आभा) सरस्वती -> (विद्युत) शचि -> (वृति/ चेत) प्रभा -> (मेधा) देवी -> (अस्मिता) उमा -> (संकल्प) शतरूपा -> (स्वभाव) भारती -> (स्वाहा) मही, (वषट) सरस्वती, (स्वधा) ईळा -> तुषिताएँ, मरुताएँ, रौद्रियाँ,-> सिद्धियाँ, रचना और वैनायकी।

तन्त्रशास्त्र का सर्वस्वीकृत प्रामाणिक ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार  भी

 1 मधुकैटभ से रक्षा के लिए नारायण को योगनिद्रा से जाग्रत करने हेतु हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने योगनिद्रा की स्तुति की। नारायण के नैत्रों से योगनिद्रा दशभुजा महाकाली स्वरूप में प्रकट हुई। इन्हें दुर्गासप्तशती में महाकाली अवतार भी कहा है। ये महाकाली (श्रीलक्ष्मी) देवी ही आदि शक्ति मानी गई है।  प्राकृतिक रहस्य में इनके अन्यनाम योगमाया, योगनिद्रा, तामसी और नन्दा (नन्द यशोदाजी की पुत्री / विन्द्यवासीनि देवी) भी कहा है।
अन्य सभी देवियाँ इन्ही आदिशक्ति योगमाया अपरा प्रकृति श्रीलक्ष्मी के ही स्वरूप या अवतार हैं। जो क्रमशः इस प्रका है।

2  महामाया के  परम्परागत प्रचलित स्वरूप - सावित्री देवी, श्री देवी, लक्ष्मी देवी, सरस्वती देवी (ब्राह्मी), उमा - पार्वती (माहेश्वरी) देवी, ऐन्द्री, (कार्तिकेय की शक्ति) कौमारी, तथा अवतारों की शक्ति वाराही और नारसिंही के अलावा निम्नांकित देवियोंका वर्णन है।
3 महिषासुर से रक्षार्थ देवताओं की स्तुति पर देवताओं के तेज के संयुक्तिकरण से प्रकट हुई महालक्ष्मी अवतार। 
दुर्गासप्तशती अध्याय दो मध्यम चरित्र में इनको चण्डिका, अम्बिका, और जगदम्बा भी कहा है। प्राकृतिक रहस्य में रक्त दन्तिका भी महालक्ष्मी अवतार को ही बतलाया गया है। इनकी सहस्त्रों भुजाएँ बतलाई गई है लेकिन मुर्तिरहस्य के अनुसार प्रतिमाओं और चित्रों में  बहुरङ्गी, अष्टादश भुजा वाली बतलाई जाती है। द्वितीय अध्याय मध्यम चरित्र के अनुसार चण्डिका ने तलवार से महिषासुर का सिरकाटा था किन्तु प्रतिमाओं में प्रायः शूल (भाले) से महिषासुर का सीना बिन्धते हुए बतलाते हैं।
महिषासुर वध के पश्चात देवताओं की स्तुति पर भविष्य में भी देवताओं के आव्हान पर प्रकट होकर सहायता का आशिर्वाद प्रदान किया था। अतः
 
4 शुम्भ निशुम्भ से रक्षणार्थ हिमालय पर एकत्र हो देवताओं को पुकार करते देख पार्वतीजी ने देवताओं से पुछा कि, आपलोग किसका स्तवन कर किसको पुकार रहे हैं? तब देवताओं के उत्तर देनें के पूर्व ही पार्वतीजी के शरीर कोश से अत्यन्त गौरवर्ण अति सुन्दर, कौशिकी देवी प्रकट हुई; उन कौशिकी देवी ने ही पार्वतीजी को उत्तर दिया कि, ये स्तुति द्वारा मुझे पुकार रहे हैं। पार्वती जी के शरीर कोश से प्रकट होनें के कारण ही इनका नाम कौशिकी पड़ा।
कौशिकी को दुर्गा सप्तशती अध्याय तीन, पाँच, सात, आठ और ग्यारह तथा प्राकृतिक रहस्य में कात्यायनी, चण्डी, दुर्गा और शाकम्भरी भी कहा गया है।

5 पार्वतीजी के शरीर कोश से कौशिकी के प्रकटीकरण से माता पार्वतीजी एकदम काली पड़ गई। शिवजी उन्हें कृष्णा (कालीका) कहकर चिड़ाते थे। ये चूँकि हिमालय के गड़ में विचरती थी अस्तु गड़कालिका भी कहलाई। इसप्रकार पार्वती देवी का ही नाम कालिका और गड़कालिका हुआ।

6 उक्त कौशिकी चण्डी, कात्यायनी, दुर्गा के आव्हान पर  पूर्व से अस्तित्व में रही निम्नलिखित  देवियाँ कौशिकी चण्डी देवी के शरीर से प्रकट हुई और पुनः उनमें ही लय होगई। ---
(क) दक्षयज्ञ विध्वन्स के लिये शिवजी नें पार्वतीजी की प्रसन्नता के लिए जिन वीरभद्र और भद्रकाली को नियुक्त किया था वे ही भद्रकाली
सप्तमोsध्याय मे - चण्डी देवी के क्रोध से तुरन्त कालीदेवी के रूप में प्रकट हुई। इन कालीदेवी का स्वरूप ऐसा बतलाया गया है मानो अस्थिकंकाल पर चर्म लिपटा हो। ये अत्यन्त काली हैं। इनका मुख अति विशाल और भयंकर है। ये नरमुण्डों की माला धारण करती हैं। इनका शस्त्र तलवार, पाश और खट्वाङ्ग है। और चीते के चर्म की साड़ी पहनतीं हैं। ये रथ सहित दैत्यों का भक्षण कर जाती हैं। इन्हे ही प्राकृतिक रहस्य में  कालरात्रि, निऋति, दुरत्यया, एकवीरा, महामारी, निद्रा,तृष्णा, क्षुधा, तृषा कहा है। ये ही ज्यैष्ठा,  अलक्ष्मी, शीतला (ज्वर) भी कहलाती है। चण्ड मुण्ड की गरदन काटकर उनके मुण्ड चण्डी को भेट करने के कारण चण्डी कौशिकी ने इन्हें चामुण्डा नाम दिया।

7 अष्टमोsध्याय मे- ब्राह्मी (ब्रह्माणी), शिवा (माहेश्वरी), कौमारी (कार्तिकेय जी की शक्ति), नारायणी (वैष्णवी), वाराही, नारसिंही और ऐन्द्री भी सहायतार्थ उपस्थित हुई।

8 अष्टमोsध्याय मे ही-  चण्डिका शक्ति जिन्हें  शुम्भ निशुम्भ के पास शिवजी को  दूत बनाकर भेजने के कारण शिवदूती भी कहा गया है प्रकट हुई। ये चण्डिका शक्ति/ शिवदूती सेकड़ों गिदड़ियों के समान उच्च स्वर निकालती है।ये चौसठ योगिनियों की प्रमुख हे। प्राकृतिक रहस्य मे उल्लेखित भ्रामरी देवी भी ये ही ह़ै। भ्रामरी देवी के छः पेर हैं। 
इस प्रकार दुर्गा सप्तशती में उक्त देवियों के चरित्र वर्णन हैं। इन सबकी आराधना-उपासना नवरात्र में होती है।

देव्य कवच में देवी के  निम्नलिखित नाम  दुर्गासप्तशती में उल्लेखित नामों के अलावा आये हैं।
लेकिन वर्ष 2000 ईसवी के बाद से मिडिया ने ना जानें क्यों  केवल तृतीय से पञ्चम श्लोक तक में उल्लेखित नौ दुर्गा के नामों का महत्व बड़ा दिया है।
"प्रथमम् शैलपुत्री, च द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी, तृतीयम् चन्द्रघण्टेति, कुष्माण्डेति चतुर्थकम् ।3
पञ्चम स्कन्दमातेति, षष्टम कात्यायनीति च,सप्तम कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टकम्।4
नवमम् सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।5"
बिना किसी आधार के देवी के उक्त अलग-अलग नौ नामों को देवी न उक्त अलग-अलग देवियाँ घोषित कर दिया। फिर उन्हें नवरात्र की नौ तिथियों की अलग-अलग तिथियों की अलग अलग पूजनीय देवी घोषित कर दिया गया। इसका सिरपेर आजतक कोई भी नही बतला पाया कि, नौदुर्गा के इन नामों का अलग-अलग तिथियों से क्या सम्बन्ध है? पर जन समान्य नें इसे आँखमून्द कर मान लिया।
कवच में आये देवी के  नाम  ---
1 शैलपुत्री (माहेश्वरी), 2 ब्रह्मचारिणी (ब्रह्माणी), 3 चन्द्रघण्टा (सम्भवतया वाराही), 4 कुष्माण्डा (वैष्णवी), 5 स्कन्दमाता (पार्वतीजी या स्कन्द शक्ति कौमारी), 6 कात्यायनी (लक्ष्मी),7 कालरात्रि (चामुण्डा), 8महागौरी ( कौशिकी), 9सिद्धिदात्री ( ऐन्द्री या वैनायकी) हैं। इनके अलावा भी कवच में निम्नलिखित नाम और उल्लेख हैं। ---
10 स्वाहा (अग्निशक्ति),11 वारुणी, 12 मृगवाहना, 13 शूलधारिणी, 14जया, 15 विजया, 16अजिता, 17 अपराजिता, 18 उद्योतिनी, 19 उमा, 20मालाधरी, 21 यमघण्टा, 22 शंखिनी, 23 द्वारवासिनी, 24 सुगन्धा, 25 चर्चिका, 26 अमृतकला, 27  चित्रघण्टा, 28 कामाक्षी, 29  सर्वमङ्गला, 30 भद्रकाली, 31 धनुर्धरी, 32 नीलग्रीवा, 33 नलकुबरी,  34 खड्गिनी, 35 वज्रधारिणी,  36 दण्डिनी, 37 शुलेश्वरी, 38 कुलेश्वरी, 39 महादेवी, 49 शोकविनाशिनी, 41 ललिता, 42 गुह्येश्वरी, 43 पुतना, 44 कामिका, 45 महिषवाहिनी, 46 भगवती, 47 विन्द्यवासीनी,  48 महाबला, 49 तैजसी, 50 श्रीदेवी, 51 द्रंष्टाकराली, 52 उर्ध्वकेशिनी, 53 कौबेरी, 54 वागीश्वरी, 55 पार्वती,  56 मुकुटेश्वरी, 57 पद्मावती, 58 चूड़ामणि, 59  ज्वालामुखी, 60 अभेद्या, 61 छत्रेश्वरी,  62 धर्मधारिणी, 63  वज्रहस्ता, 64 कल्याणशोभना, 65 योगिनी, 66 नारायणी, 67 वैष्णवी, 68 चक्रिणी, 69 इन्द्राणी, 70 सुपथा, 71 क्षेमकरी नाम  आये हैं।

इनके अलावा कुछ कष्टकारी योनियों के नाम भी आये हैं-- भूचर (ग्रामदेवता), खेचराः (आकाशचारी), जलज,उपदेशिका (उपदेश मात्र से सिद्ध होजाने वाले), सहजा, (जन्म के साथ प्रकट होनें वाले देवता), कुलजा (कुलदेवता), माला (कण्ठमाला), डाकिनी, शाकिनी (शक जाति की), महाबला, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, वैताल, कुष्माण्ड (विनायक), भैरव आदि।

और अर्गलास्तोत्रम्  के प्रथम श्लोक 
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।
की ग्यारह देवियों को कोई महत्व क्यों नही दिया गया? यह भी समझ से परे है। और अष्टोत्तरशतनाम में तो 108 नाम हैं। उनका क्या तर्क। क्या उन्हें नक्षत्र चरण से जोड़ोगे?
वस्तुतः पूरे नवरात्र की सभी नौ तिथियों में उक्त सभी देवियों की पूजा, आराधना, उपासना होती है।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है?

एक भारतीय के विचार

 क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है? 

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे?
 जी हाँ,आद्यशंकराचार्य जी वास्तव में जगत को मिथ्या ही मानते थे।
आद्यशंकराचार्य जी वेदज्ञ थे, वेदिकमतावलम्बी थे अतः उनने निरालम्बोपनिषद का वाक्यांश ब्रह्मसत्यम् जगत्मिथ्या;जीवो ब्रह्म ना परः का उल्लेख अपनी ब्रह्मज्ञानावलिमाला में किया है। 
 जगत जब मिथ्या है तो क्या जगत असत है? 
 उत्तर होगा नही। जगत असत भी नही है।
 यह प्रश्न स्वाभाविक है उत्पन्न होता है कि, प्रत्यक्ष अनुभव होनें वाला जगत असत तो हो नही सकता है। तो मिथ्या कैसे है?
 तो क्या उपनिषद वाक्य गलत है ?
 नही भाई! असत कहाँ कहा है?  मिथ्या कहा है। असत नही कहा।  मिथ्या और असत दो भिन्न अवधारणा है। 
 मिथ्या का तात्पर्य जो जैसा हो नही, वैसा दिखे। जैसा हो वैसा दिखे नही। जो दिखे, यथार्थ में वैसा हो नही। जो हो वह दिखे नही।
जैसे ट्रेन/ बस में यात्रा के समय पथ के किनारे के वृक्ष पीछे भागते दिखते हैं। और दूरस्थ वृक्षावली चाप बनाती हुई प्रतीत होती है।  यह आप भी जानते हैं कि, यह मात्र भ्रम है, यह दृष्य मिथ्या है फिरभी बच्चे उस दृष्य का मजा लेते हैं। और आप हाँ में हाँ मिलाने के बजाय आप उन्हें उसका विज्ञान समझाते हैं।  यही कार्य श्रुति वाक्य के सहारे से शंकराचार्य जी ने किया है।

मिथ्या शब्द असत से भिन्न है। *मिथ्या का मतलब असत्य नही होता।  प्रतीत होने वाली वस्तु असत नही सत्य सी लगती है। जबकि दिक, काल (अर्थात जगत) प्रतिक्षण बदलता रहता है। और हम अपने मस्तिष्क की मेधाशक्ति के बलपर उस सतत् परिवर्तनशील दिककाल (जगत) में सातत्य अनुभव करते हैं। बदलनें के पहले हम उस दृष्य को स्मृति में बिठा चुके होते हैं। यह इतना तिवृ और स्वाभाविक होता है कि, हम उसे अपना कर्म नही मान पाते हैं। यह प्रतीति है यही मिथ्यात्व है।
जगत हर क्षण बदल जाता है लेकिन उसमें सातत्य आभास के कारण वह सत्य भासता है अतः जगत मिथ्या ही है।
जैसे सिनेमा की रील को देखो तो उसमें दृष्य अनेक खण्ड में विभक्त है। क्योंकि, केमरा जड़ है, उसका कोई संस्कार नही है अतः केमरा प्रति क्षण के अलग अलग चित्र पकड़ता है। लेकिन जब मशीन से निर्धारित समय एक सेकण्ड में लगभग सोलह दृष्य क्रमबद्ध आँखों के सामने से गुजरते हैं तो वे हमें  चलायमान भासित  होते है। जबकि वे सब स्थिर और अलग अलग दृष्य हैं। इसीको मिथ्या कहते हैं। 
वेदान्त की भाषा में न रज्जु असत्य है न सर्प असत्य है  लेकिन अल्प प्रकाश की स्थिति में होने वाला सर्परज्जु भ्रम मिथ्या है।
 परमात्मा को ही जगत का निमित्तोपादान कारण कहने वाले, माया को विष्णु की शक्ति और विष्णु के अधीन बतलाने वाले, माया को सत असत अनिर्वचनीय कहने वाले, जीवो ब्रह्म न परः कहकर अद्वैत प्रतिपादित करनें वाले आद्यशंकराचार्य जी जगत को असत कहें यह सम्भव तो नही । जैसे सत्य और ऋत अति निकट होने के कारण कई विद्वान भी ऋत को सत्य मान बैठते हैं वैसे ही मिथ्या भ्रम के निकट का शब्द है। 
 हाँ यह निश्चित है कि माया समय का कारण विष्णु है अतः वे त्रेतवादियों के समान शंकराचार्य जी माया को अनादि अनन्त नही मानते थे। अर्थात जगत को भी अनादि, अनन्त नही मानते थे।
 शंकराचार्य जी के मत मे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नही और परमात्मा तो परम सत्य है और जब परमात्मा ही जगतरूप में प्रकट हुआ तो परमात्मा का जगतरूप असत कैसे हो सकता है? लेकिन इसकी परिवर्तनशीलता के कारण यह मिथ्या भी है। 
 दृष्यमान परिवर्नशील जगत के दृष्यों में लगाव रखना तो अनुचित ही है ना? अतः इस अनुचित वर्ताव से सावधान करनें हेतु जगत का मिथ्यात्व दर्शाना आचार्य का महत्वपूर्ण कार्य था।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

आश्विन शुक्लपक्ष के तिथि, व्रतपर्वोत्सव निर्णय। निर्णय सिन्धु के अनुसार।

निर्णयसिन्धु के द्वितीय परिच्छेद /  आश्विन शुक्लपक्ष/ नवरात्र आरम्भ निर्णय प्रकरण पृष्ठ 330 
तिथितत्त्व में और देवीपुराण में भी कहा है कि - प्रातःकाल में देवी का आवाहन करे। प्रातःकाल में ही प्रवेश करे। प्रातःकाल में ही पूजन करे और प्रातःकाल में ही विसर्जन करे।
प्रष्ठ 331 लल्ल ने कहा है कि,  तिथि ही शरीर है, तिथि ही कारण है, तिथि ही प्रमाण है और तिथि ही साधन है।
पृष्ठ 334  नवरात्र में तिथि क्षय होने के कारण  आठ रात होने मे दोष नही है।
प्रकरण - कलशस्थापनम् रात्रो न कार्यम्। पृष्ठ 335 
 मत्स्य पुराण का कथन है कि, --- कलशस्थापन रात्रि में न करे।
रात्रि में कलश स्थापना और कुम्भाभिषेचन नही करना चाहिए।
विष्णुधर्म में कहा है कि, सूर्योदय से आरम्भ कर दशनाड़ी (दस घड़ी) तक (अर्थात चार घण्टा के अन्दर ही)  स्थानारोपण आदि करें। स्थानारोपण आदि के लिए प्रातःकाल कहा है।
पृष्ठ 345 
यदि नवरात्र पूजन का संकल्प ले चुके हो और उसके बाद जन्म, मरण अशोच (सूतक) लगने पर भी नवरात्र पूजन दानादि यथावत जारी रखें। किन्तु रजस्वला स्त्री दूसरे से पूजन करावे।
हेमाद्रि व्रत खण्ड में गरुड़ पुराण का वचन है कि, 
सौभाग्यवती स्त्रियों को नवरात्र में गन्ध, अलंकार,  ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन की अनुमति है। सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा नवरात्र में गन्ध, अलंकार,  ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन से उपवास दूषित नही होता है।
पृष्ठ346   निर्णयामृत में देवी पुराण का वचन है कि, शिष्टमत यह है कि,
आश्विन शुक्ल पक्ष के मूल नक्षत्र के आद्यपाद में दुर्गासप्तशती पुस्तक में सरस्वती का स्थापन करे। पूर्वाषाढ़ा में पूजन करे। उत्तराषाढ़ा में बलि दे (धार्मिक कर अदा करे।) तथा श्रवण नक्षत्र के प्रथम पाद में सरस्वती का विसर्जन करे।
पृष्ठ 347 विद्यापति का लिखित वचन है कि, देवता का शरीर तिथि है।और तिथि में नक्षत्र आश्रित है।इसलिए। तिथि की प्रशंसा करते हैं। तिथि के बिना नक्षत्र की प्रशंसा नही करते हैं।
यही बात देवल ने कही है कि, तिथि तथा नक्षत्र के योग में दोनों ही का पालन करे। दोनों का योग न हो तो देवी पूजनकर्म में तिथि को ही ग्रहण करना चाहिए।
पृष्ठ 347 हेमाद्री में कहा है कि, 
प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करनें में असमर्थ हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों में त्रिरात्र मे उपवास करें।
पृष्ठ 349 गोविन्दार्णव में देवीपुराण का मत है कि, नवरात्र करनें मैं अशक्त हो तो त्रिरात्र (सप्तमी, अष्टमी, नवमी) या एकरात्र (केवल नवमी तिथि)  को जो भक्त करता है उसे इच्छित फल देती हूँ।
मुर्तिस्थापनेदिकविचारः   प्रकरण  पृष्ठ 350
दुर्गा भक्ति तरङ्गिणी में देवी पुराण का मत है कि, देवी मुर्ति स्थापना में दक्षिणाभिमुखी दुर्गा की मुर्ति सदा स्थापना के लिए उत्तम है। तथा उत्तराभिमुखी दुर्गा की मुर्ति स्थापना न करे।
पृष्ठ 354 355 शरदकाल में नवमीतिथि से युक्त महाअष्टमी पूज्य होती है। सप्तमी युक्त अष्टमी तिथि नित्य शोक तथा सन्ताप करनें वाली होती है।पुत्र पौत्र, पशुओं और राज्य का नाश करती है।  
घटिका मात्र भी औदयिकी अष्टमी तिथि ग्रहण करें।
देवल ने भी कहा है कि, व्रत और उपवास में एक घड़ी भी उदिया तिथि ग्रहण करें।
मदनरत्न का वचन है कि, अष्टमी तिथि में सूर्योदय होने पर तथा दिनान्त में नवमी तिथि हो तथा उसदिन यदि मङ्गलवार भी हो तो उस दिन प्रयत्न करके भी पूजन अवश्य करें।
पद्मपुराण का मत है कि,अष्टमी तिथि नवमी से युक्त हो या नवमी तिथि अष्टमी तिथि से युक्त हो और यही तिथि मूल नक्षत्र से युक्त हो तो उसे महानवमी कहते हैं।
हेमाद्रि का वाक्य है कि, आश्विन शुक्ल पक्ष में मूल नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथि नवमी युक्त अष्टमी महानवमी कहलाती है।
निर्णयामृत के दुर्गोत्सव में कहा है कि, मूल नक्षत्र युक्त भी लेशमात्र भी सप्तमी तिथि से युक्त अष्टमी तिथि त्याज्य है।
प्रष्ठ 356 अष्टमी तिथि में ही सूर्यास्त हो जाये तब भी अष्टमी युक्त नवमी तिथि में ही पूजा होती है। दशमी युक्त नवमी में नही।

पृष्ठ 357
हेमाद्री में और निर्णयामृत में भविष्य पुराण का मत है कि, कन्या के सूर्य में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से युक्त और मूल नक्षत्र से युक्त आश्विन शुक्ल पक्ष की  नवमी महा नवमी कहलाती है।
पृष्ठ 365
 उदिया नवमी तिथि मे महानवमी पूजन तभी करें जब उदिया नवमी तिथि सूर्यास्त के तीन मुहूर्त (2 घण्टा 24 मिनट) के बाद समाप्त होकर दशमी तिथि लगे।
यद्यपि हेमाद्री मत में दो मुहुर्त का भी वेध है।तथापि वह सूर्योदय से ही है। सायंकाल में तो तीन मुहूर्त का ही वेध होता है। उसी बात को दीपिका में भी कहा है कि, सायंकाल में तीन मुहुर्त तिथि हो तो सम्पूर्ण तिथि जाने। माधव ने भी कहा है कि, सायंकाल में तो इससे तीन मूहुर्त के योग में पहली/ उदिया नवमी तिथि लें।
अन्यथा नवमी तिथि दशमीतिथि से युक्त कभी भी न करें।  स्कन्दपुराण में भी परा (उदिया) नवमी तिथि का निषेध है।
निर्णय -  तीन मुहूर्त का योग न होने से तो निषिद्धा भी परा ही(उदिया नवमी तिथि)ही करे यह निष्कर्ष (सिद्धान्त) है।
संग्रह में कहा हैकि,  मे, जप तथा होम नवमी तिथि या श्रवण नक्षत्र में समाप्त करे।
देवी पुराण में कहा है कि, व्रत, जागरण तथा विधिवत (धार्मिक कर अदायगी रूप) बलि नवमी में करें।
पृष्ठ 366
कामरूप निबन्ध में कहा है कि, अष्टमी तिथि के अवशिष्ठ भाग (बचे हुए भाग) में और नवमी तिथि के पूर्वभाग में ही की हुई पूजा महाफल को देनें वाली है।
नवरात्र पारण निर्णय पृष्ठ 372
हेमाद्री में धौम्य का वचन है कि, आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवमी तिथि समाप्ति तक नवरात्र करें या सप्तमी, अष्टमी, नवमी का त्रिरात्र करें। नवरात्र पारण दशमी तिथि में करें।
नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि से पूजा जप  (कन्या भोज) आदि करें। नवमी पर्यन्त भूतपूजादि प्रधान कर्म है। उपवास तो पूजा का अङ्ग है।
कोई शंका करे कि, तिथि के ह्रास (घट जाने) में आठ उपवास होंगे -  यथा समाख्या (नाम) कैसे होगा।
इसमें कर्म विशेष में नवरात्र शब्द रूढ़ है। इसलिए देवी पुराण में कहा है कि, तिथि वृद्धि मेंऔर तिथि के ह्रास में नवरात्र शब्द ठीक नही है।
तिथि के ह्रास में भी नव तिथियों का उपोष्यत्व होनें से (अर्थात नौ दिन) मानना मूर्ख का कथन परास्त हुआ।
पृष्ठ 374
यज्ञ में वरण का प्रारम्भ होना, व्रत और सत्रयाग में संकल्प का होना, विवाह आदि में नान्दीमुख श्राद्ध होना और श्राद्ध में पाक (पिण्ड का पाक बनना) की क्रिया होनें पर अशौच (सूतक) नही होता।
विजया दशमी निर्णय -- पृष्ठ 377
सूर्योदय कालीन आश्विन शुक्ल दशमी विजयादशमी कहलाती है। इसमें मुख्य कर्म अपराह्न का है। प्रदोष तो गौण है।
दोनो दिन अपराह्न व्यापि हो तो पूर्वा (उदिया दशमी) में विजया दशमी होगी। इसमें प्रदोष व्याप्त में आधिक्य होने से।
दोनों दिन प्रदोष व्यापि हो तो परा ग्रहण करें। क्योंकि अपराह्न व्याप्ति के आधिक्य होने से।
दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में तो पूर्वा (उदिया दशमी तिथि) ही लें। किन्तु दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में यदि दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र का योग हो तो ही परा ही लें।
आश्विन पूर्णिमा निर्णय -- पृष्ठ 378
 आश्विन पूर्णिमा परा ही ग्रहण करें।
दीपिका में कहा है कि, (वट) सावित्री व्रत को छोड़कर तो पूर्णिमा और अमावस्या परा ग्रहण करें।