शुक्रवार, 26 जून 2020

भारत वर्ष में प्रचलित वर्ण व्यवस्था, वास्तविक जातियाँ यानि भौगोलिक जातियाँ / तथा वर्तमान जातिप्रथा में अन्तर

जातियाँ यानि  Human race

                          *ब्रह्मा* 

चार वर्ण और जातियोँ  यानि  Human *race*  की उत्पत्ति ब्रह्मा से बतलाई जाती है अतः ब्रह्मा का  विवरण समझना आवश्यक है। इस लिए पहलें भूमिका के रूप में ब्रह्मा कौन है, क्या है, कैसा है यह समझने के लिये सृष्टि उत्पत्ति  का विवरण संक्षिप्त में समझलें। ताकि,  वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था और  वर्तमान जातिप्रथा व्यवस्था का भेद समझनें में कठिनाई न हो।

सृष्टि उत्पत्ति विवरण ब्रह्मा की उत्पत्ति - परमात्मा से सदसस्पति तक

सर्रव प्रथम केवल परमात्मा ही था और कुछ नही था। परमात्मा ने ॐ संकल्प के साथ स्वयम् को विश्वात्मा ॐ के स्वरूप में प्रकट किया।

उस ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही विश्वात्मा ॐ ने स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
किन्तु मानवीय समझ के अनुसार इन स्वरुपों को समझना कठिन होता है अतः  मानवीय सोच में पुरुष और नारी स्वरुप में ही देखने समझने की प्रवृत्ति अनुसार शास्त्रों ने प्रज्ञात्मा परब्रह्म को भी आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से शक्तिमान और शक्ति एवम् पुरुष और स्त्री के स्वरूप में व्यक्त किया । तदनुसार  --

प्रज्ञात्मा परब्रह्म को  परम दिव्य पुरुष  और परा प्रकृति के आध्यात्मिक स्वरूप में वर्णित किया जिसे आधिदैविक दृष्टि से  विष्णु और  माया के स्वरूप में  भी वर्णित किया गया । 

यह ऐसा ही विभाजन है जैसे सुर्य और उसका प्रकाश। जिन्हें अलग अलग देखा तो नही जा सकता किन्तु समझा जा सकता है। ऐसे ही परम दिव्य पुरुष विष्णु की परा प्रकृति माया है। जो सत असत अनिर्वचनीय है। यह विष्णु के लिये उनकी कल्पना है और हमारे लिये अनुभव गम्य होने से सत्य है और ज्ञानियों के लिये आभास मात्र है।साथ ही

प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को प्रत्यागात्मा ब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
प्रत्यागात्मा ब्रह्म को  शास्त्रों नें अध्यात्म दृष्टि से पुरुष और  प्रकृति  स्वरूप में बतलाया तथा आधिदैविक स्वरूप में सवितृ देव और सावित्री देवी के स्वरूप में वर्णन किया। ये ही पुराणों में श्री हरि और कमला कहलाते हैं।

प्रत्यागात्मा ब्रह्म ने स्वयम को जीवात्मा अपरब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
जीवात्मा अपरब्रह्म को शास्त्रों नें अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक  अपरा प्रकृति के स्वरूप मे वर्णन किया।इस त्रिगुणात्मक अपरा प्रकति को सांख्य में प्रधान कहते है।  आधिदैविक रूप से इन्हे नारायण  और  श्री लक्ष्मी स्वरूप के स्वरूप में  बतलाया गया है।
(सुचना -- लोग विष्णु, हरि और नारायण सबको एक ही समझते हैं ऐसे ही माया,(योगमाया), कमला, श्री और लक्ष्मी सबको एक ही समझते हैं।  किन्तु विष्णु और माया तथा श्रीहरि और कमला तथा नारायण और श्री एवम् लक्ष्मी सब अलग अलग स्वरूप हैंं।)

जीवात्मा अपरब्रह्म ने स्वयम् को भुतात्मा पञ्चमुख  हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के स्वरूप में प्रकट किया।
शास्त्रों में भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को प्राण - धारयित्व, तथा चेतना - धृति, तथा  देही - अवस्था के अध्यात्मिक स्वरूप में वर्णन किया है। और आधिदैविक स्वरूप में इन्हें त्वष्टा और रचना के स्वरूप में बतलाया है। 

वर्तमान श्वेत वराह कल्प के आरम्भ में --भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने स्वयम् को सनक, सनन्दन, सनत्कुमार ,सनातन और नारद जैसे अकेले पुरुष ही रचे किन्तु उनसे सृष्टि का विकास नही होसका। 
तब हिरण्य गर्भ ब्रह्मा को रोष (क्रोध) हुआ। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से अर्धनारीश्वर महारुद्र पशुपति शंकर हुए।
किन्तु महारुद्र के स्वभाव में ही सृजनात्मकता नहीं थी । इसलिए महारुद्र ने सृजन करने में असमर्थता प्रकट की।तब हिरणयगर्भ ब्रह्मा के निर्देश पर  महारुद्र अपने कारण हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में पुनर्लीन होकर तप में संलग्न हो गये। सृष्टि उत्पत्ति के अन्तिम चरण में ये पुनः प्रकट हुए।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् सुत्रात्मा  प्रजापति ब्रह्मा के स्वरूप में प्रकट हुए। 
सुत्रात्मा चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा को शास्त्रों नें संज्ञान - संज्ञा, रेतधा- स्वधा तथा ओज- आभा के आध्यात्मिक स्वरुप में वर्णन किया जाता है  और पाँच आधिदैविक स्वरूप  
1 देवेन्द्र - शचि 
2 दक्ष प्रजापति - प्रसुति
3 रुचि प्रजापति - आकुति
4 कर्दम प्रजापति - देवहूति
5 स्वायम्भुव मनु - शतरूपा 
रूप देवराज इन्द्र एवम् चार प्रजापतियों और उनकी पत्नियों के स्वरूप में वर्णन किया है।
इनके अलावा सुत्रात्मा प्रजापति ने (6) मरीची, (7) भृगु, (8) अत्रि, (9) वशिष्ठ,(10) अङ्गिरा, (11) पुलह, (12) पुलस्य, (13) कृतु, (14) धर्म, (15) अग्नि और (16) सोम को उत्पन्न किया।
दक्ष (प्रथम) प्रजापति की पुत्रियों से उक्त प्रजापतियों का विवाह हुआ। 
इस प्रकार सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा ने ही जैविक सृष्टि का आरम्भ किया।
(सुचना -- नारायण ब्रह्मा , हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, ब्रह्मणस्पति, और वाचस्पति तथा दक्षादि नौ ब्रह्मा सबको ब्रह्मा कहा जाता है। सामान्य तया हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को ब्रह्मा कहते हैं।)
(विशेष सुचना -- 1 ऐसा भी उल्लेख है कि, पहले प्रजापति ब्रह्मा भी पञ्चमुखी थे।प्रजापति ब्रह्मा ने हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के द्वारा उत्पन्न  वेद की देवी/  ज्ञान की देवी सरस्वती से विवाह किया। इससे नाराज रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया इससे  वे पञ्चमुख से चतुर्मुख हो गये।)
(विशेष सुचना 2  उक्त इन्द्र प के अलावा भी प्रत्यैक मन्वन्तर में अलग अलग देवराज होते हैं। उन्हें भी इन्द्र कहा जाता है। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में पुरन्दर नामक इन्द्र हैं। पुरन्दर की पत्नी का नाम भी शचि है जो असुर पुत्री है। द्वादश आदित्यों में भी एक इन्द्र हैं। इसके अलावा कश्मीर तिब्बत पामिर के पठार के मध्य भी भूमि पर स्वर्ग कहलाता है। इनके राजा भी इन्द्र हैं। और सिरिया के सुरों के राजा सुरेश को भी इन्द्र कहा जाता है।)
(विशेष सुचना -- 3 दक्ष प्रथम की पत्नी प्रसुति थी। दक्ष प्रथम स्वायम्भूव मन्वन्तर में रहे। दक्ष प्रथम और प्रसुति की चौवीस पुत्रियाँ हुई। जबकि दक्ष द्वितीय प्रचेताओं के पुत्र थे। दक्ष द्वितीय वर्तमान वेवस्वत मन्वन्तर में हुए।दक्ष द्वितीय की पत्नी का नाम असिक्नि था। दक्ष द्वितीय की साठ पुत्रियाँ हुई।)

सुत्रात्मा चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयम को अणुरात्मा बृहस्पति के स्वरूप में प्रकट किया।
अणुरात्मा ब्रहस्पति को तेज - विद्युत के रूप में और आधिदैविक दृष्टि से इन्द्र और शचि के रुप में बतलाया गया है।(ये सुत्रात्मा प्रजापति से उत्पन्न इन्द्र ही हैं।)
 
अणुरात्मा ब्रहस्पति नें स्वयम् को विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति के स्वरूप में प्रकट किया। 
विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति को शास्त्रों में अध्यात्मिक दृष्टि से विज्ञान- विद्या तथा चित्त - वृत्ति तथा चित्त और चेत के स्वरूप में जानते हैं (चेतन्यता को चेत कहा गया है) एवम् आधिदैविक दृष्टि से द्वादश आदित्य और उनकी शक्तियों के रूप में बतलाया गया हैं।

विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति ने स्वयम् को ज्ञानात्मा वाचस्पति के स्वरूप में प्रकट किया। 
विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति को बुद्धि और मेधा के अध्यात्मिक स्वरूप में तथा अष्टवसुओं और  उनकी शक्तियों के आधिदैविक स्वरुप में जाने जाते है।

विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति ने स्वयम् को लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर के स्वरूप में प्रकट किया। 
(सुचना -  ये वही महारुद्र पशुपति शंकर हैं जो हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में पुनर्लीन होकर तप कर रहे थे।)
लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर ने स्वयम् को दस और रुद्र स्वरूप में प्रकट किया। शंकरजी सहित ये ग्यारह रुद्र कहलाते हैं।
लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर को अध्यात्मिक दृष्टि से अहंकार और अस्मिता के रूप में और आधिदैविक रूप में शंकर जी के द्वारा प्रकट दश रुद्र और रौद्रियो के रूप में जानते हैं।

लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति ने स्वयम् को मनसात्मा गणपति के स्वरूप में प्रकट किया।
मनसात्मा गणपति को अध्यात्मिक दृष्टि से  मन और संकल्प --विकल्प के रूप में एवम् आधिदैविक स्वरूप में सोम और वर्चा के स्वरूप में जानते हैं।

मनसात्मा गणपति ने स्वयम् को स्व और स्वभाव के अध्यात्मिक स्वरूप में एवम्  सदसस्पति और समिति (भारती देवी) के आधिदैविक स्वरूप में प्रकट किया।
समस्त भौतिक जगत के सभी तत्व इन स्व - स्वभाव यानि सदसस्पति - समिति (भारती देवी) से ही प्रकट हुए हैं।

 काल गणना -- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से बृहस्पति आदि देवगणों और फिर सदसस्पति तक की आयु, अवस्था एवम् शेष अवधि की गणना विवरण एवम्  कल्प, सृष्टि ,मन्वन्तर और महायुग का आरम्भ से अन्त तक की अवधि / आयु तथा व्यतीत समय/ अवस्था और शेष अवधि का विवरण -- 

 भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु और प्राकृत प्रलय-- 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्माकी आयु ब्रह्मा के सौ वर्ष होती हैं। जिसमें मानवों के इकतीस नील, दस खरब, चालिस अरब सायन सौर वर्ष होते हैं।  वर्तमान में ब्रह्मा की आयु पचास वर्ष पुर्ण होकर एक्कावनवें वर्ष में प्रथम दिन के छः मन्वन्तर पुर्ण होकर सातवें मन्वन्तर के सत्ताइस महायुग पुर्ण होकर अट्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता और द्वापर युग व्यतीत होकर अट्ठाइसवें कलियुग के 5121 वर्ष पुर्ण हो चुके हैं।  यानि मानवीय वर्ष में पन्द्रह नील,पचपन खरब, एक्कीस अरब, सिन्त्यानवे करोड़, उन्तीस लाख, उन्चास  हजार, एक सौ एक्कीस सायन सौर वर्ष पुर्ण हो चुके हैं। और पन्द्रह नील,पचपन खरब,अठारह अरब, दो करोड़, सत्तर लाख, पचास हजार आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं इसके बाद प्राकृत प्रलय हो जायेगा।और भूतात्मा हिरणण्गर्भ ब्रह्मा अपने कारण जीवात्मा अपर ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। तब इकतीस नील, दस खरब, चालिस अरब सायन सौर वर्ष तक बुद्धि से अनुभवगय्य कुछभी नही रहेगा। एकार्णव में नारायण योगनिन्द्रा लीन रहेंगे। केेेवल महाकाल और महादिक एक ही हो जायेेंगे।

सुत्रात्मा प्रजापति की आयु एक कल्प और नैमित्तिक प्रलय --
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प एक हजार महायुग का  और  एक एक हजार महायुग की रात्रि होती है। मानवीय गणना में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का होता है जिसे कल्प कहते हैं। इस अवधि में ही सृष्टि रहती है। चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की एक रात्रि होती है। इस अवधि में नेमित्तिक प्रलय रहता है। इस समय ब्रह्माण्ड भी नही रहता। कल्पारम्भ पश्चात सृष्टि आरम्भ के समय ब्रह्माण्ड सुत्रात्मा प्रजापति से ही पुनः प्रकट होता है।

वर्तमान श्वेतवराह कल्प आरम्भ हुए एक अरब सिन्त्यानवे करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष पुर्ण हो चुके हैं।और दो अरब, चौतीस करोड़, सत्तर लाख,पचास हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं। 
कल्पान्त में चौदहवें मन्वन्तर के अन्त में भी कल्पान्त के एक सतयुग तुल्य अवधि अर्थात सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष पहले  जैविक प्रलय आरम्भ होकर कल्पान्त में नैमित्तिक प्रलय हो जाता है । नैमित्तिक प्रलय में यह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जायेगा।और सुत्रात्मा प्रजापति अपने कारण भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लीन हो जायेंगे। 
फिर अगले ब्राह्म दिन यानि कल्प के आरम्भ में प्रजापति ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। प्रजापति ब्रह्मा सृष्टि का सृजन करते हैं।

कल्पारम्भ में एक सतयुग तूल्य यानि सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष  की सन्धि होती है इसके बाद  मन्वन्तर आरम्भ होता है। मन्वन्तर में जैविक सृष्टि होती है और पुरे मन्वन्तर में जेविक सृष्टि रहती है।

 देवताओं और मनुओं की आयु एक मन्वन्तर और जैविक प्रलय--
प्रत्येक कल्प में चौदह मनु होते हैं । मनु के जीवनकाल यानि मन्वन्तर तीस लाख बत्तीस हजार सायन सौर वर्ष का होत हैं। प्रत्येक मन्वन्तर के आरम्भ में सतयुग तुल्य सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष की सन्धि और मन्वन्तर के अन्त में सतयुग तुल्य सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष का सन्ध्यांश होता है। प्रत्येक मन्वन्तर में इकहत्तर महायुग व्यतीत हो जाते हैं। 
प्रत्यैक मन्वन्तर के अलग अलग  इन्द्र,  देवगण और  सप्तर्षि होते हैं। प्रत्येक मन्वनतर के आरम्भ में पुरानें मन्वन्तर के बीज से नवीन मन्वन्तर की जैविक सृष्टि होती है और मन्वन्तर के अन्त में जैविक प्रलय होता है। 

वर्तमान सृष्टि आरम्भ हुए एक अरब  पिच्चानवे करोड़, अट्ठावन लाख,पिच्चासी हजार, एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष हो चुके हैं।तथा सृष्टि समाप्ति को दो अरब चौतीस करोड़, तिरपन लाख,बाईस हजार, आठसौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष बचे हैं। फिर इसके बाद श्वेतवाराह कल्प का चौदहवाँ और अन्तिम जैविक प्रलय हो जायेगा। तथा एक सतयुग तुल्य अवधि; सत्रह लाख अट्ठाइस हजार सायन सौर वर्ष पश्चात कल्पान्त होने से नैमित्तिक प्रलय हो जायेगा। ब्रह्माण्ड नष्ट हो जायेगा। सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा अपने कारण भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लीन हो जायेंगे।

वर्तमान मन्वन्तर के बारह करोड़, पाँच लाख, तैंतीस हजार, एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अठार  करोड़, इकसठ लाख छिंयासी हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष बचे हैं। इसके बाद जैविक प्रलय होगा।

अणुरात्मा ब्रहस्पति, (तेज - विद्युत / इन्द्र शचि) , विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति (चित्त वृत्ति/ द्वादशआदित्य), ज्ञानात्मा वाचस्पति (बुद्धि-मेधा/ अष्टवसु), लिङ्गात्मा पशुपति (अहंकार- अस्मिता/दश रुद्र-रौद्रियाँ) और मनसात्मा गणपति (मन- संकल्प/ सोम- वर्चा) तक के सभी देवताओं की आयु एक मन्वन्तर अर्थात तीस लाख बत्तीस हजार सायन सौर वर्ष होती है। इसलिये ये देवता अमरगण कहलाते हैं।
एक महायुग तिरयालिस लाख, बीस हजार सायन सौर वर्ष का होता है। इसमें एक सदसस्पति की आयु पुर्ण होतीहै। जिसमें से वर्तमान महायुग आरम्भ और स्व /सदसस्पति समिति (भारती देवी) के अड़तीस लाख, तिरयानवे हजार, एक सौ एक्कीस सायन सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। तथा वर्तमान महायुग और वर्तमान कलियुग को समाप्त होनें में अभी चार लाख,  छब्बीस हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं । इसके पश्चात स्वभाव समिति (भारती) अपने कारण मनसात्मा गणपति में लीन हो जायेंगे तथा वापस सतयुग आरम्भ हो जायेगा।

कल्कि अवतार होने को अभी चार लाख, छब्बीस हजार, अट्ठावन वर्ष शेष हैं। वे कलियुग समाप्ति के आठसौ एक्कीस वर्ष पहलें जन्म लेंगे।

 भारतवर्ष में वेदिक वर्णश्रम धर्म  या  वेदिक प्रवृत्ति मार्ग का आरम्भ   -- 

प्रजापति ब्रह्मा के प्रथम मन्वन्तर के आरम्भ में 1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु,10 रुचि , 11 कर्दम ,12 स्वायम्भुव मनु 13 धर्म,14 अग्नि, 15 सोम को उत्पन्न किया। दक्ष (प्रथम) प्रजापति की पुत्रियों से इनका विवाह हुआ।
हुए ये सभी सब प्रजापति भी कहलाते हैं ।  इनमें से रुचि और कर्दम को छोड़   1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु को नौ ब्रह्मा कहते हैं। 
प्रजापति ब्रह्मा ने दक्ष (प्रथम) -  प्रसुति, रुचि -आकुति,कर्दम - देवहूति और  स्वायम्भुव मनु  - शतरूपा, ये चार को  युग्म अर्थात जोड़े से  उत्पन्न किया। किन्तु प्रसुति, देवहूति और आकुति कै स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की पुत्री भी माना जाता है। सम्भवतः  स्वायम्भुव मनु ने इनको पुत्री मान लिया हो अर्थात मानस पुत्रियाँ होंं। उक्त  सभी ऋषि और स्वायम्भूव मनु भी प्रजापति ही थे। पर इनमें विशेषरूप से दक्ष प्रजापति (प्रथम) रुचि प्रजापति और कर्दम  प्रजापति को प्रजापति कहते हैं।  ये वेदिक वर्णश्रम धर्म यानि प्रवृत्ति मार्ग के प्रवर्तक हुए। ये पञ्चमहायज्ञ यज्ञ ,अष्टाङ्गयोग  और ज्ञान मार्ग का अनुसरण कर सर्वव्यापी विष्णु के  स्वरुप मे ईश्वर की आराधना उपासना करते थे।

इन ऋषियों या प्रजापतियों की जो सन्तान ब्रह्म ज्ञानि ऋषि हुई वे ब्राह्मण कहलाये। जो वेदों के जानकार हुए वे विप्र कहलाये। जिनकी प्रवृत्ति रक्षण की थी, जो साहसी, वीर थे वे क्षत्रिय कहलाये। जो व्यव्हार कुशल कृषि,पशुपालन और लेनदेन में कुशल थे वे वैष्य कहलाये। जो सेवाभावी, कुशल कार्मिक थे वे शुद्र कहलाये। इनकी सन्तानों में उनके गुण कर्मानुसार उनके वर्ण की माने गये। 

 स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत हुए। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव और उत्तम हुए। और प्रियवृत के आग्नीन्ध्र आदि नौ पुत्र हुए।

स्वायम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र प्रियवृत को के दस पुत्र और तीन मानस पुत्रियाँ हुई। जिनमें तीन पुत्र निवृत्ति परायण हो गये। मनु पुत्रों में निवृत्ति मार्ग का प्रारम्भ यहीँ से हुआ। शेष सात पुत्रों को प्रियवृत ने सप्तद्विपों का उत्तराधिकारी बनाया। उनमें से आग्नीन्ध्र को जम्बूद्वीप मिला।

आग्नीन्ध्र के पुत्र अजनाभ हुए।अजनाभ को जम्मुद्वीप का दक्षिणी भाग का उत्तराधिकार मिला। उनने उसभाग को अजनाभ वर्ष नाम दिया।अजनाभ को नाभि और अजनाभ वर्ष को नाभिवर्ष भी कहते हैं। 

अजनाभ के पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव को भी अजनाभ वर्ष/नाभिवर्ष का राज्य उत्तराधिकार में मिला। 

ऋषभदेव के पुत्र भरत चकृवर्ती हुए । भरत चकृवर्ती को भी नाभिवर्ष उत्तराधिकार में मिला पर उनने अजनाभ वर्ष / नाभिवर्ष का नाम बदलकर भारतवर्ष रखा। तब से यही नाम प्रचलित है।


                     वर्ण व्यवस्था
 ब्राह्मण वर्ण -- ब्राह्मण वर्ण है न कि जाति।ब्राह्मण जन्म से नही होता। प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र 1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु हुए ये सब प्रजापति हुए। ये नौ ब्रह्मा कहलाते हैं। इनके अलावा 10 रुचि प्रजापति और 11 कर्दम  प्रजापति हुए जो सब आत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी थे। इनकी सन्तान भी आत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। ये स्वायम्भूव मन्वन्तर में हुए और रहे।
 इन ऋषियों ने अपनी सन्तानों को हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से प्राप्त वेदों का ज्ञान दिया।इस कारण वेआत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी होगये अतः ये ब्राह्मण कहलाते हैं और *ब्रह्मज्ञानियों द्वारा पालन किया गया सनातन वेदिक धर्म ब्राह्म धर्म और ऋषियों द्वारा पालित होने से आर्षधर्म कहलाया।* 
ये ही वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर तक भी यही परम्परा विद्यमान है।
बाद में इनके कुछ वंशज गुण कर्मानुसार क्षत्रिय होगये तो कुछ वैष्य भी हुए और कोई कोई शुद्र भी हो गये।
वर्तमान में वास्तविक आत्मज्ञ ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण और वेदपाठी विप्र दुर्लभ हो गये हैं। पञ्चाग्निसेवी कर्मनिष्ठ श्रोत्रिय भी दुर्लभ हैं। द्विजत्व भी नही के बराबर ही बचा है।

क्षत्रिय वर्ण  मनुर्भरत - प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए।ये भी प्रजापति ही थे। स्वायम्भुव मनु की सन्तान गुण कर्मानुसार क्षत्रिय कहलायी हैं।इनका वर्ण क्षत्रिय था न कि, जाति।
स्वायम्भुव मनु के कई वंशज ब्रह्मज्ञानी होकर ब्राह्मण भी होगये, तो कुछ वैष्य भी हुए।  
स्वायम्भुव मनु की पत्नि शतरूपा के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत  हुए। प्रियवृत के पुत्र आग्नीन्ध्र जम्मुद्वीप के शासक हुए। आग्नीन्ध्र के पुत्र नाभि या अजनाभ को जम्मुद्वीप का दक्षिणी हिस्से का शासनाधिकार मिला। उनने इसे नाभिवर्ष या अजनाभ वर्ष नाम दिया।
नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए।ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए।
भरत चक्रवर्ती ने जम्मुद्वीप के इस दक्षिणी भाग का नाम भारत वर्ष रखा। जो आजतक प्रचलित है। इन्ही भरत की सन्तान मनुर्भरत कहलाती है।  
मनुर्भरत मूल भारतीय है। मनुर्भरतों का निवास क्षेत्र मूख्यतः पञ्जाब,कश्मीर, सिन्ध वाले क्षेत्र में था। उस समय आर्यावृत में ही मानव फैल पाये थे। दक्षिण में मानव नही बसे थे। भारतीय धर्म संस्कृति इन्हीं की देन है।  वास्तव में आर्य किसी भी जाति का नाम नही है। उक्त दक्ष आदि वेदिक ऋषियों के अतिरिक्त वेदिक धर्म और संस्कृति के वाहक ये मनुर्भरत ही थे।  
सनातन वेदिक धर्म मर्यादा  का पालन स्वायम्भुव मनु ने किया अतः स्वायम्भूव मन्वन्तर में यह  मानव धर्म कहलाया। इन्हीं के कुछ वंशज ब्राह्मण भी हुए। अधिकतर वंशज क्षत्रिय हुए और कुछ वंशज वैष्य हुए तो कुछ शुद्र भी हुए।

 वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में सूर्यवंशी क्षत्रिय मानवों, चन्द्रवंशी क्षत्रियों, दृविड़, देवासुर,गन्धर्व, नाग, यक्ष,दैत्य , दानव आदि जातियों की उत्पत्ति--

वास्तविक जातियाँ यानि  Human race  की उत्पत्ति --

वेद , वेदिक साहित्य, स्मृतियों,  रामायण, महाभारत, और पुराणों में उल्लेखित , द्विपदों (Human) की मुख्य जातियों का विवरण नीचे प्रस्तुत है। ये ही जाति है जो जन्मगत होती है। बदली नही जा सकती। कई पिढ़ियों बाद भी किसी जाति में जन्मे व्यक्ति को चेहरा देखकद ही पहिचाना जा सकता है। इन्ही जातियों में अन्तः विवाह की अनुशंसा मनुस्मृति में की गई है।

सुर्यवंशी - मरीची प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे। मरीची के पुत्र महर्षि कश्यप का क्षेत्र कश्मीर से कश्यप सागर और तिब्बत, पामिर और रुस तक फैला था।
महर्षि कश्यप और अदिति की सन्तान द्वादश आदित्य नामक देवगण हुए। जो कश्मीर, तिब्बत पामिर में बसे। वैवस्वत मन्वन्तर में आदित्य विवस्वान के पुत्र  वैवस्वत मनु के वंशज सुर्यवंशी अयोध्या में बसे। ये भारत में मूल क्षत्रिय कहलाते हैं। किन्तु इनमें भी कुछ ब्रह्मज्ञानी हुए जो ब्राह्मण कहलाते हैं । कुछ सन्तान वैष्य भी हुई। तो कुछ शुद्र भी हो गये। ये वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में हुए।
चन्द्रवंशी - टर्की के केनिया , बर्दूर, और हेसिलर नगरों  (दक्षिण पुर्व  अनाटोलिया पठार) में खत्तुनस के वंश हित्ती सभ्यता  वाले चन्द्रवंशी टर्की  से आये खाती, खत्री  चन्द्रवंशियों को सुदास ने प्रयागराज में बसाया। ये भी पहले कश्मीर में रहे थे। आज भी पञ्जाब, सिन्ध ,कश्मीर में इनके वंशज हैं। इनमें भी कुछ ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्राह्मण कहलाये।
अधिकतर (कृषक) वैष्य और कुछ शुद्र भी होगये।
 नाग --नागवंशी सिरिया से आये। ये वही नाग है, जिनने यहोवा  (एल पुरुरवा) के आदेश के विरुद्ध  आदम (आयु) को बुद्धिवृक्ष का फल (परिपक्व होने से पहले ही) खाने की प्रेरणा दी। आदम (आयु) बुद्धिवृक्ष का (अधपका) फल खागया ।
(और  ये हूवा जो बैचारा मुर्ख था वह मुर्ख ही रह गया।😜😂) (महाभारत के अनुसार चन्द्र वंश में ययाति, नहुष , शान्तनु जैसे   एक से बड़कर कामुक और एक मुर्ख हूए।)
एल पुरुरवा (यहोवा) ने आयु (आदम) को दक्षिण पुर्वी टर्की से निकाला तो वह सिंहल द्वीप में आ गया। यहाँ से फारस की खाड़ी होते हुए इज्राइल तरफ गया। ये क्षत्रिय माने गये। इनमें कई शुद्र और कुछ म्लैच्छ भी हुए। ये भी वैवस्वत मन्वन्तर की ही घटना है।

                           देवगण  --देवता
 आदित्य गण  -- महर्षि कश्यप और अदिति के पुत्र  द्वादश आदित्य और  आदित्यों की सन्तान कश्यप सागर से पामिर- तिब्बत - कश्मीर में बसे। 
वसुगण -- वसुगण महर्षि कश्यप और वसु के पुत्र वसु देवगणों में सम्मिलित थे।  वसुओं की सन्तान भिन्न भिन्न स्थानों मे फैल गयी। 
 धर / धर्म वसु धर्म वसु दक्षिण में बसे, धर वसु के पुत्र दृविण की सन्तान दृविड़ कहलाई। 
 अनल वसु के वंशज आग्नेय कहलाते हैं ।आग्नेय पुर्व और दक्षिण पुर्व में आस्ट्रेलिया तक फैल गये।
 अनिल वसु वायु पुत्र और मरुद्गण वायव्य कोण में बलूचिस्तान से कजाकिस्तान तरफ बसे। 
 आपःवसु  आप (जल) की सन्तान सिन्ध से ईरान तक पश्चिम में बसे । ये वरुणोपासक हैं।
 प्रभास वसु --  प्रभास वसु का क्षेत्र  प्रभासक्षेत्र सोमनाथ गुजरात में  है। प्रभास वंशी पश्चिमी गुजरात में बसे।
 प्रत्युष-- प्रत्युष भी इसी क्षेत्र में बसे।
सोम और ध्रुव-- सोम और ध्रुव के वंशज हिमालय क्षेत्र में बसे
 असुर --  जानदार/ प्राणवान, बलिष्ट असुर  असीरिया (इराक), मेसापोटामिया, बेबीलोन, सऊदी अरब  में बसे। ये रुद्र भक्त शिवाई  (साबई), बालदेव उपासक असुर हुए। इनने शुक्राचार्य को अपना गुरु माना। शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने युनान के पास  क्रीट में शाक्तपन्थ की स्थापना की।
 असुरों के आचार्य जरुथ्रस्त ने ईरान के मीड और मगों को आसुरी मत में बदला। ये अग्नि को प्रतिक मानकर असुरमहत् (अहुरमज्द) के उपासक हो गये।
दैत्य -  एल पुरुरवा (यहोवा) ने आयु (आदम) को दक्षिण पुर्वी टर्की की अदन वाटिका से निकाला तो वह सिंहल द्वीप में आ गया। यहाँ से फारस की खाड़ी होते हुए इज्राइल की तरफ गया।
 दैत्य - महर्षि कश्यप और दनु के पुत्र दैत्यगण मिश्र और  अम्मानके पास जोर्डन की जेरिको सभ्यता, इज्राइल, स्वेज और लेबनान (फोनिशिया सभ्यता) में बसे। पश्चिम एशिया दैत्यों का क्षेत्र था ।
दक्षिण भारत पर कब्जा जमाये राजा बलि को वामन / विष्णु द्वारा केरल (भारत)  से निकालने पर  राजा बलि भी भारत के दास, दस्यु ,चोल, चालुक्यों को लेकर पहले लेबनान (फोनिशिया) ही गया था। फिर लेबनान से निकलकर  दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया बसा। 
ये दास दस्यु, चोल आदि रास्ते में लूटमार करते गये। काले रंग के इन चोर लुटेरों को ईरानियों ने फारसी भाषा में हिन्दू कहा।
ये दास दस्यु, चोल आदि कुछ सिन्ध, से गुजरात तक में  भी रुक गये। इसलिये हड़प्पा में इनके अवशेष मिलते हैं।
इस बीच बलि से नाराज शुक्राचार्य  मक्का (सऊदी अरब) में रुक गये। वहाँ शुक्राचार्य ने  अपने ईष्ट और गुरु महारुद्र पशुपति शंकर की उपासना के लिये  काव्य मन्दिर काबा में शिव परिवार की प्रतिमाओं की स्थापना की। जिसमें से मुख्य शिवलिङ्ग (संग ए अस्वद्) को छोड़ शेष सभी प्रतिमाएँ मोह मद ने तोड़ दी। और काबा को इस्लाम का भी तिर्थ घोषित कर दिया तथा तिर्थ के लिए जेरुसलम जाना बन्द कर दिया।
 दानव -  महर्षि कश्यप और दनु के पुत्र यानि  दनु (डेन्यूब नदी) के वंशज दानव  युगोस्लाविया  की लेपेन्स्की वीर सभ्यता (Lepennki Vir )  और प्राग(चेकोस्लोवाकिया) से जर्मनी  तक और युनान रोम की युरोपीय सभ्यता दानवों की है। सेल्ट या केल्ट लोग दानव थे ये इंग्लेण्ड में तप करते थे। ये दैत्यों के मित्र हुए।
 असुरों की विजय यात्रा
असुरों ने , दैत्य, दानवों को अपने पक्ष में कर बड़ी सेना बनाई। जिसमें मंगोलिया तक के क्रुर रुद्रगणों / सेनिकों को सम्मिलित किया। असुर जिते हुए क्षेत्र के सैनिकों को अपनी सेना में सम्मिलित कर लेते थे।
असीरिया (इराक) के असुर पहले सिरिया (नागलोक) पर आक्रमण करते,  सीरिया के बाद  दक्षिण पश्चिम इरान (यमलोक) पर आक्रमण करते। यम लोक जीत कर पृथ्वी पर यानि  राजा प्रथु द्वारा शासित भूमि (ईरान से पञ्जाब तक) पर आक्रमण करते। ईरान और पश्चिमी भारत विजय कर उत्तर में बड़ते। फिर सुवर्ग यानि स्वर्ग क्षेत्र कश्मीर तिब्बत पामिर (स्वर्ग) पर आक्रमण करते थे। स्वर्ग के देवतागण उनके राजेन्द्र के नैत्रत्व में अपने निकटतम रुद्र देव  सेनापति महारुद्र  शंकरजी से रक्षार्थ निवेदन करते। क्योंकि युद्ध रुद्र का ही क्षेत्र है।
ब्राह्मण और मानव (क्षत्रिय)  पितामह प्रजापति ब्रह्माजी से निवेदन करते। 
 प्रजापति ब्रह्माजी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से और हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नारायण ब्रह्मा से विनती करते।
नारायण के कहने पर कोई  ब्रह्मज्ञानी सिद्ध भूमिभार हरने आता। जिसे अवतार कहा जाता है।
 किन्नर--  किन्नर  किन्नोर में रहते हैं।
गन्धर्व --  गन्धर्व कान्धार (बलुचिस्तान और अफगानिस्तान) में रहते हैं।
 यक्ष -- महर्षि कश्यप और  के पुत्र यक्ष चीन में रहते हैं ये, सदैव भूखे रहते हैं और सबकुछ खाजाते हैं, सर्वभक्षी हैं। इस कारण प्रतिमाओं में यक्षों को सुमो पहलवान के समान तोन्दवाला बतलाया जाता है।
 प्रमथ गण -  प्रमथ गण चीन और मंगोलिया की ओर बसे।
 राक्षस -- राक्षस (निग्रो)  अफ्रीका में बसे। राक्षस लोग पहले अङ्गरक्षक का काम करते थे।रक्षक थे। बादमें रावण के नेत्रत्व में आसुरी कर्म करने लगे।रावण ने अफ्रीका से उत्तर दक्षिण अमेरिका तक के राक्षसों को संगठित किया।

जाति प्रथा वाली आधुनिक जातियाँ जाती नही वंश या कुल हैं।

आज की जातिप्रथा वाली प्रचलित जातियाँ वास्तव में जाति ही नही है। ये किसी समय एक कुल या वंश थी।  वे कुल ही जनसँख्या वृद्धि के परिणाम स्वरूप और विभाजित होते गये। इनमें कुछ क्षेत्र विशेष में बसनें के आधार पर एक ही कुल के उप कुल हो गये। तो कहीँ उपकुलपति की योग्यता और प्रधानता वश नये उपकुल बन गये। कुछ कुल स्वस्थान छोड़कर अन्यत्र बस गये तो अलग जाति कहलाने लगी। तो कुछ नें अपना पारम्परिक व्यवसाय निर्धारित कर लिया तो नई जाति हो गई।। स्थान, व्यवसाय आदि आधारों पर ये कुल या वंश जातिप्रथा की जातियाँ कहलाने लगी। जबकि ये वंश या कुल वाली जातिप्रथा आधारित जातियाँ जन्माधारित जाति और स्पष्ट देहिक पहिचान वाली ज्ञाति नही होने से वास्तविक जाति नही है। इस्लामिक काल और ब्रिटिश काल में इन जातियो पर जाति का स्थाई सरकारी ठप्पा लग गया। किन्तु वस्तुतः ये जातियाँ नही कुल या वंश ही है।
वेद, ब्राह्मण, धर्मसुत्रों तथा मनुस्मृति याज्ञवल्य स्मृति के अनुसार जब एक ही ग्राम में रहने वालों मे, सगोत्रीयों मेंं अपने प्रवर में, सपिण्डों मे विवाह निषिद्ध है तो  इसी कारण  केवल यहुदियों की नकल कर अपने कुल में  अन्तः विवाह करना अनैतिक और धर्म विरुद्ध है। 

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