गुरुवार, 4 जून 2020

परमात्मा, परमदेव, देव, देवता, अवतारी और देवांश।

परमात्मा
परमात्मा, परम आत्म है। वास्तविक मैं है। सबसे परे है, सबसे परम है।

विश्वात्मा ॐ देवत्व से अति परे अति श्रेष्ठ हैं। यही शिव संकल्प है।

 प्रज्ञात्मा परब्रह्म,(परम दिव्य पुरुप विष्णु - परा प्रक.ति माया) अधियज्ञ, परम देव हैं। यह अधिष्ठान है।

देव
प्रत्यागात्मा ब्रह्म विधाता महाकाश,  (पुरुष, सवितृ, हरि - प्रकृति सावित्री कमला) अधिदेव हैं।यह भी अधिष्ठाता है।

जीवात्मा अपरब्रह्म , विराट , महाकाल, स्वभाव ( अपरपुरुष/जीव नारायण - अपरा प्रकृति/आयु/ श्रीलक्ष्मी) ,अध्यात्म/ स्वभाव है। यह अधिकरण है।

भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा /पञ्चमुख ब्रह्मा/ विश्वकर्मा , महादिक,(प्राण/चेतना/देही, त्वष्टा  - धारयित्व/ धृति,/अवस्था/ रचना) अधिभूत हैं। यह अधिकारी माना है।

सुत्रात्मा, प्रजापति ब्रह्मा/  चतुर्मुख ब्रह्मा/ विश्वरूप/ ब्रह्माण्ड स्वरूप (रेतधा/ ओज,/प्रथम दक्ष प्रजापति - स्वधा/ आभा/ प्रसुति) महादेव हैं। यह अभिकरण (एजेन्सी) है।

देवता गण --
अणुरात्मा , बृहस्पति (तेज/ इन्द्र - विद्युत/शचि) ख है । यह भी अभिकर्ता है। (एजेण्ट है।)

विज्ञानात्मा, ब्रह्मणस्पति (विज्ञान / चित्त/आदित्य - वृत्ति/ चेत/ प्रभा) ।

ज्ञानात्मा, वाचस्पति (बुद्धि/ वसु - मेधा/ वरुणादेवी)

लिङ्गात्मा , पशुपति, अर्धनारीश्वर (शंकर), (अहंकार/ रुद्र- अस्मिता/ रौद्री)

मनसात्मा, गणपति (मन/ मनु - संकल्प / शतरूपा)।
स्व ,सदसस्पति - स्वभाव , भारती।

स्वाहा,मही - वौषट,सरस्वती - स्वधा,इळा।

अधिदेव, अष्टादित्य (मुख्यप्राण, ऋभुगण - उपप्राण)  - अध्यात्म अन्य अष्टवसु (ज्ञानेन्द्रियाँ ,मरुत - कर्मेन्द्रियाँ ) - अधिभूत , अष्टमुर्ति रुद्र ( महाभूत अन्य एकादश रुद्र  - तन्मात्राएँ)।

कारण शरीर , अश्विनौ (मुख्य चक्र, सिद्ध -उपचक्र, सिद्धियाँ) -

सुक्ष्म शरीर , विश्वकर्मा /देवताओं के अभियान्त्रिक ( मुख्य संस्थान, त्वष्टा द्वितीय) - 

लिङ्गशरीर , यह्व (मुख्य सिद्धियाँ मुख्य विनायक - उप सिद्धियाँ, उप विनायक)।

सुशुम्ना (दक्ष द्वितीय) - पिङ्गला, त्रिशिरा विश्वरूप - इड़ा ,एल भैरव।

पिण्ड, कोशिका, एटम, तन,/ शासक, राजा।

देवता कौन हैं क्या होते हैं? कितने हैं? कौन कौन है?

देवताओं का वर्गीकरण निम्नानुसार है।
योनियों के आधार पर -

1 *अजयन्त देव* - प्रजापति ब्रह्मा आदि जिन्हे अंशतः ईश्वरीय शक्तियाँ आवंटित वे अजयन्त देव कहलाते हैं। इनका निवास स्थान द्युलोक है। ये ऐश्वर्य सम्पन्न होते है। यथा
सृष्टिचक्र व्यवस्थापन करना।  _नौ ब्रह्मा कहलाने वाले नौ जोड़े, मनु शतरूपा, अग्नि - स्वाहा, स्वधा जैसे जोड़े उत्पन्न कर मैथूनी सृष्टिउत्पत्ति का आरम्भ इन्ही युग्मदेवताओं से उत्पन्न सन्तानों को विश्वभर में फैलाना।_ 

2 - *आजानज देव* - देवराज इन्द्र जैसे जन्मजात देवता आजानज देव कहलाते हैं ये स्वर्गाधिपति बने।
 द्वादशआदित्य, द्वादश तुषित और  द्वादश साध्यगण आदि भी आजानज देव हैं। जो स्वर्ग में रहकर इन्द्र की शासन व्यवस्था में सहयोगी होते हैं। ये इन्द्र के शासन के मन्त्री कहे जा सकते हैं।

 *आदित्य* --
 *द्वादश आदित्य -* प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र  दक्ष (प्रथम) और प्रसुति की पुत्री अदिति और प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप की सन्तान द्वादश आदित्य हुए।

 *अष्टादित्य* -- प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) और असिक्नि की पुत्री अदिति और कश्यप ऋषि की सन्तान अष्ट आदित्य हुए। 
 हमारे सौर मण्डल का सुर्य जिस केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है वह केन्द्र मार्तण्ड नामक आदित्य है। कुछ लोग  हमारे सौर मण्डल के सुर्य को ही मार्तण्ड मानेते हैं। इन्ही मार्तण्ड के नाम पर इसे मर्त्यलोक कहते हैं।
 
 *तुषित गण* -- स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न हुए द्वादश पुत्र तुषित कहलाये।भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में इनके नामों में भिन्नता पाई जाती है।इनकी संख्या बारह और तीस दोनों बतलाई गई है।

*साध्य देव* -- दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न द्वादश पुत्र साध्य देव कहलाते हैं। भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में इनके नामों में भिन्नता पाई जाती है।

3  *वैराज देव* - 
*अष्ट वसु* अग्नि (अनल), वायु (अनिल) ,जल (आपः), सोम, ध्रुव, धर्म,प्रभास, और प्रत्युष आदि *प्राकृत देवता वैराज देव कहलाते हैं।* ये भी इन्द्र के शासन के मन्त्री कहे जा सकते हैं।
 _ये भी जन्मतः वैकुण्ठवासी ,गौलोक, साकेत लोक में जन्में होकर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी होते हैं।_ 

4 *रुद्र* --  
*एक रुद्र से ग्यारह रुद्र और फिर अनेक रुद्र*

 *एकरुद्र* --
प्रजापति ब्रह्मा के रोष से नीललोहित वर्णी, अर्धनारीश्वर रुद्र हुआ जिसे पशुपति का पद दिया।
यह रुद्र पशुपति यथा आवश्यकता अपना पुरुष रूप और स्त्री रूप अलग - अलग कर सकता था। इन्हें ही शङ्कर   कहते हैं।
पुरुष रूप ने और स्त्री रूप ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया।

 *एकादश रुद्र्
मुख्य रुद्र शंकर के अलावा दश रुद्रगण ये हैं - 1 हर, 2 त्र्यंबक (त्रिनैत्र),3 वृषाकपि, 4 कपर्दि (जटाधारी), 5 अजैकपाद,6 अहिर्बुध्न्य  (सर्पधर), 7 अपराजित, 8   रैवत, 9  बहुरुप,10 कपाली (कपाल धारी),। एक रुद्र (पशुपति) तथा दस रुद्र जो एकरुद्र शंकर जी से प्रकट हुए थे कुल मिलाकर ग्यारह रुद्र कहलाते हैं।

पशुपति एक रुद्र   शंकर सहित 1  शंकर  तथा दश रुद्रगण  2 हर, 3 त्र्यंबक ,4 वृषाकपि, 5 कपर्दि , 6 अजैकपाद,7 अहिर्बुध्न्य  , 8 अपराजित, 9 रैवत, 10 बहुरुप,11 कपाली मिलकर एकादश रुद्र कहलाते हैं। ये अन्तरीक्ष स्थानी देवता हैं। लेकिन शंकरजी भूमि पर कैलाश पर रहते हैं। इसलिये मानवों के लिये ये निकटतम होनें से सर्वाधिक लोकप्रिय होगये।

और शेष दस रुद्रों के नामों में मतैक्य नही है। क्योंकि कुछ लोग प्रभास-वरस्त्री के पुत्र विश्वकर्मा के पुत्र एकादश रुद्गगणों के नामों 
1 शम्भु, 2 ईशान, 3 महान, 4 महिनस,  5 भव, 6 शर्व, 7 काल, 8 उग्ररेता,  9 मृगव्याघ, 10 निऋति, 11 स्थाणु  को भी उक्त एकादश रुद्र नाम से प्रस्थापित करते हैं।
 ऐसे दो प्रकार के एकादश रुद्र हैं। 
इनके अलावा  रुद्र की अष्टमुर्ति ये हैं  1भव,2 शर्व ,3 ईशान, 4 पशुपति, 5 द्विज,6 भीम, 7 उग्र, 8 महादेव।

ये सब नाम एक दुसरे में प्रस्थापित कर कई स्थानों पर एकादश रुद्रों के नामों में अन्तर देखे जाते हैं।

 *अनेकरुद्र --* 
एकरुद्र शंकरजी प्रमथ गणों के गणपति थे फिर मिढ गणों के गणपति मिढिश भी कहलाये बाद में रुद्रगणों के गणपति और गणाधिपति भी कहलाये। कुबेर के पहले शंकरजी ही नीधिपति का कार्य भी देखते थे। क्योंकि कल्याणकारी कार्यों के कारण ये सबके विश्वसनीय और प्रियातिप्रिय प्रियपति हो गये थे।
फिर इन दस रुद्रों ने रुद्र सृष्टि की यह रुद्र सृष्टि ही अनेकरुद्र कहलाती है।
भैरव,वीरभद्र, भद्रकाली, नन्दी, भृङ्गी, तथा
 विनायक गजानन को प्रकट किया।  यक्षराज मणिभद्र ,यक्ष  कुबेर तथा वासुकी, पुष्पदन्त गन्धर्व भी रुद्रगण हैं।
 गजानन विनायक सहित अष्ट विनायक हुए हैं। पहले एकरुद्र शंकरजी प्रथमेश और रुद्रगणों के गणपति थे। गजानन विनायक को सर्वप्रथम प्रमथ गणो के गणपति और बाद म समस्त  रुद्रगणो का गणपति स्वीकारा गया।
 अष्ट विनायकों के नाम ये हैं।ये पिशाच हैं
1 सम्मित, 2 उस्मित; 3 मित, 4 देवयजन;
5 शाल, 6 कटंकट; 7 कुश्माण्ड, 8 राजपुत्र।
ताल- बेताल भी पिशाच होते हैं।

 सुचना --

1   जैसे रावण यथावश्यक्ता स्वयम् को एक मुखी या दशमुखी दिखा सकता था। वैसे ही रूद्र अपने आपको स्त्री पुरुष रूप में दिखा सकता था।

2   पुरुष रूप ने और स्त्री रूप ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया। जैसे कौशिकी के शरीर से सब देवियाँ निकली और फिर समा गयी ऐसे ही।

3   यदि एक रुद्र ने स्वयम् को स्त्री पुरुष रुप में विभाजित तक फिर स्त्री और पुरुष भाग ने ग्यारह ग्यारह भागों में विभाजित कर लिया तो  मूल स्वरूप एकरुद्र सहित बारह रुद्र कहलाते।

 *4  कर्मदेव -* 

 *शतकृतु* , शक्र नामक इन्द्र कर्मदेव है। ये  शतकृतु  इन्द्र स्वर्गाधिपति  इन्द्र से भिन्न और उनके अधिनस्त हैं। ये इन्द्र के शासन के सचिव कहे जा सकते हैं।  शतकृतु और शक्र स्वर्गाधिपति  इन्द्र की उपमा भी है।

 *अश्विनौ* ---  सुर्य और अश्विनी रूप सरण्यु  की दो सन्तान   1.नासत्य और 2.दस्र  अश्विनी कुमार कहलाती हैं। 
ये कुशल चिकित्सक, शल्य चिकित्सक, और अभियान्त्रिक भी हैं।

 *ऋभुगण*--  ये कुशल चिकित्सक, शल्य चिकित्सक, और अभियान्त्रिक भी हैं। अश्विनौ के साथी भी है।

 *मरुद्गण* --  वेदों में मरुद्गणों को रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है।   वेदों के अनुसार मरुतगणों को अन्तरीक्ष स्थानी देवता है। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं। 
ऋ. 1.85.4 में मरुद्गणों को इंद्र का सखा कहा गया  है।   अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है ।
पुराणों में इन्हें वायव्यकोण का दिक्पाल माना गया है। 
मरुद्गणों को वायु के प्रकार कह सकते हैं। झंझावात भी मरुद्गणों का एक रुप है। 
 *सप्त मरुत* -- 1.आवह, 2.प्रवह, 3.संवह, 4.उद्वह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह है। ये सातों सैन्य प्रमुख  समान गणवेश धारण करते है।
इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।*

ये 7 प्रकार हैं-

1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह।*

1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।

2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।

3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है।

4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।

6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।

इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं- -

1ब्रह्मलोक, ..2इंद्रलोक,..3अंतरिक्ष, 4..भूलोक की पूर्व दिशा,.. 5भूलोक की पश्चिम दिशा,6.. भूलोक की उत्तर दिशा और7.. भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह 7*7=49। कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।

 ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप देवता श्रेणी में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।
 ये _सत्यलोक में जन्मे होकर_ उप देवताओं के रुप में कार्य करते हैं।इन प्रत्यैक मरुत के छः-छः पुत्रों सहित उनचास  मरुद्गण देवसेना में प्रमुख योद्धा हैं।  
 वेदों में मरुतों का एक संघ में कुल 180 से अधिक मरुद्गण भी बतलाया  हैं, किन्तु उनमे उनमें भी उनचास मरुद्गण ही प्रमुख हैं। 
कहा गया है कि, उनचास  मरुद्गण ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक में सभी ओर सभी दिशा में  देव रूप में देवों के लिए विचरते हैं।

शतकृतु,   दस्र और नासत्य नामक दो  अश्विनी कुमार, ऋभुगण   ,उनचास  मरुद्गण कर्मदेव कहलाते हैं। इन्हें इनकी योग्यता और सुकर्मों के फल स्वरूप देवलोक में कर्मदेव के रूप में स्थान मिला।

6  *विश्वेदेवाः* - _तपः लोक में_ तीन विश्वेदवा जन्में, उनसे दस विश्वेदेव हुए।दसों के पाँच पाँच पुत्र जन्म लेकर तिरसठ विश्वेदवा  जगत में देवतुल्य पुजाते हैं और जगत संचालन  में सहयोग करते हैं। अंतरिक्ष में इनका अलग ही एक लोक माना गया है। पितृदेवों के समान इन्हे भी श्राद्धभाग मिलता है।


7  *पितरः* - सात पितर हैं । जिनमें 1अर्यमा, 2 अग्निष्वात्ता, और 3 बहिर्षद निराकार और 4 कव्यवाह आंशिक साकार तथा तीन साकार हैं 5 अशल, 6 सोम एवम् 7 यम।
 श्राद्धभाग इन्हें ही मिलता है।स्वर्गवासी हो चुके हमारे पुर्वजों के पालक और शासक पितर ही माने जाते हैं और स्वर्ग में सोम लोक में रहते हैं।

8  *लोकपाल* -  स्वर्गादि लोकों के  लोकपाल होते हैं। इनकी संख्या कहीँ पाँच और कहीँ आठ बतलायी है। ये निर्धारित समय के लिये नियुक्त रहते हैं। ये पदाधिकारी हैं।

9   *दिक्पाल* दसों दिशाओं के दस दिक्पाल होते हैं। ये गज पर सवार होने के कारण दिग्गज शब्द प्रचलित हुआ। 

10 *सिद्ध* - चौरासी सिद्धदेव महर्लोक में  रहते हैं और समय समय पर स्वर्ग, भूलोक तक में धर्मसंस्थापनार्थ सहयोग करते हैं।

11 *सप्तर्षि* -- सभी मन्वन्तरों में भिन्न भिन्न सप्तर्षि होते हैं।

*मात्रकाएँ* - ये देवियाँ हैं। मूलतः भारती सावित्री के समान देवी है। मही श्री लक्ष्मी के समान, सरस्वती ब्रह्माणी के समान और ईळा  उमा के समान ।
उक्त भारती,मही,सरस्वती और ईळा और इनके ही विभिन्न रूप मातृकाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं।

13 *क्षेत्रपाल* - किसी क्षेत्र विशेष के पालक शासक। प्रायः राजन्य वर्ग क्षेत्रपाल होते हैं। काशी के क्षेत्रपाल कालभैरव हैं। ग्राम सीमा पर खेड़ापति हनुमानजी  के रूप में क्षेत्रपाल ही स्थापित होते हैं।क्षेत्रपाल आन्तरिक सुरक्षा (पुलिस) प्रशासन के पदाधिकारी हैं।

14 *आभास्वर* -- आभास्वर का अर्थ आभावान हैं। आभास्वरों की संख्या चौसठ  कही गयी है।  ये पञ्चभूत,दश इंद्रिय और अंत:करण चतुष्ठय को वश में रखते  हैं इसलिये इन्हे देवता श्रेणी में रखा गया है।
यह भी उल्लेख है कि, तमोलोकों में 1आभास्वर, 2 महाभास्वर और 3 सत्यमहाभास्वर  नामक  तीन देवनिकाय हैं।

15  *महाराजिक* -- दो सौ बीस महाराजिक देवगण सदेव एकसाथ समुह में ही रहते हैं, यज्ञ भाग प्राप्त करने भी इकट्ठे ही जाते हैं।  पङ्क्ति में चलते हैं। अभियांत्रिकीऔर चिकित्सा क्षेत्र में सृजन और संरक्षण में सहयोगी का कार्य भी करते हैं। 

16 *लोक मातृकाएँ* - कौशिकी चण्डिका की सहयोगी देवियाँ लोकमातृकाएँ कहलाती है।

17 *देव गन्धर्व* - यह गन्धर्वों का ही एक प्रकार है।  नारद, तम्बुरा जैसे देवगन्धर्व होते हैं जो स्वर्गलोग में आ जा सकते हैं और देवताओं का सहयोग करते हैं। यें अति रूपवान, सुघड़, होते हैं पर कौमल शरीर और कोमल स्वभाव के होते हैं। तीन प्रकार के गन्धर्व होते हैं देवगन्धर्व,मानव गन्धर्व और असुर गन्धर्व । किन्तु मानव गन्धर्व और असुर गन्धर्व  देवता श्रेणी में नही आते हैं।

18 *अप्सराएँ* - अप्सराएँ भी प्रायः गन्धर्व परिवार की ही हैं। जलक्रीड़ा में अतिकुशल, सुन्दर और नाट्यशास्त्र प्रवीण प्रायःइन्द्र सभा में देव नर्तकियाँ और देवलोक के लिये गुप्तचरी का कार्य भी करती हैं।

19 - *किन्नर* किन्नर या किम्पुरुष देवताओं के सेवक हैं। किन्नरियाँ भी इनके परिवार की ही होती है। वस्तुतः ये नर यानि मनुष्य ही हैं। किन्तु देवतागण इनकी सेवा लेते हैं। हिमालय में उत्तराखण्ड के किन्नोर क्षेत्र के में निवास करते हैं।

20 *चारण* - ये भी देवताओं के चरण सेवक हैं। और स्तुति करते हैं। ये भी मानव ही हैं।

21 *देवयक्ष* -  स्वर्ग के धनाध्यक्ष कुबेर, यक्षराज मणिभद्र आदि देव यक्ष है।
यक्ष सदेव भूखे, अतिभक्षी, अति स्थुल (सुमो जैसे), होते हैं ये भी देवताओं के सहायक हैं।  ये प्रायः शैव होते हैं। और रुद्रगणों में सम्मिलित होते हैं। 
यक्ष भी तीन प्रकार के होते हैं 1 देवयक्ष, 2 मानव यक्ष एवम्  3 असुर यक्ष। मानव यक्षों का मूल निवास तिब्बत है। असुर यक्ष  छोटी सी कमी/ गलती पकड़ कर यक्ष आवेश आदि के द्वारा परेशान करते हैं। वर्तमान में लोग इन्हें भी भूत प्रेत ही समझते हैं। राक्षस भी यक्ष जाति के ही सदस्य हैं।

22   *विद्याधर* - विद्याधर भी यक्ष श्रेणी के ही हैं।विद्यधरों के प्रमुख चित्ररथ हैं। विद्याधरी भी इनके परिवार की ही सदस्य होती है। ये यक्ष जाति का ही रूप है। पर ये विद्वान, और गुप्तचरी में दक्ष होते हैं।

23  *ग्रह* -- ग्रसने/ निङ्गलने वालों को ग्रह कहा जाता है। सुर्य,  चंद्रदेव, के अलावा ज्योतिष के अनुसार सौर मण्डल में आठ ग्रह  1 बुध,2 शुक्र, 3 भूमि, 4 मंगल,5 बृहस्पति, 6 शनि 7 युरेनस 8 नेपच्युन ।
ग्रह शान्ति प्रयोग में इनमें अन्तिम दो ग्रह युरेनस और नेपच्युन नाम नही मिलते हैं। इन्हे किस नाम से पुकारा जाता था या इन्हे छोड़ दिया गया था यह स्पष्ट नही है।ग्रहशान्ति प्रयोग में भूमि को ग्रह नही माना है। भूमि के स्थान पर भूमि केन्द्रित ग्रहों के समान भूमि के सापेक्ष सुर्य को ग्रह बतलाया गया है और भूमि के उपग्रह चन्द्रमा को भी ग्रह माना है।
 इसी प्रकार युरेनस और नेपच्यून के स्थान पर चन्द्रमा की कक्षा के दो पात राहू और केतु को छाँया ग्रह कहा गया है। जबकि ये कोई पिण्ड नही है। केवल पात यानि क्रान्तिवृत और चन्द्रमा की कक्षा के परस्पर कटान बिन्दु (क्रास) हैं। 

24   *अन्य देवता* -- कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, नाग,  कामदेव,  , ऋत, द्यौः,  वाक, काल, अन्न,वन, वनस्पति, पर्वत,नदियाँ, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष),  पिंगला, जय, विजय,  त्रिप्रआप्त्य, अपांनपात, त्रिप,

अन्य देवी- दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, उषा, औषधि, , ऋतु  सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

*देवताओं के प्रकार*

स्वर्ग के प्रमुख त देवगण

1 तैंतीस देवता --  1प्रजापति 2 इन्द्र  , द्वादश आदित्य गण 
 3.अंशुमान, 4.अर्यमन, 5.इन्द्र , 6.त्वष्टा, 7.धातु, 8.सवितृ, 9.पूषा, 10.भग, 11.मित्र, 12.वरुण, 13.विवस्वान , 14.विष्णु। (पर्जन्य भी आदित्य माने जाते हैं।) अष्ट वसु:- 15.आप, 16.ध्रुव, 17.सोम, 18.धर (या धर्म), 19.अनिल, 20 अनल, 21.प्रत्यूष , 22. प्रभास।  एकादश रुद्र -- 23 शंकर, 24 हर, 25 त्र्यम्बक, 26 वृषाकपि, 27 कपर्दी (जटाधारी), 28 अजैकपाद, 29.अहिर्बुध्न्य, 30.अपराजित, 31.रैवत, 32.बहुरुप और 33.कपाली।

अभिमानी देवता - *प्राकृतिक शक्तियों के अधिकारी अभिमानी देवता कहलाते है तथा 
देवांश - देवताओं के द्वारा देवयोनि से बाहर के व्यक्ति (प्रायः नारी) से उत्पन्न  जेनेटिक सन्तान देवांश कहलाते है।* 
भगवान ---

जिस किसी देव, या अवतार में समग्र ऐश्वर्य, बल, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छः को “भग” कहते हैं। (ये जिसमें एकत्रित हैं, वह भगवान् है।

*अवतारी*

*जिस देव के गुण स्वभाव वाला व्यक्ति अवतरित होता है तब वह मूल देव अवतारी कहलाता है  और उस अवतारी देव के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने वाला अष्टाङ्ग योग सिद्ध बुद्धियोगी व्यक्ति  प्रारब्ध भोग शेष रहने पर्यन्त का जीवन जीता है तब वह व्यक्ति या उस जन्म के बाद लोकसंग्रह हेतु कोई विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध करने हेतु स्वैच्छया  जन्म ग्रहण करना स्वीकार करता है तो वह व्यक्ति अवतार कहलाता है ।*
 

 *अवतरण मतलब उतरना* --

अवतरण का मतलब होता है उतरना। योग की परम सिद्ध अवस्था में व्यवहार सम्भव नही है। व्यावहारिक जगत में लोकसंग्रह कर्म व्यवहार करने हेतु सिद्धों को उनकी सिद्धावस्था से थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है। 

 *जब कोई बुद्धियोगी तुरीय अवस्था में अष्टाङ्ग योग की सर्वोच्च या उच्चतम अवस्था संयम पर पहूँच कर सिद्ध हो जाता है और वह सिद्ध योगी सकल जगत कल्याण हेतु अपने प्रारब्ध पुर्ण होने तक का शेष जीवन लोकसंग्रह कार्यार्थ निवेश करता है वह सिद्ध योगी एवम् इस जीवन में प्रारब्ब पुर्ण होनें के पश्चात भी स्वेच्छया जन्म धारण कर  लोक कल्याणकारी कोई  विशेष प्रयोजन पुर्ण करने के निमित्त जीवन निवेष करता है तो वह सिद्ध बुद्धियोगी अवतार कहलाता है।* 
 
ये जन्मजात  बुद्धियोगी सिद्ध  होते हुए भी  अगले जन्म में एक साधारण व्यक्ति की भाँति हो जीवन यापन कर परमात्मा के विधान ऋत के अनुसार नियत कार्य सिद्ध करता है।
वे ज्ञानि पुरुष तुरीयावस्था में ही रहते हुए भी जन साधारण में उनके ही समान रहते हुए ही लोकसंग्रह अर्थात लोक कल्याणकारी कर्म करते है । और विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध करते हैं।
उन बुद्धियोगी की साधना सिद्धि के तारतम्य के अनुसार इनकी कला निर्धारित होती है। यथा महा तपस्वी महर्षि नारायण का अगला जन्म में श्रीकृष्ण के रुप में हुआ और वे षोडषकलात्मक पुर्ण अवतार कहलाते हैं । श्रीकृष्ण अकेले पुर्णावतार कहलाते हैं शेष  सभी अंशावतार कहलाते हैं। श्रीराम भी द्वादशकलात्मक अंशावतार ही थै। 
 जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध भोग सिमित  होते हैं, वे अल्पावधि के लिये निर्धारित प्रयोजन पुर्ण करने हेतु ही अवतार ग्रहण करते हैं। जैसे मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराह अवतार, और नृसिह अवतार। इन्हे  आवेशावतार भी कहते हैं। 
 किसी व्यक्ति में किसी प्रयोजन सिद्धि हेतु किसी देवता का आवेश आता है जो उस अवधि में उसे भी आवेशावतार कहा जाता हैं । 
उदाहरणार्थ जब  शंकराचार्य जी ने जब स्वैच्छा से तान्त्रिक द्वारा बलि दिये जाने के लिये स्वयम् को प्रस्तुत कर दिया और तान्त्रिक शंकराचार्य जी को बलि देने के लिये उद्यत हुआ तब  पद्मपादाचार्य को अपनें गुरु शंकराचार्य जी के जीवन रक्षणार्थ नृसिंह आवेश हुआ था । उन नृसिंह आवेश के समय वे भगवान नृसिंह का आवेशावतार भी कहा जता है।
जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध इतने अधिक होते हैं कि अवतार का दायित्व पुर्ण होनें के पश्चात भी वे भूमि पर चिरञ्जीवी रहते हैं; जैसे परशुराम जी और हनुमान जी।
ये अंशावतार ही कहलाते हैं।

 *किस देव का अवतार होता है?--* 

विष्णु प्रथम सगुण किन्तु सर्वव्यापी स्वरूप हैं।  निराकार परब्रह्म, विधाता परमेश्वर विष्णु का कोई अंश भी नही हो सकता तथा अवतार भी नही हो सकता।
श्रीविष्णु के संकल्प मात्र से भूत काल में भी, वर्तमान में भी सम्पुर्ण सृष्टि उत्पन्न होगयी, संचालित हो रही है और लय को प्राप्त होगी, और भविष्य में भी होगी। वे विष्णुजी को रावण और कन्स जैसे तुच्छ राक्षसों को मारने के लिये नर देह धारण करना पड़े और फिर जन्म मृत्यु स्वीकारना पड़े बेतुका तर्क लगता है।

यदि विष्णुजी स्वयम् मत्स्य, कश्यप/ कुर्म, वराह, नृसिह या मानव देह में जन्मते हैं  या  देह धारण करते हैं तो वे एकदेशी हो  जायेंगे। यह सम्भव नही है।
लोग मजाक कर गायेंगे कि, जो यहाँ था वो वहाँ क्योंकर हुआ?  अतः यह नही हो सकता।
 सवितृ देव/  श्री हरि  प्रथम साकार ,मूलतः तरङ्गाकार एवम् दिर्घगोलाकार स्वरूप हैं। ब्रह्म महेश्वर सवितृ देव या श्री हरि के भी  अवतार और अंश नही होते हैं।
 पुराणों में अवतार तो विराट अपरब्रह्म नारायण के ही कहे जाते हैं  हैं पर नारायण के भी अंश तो नही होते हैं।

कहा जाता है कि,नारायण स्वयम्  मानव देह में जन्मते हैं और उनके साथ अन्य देव / देवता भी मानव, ऋक्ष, कपि आदि योनियों में जन्म लेकर देह धारण करते हैं तो वे भी एकदेशी हो जायेंगे। लोग गायेंगे कि, जो यहाँ था वो वहाँ क्योंकर हुआ?
 यह भी सम्भव नही है कि कोई देव या देवता देह तक सिमित होजाये। और  देवता  अमर होते हैं तो वे अवतारी देह में मरणधर्मा बनें। यह भी तर्कसङ्गत नही लगता है।
 श्री परशुराम स्वयम् एक विष्णु अवतार पहले से थे फिर श्रीराम के रुप में दुसरे विष्णु अवतार की क्या आवश्यकता थी? और यदि परशुराम जी और श्रीराम दोनो नारायण के अवतार थे तब सीता स्वयम्वर के समय भगवान परशुराम जी को यह ज्ञात होना चाहिए था कि, श्रीराम जी भी मेरे ही स्वरूप हैं  या नारायण के ही अवतार हैं। पर वे दोनों एक दुसरे को पहचान नही पाये ! वाल्मीकि रामायण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि, परशुरामजी यह नही जान पाये कि, श्री राम नारायण के ही अवतार हैं। जब परशुरामजी श्री राम को प्रत्यञ्चा चड़ाने हेतु श्रीराम के हाथों में वैष्णव धनुष देते है वैसे ही श्रीराम द्वारा भगवान परशुराम जी के हाथों से वैष्णव धनुष लेने के साथ ही भगवान परशुराम का अवतारत्व का आवेश/ चार्ज श्रीराम में  समा गया ! ऐसा क्यों हुआ?
 फिर उसके बाद भगवान परशुराम जी बिना अवतारत्व वाले केवल ऋषि ही रह गये ऐसा क्यों कहा जाता है?

ऐसे ही श्रीमद्भागवत पुराण 10/89 में उल्लेखित ब्राह्मण बालकों के पुनर्जीवित करने के प्रकरण में श्रीकृष्ण क्षीरसागर में/ शेषनाग भवन में स्वयम् खड़े रहकर सम्मुख शेष शय्या पर विराजित भूमा,पुरुषोत्तम, भगवान अनन्त को प्रणाम क्यों करते हैं?
 श्रीकष्ण को वहाँ तक क्यों जाना पड़ा?  जैसे पुरुषोत्तम अनन्त भगवान भूमा ने उन्हे वहीँ स्थित रहते हुए ही अपने लोक में बुलवा लिया था। वैसे ही श्रीकृष्ण भी जहाँ चाहते वहीँ ब्राह्मण बालकों को बुला लेना चाहिए था। पर उन्हे स्वयम् क्यों जाना पड़ा
भूमा,पुरुषोत्तम, भगवान अनन्त ने श्रीकष्ण को सम्बोधित कर उन्हें पुर्व जन्म में नारायण ऋषि के रूप में तपस्वी होने के पश्चात इस जन्म में श्रीकृष्ण केरूप में जन्म लेनें और अर्जुन को उनके पुर्व जन्म में  नर ऋषि थे ऐस कह कर कहा कि, तुम दोनों को देखने के लिए ही ब्राह्मण बालकों को क्षीरसागर में बुलवाया था। ईश्वर की तो न जन्म नही होता है न मृत्यु। फिर गत जन्म में नारायण अवतार होना एवम् भूमा, पुरुषोत्तम अनन्त भगवान के बुलाने पर उन्हें क्षीर सागर क्यों जाना पड़ा?

इससे सिद्ध है कि, कुछ जीवनमुक्त सिद्ध पुरुष प्राकृतिक नियम ऋत के अनुसार स्वैच्छया स्वयम् का जीवन लोक संग्रहार्थ निवेश करते हैं। यही अवतार कहलाते हैं। विष्णुजी आदि देव या देवता जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नही होते हैं। 

अवतार की प्रकृति यानि स्वभाव और स्वाभाविक कर्मों के अनुसार निर्धारण होता है। कोई अवतार  नारायण का है, या हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का, प्रजापति का,या दक्ष/ रुचि/ मनु का या ब्रहस्पति का, या इन्द्र का,या बृह्मणस्पति का, आदित्यों का, या वाचस्पति का या वसुओं का, या पशुपति का, या रुद्रों का, या गणपति का या सदसस्पति का; या श्री का, लक्ष्मी का या सरस्वती का, या वृहति का,या ब्राह्मी का , या वाक का, रौद्रियों का, भारती का या मही का या, सरस्वति का या ईळा (ईला) का   यह उस अवतार के गुण कर्म और स्वभावानुसार ज्ञात किया जाता है। । 
इध सब के ही अवतार हुवे हैं। 

रामायण आदि में ऐसा कहा गया है कि,नारायण अवतारों के साथ सभी देवताओं का अवतार होता है ।

तदनुसार ही भैरव, वीरभद्र, हनुमान आदि रुद्र अवतारों को शंकरजी का अवतार हुए हैं ।
  
विश्वकर्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (पञ्चमुख ब्रह्मा) के भी अवतार और  अंश नही होते क्योंकि इस स्तर तक केवल मानस सन्ताने ही होती है।
सम्भवामि युगे यूगे वाली उक्ति तो वेदों के अनुसार तो  विश्वरूप प्रजापति ब्रह्मा (चतुर्मुख ब्रह्मा) पर ही लागु होती है। अर्थात मूलतः अवतार भी प्रजापति के ही होते है।

 देवांश

*देवांश कया होता है? किस श्रेणी के देवताओं के अंश हुए हैं?*

उपनिषदों में तो समान्य मानव को भी पिता का अंश और पिता का ही दुसरा जन्म कहा गया है।

प्रजापति ब्रह्मा के अंश भी कहे गये हैं। त्वष्टा के भी अंश हुए हैं। पर अवतार नही सुने।
किन्तु मूलतः 1इन्द्र- शचि,2 दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति, 3 स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, 4 अग्नि- स्वाहा, 5 पितरः - स्वधा (अर्यमा और स्वधा), तथा 6 रुद्र - रौद्री से ही मैथुनि सृष्टि आरम्भ हुई।
 इसलिए इनके ही वंश और अंश हैं। तदनुसार जाम्बन्तजी भी दक्ष प्रजापति (प्रथम ) के अंश होना चाहिये।


हनुमानजी रुद्र के अवतार होते हुए भी वायु पुत्र होनें से पवनांश भी कहलाते हैं।  दुष्टदलन राक्षसों के प्रति रौद्ररूप होनें से रुद्रावतार भी कहलाते हैं।और श्री रामभक्त होनें से रघुनाथ कला भी कहलाये।
बालि सुर्यपुत्र होनें से सुर्यांश, सुग्रीव इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश, जामवन्त जी दक्ष प्रजापति ब्रह्मा (प्रथम )  के पुत्र होनें से ब्रह्मांश कहलाते थे।

कर्ण सुर्यपुत्र होने से सुर्यांश कहलाते हैं   युधिष्ठिर धर्म के पुत्र होने सें  धर्मांश कहलाते हैं।  ऐसे ही भीम वायु पुत्र वातांश/ पवनांश कहाते हैं। अर्जुन इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश कहलाये आदि आदि।
मतलब किसी देवता का औरस पुत्र उस देवता का देवांश कहलाता है। 

देव के गुण वाले व्यक्ति विशेष रूप से प्रतिभाशाली व्यक्ति है ; स्वाध्याय के लिए सक्षम होने के बाद, संभावित निष्क्रियता के संभावित भविष्य के लिए संभावित निष्क्रियता का पता लगाने के लिए वैच्छ्य या जन्म स्थान निर्धारित किया गया था ।*
 * शक्तियों के अधिकारी अवतारी कहलाते हैं और के देवयोनि से बाहर के वायुयान सनटन देवसंस् कहलाते हैं।* 


अतः देवांव मतलब देवपुत्र हुआ। 
 हनुमानजी पवनांश और रुद्रावतार हुए  दोनों हैं।अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।
वायु के अभिमानी देवता का औरस पुत्र वातांश/ पवनांश और शंकर के समान भक्ति में लीन, दुनियादारी से दूर  भोले भाले (ब्रह्मचारी), बलीष्ट और वीर होते हुए भी अपनेआप में मस्त और निरभिमानी किन्तु राक्षसों का काल, दुष्टों का दमन करनें वाला, अपराध का दण्डदेनें वाला होनें से शंकर सुवन रुद्रावतार हनुमान जी वायुपुत्र वातांश थे। यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।


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