शनिवार, 27 जून 2020

ध्यान विधि

ध्यान
कृपया निम्न वाक्यांशों पर आपका ध्यानार्षण चाहूँगा।
आपने ध्यान दिया होगा, (गौर किया होगा), आपको ध्यान ही होगा, (स्मरण होगा), मैं आपका ध्यानाकर्षित करना चाहूँगा (चित्ताकर्षक/ एकाग्रता), विशेष ध्यान दीजिएगा (गौर फरमाइयेगा), आपको ध्यान है आज आपका जन्मदिन (नही) है? आपको ध्यान ही होगा कि, आजके ठीक एक साल पहलें ठीक इसी जगह इसी समय हमारा प्रथम परीचय हुआ था।(स्मरण होगा/ याद होगा), अरे आपका ध्यान भटक गया! चलो मुद्दे पर आते हैं।
इन सब वाक्यांशों में ध्यान शब्द आया है। सबमें ध्यान शब्द का अर्थ एकाग्रता, सचेत रहना, याद रखना, विशेष गौर करना आदि है। जिनको कहने आषय और उद्देश्य एक ही होता है।
अर्थात किसी चीज को सतत याद रखना, उसी पर केन्द्रित रहना ध्यान है। 
मैं आपसे पुछूँ कि, आपको ध्यान है आज आपने कौनसे कपड़े पहनें हैं, तो तुरन्त आपको स्मरण हो जायेगा , इस समय आप अन्य सब चीजें भूलकर केवल कपड़ो के विषय में ही सोचने लगे। बस यही तो ध्यान करना है । यही याद करना भी कहलाता है। आपका ड्रायविंग लायसेंस कब रिन्यू करवाना है ? उत्तर या तो सकारात्मक होगा या कहेंगे; अरे! अच्छा हुआ आपने याद दिला दिया मुझे तो ध्यान ही नही था।  यह विस्मृति ही ध्यान की विरुद्ध अवधारणा है। और स्मृति ही ध्यान है।
किसी स्वरुप का ध्यान करना मतलब उस नाम रूप को बारीकी से याद करना ही तो है।
अकारण दिमाग थकाने वाली जबर्जस्ती ध्यान नही है। क्योंकि, इस जबरजस्ती में आप मग्न नही हो सकते हैं। बिना मग्नता के ध्यान कैसा?
चित्ताकर्षक चिजों को याद करना,  भूली बिसरी कोई बात अचानक याद आजाना, उस याद में ही तल्लीन होजाना ये ध्यान ही तो है। फिर जोर जबरजस्ती की क्या आवश्यकता?
रमणेति रामः ; जो योगियों के चित्त में सदा रमण करता है वह राम है। योगिर्भिः ध्यान (न) गम्यम। योगियों के ध्यान से हटता ही नही। यहाँ यही अर्थ हुआ ना कि, योगियों को सदैव याद रहता हैयोगी उसे कभी भूलते नहीँ। 
आज तक के ध्यानाभ्यास में देखा होगा कि,
बैठनें का अभ्यास न होने के कारण पहले तो बैठने की आदत डालना पड़ता है, फिर प्राणायाम अभ्यास न होने से कभी श्वसन पर ध्यान जाना तो कभी कभी श्वसन ही भूलजाना और फिर लम्बी श्वाँस लेना या छोड़ना। प्रत्याहार का अभ्यास न होने से   कभी कहीँ खुजलाहट होना तो कभी असफलता की खीज होना, कभी पैरों में तो कभी कमर में दर्द होना बस यही ध्यान रहता है और धारणा का अभ्यास नही तो ध्यान कहाँ से लगेगा। ध्यान नही लगने की झुँझलाहट होती है। क्या ऐसे कोई ध्यान कर सकता है। कभी नही।
यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि, भाषा के दोष निवारणार्थ सिखाया जाने वाला व्याकरण उसे सिखाते हैं जिसे वह भाषा न बोलना आती है न पढ़ना न लिखना। इसी कारण बच्चे गणित और विदेशी भाषा में कमजोर होते हैं।
अब आप उब गये ना? कहेंगे ये सब समस्या तो हमें भी पता है पर हल क्या है? यह तो बतलाओ।
हाँ भाई इसी जिज्ञासा को उत्पन्न करनें का ही उपक्रम कर रहा था। जिज्ञासु को दिया ज्ञान ही फलिभूत होता है। शोकिया ज्ञान भूलजाना स्वाभाविक है।
तो आप केवल चलते - फिरते, हँसते - रोते - गाते, सोते - जागते, कोई भी कार्य कर रहे हो हर समय किसी भी नाम या रुप को सतत याद रखनें की आदत बनालो।
अब आप कहेंगें कार्य करते समय, हँसते समय या रोते समय और विशेषकर सोते समय कैसे याद रहेगा?
अरे भाई! क्या कार्य करते समय आपको और कोई विचार नही आते? आते हैं ना?  तो उन विचारों में बहो मत। सतर्क रहो, सावधान होजाओ, बहना छोड़ो, अपनी इच्छानुसार तैरना सीखो। अपने मन को बारम्बार उसी ओर मोड़ते रहो।
  सर्वश्रेष्ठ तो है ॐ (ओ३म) का जप ध्यान या रामनाम जपना भी आसान है।पर यह केवल सुझाव है, निर्देश नही। आप अपना ध्यान कैसे रख सकते हैं यह आप स्वयम् किसी ओर से ज्यादा अच्छे से समझते हैं। ऐसे ही आप ध्यान कैसे कर सकते हैं यह आप ही ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं।
मार्गदर्शक केवल दिग्दर्शन करते हैं मार्ग या पथ अपना स्वयम् ही खोजना चाहिए। कौनसी पट्टी सुगम होगी यह उसपर चलकर ही जानी जा सकती है। 
जैसे ही कोई अड़चन आई कि ॐ परमात्मा, ईश्वर गुरु (मार्गदर्शक) तत्काल उपस्थित होगें। आपको मार्गदर्शन कर चले जायेंगे। पर उँगली पकड़ कर नही चलायेंगे। हाथ तो आपको पकड़ना है। उनका सतत स्मरण ही हाथ पकड़ना है।
साथ साथ ही अहिन्सा, सत्य, अस्तैय,अपरिग्रह, पाँच यम।शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधी के क्रम में ही अष्टाङ्गयोग अभ्यास जारी रखें।अन्तःकरण शुद्धि के लिये ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ,नृयज्ञ यानि अतिथि यज्ञ, , भूतयज्ञ यानि बलिवैश्वदेव और पितृयज्ञ भी साथ में करते रहें।जगत की निस्वार्थ सेवा में सदैव तत्पर रहैं।
बस योगिभिः ध्यानगम्यम्  प्रभु आके ध्यान से भी नही जायेंगे सदैव आपके ध्यान में बनें ही रहेंगे।

गायत्री मन्त्र का अर्थ

शुक्ल यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 3
ॐ भुर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि ।  धियो यो नः प्रचोदयात् ।

ॐ भुः भुवः स्वः। 
तत् सवितुः वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि ।  
धियो यो नः प्रचोदयात्।

कल्याण स्वरुप,

भुः प्राणाधार , अर्थात जैसे जीवन का आधार भूमि है  वैसे जो प्राणों का आधार है अतः भूः।

भुवः अर्थात  अन्तरीक्ष के समान  दुःख नाशक होने से भुवः।

स्वः स्वर्ग (सुवर्ग) के समान प्रेरक, चेष्ठा करने की प्रेरणा देनेवाला, आनन्दघन होने से आनन्दकर्ता, आनन्द का कारण होने से स्वः।

तत् अर्थात वह, या उस ,

सवितुः ,  सवितृ अर्थात हमारे सुर्य मार्तण्ड के समान सृष्टिकर्ता जनक/ जन्मदाता, जगत को सत्कर्म में प्रेरित करनेवाला प्रेरक, सञ्चालक, तथा  रक्षक होने से सवितृ, 

वरेण्यम् अर्थात वरणीय या वरने योग्य,

भर्गो - भर्ग यानि  अविद्या नाशक, ज्ञान स्वरूप, प्रकाश  होने से भर्ग ,

देवस्य  - देव का
देव यानि प्रकाशक, जो अन्तकरण को ज्ञान से प्रकाशित करदे ऐसे ज्ञानदाता का

धीमहि अर्थात ध्यान करते हैं, अविरत हर समय स्मरण रखते हैं,
धिः मतलब बुद्धि और यो मतलब कर्म  
अतः धियो यानि बुद्धि और कर्मों को

यो मतलब जो,

नः हमारे एवम् अपनी ओर  दोनों अर्थ होते हैं।

प्रचोदयात् यानि प्रेरित करे और ले चले दोनों अर्थ हैं।

ॐ भुः भुवः स्वः। तत् सवितुः वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि ।  धियो यो नः प्रचोदयात्।

अर्थात कल्याण स्वरुप, परमात्मा ही प्राणाधार है,वह विश्वात्मा ही दुःखनाशक है, वह परब्रह्म ही चेष्ठा करवाने वाला, प्रेरक एवम् आनन्दघन , आनन्द का कारण,आनन्द कर्ता है।
हम उस वरने योग्य परमपिता जनक, प्रेरक, रक्षक , अविद्या नाशक, ज्ञान स्वरूप प्रकाश के प्रकाशक का यानि अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित करने वाले परम गुरु का ध्यान करते हैं, चित्त में धारण करते हैं ,अविरत हर समय, हर अवस्था में स्मरण रखते हैं।
वे परमेश्वर प्रभु हमारे बुद्वि और कर्मों को अपनी ओर प्रेरित करें, अपनी ओर ले चलें। 

परमात्मा ने वेदों को ब्रह्मर्षियों के अन्तःकरण में सीधे प्रकाशित किया, वेदिक मन्त्र बड़े से भी महत्तर हैं इसलिए वेदिक मन्त्रों को ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म यानि वेदमन्त्र स्वयम् सिद्ध हैं। 
सावित्री मन्त्र सभी वेदों में है। यजुर्वेद में ही दो जगह है। यह गायत्री मन्त्र की महत्ता सिद्ध करती है।अतः इसे मन्त्रराज कहा जाता है। 
गायत्री मन्त्र के नाम से प्रसिद्ध इस सावित्री मन्त्र में अलोकिक स्तुति और अलोकिक प्रार्थना की गयी है। इसमें कोई भौतिक सुख सम्पदा की माँग न करते हुए सीधे अपने आप को ईश्वरार्पण करने की ,ईश्वरार्पित होनें की चाहत ही दर्शायी है। हमारे बुद्धि कर्मों को अपनी ओर ले चलो, ऐसी अद्भुत प्रार्थना की गयी है।
ऐसे स्वयम सिद्ध वेद मन्त्रों की सिद्धि नही होती। इन मन्त्रों को अन्तःकरण में धारण कर इन्हें अन्तःकरण में ही प्रकट करने वाले दृष्टा को ही ऋषि कहते हैं।
मतलब वेद मन्त्रों का दर्शन बोध होता है।वेद मन्त्र स्वयम्भू स्वयम् सिद्ध हैं। उन्हे क्या सिद्ध करोगे ?
किसी तान्त्रिक द्वारा रचित तान्त्रिक मन्त्रों को उनके द्वारा बतलाई गयी  निर्धारित तान्त्रिक विधि से निश्चित संख्या में तान्त्रिक मन्त्र का ध्यान पुर्वक जप करके सिद्ध करना पड़ता है। वेद मन्त्रों का दर्शन होता है।बोध होता है ; सिद्धि नही करना पड़ती है।



शुक्रवार, 26 जून 2020

भारत वर्ष में प्रचलित वर्ण व्यवस्था, वास्तविक जातियाँ यानि भौगोलिक जातियाँ / तथा वर्तमान जातिप्रथा में अन्तर

जातियाँ यानि  Human race

                          *ब्रह्मा* 

चार वर्ण और जातियोँ  यानि  Human *race*  की उत्पत्ति ब्रह्मा से बतलाई जाती है अतः ब्रह्मा का  विवरण समझना आवश्यक है। इस लिए पहलें भूमिका के रूप में ब्रह्मा कौन है, क्या है, कैसा है यह समझने के लिये सृष्टि उत्पत्ति  का विवरण संक्षिप्त में समझलें। ताकि,  वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था और  वर्तमान जातिप्रथा व्यवस्था का भेद समझनें में कठिनाई न हो।

सृष्टि उत्पत्ति विवरण ब्रह्मा की उत्पत्ति - परमात्मा से सदसस्पति तक

सर्रव प्रथम केवल परमात्मा ही था और कुछ नही था। परमात्मा ने ॐ संकल्प के साथ स्वयम् को विश्वात्मा ॐ के स्वरूप में प्रकट किया।

उस ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही विश्वात्मा ॐ ने स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
किन्तु मानवीय समझ के अनुसार इन स्वरुपों को समझना कठिन होता है अतः  मानवीय सोच में पुरुष और नारी स्वरुप में ही देखने समझने की प्रवृत्ति अनुसार शास्त्रों ने प्रज्ञात्मा परब्रह्म को भी आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से शक्तिमान और शक्ति एवम् पुरुष और स्त्री के स्वरूप में व्यक्त किया । तदनुसार  --

प्रज्ञात्मा परब्रह्म को  परम दिव्य पुरुष  और परा प्रकृति के आध्यात्मिक स्वरूप में वर्णित किया जिसे आधिदैविक दृष्टि से  विष्णु और  माया के स्वरूप में  भी वर्णित किया गया । 

यह ऐसा ही विभाजन है जैसे सुर्य और उसका प्रकाश। जिन्हें अलग अलग देखा तो नही जा सकता किन्तु समझा जा सकता है। ऐसे ही परम दिव्य पुरुष विष्णु की परा प्रकृति माया है। जो सत असत अनिर्वचनीय है। यह विष्णु के लिये उनकी कल्पना है और हमारे लिये अनुभव गम्य होने से सत्य है और ज्ञानियों के लिये आभास मात्र है।साथ ही

प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को प्रत्यागात्मा ब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
प्रत्यागात्मा ब्रह्म को  शास्त्रों नें अध्यात्म दृष्टि से पुरुष और  प्रकृति  स्वरूप में बतलाया तथा आधिदैविक स्वरूप में सवितृ देव और सावित्री देवी के स्वरूप में वर्णन किया। ये ही पुराणों में श्री हरि और कमला कहलाते हैं।

प्रत्यागात्मा ब्रह्म ने स्वयम को जीवात्मा अपरब्रह्म के स्वरूप में प्रकट किया। 
जीवात्मा अपरब्रह्म को शास्त्रों नें अपर पुरुष जीव और त्रिगुणात्मक  अपरा प्रकृति के स्वरूप मे वर्णन किया।इस त्रिगुणात्मक अपरा प्रकति को सांख्य में प्रधान कहते है।  आधिदैविक रूप से इन्हे नारायण  और  श्री लक्ष्मी स्वरूप के स्वरूप में  बतलाया गया है।
(सुचना -- लोग विष्णु, हरि और नारायण सबको एक ही समझते हैं ऐसे ही माया,(योगमाया), कमला, श्री और लक्ष्मी सबको एक ही समझते हैं।  किन्तु विष्णु और माया तथा श्रीहरि और कमला तथा नारायण और श्री एवम् लक्ष्मी सब अलग अलग स्वरूप हैंं।)

जीवात्मा अपरब्रह्म ने स्वयम् को भुतात्मा पञ्चमुख  हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के स्वरूप में प्रकट किया।
शास्त्रों में भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को प्राण - धारयित्व, तथा चेतना - धृति, तथा  देही - अवस्था के अध्यात्मिक स्वरूप में वर्णन किया है। और आधिदैविक स्वरूप में इन्हें त्वष्टा और रचना के स्वरूप में बतलाया है। 

वर्तमान श्वेत वराह कल्प के आरम्भ में --भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने स्वयम् को सनक, सनन्दन, सनत्कुमार ,सनातन और नारद जैसे अकेले पुरुष ही रचे किन्तु उनसे सृष्टि का विकास नही होसका। 
तब हिरण्य गर्भ ब्रह्मा को रोष (क्रोध) हुआ। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से अर्धनारीश्वर महारुद्र पशुपति शंकर हुए।
किन्तु महारुद्र के स्वभाव में ही सृजनात्मकता नहीं थी । इसलिए महारुद्र ने सृजन करने में असमर्थता प्रकट की।तब हिरणयगर्भ ब्रह्मा के निर्देश पर  महारुद्र अपने कारण हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में पुनर्लीन होकर तप में संलग्न हो गये। सृष्टि उत्पत्ति के अन्तिम चरण में ये पुनः प्रकट हुए।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् सुत्रात्मा  प्रजापति ब्रह्मा के स्वरूप में प्रकट हुए। 
सुत्रात्मा चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा को शास्त्रों नें संज्ञान - संज्ञा, रेतधा- स्वधा तथा ओज- आभा के आध्यात्मिक स्वरुप में वर्णन किया जाता है  और पाँच आधिदैविक स्वरूप  
1 देवेन्द्र - शचि 
2 दक्ष प्रजापति - प्रसुति
3 रुचि प्रजापति - आकुति
4 कर्दम प्रजापति - देवहूति
5 स्वायम्भुव मनु - शतरूपा 
रूप देवराज इन्द्र एवम् चार प्रजापतियों और उनकी पत्नियों के स्वरूप में वर्णन किया है।
इनके अलावा सुत्रात्मा प्रजापति ने (6) मरीची, (7) भृगु, (8) अत्रि, (9) वशिष्ठ,(10) अङ्गिरा, (11) पुलह, (12) पुलस्य, (13) कृतु, (14) धर्म, (15) अग्नि और (16) सोम को उत्पन्न किया।
दक्ष (प्रथम) प्रजापति की पुत्रियों से उक्त प्रजापतियों का विवाह हुआ। 
इस प्रकार सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा ने ही जैविक सृष्टि का आरम्भ किया।
(सुचना -- नारायण ब्रह्मा , हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, ब्रह्मणस्पति, और वाचस्पति तथा दक्षादि नौ ब्रह्मा सबको ब्रह्मा कहा जाता है। सामान्य तया हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को ब्रह्मा कहते हैं।)
(विशेष सुचना -- 1 ऐसा भी उल्लेख है कि, पहले प्रजापति ब्रह्मा भी पञ्चमुखी थे।प्रजापति ब्रह्मा ने हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के द्वारा उत्पन्न  वेद की देवी/  ज्ञान की देवी सरस्वती से विवाह किया। इससे नाराज रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया इससे  वे पञ्चमुख से चतुर्मुख हो गये।)
(विशेष सुचना 2  उक्त इन्द्र प के अलावा भी प्रत्यैक मन्वन्तर में अलग अलग देवराज होते हैं। उन्हें भी इन्द्र कहा जाता है। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में पुरन्दर नामक इन्द्र हैं। पुरन्दर की पत्नी का नाम भी शचि है जो असुर पुत्री है। द्वादश आदित्यों में भी एक इन्द्र हैं। इसके अलावा कश्मीर तिब्बत पामिर के पठार के मध्य भी भूमि पर स्वर्ग कहलाता है। इनके राजा भी इन्द्र हैं। और सिरिया के सुरों के राजा सुरेश को भी इन्द्र कहा जाता है।)
(विशेष सुचना -- 3 दक्ष प्रथम की पत्नी प्रसुति थी। दक्ष प्रथम स्वायम्भूव मन्वन्तर में रहे। दक्ष प्रथम और प्रसुति की चौवीस पुत्रियाँ हुई। जबकि दक्ष द्वितीय प्रचेताओं के पुत्र थे। दक्ष द्वितीय वर्तमान वेवस्वत मन्वन्तर में हुए।दक्ष द्वितीय की पत्नी का नाम असिक्नि था। दक्ष द्वितीय की साठ पुत्रियाँ हुई।)

सुत्रात्मा चतुर्मुख प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयम को अणुरात्मा बृहस्पति के स्वरूप में प्रकट किया।
अणुरात्मा ब्रहस्पति को तेज - विद्युत के रूप में और आधिदैविक दृष्टि से इन्द्र और शचि के रुप में बतलाया गया है।(ये सुत्रात्मा प्रजापति से उत्पन्न इन्द्र ही हैं।)
 
अणुरात्मा ब्रहस्पति नें स्वयम् को विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति के स्वरूप में प्रकट किया। 
विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति को शास्त्रों में अध्यात्मिक दृष्टि से विज्ञान- विद्या तथा चित्त - वृत्ति तथा चित्त और चेत के स्वरूप में जानते हैं (चेतन्यता को चेत कहा गया है) एवम् आधिदैविक दृष्टि से द्वादश आदित्य और उनकी शक्तियों के रूप में बतलाया गया हैं।

विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति ने स्वयम् को ज्ञानात्मा वाचस्पति के स्वरूप में प्रकट किया। 
विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति को बुद्धि और मेधा के अध्यात्मिक स्वरूप में तथा अष्टवसुओं और  उनकी शक्तियों के आधिदैविक स्वरुप में जाने जाते है।

विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति ने स्वयम् को लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर के स्वरूप में प्रकट किया। 
(सुचना -  ये वही महारुद्र पशुपति शंकर हैं जो हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में पुनर्लीन होकर तप कर रहे थे।)
लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर ने स्वयम् को दस और रुद्र स्वरूप में प्रकट किया। शंकरजी सहित ये ग्यारह रुद्र कहलाते हैं।
लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति अर्धनारीश्वर शंकर को अध्यात्मिक दृष्टि से अहंकार और अस्मिता के रूप में और आधिदैविक रूप में शंकर जी के द्वारा प्रकट दश रुद्र और रौद्रियो के रूप में जानते हैं।

लिङ्गात्मा महारुद्र पशुपति ने स्वयम् को मनसात्मा गणपति के स्वरूप में प्रकट किया।
मनसात्मा गणपति को अध्यात्मिक दृष्टि से  मन और संकल्प --विकल्प के रूप में एवम् आधिदैविक स्वरूप में सोम और वर्चा के स्वरूप में जानते हैं।

मनसात्मा गणपति ने स्वयम् को स्व और स्वभाव के अध्यात्मिक स्वरूप में एवम्  सदसस्पति और समिति (भारती देवी) के आधिदैविक स्वरूप में प्रकट किया।
समस्त भौतिक जगत के सभी तत्व इन स्व - स्वभाव यानि सदसस्पति - समिति (भारती देवी) से ही प्रकट हुए हैं।

 काल गणना -- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से बृहस्पति आदि देवगणों और फिर सदसस्पति तक की आयु, अवस्था एवम् शेष अवधि की गणना विवरण एवम्  कल्प, सृष्टि ,मन्वन्तर और महायुग का आरम्भ से अन्त तक की अवधि / आयु तथा व्यतीत समय/ अवस्था और शेष अवधि का विवरण -- 

 भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु और प्राकृत प्रलय-- 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्माकी आयु ब्रह्मा के सौ वर्ष होती हैं। जिसमें मानवों के इकतीस नील, दस खरब, चालिस अरब सायन सौर वर्ष होते हैं।  वर्तमान में ब्रह्मा की आयु पचास वर्ष पुर्ण होकर एक्कावनवें वर्ष में प्रथम दिन के छः मन्वन्तर पुर्ण होकर सातवें मन्वन्तर के सत्ताइस महायुग पुर्ण होकर अट्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता और द्वापर युग व्यतीत होकर अट्ठाइसवें कलियुग के 5121 वर्ष पुर्ण हो चुके हैं।  यानि मानवीय वर्ष में पन्द्रह नील,पचपन खरब, एक्कीस अरब, सिन्त्यानवे करोड़, उन्तीस लाख, उन्चास  हजार, एक सौ एक्कीस सायन सौर वर्ष पुर्ण हो चुके हैं। और पन्द्रह नील,पचपन खरब,अठारह अरब, दो करोड़, सत्तर लाख, पचास हजार आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं इसके बाद प्राकृत प्रलय हो जायेगा।और भूतात्मा हिरणण्गर्भ ब्रह्मा अपने कारण जीवात्मा अपर ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। तब इकतीस नील, दस खरब, चालिस अरब सायन सौर वर्ष तक बुद्धि से अनुभवगय्य कुछभी नही रहेगा। एकार्णव में नारायण योगनिन्द्रा लीन रहेंगे। केेेवल महाकाल और महादिक एक ही हो जायेेंगे।

सुत्रात्मा प्रजापति की आयु एक कल्प और नैमित्तिक प्रलय --
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प एक हजार महायुग का  और  एक एक हजार महायुग की रात्रि होती है। मानवीय गणना में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का होता है जिसे कल्प कहते हैं। इस अवधि में ही सृष्टि रहती है। चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की एक रात्रि होती है। इस अवधि में नेमित्तिक प्रलय रहता है। इस समय ब्रह्माण्ड भी नही रहता। कल्पारम्भ पश्चात सृष्टि आरम्भ के समय ब्रह्माण्ड सुत्रात्मा प्रजापति से ही पुनः प्रकट होता है।

वर्तमान श्वेतवराह कल्प आरम्भ हुए एक अरब सिन्त्यानवे करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष पुर्ण हो चुके हैं।और दो अरब, चौतीस करोड़, सत्तर लाख,पचास हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं। 
कल्पान्त में चौदहवें मन्वन्तर के अन्त में भी कल्पान्त के एक सतयुग तुल्य अवधि अर्थात सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष पहले  जैविक प्रलय आरम्भ होकर कल्पान्त में नैमित्तिक प्रलय हो जाता है । नैमित्तिक प्रलय में यह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जायेगा।और सुत्रात्मा प्रजापति अपने कारण भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लीन हो जायेंगे। 
फिर अगले ब्राह्म दिन यानि कल्प के आरम्भ में प्रजापति ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। प्रजापति ब्रह्मा सृष्टि का सृजन करते हैं।

कल्पारम्भ में एक सतयुग तूल्य यानि सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष  की सन्धि होती है इसके बाद  मन्वन्तर आरम्भ होता है। मन्वन्तर में जैविक सृष्टि होती है और पुरे मन्वन्तर में जेविक सृष्टि रहती है।

 देवताओं और मनुओं की आयु एक मन्वन्तर और जैविक प्रलय--
प्रत्येक कल्प में चौदह मनु होते हैं । मनु के जीवनकाल यानि मन्वन्तर तीस लाख बत्तीस हजार सायन सौर वर्ष का होत हैं। प्रत्येक मन्वन्तर के आरम्भ में सतयुग तुल्य सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष की सन्धि और मन्वन्तर के अन्त में सतयुग तुल्य सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष का सन्ध्यांश होता है। प्रत्येक मन्वन्तर में इकहत्तर महायुग व्यतीत हो जाते हैं। 
प्रत्यैक मन्वन्तर के अलग अलग  इन्द्र,  देवगण और  सप्तर्षि होते हैं। प्रत्येक मन्वनतर के आरम्भ में पुरानें मन्वन्तर के बीज से नवीन मन्वन्तर की जैविक सृष्टि होती है और मन्वन्तर के अन्त में जैविक प्रलय होता है। 

वर्तमान सृष्टि आरम्भ हुए एक अरब  पिच्चानवे करोड़, अट्ठावन लाख,पिच्चासी हजार, एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष हो चुके हैं।तथा सृष्टि समाप्ति को दो अरब चौतीस करोड़, तिरपन लाख,बाईस हजार, आठसौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष बचे हैं। फिर इसके बाद श्वेतवाराह कल्प का चौदहवाँ और अन्तिम जैविक प्रलय हो जायेगा। तथा एक सतयुग तुल्य अवधि; सत्रह लाख अट्ठाइस हजार सायन सौर वर्ष पश्चात कल्पान्त होने से नैमित्तिक प्रलय हो जायेगा। ब्रह्माण्ड नष्ट हो जायेगा। सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा अपने कारण भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लीन हो जायेंगे।

वर्तमान मन्वन्तर के बारह करोड़, पाँच लाख, तैंतीस हजार, एकसौ एक्कीस सायन सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अठार  करोड़, इकसठ लाख छिंयासी हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष बचे हैं। इसके बाद जैविक प्रलय होगा।

अणुरात्मा ब्रहस्पति, (तेज - विद्युत / इन्द्र शचि) , विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति (चित्त वृत्ति/ द्वादशआदित्य), ज्ञानात्मा वाचस्पति (बुद्धि-मेधा/ अष्टवसु), लिङ्गात्मा पशुपति (अहंकार- अस्मिता/दश रुद्र-रौद्रियाँ) और मनसात्मा गणपति (मन- संकल्प/ सोम- वर्चा) तक के सभी देवताओं की आयु एक मन्वन्तर अर्थात तीस लाख बत्तीस हजार सायन सौर वर्ष होती है। इसलिये ये देवता अमरगण कहलाते हैं।
एक महायुग तिरयालिस लाख, बीस हजार सायन सौर वर्ष का होता है। इसमें एक सदसस्पति की आयु पुर्ण होतीहै। जिसमें से वर्तमान महायुग आरम्भ और स्व /सदसस्पति समिति (भारती देवी) के अड़तीस लाख, तिरयानवे हजार, एक सौ एक्कीस सायन सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। तथा वर्तमान महायुग और वर्तमान कलियुग को समाप्त होनें में अभी चार लाख,  छब्बीस हजार, आठ सौ नवासी सायन सौर वर्ष शेष हैं । इसके पश्चात स्वभाव समिति (भारती) अपने कारण मनसात्मा गणपति में लीन हो जायेंगे तथा वापस सतयुग आरम्भ हो जायेगा।

कल्कि अवतार होने को अभी चार लाख, छब्बीस हजार, अट्ठावन वर्ष शेष हैं। वे कलियुग समाप्ति के आठसौ एक्कीस वर्ष पहलें जन्म लेंगे।

 भारतवर्ष में वेदिक वर्णश्रम धर्म  या  वेदिक प्रवृत्ति मार्ग का आरम्भ   -- 

प्रजापति ब्रह्मा के प्रथम मन्वन्तर के आरम्भ में 1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु,10 रुचि , 11 कर्दम ,12 स्वायम्भुव मनु 13 धर्म,14 अग्नि, 15 सोम को उत्पन्न किया। दक्ष (प्रथम) प्रजापति की पुत्रियों से इनका विवाह हुआ।
हुए ये सभी सब प्रजापति भी कहलाते हैं ।  इनमें से रुचि और कर्दम को छोड़   1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु को नौ ब्रह्मा कहते हैं। 
प्रजापति ब्रह्मा ने दक्ष (प्रथम) -  प्रसुति, रुचि -आकुति,कर्दम - देवहूति और  स्वायम्भुव मनु  - शतरूपा, ये चार को  युग्म अर्थात जोड़े से  उत्पन्न किया। किन्तु प्रसुति, देवहूति और आकुति कै स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की पुत्री भी माना जाता है। सम्भवतः  स्वायम्भुव मनु ने इनको पुत्री मान लिया हो अर्थात मानस पुत्रियाँ होंं। उक्त  सभी ऋषि और स्वायम्भूव मनु भी प्रजापति ही थे। पर इनमें विशेषरूप से दक्ष प्रजापति (प्रथम) रुचि प्रजापति और कर्दम  प्रजापति को प्रजापति कहते हैं।  ये वेदिक वर्णश्रम धर्म यानि प्रवृत्ति मार्ग के प्रवर्तक हुए। ये पञ्चमहायज्ञ यज्ञ ,अष्टाङ्गयोग  और ज्ञान मार्ग का अनुसरण कर सर्वव्यापी विष्णु के  स्वरुप मे ईश्वर की आराधना उपासना करते थे।

इन ऋषियों या प्रजापतियों की जो सन्तान ब्रह्म ज्ञानि ऋषि हुई वे ब्राह्मण कहलाये। जो वेदों के जानकार हुए वे विप्र कहलाये। जिनकी प्रवृत्ति रक्षण की थी, जो साहसी, वीर थे वे क्षत्रिय कहलाये। जो व्यव्हार कुशल कृषि,पशुपालन और लेनदेन में कुशल थे वे वैष्य कहलाये। जो सेवाभावी, कुशल कार्मिक थे वे शुद्र कहलाये। इनकी सन्तानों में उनके गुण कर्मानुसार उनके वर्ण की माने गये। 

 स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत हुए। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव और उत्तम हुए। और प्रियवृत के आग्नीन्ध्र आदि नौ पुत्र हुए।

स्वायम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र प्रियवृत को के दस पुत्र और तीन मानस पुत्रियाँ हुई। जिनमें तीन पुत्र निवृत्ति परायण हो गये। मनु पुत्रों में निवृत्ति मार्ग का प्रारम्भ यहीँ से हुआ। शेष सात पुत्रों को प्रियवृत ने सप्तद्विपों का उत्तराधिकारी बनाया। उनमें से आग्नीन्ध्र को जम्बूद्वीप मिला।

आग्नीन्ध्र के पुत्र अजनाभ हुए।अजनाभ को जम्मुद्वीप का दक्षिणी भाग का उत्तराधिकार मिला। उनने उसभाग को अजनाभ वर्ष नाम दिया।अजनाभ को नाभि और अजनाभ वर्ष को नाभिवर्ष भी कहते हैं। 

अजनाभ के पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव को भी अजनाभ वर्ष/नाभिवर्ष का राज्य उत्तराधिकार में मिला। 

ऋषभदेव के पुत्र भरत चकृवर्ती हुए । भरत चकृवर्ती को भी नाभिवर्ष उत्तराधिकार में मिला पर उनने अजनाभ वर्ष / नाभिवर्ष का नाम बदलकर भारतवर्ष रखा। तब से यही नाम प्रचलित है।


                     वर्ण व्यवस्था
 ब्राह्मण वर्ण -- ब्राह्मण वर्ण है न कि जाति।ब्राह्मण जन्म से नही होता। प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र 1 दक्ष 2 मरीची, 3 भृगु, 4 अत्रि, 5 वशिष्ठ,6 अङ्गिरा, 7 पुलह,8 पुलस्य,9 कृतु हुए ये सब प्रजापति हुए। ये नौ ब्रह्मा कहलाते हैं। इनके अलावा 10 रुचि प्रजापति और 11 कर्दम  प्रजापति हुए जो सब आत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी थे। इनकी सन्तान भी आत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी होने से ब्राह्मण कहलाई। ये स्वायम्भूव मन्वन्तर में हुए और रहे।
 इन ऋषियों ने अपनी सन्तानों को हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से प्राप्त वेदों का ज्ञान दिया।इस कारण वेआत्मज्ञ ब्रह्म ज्ञानी होगये अतः ये ब्राह्मण कहलाते हैं और *ब्रह्मज्ञानियों द्वारा पालन किया गया सनातन वेदिक धर्म ब्राह्म धर्म और ऋषियों द्वारा पालित होने से आर्षधर्म कहलाया।* 
ये ही वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर तक भी यही परम्परा विद्यमान है।
बाद में इनके कुछ वंशज गुण कर्मानुसार क्षत्रिय होगये तो कुछ वैष्य भी हुए और कोई कोई शुद्र भी हो गये।
वर्तमान में वास्तविक आत्मज्ञ ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण और वेदपाठी विप्र दुर्लभ हो गये हैं। पञ्चाग्निसेवी कर्मनिष्ठ श्रोत्रिय भी दुर्लभ हैं। द्विजत्व भी नही के बराबर ही बचा है।

क्षत्रिय वर्ण  मनुर्भरत - प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए।ये भी प्रजापति ही थे। स्वायम्भुव मनु की सन्तान गुण कर्मानुसार क्षत्रिय कहलायी हैं।इनका वर्ण क्षत्रिय था न कि, जाति।
स्वायम्भुव मनु के कई वंशज ब्रह्मज्ञानी होकर ब्राह्मण भी होगये, तो कुछ वैष्य भी हुए।  
स्वायम्भुव मनु की पत्नि शतरूपा के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियवृत  हुए। प्रियवृत के पुत्र आग्नीन्ध्र जम्मुद्वीप के शासक हुए। आग्नीन्ध्र के पुत्र नाभि या अजनाभ को जम्मुद्वीप का दक्षिणी हिस्से का शासनाधिकार मिला। उनने इसे नाभिवर्ष या अजनाभ वर्ष नाम दिया।
नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए।ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए।
भरत चक्रवर्ती ने जम्मुद्वीप के इस दक्षिणी भाग का नाम भारत वर्ष रखा। जो आजतक प्रचलित है। इन्ही भरत की सन्तान मनुर्भरत कहलाती है।  
मनुर्भरत मूल भारतीय है। मनुर्भरतों का निवास क्षेत्र मूख्यतः पञ्जाब,कश्मीर, सिन्ध वाले क्षेत्र में था। उस समय आर्यावृत में ही मानव फैल पाये थे। दक्षिण में मानव नही बसे थे। भारतीय धर्म संस्कृति इन्हीं की देन है।  वास्तव में आर्य किसी भी जाति का नाम नही है। उक्त दक्ष आदि वेदिक ऋषियों के अतिरिक्त वेदिक धर्म और संस्कृति के वाहक ये मनुर्भरत ही थे।  
सनातन वेदिक धर्म मर्यादा  का पालन स्वायम्भुव मनु ने किया अतः स्वायम्भूव मन्वन्तर में यह  मानव धर्म कहलाया। इन्हीं के कुछ वंशज ब्राह्मण भी हुए। अधिकतर वंशज क्षत्रिय हुए और कुछ वंशज वैष्य हुए तो कुछ शुद्र भी हुए।

 वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में सूर्यवंशी क्षत्रिय मानवों, चन्द्रवंशी क्षत्रियों, दृविड़, देवासुर,गन्धर्व, नाग, यक्ष,दैत्य , दानव आदि जातियों की उत्पत्ति--

वास्तविक जातियाँ यानि  Human race  की उत्पत्ति --

वेद , वेदिक साहित्य, स्मृतियों,  रामायण, महाभारत, और पुराणों में उल्लेखित , द्विपदों (Human) की मुख्य जातियों का विवरण नीचे प्रस्तुत है। ये ही जाति है जो जन्मगत होती है। बदली नही जा सकती। कई पिढ़ियों बाद भी किसी जाति में जन्मे व्यक्ति को चेहरा देखकद ही पहिचाना जा सकता है। इन्ही जातियों में अन्तः विवाह की अनुशंसा मनुस्मृति में की गई है।

सुर्यवंशी - मरीची प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे। मरीची के पुत्र महर्षि कश्यप का क्षेत्र कश्मीर से कश्यप सागर और तिब्बत, पामिर और रुस तक फैला था।
महर्षि कश्यप और अदिति की सन्तान द्वादश आदित्य नामक देवगण हुए। जो कश्मीर, तिब्बत पामिर में बसे। वैवस्वत मन्वन्तर में आदित्य विवस्वान के पुत्र  वैवस्वत मनु के वंशज सुर्यवंशी अयोध्या में बसे। ये भारत में मूल क्षत्रिय कहलाते हैं। किन्तु इनमें भी कुछ ब्रह्मज्ञानी हुए जो ब्राह्मण कहलाते हैं । कुछ सन्तान वैष्य भी हुई। तो कुछ शुद्र भी हो गये। ये वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में हुए।
चन्द्रवंशी - टर्की के केनिया , बर्दूर, और हेसिलर नगरों  (दक्षिण पुर्व  अनाटोलिया पठार) में खत्तुनस के वंश हित्ती सभ्यता  वाले चन्द्रवंशी टर्की  से आये खाती, खत्री  चन्द्रवंशियों को सुदास ने प्रयागराज में बसाया। ये भी पहले कश्मीर में रहे थे। आज भी पञ्जाब, सिन्ध ,कश्मीर में इनके वंशज हैं। इनमें भी कुछ ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्राह्मण कहलाये।
अधिकतर (कृषक) वैष्य और कुछ शुद्र भी होगये।
 नाग --नागवंशी सिरिया से आये। ये वही नाग है, जिनने यहोवा  (एल पुरुरवा) के आदेश के विरुद्ध  आदम (आयु) को बुद्धिवृक्ष का फल (परिपक्व होने से पहले ही) खाने की प्रेरणा दी। आदम (आयु) बुद्धिवृक्ष का (अधपका) फल खागया ।
(और  ये हूवा जो बैचारा मुर्ख था वह मुर्ख ही रह गया।😜😂) (महाभारत के अनुसार चन्द्र वंश में ययाति, नहुष , शान्तनु जैसे   एक से बड़कर कामुक और एक मुर्ख हूए।)
एल पुरुरवा (यहोवा) ने आयु (आदम) को दक्षिण पुर्वी टर्की से निकाला तो वह सिंहल द्वीप में आ गया। यहाँ से फारस की खाड़ी होते हुए इज्राइल तरफ गया। ये क्षत्रिय माने गये। इनमें कई शुद्र और कुछ म्लैच्छ भी हुए। ये भी वैवस्वत मन्वन्तर की ही घटना है।

                           देवगण  --देवता
 आदित्य गण  -- महर्षि कश्यप और अदिति के पुत्र  द्वादश आदित्य और  आदित्यों की सन्तान कश्यप सागर से पामिर- तिब्बत - कश्मीर में बसे। 
वसुगण -- वसुगण महर्षि कश्यप और वसु के पुत्र वसु देवगणों में सम्मिलित थे।  वसुओं की सन्तान भिन्न भिन्न स्थानों मे फैल गयी। 
 धर / धर्म वसु धर्म वसु दक्षिण में बसे, धर वसु के पुत्र दृविण की सन्तान दृविड़ कहलाई। 
 अनल वसु के वंशज आग्नेय कहलाते हैं ।आग्नेय पुर्व और दक्षिण पुर्व में आस्ट्रेलिया तक फैल गये।
 अनिल वसु वायु पुत्र और मरुद्गण वायव्य कोण में बलूचिस्तान से कजाकिस्तान तरफ बसे। 
 आपःवसु  आप (जल) की सन्तान सिन्ध से ईरान तक पश्चिम में बसे । ये वरुणोपासक हैं।
 प्रभास वसु --  प्रभास वसु का क्षेत्र  प्रभासक्षेत्र सोमनाथ गुजरात में  है। प्रभास वंशी पश्चिमी गुजरात में बसे।
 प्रत्युष-- प्रत्युष भी इसी क्षेत्र में बसे।
सोम और ध्रुव-- सोम और ध्रुव के वंशज हिमालय क्षेत्र में बसे
 असुर --  जानदार/ प्राणवान, बलिष्ट असुर  असीरिया (इराक), मेसापोटामिया, बेबीलोन, सऊदी अरब  में बसे। ये रुद्र भक्त शिवाई  (साबई), बालदेव उपासक असुर हुए। इनने शुक्राचार्य को अपना गुरु माना। शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने युनान के पास  क्रीट में शाक्तपन्थ की स्थापना की।
 असुरों के आचार्य जरुथ्रस्त ने ईरान के मीड और मगों को आसुरी मत में बदला। ये अग्नि को प्रतिक मानकर असुरमहत् (अहुरमज्द) के उपासक हो गये।
दैत्य -  एल पुरुरवा (यहोवा) ने आयु (आदम) को दक्षिण पुर्वी टर्की की अदन वाटिका से निकाला तो वह सिंहल द्वीप में आ गया। यहाँ से फारस की खाड़ी होते हुए इज्राइल की तरफ गया।
 दैत्य - महर्षि कश्यप और दनु के पुत्र दैत्यगण मिश्र और  अम्मानके पास जोर्डन की जेरिको सभ्यता, इज्राइल, स्वेज और लेबनान (फोनिशिया सभ्यता) में बसे। पश्चिम एशिया दैत्यों का क्षेत्र था ।
दक्षिण भारत पर कब्जा जमाये राजा बलि को वामन / विष्णु द्वारा केरल (भारत)  से निकालने पर  राजा बलि भी भारत के दास, दस्यु ,चोल, चालुक्यों को लेकर पहले लेबनान (फोनिशिया) ही गया था। फिर लेबनान से निकलकर  दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया बसा। 
ये दास दस्यु, चोल आदि रास्ते में लूटमार करते गये। काले रंग के इन चोर लुटेरों को ईरानियों ने फारसी भाषा में हिन्दू कहा।
ये दास दस्यु, चोल आदि कुछ सिन्ध, से गुजरात तक में  भी रुक गये। इसलिये हड़प्पा में इनके अवशेष मिलते हैं।
इस बीच बलि से नाराज शुक्राचार्य  मक्का (सऊदी अरब) में रुक गये। वहाँ शुक्राचार्य ने  अपने ईष्ट और गुरु महारुद्र पशुपति शंकर की उपासना के लिये  काव्य मन्दिर काबा में शिव परिवार की प्रतिमाओं की स्थापना की। जिसमें से मुख्य शिवलिङ्ग (संग ए अस्वद्) को छोड़ शेष सभी प्रतिमाएँ मोह मद ने तोड़ दी। और काबा को इस्लाम का भी तिर्थ घोषित कर दिया तथा तिर्थ के लिए जेरुसलम जाना बन्द कर दिया।
 दानव -  महर्षि कश्यप और दनु के पुत्र यानि  दनु (डेन्यूब नदी) के वंशज दानव  युगोस्लाविया  की लेपेन्स्की वीर सभ्यता (Lepennki Vir )  और प्राग(चेकोस्लोवाकिया) से जर्मनी  तक और युनान रोम की युरोपीय सभ्यता दानवों की है। सेल्ट या केल्ट लोग दानव थे ये इंग्लेण्ड में तप करते थे। ये दैत्यों के मित्र हुए।
 असुरों की विजय यात्रा
असुरों ने , दैत्य, दानवों को अपने पक्ष में कर बड़ी सेना बनाई। जिसमें मंगोलिया तक के क्रुर रुद्रगणों / सेनिकों को सम्मिलित किया। असुर जिते हुए क्षेत्र के सैनिकों को अपनी सेना में सम्मिलित कर लेते थे।
असीरिया (इराक) के असुर पहले सिरिया (नागलोक) पर आक्रमण करते,  सीरिया के बाद  दक्षिण पश्चिम इरान (यमलोक) पर आक्रमण करते। यम लोक जीत कर पृथ्वी पर यानि  राजा प्रथु द्वारा शासित भूमि (ईरान से पञ्जाब तक) पर आक्रमण करते। ईरान और पश्चिमी भारत विजय कर उत्तर में बड़ते। फिर सुवर्ग यानि स्वर्ग क्षेत्र कश्मीर तिब्बत पामिर (स्वर्ग) पर आक्रमण करते थे। स्वर्ग के देवतागण उनके राजेन्द्र के नैत्रत्व में अपने निकटतम रुद्र देव  सेनापति महारुद्र  शंकरजी से रक्षार्थ निवेदन करते। क्योंकि युद्ध रुद्र का ही क्षेत्र है।
ब्राह्मण और मानव (क्षत्रिय)  पितामह प्रजापति ब्रह्माजी से निवेदन करते। 
 प्रजापति ब्रह्माजी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा से और हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नारायण ब्रह्मा से विनती करते।
नारायण के कहने पर कोई  ब्रह्मज्ञानी सिद्ध भूमिभार हरने आता। जिसे अवतार कहा जाता है।
 किन्नर--  किन्नर  किन्नोर में रहते हैं।
गन्धर्व --  गन्धर्व कान्धार (बलुचिस्तान और अफगानिस्तान) में रहते हैं।
 यक्ष -- महर्षि कश्यप और  के पुत्र यक्ष चीन में रहते हैं ये, सदैव भूखे रहते हैं और सबकुछ खाजाते हैं, सर्वभक्षी हैं। इस कारण प्रतिमाओं में यक्षों को सुमो पहलवान के समान तोन्दवाला बतलाया जाता है।
 प्रमथ गण -  प्रमथ गण चीन और मंगोलिया की ओर बसे।
 राक्षस -- राक्षस (निग्रो)  अफ्रीका में बसे। राक्षस लोग पहले अङ्गरक्षक का काम करते थे।रक्षक थे। बादमें रावण के नेत्रत्व में आसुरी कर्म करने लगे।रावण ने अफ्रीका से उत्तर दक्षिण अमेरिका तक के राक्षसों को संगठित किया।

जाति प्रथा वाली आधुनिक जातियाँ जाती नही वंश या कुल हैं।

आज की जातिप्रथा वाली प्रचलित जातियाँ वास्तव में जाति ही नही है। ये किसी समय एक कुल या वंश थी।  वे कुल ही जनसँख्या वृद्धि के परिणाम स्वरूप और विभाजित होते गये। इनमें कुछ क्षेत्र विशेष में बसनें के आधार पर एक ही कुल के उप कुल हो गये। तो कहीँ उपकुलपति की योग्यता और प्रधानता वश नये उपकुल बन गये। कुछ कुल स्वस्थान छोड़कर अन्यत्र बस गये तो अलग जाति कहलाने लगी। तो कुछ नें अपना पारम्परिक व्यवसाय निर्धारित कर लिया तो नई जाति हो गई।। स्थान, व्यवसाय आदि आधारों पर ये कुल या वंश जातिप्रथा की जातियाँ कहलाने लगी। जबकि ये वंश या कुल वाली जातिप्रथा आधारित जातियाँ जन्माधारित जाति और स्पष्ट देहिक पहिचान वाली ज्ञाति नही होने से वास्तविक जाति नही है। इस्लामिक काल और ब्रिटिश काल में इन जातियो पर जाति का स्थाई सरकारी ठप्पा लग गया। किन्तु वस्तुतः ये जातियाँ नही कुल या वंश ही है।
वेद, ब्राह्मण, धर्मसुत्रों तथा मनुस्मृति याज्ञवल्य स्मृति के अनुसार जब एक ही ग्राम में रहने वालों मे, सगोत्रीयों मेंं अपने प्रवर में, सपिण्डों मे विवाह निषिद्ध है तो  इसी कारण  केवल यहुदियों की नकल कर अपने कुल में  अन्तः विवाह करना अनैतिक और धर्म विरुद्ध है। 

गुरुवार, 4 जून 2020

परमात्मा, परमदेव, देव, देवता, अवतारी और देवांश।

परमात्मा
परमात्मा, परम आत्म है। वास्तविक मैं है। सबसे परे है, सबसे परम है।

विश्वात्मा ॐ देवत्व से अति परे अति श्रेष्ठ हैं। यही शिव संकल्प है।

 प्रज्ञात्मा परब्रह्म,(परम दिव्य पुरुप विष्णु - परा प्रक.ति माया) अधियज्ञ, परम देव हैं। यह अधिष्ठान है।

देव
प्रत्यागात्मा ब्रह्म विधाता महाकाश,  (पुरुष, सवितृ, हरि - प्रकृति सावित्री कमला) अधिदेव हैं।यह भी अधिष्ठाता है।

जीवात्मा अपरब्रह्म , विराट , महाकाल, स्वभाव ( अपरपुरुष/जीव नारायण - अपरा प्रकृति/आयु/ श्रीलक्ष्मी) ,अध्यात्म/ स्वभाव है। यह अधिकरण है।

भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा /पञ्चमुख ब्रह्मा/ विश्वकर्मा , महादिक,(प्राण/चेतना/देही, त्वष्टा  - धारयित्व/ धृति,/अवस्था/ रचना) अधिभूत हैं। यह अधिकारी माना है।

सुत्रात्मा, प्रजापति ब्रह्मा/  चतुर्मुख ब्रह्मा/ विश्वरूप/ ब्रह्माण्ड स्वरूप (रेतधा/ ओज,/प्रथम दक्ष प्रजापति - स्वधा/ आभा/ प्रसुति) महादेव हैं। यह अभिकरण (एजेन्सी) है।

देवता गण --
अणुरात्मा , बृहस्पति (तेज/ इन्द्र - विद्युत/शचि) ख है । यह भी अभिकर्ता है। (एजेण्ट है।)

विज्ञानात्मा, ब्रह्मणस्पति (विज्ञान / चित्त/आदित्य - वृत्ति/ चेत/ प्रभा) ।

ज्ञानात्मा, वाचस्पति (बुद्धि/ वसु - मेधा/ वरुणादेवी)

लिङ्गात्मा , पशुपति, अर्धनारीश्वर (शंकर), (अहंकार/ रुद्र- अस्मिता/ रौद्री)

मनसात्मा, गणपति (मन/ मनु - संकल्प / शतरूपा)।
स्व ,सदसस्पति - स्वभाव , भारती।

स्वाहा,मही - वौषट,सरस्वती - स्वधा,इळा।

अधिदेव, अष्टादित्य (मुख्यप्राण, ऋभुगण - उपप्राण)  - अध्यात्म अन्य अष्टवसु (ज्ञानेन्द्रियाँ ,मरुत - कर्मेन्द्रियाँ ) - अधिभूत , अष्टमुर्ति रुद्र ( महाभूत अन्य एकादश रुद्र  - तन्मात्राएँ)।

कारण शरीर , अश्विनौ (मुख्य चक्र, सिद्ध -उपचक्र, सिद्धियाँ) -

सुक्ष्म शरीर , विश्वकर्मा /देवताओं के अभियान्त्रिक ( मुख्य संस्थान, त्वष्टा द्वितीय) - 

लिङ्गशरीर , यह्व (मुख्य सिद्धियाँ मुख्य विनायक - उप सिद्धियाँ, उप विनायक)।

सुशुम्ना (दक्ष द्वितीय) - पिङ्गला, त्रिशिरा विश्वरूप - इड़ा ,एल भैरव।

पिण्ड, कोशिका, एटम, तन,/ शासक, राजा।

देवता कौन हैं क्या होते हैं? कितने हैं? कौन कौन है?

देवताओं का वर्गीकरण निम्नानुसार है।
योनियों के आधार पर -

1 *अजयन्त देव* - प्रजापति ब्रह्मा आदि जिन्हे अंशतः ईश्वरीय शक्तियाँ आवंटित वे अजयन्त देव कहलाते हैं। इनका निवास स्थान द्युलोक है। ये ऐश्वर्य सम्पन्न होते है। यथा
सृष्टिचक्र व्यवस्थापन करना।  _नौ ब्रह्मा कहलाने वाले नौ जोड़े, मनु शतरूपा, अग्नि - स्वाहा, स्वधा जैसे जोड़े उत्पन्न कर मैथूनी सृष्टिउत्पत्ति का आरम्भ इन्ही युग्मदेवताओं से उत्पन्न सन्तानों को विश्वभर में फैलाना।_ 

2 - *आजानज देव* - देवराज इन्द्र जैसे जन्मजात देवता आजानज देव कहलाते हैं ये स्वर्गाधिपति बने।
 द्वादशआदित्य, द्वादश तुषित और  द्वादश साध्यगण आदि भी आजानज देव हैं। जो स्वर्ग में रहकर इन्द्र की शासन व्यवस्था में सहयोगी होते हैं। ये इन्द्र के शासन के मन्त्री कहे जा सकते हैं।

 *आदित्य* --
 *द्वादश आदित्य -* प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र  दक्ष (प्रथम) और प्रसुति की पुत्री अदिति और प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप की सन्तान द्वादश आदित्य हुए।

 *अष्टादित्य* -- प्रचेताओं के पुत्र दक्ष (द्वितीय) और असिक्नि की पुत्री अदिति और कश्यप ऋषि की सन्तान अष्ट आदित्य हुए। 
 हमारे सौर मण्डल का सुर्य जिस केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है वह केन्द्र मार्तण्ड नामक आदित्य है। कुछ लोग  हमारे सौर मण्डल के सुर्य को ही मार्तण्ड मानेते हैं। इन्ही मार्तण्ड के नाम पर इसे मर्त्यलोक कहते हैं।
 
 *तुषित गण* -- स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न हुए द्वादश पुत्र तुषित कहलाये।भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में इनके नामों में भिन्नता पाई जाती है।इनकी संख्या बारह और तीस दोनों बतलाई गई है।

*साध्य देव* -- दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न द्वादश पुत्र साध्य देव कहलाते हैं। भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में इनके नामों में भिन्नता पाई जाती है।

3  *वैराज देव* - 
*अष्ट वसु* अग्नि (अनल), वायु (अनिल) ,जल (आपः), सोम, ध्रुव, धर्म,प्रभास, और प्रत्युष आदि *प्राकृत देवता वैराज देव कहलाते हैं।* ये भी इन्द्र के शासन के मन्त्री कहे जा सकते हैं।
 _ये भी जन्मतः वैकुण्ठवासी ,गौलोक, साकेत लोक में जन्में होकर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी होते हैं।_ 

4 *रुद्र* --  
*एक रुद्र से ग्यारह रुद्र और फिर अनेक रुद्र*

 *एकरुद्र* --
प्रजापति ब्रह्मा के रोष से नीललोहित वर्णी, अर्धनारीश्वर रुद्र हुआ जिसे पशुपति का पद दिया।
यह रुद्र पशुपति यथा आवश्यकता अपना पुरुष रूप और स्त्री रूप अलग - अलग कर सकता था। इन्हें ही शङ्कर   कहते हैं।
पुरुष रूप ने और स्त्री रूप ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया।

 *एकादश रुद्र्
मुख्य रुद्र शंकर के अलावा दश रुद्रगण ये हैं - 1 हर, 2 त्र्यंबक (त्रिनैत्र),3 वृषाकपि, 4 कपर्दि (जटाधारी), 5 अजैकपाद,6 अहिर्बुध्न्य  (सर्पधर), 7 अपराजित, 8   रैवत, 9  बहुरुप,10 कपाली (कपाल धारी),। एक रुद्र (पशुपति) तथा दस रुद्र जो एकरुद्र शंकर जी से प्रकट हुए थे कुल मिलाकर ग्यारह रुद्र कहलाते हैं।

पशुपति एक रुद्र   शंकर सहित 1  शंकर  तथा दश रुद्रगण  2 हर, 3 त्र्यंबक ,4 वृषाकपि, 5 कपर्दि , 6 अजैकपाद,7 अहिर्बुध्न्य  , 8 अपराजित, 9 रैवत, 10 बहुरुप,11 कपाली मिलकर एकादश रुद्र कहलाते हैं। ये अन्तरीक्ष स्थानी देवता हैं। लेकिन शंकरजी भूमि पर कैलाश पर रहते हैं। इसलिये मानवों के लिये ये निकटतम होनें से सर्वाधिक लोकप्रिय होगये।

और शेष दस रुद्रों के नामों में मतैक्य नही है। क्योंकि कुछ लोग प्रभास-वरस्त्री के पुत्र विश्वकर्मा के पुत्र एकादश रुद्गगणों के नामों 
1 शम्भु, 2 ईशान, 3 महान, 4 महिनस,  5 भव, 6 शर्व, 7 काल, 8 उग्ररेता,  9 मृगव्याघ, 10 निऋति, 11 स्थाणु  को भी उक्त एकादश रुद्र नाम से प्रस्थापित करते हैं।
 ऐसे दो प्रकार के एकादश रुद्र हैं। 
इनके अलावा  रुद्र की अष्टमुर्ति ये हैं  1भव,2 शर्व ,3 ईशान, 4 पशुपति, 5 द्विज,6 भीम, 7 उग्र, 8 महादेव।

ये सब नाम एक दुसरे में प्रस्थापित कर कई स्थानों पर एकादश रुद्रों के नामों में अन्तर देखे जाते हैं।

 *अनेकरुद्र --* 
एकरुद्र शंकरजी प्रमथ गणों के गणपति थे फिर मिढ गणों के गणपति मिढिश भी कहलाये बाद में रुद्रगणों के गणपति और गणाधिपति भी कहलाये। कुबेर के पहले शंकरजी ही नीधिपति का कार्य भी देखते थे। क्योंकि कल्याणकारी कार्यों के कारण ये सबके विश्वसनीय और प्रियातिप्रिय प्रियपति हो गये थे।
फिर इन दस रुद्रों ने रुद्र सृष्टि की यह रुद्र सृष्टि ही अनेकरुद्र कहलाती है।
भैरव,वीरभद्र, भद्रकाली, नन्दी, भृङ्गी, तथा
 विनायक गजानन को प्रकट किया।  यक्षराज मणिभद्र ,यक्ष  कुबेर तथा वासुकी, पुष्पदन्त गन्धर्व भी रुद्रगण हैं।
 गजानन विनायक सहित अष्ट विनायक हुए हैं। पहले एकरुद्र शंकरजी प्रथमेश और रुद्रगणों के गणपति थे। गजानन विनायक को सर्वप्रथम प्रमथ गणो के गणपति और बाद म समस्त  रुद्रगणो का गणपति स्वीकारा गया।
 अष्ट विनायकों के नाम ये हैं।ये पिशाच हैं
1 सम्मित, 2 उस्मित; 3 मित, 4 देवयजन;
5 शाल, 6 कटंकट; 7 कुश्माण्ड, 8 राजपुत्र।
ताल- बेताल भी पिशाच होते हैं।

 सुचना --

1   जैसे रावण यथावश्यक्ता स्वयम् को एक मुखी या दशमुखी दिखा सकता था। वैसे ही रूद्र अपने आपको स्त्री पुरुष रूप में दिखा सकता था।

2   पुरुष रूप ने और स्त्री रूप ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया। जैसे कौशिकी के शरीर से सब देवियाँ निकली और फिर समा गयी ऐसे ही।

3   यदि एक रुद्र ने स्वयम् को स्त्री पुरुष रुप में विभाजित तक फिर स्त्री और पुरुष भाग ने ग्यारह ग्यारह भागों में विभाजित कर लिया तो  मूल स्वरूप एकरुद्र सहित बारह रुद्र कहलाते।

 *4  कर्मदेव -* 

 *शतकृतु* , शक्र नामक इन्द्र कर्मदेव है। ये  शतकृतु  इन्द्र स्वर्गाधिपति  इन्द्र से भिन्न और उनके अधिनस्त हैं। ये इन्द्र के शासन के सचिव कहे जा सकते हैं।  शतकृतु और शक्र स्वर्गाधिपति  इन्द्र की उपमा भी है।

 *अश्विनौ* ---  सुर्य और अश्विनी रूप सरण्यु  की दो सन्तान   1.नासत्य और 2.दस्र  अश्विनी कुमार कहलाती हैं। 
ये कुशल चिकित्सक, शल्य चिकित्सक, और अभियान्त्रिक भी हैं।

 *ऋभुगण*--  ये कुशल चिकित्सक, शल्य चिकित्सक, और अभियान्त्रिक भी हैं। अश्विनौ के साथी भी है।

 *मरुद्गण* --  वेदों में मरुद्गणों को रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है।   वेदों के अनुसार मरुतगणों को अन्तरीक्ष स्थानी देवता है। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं। 
ऋ. 1.85.4 में मरुद्गणों को इंद्र का सखा कहा गया  है।   अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है ।
पुराणों में इन्हें वायव्यकोण का दिक्पाल माना गया है। 
मरुद्गणों को वायु के प्रकार कह सकते हैं। झंझावात भी मरुद्गणों का एक रुप है। 
 *सप्त मरुत* -- 1.आवह, 2.प्रवह, 3.संवह, 4.उद्वह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह है। ये सातों सैन्य प्रमुख  समान गणवेश धारण करते है।
इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।*

ये 7 प्रकार हैं-

1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह।*

1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।

2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।

3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है।

4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।

6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।

इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं- -

1ब्रह्मलोक, ..2इंद्रलोक,..3अंतरिक्ष, 4..भूलोक की पूर्व दिशा,.. 5भूलोक की पश्चिम दिशा,6.. भूलोक की उत्तर दिशा और7.. भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह 7*7=49। कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।

 ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप देवता श्रेणी में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।
 ये _सत्यलोक में जन्मे होकर_ उप देवताओं के रुप में कार्य करते हैं।इन प्रत्यैक मरुत के छः-छः पुत्रों सहित उनचास  मरुद्गण देवसेना में प्रमुख योद्धा हैं।  
 वेदों में मरुतों का एक संघ में कुल 180 से अधिक मरुद्गण भी बतलाया  हैं, किन्तु उनमे उनमें भी उनचास मरुद्गण ही प्रमुख हैं। 
कहा गया है कि, उनचास  मरुद्गण ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक में सभी ओर सभी दिशा में  देव रूप में देवों के लिए विचरते हैं।

शतकृतु,   दस्र और नासत्य नामक दो  अश्विनी कुमार, ऋभुगण   ,उनचास  मरुद्गण कर्मदेव कहलाते हैं। इन्हें इनकी योग्यता और सुकर्मों के फल स्वरूप देवलोक में कर्मदेव के रूप में स्थान मिला।

6  *विश्वेदेवाः* - _तपः लोक में_ तीन विश्वेदवा जन्में, उनसे दस विश्वेदेव हुए।दसों के पाँच पाँच पुत्र जन्म लेकर तिरसठ विश्वेदवा  जगत में देवतुल्य पुजाते हैं और जगत संचालन  में सहयोग करते हैं। अंतरिक्ष में इनका अलग ही एक लोक माना गया है। पितृदेवों के समान इन्हे भी श्राद्धभाग मिलता है।


7  *पितरः* - सात पितर हैं । जिनमें 1अर्यमा, 2 अग्निष्वात्ता, और 3 बहिर्षद निराकार और 4 कव्यवाह आंशिक साकार तथा तीन साकार हैं 5 अशल, 6 सोम एवम् 7 यम।
 श्राद्धभाग इन्हें ही मिलता है।स्वर्गवासी हो चुके हमारे पुर्वजों के पालक और शासक पितर ही माने जाते हैं और स्वर्ग में सोम लोक में रहते हैं।

8  *लोकपाल* -  स्वर्गादि लोकों के  लोकपाल होते हैं। इनकी संख्या कहीँ पाँच और कहीँ आठ बतलायी है। ये निर्धारित समय के लिये नियुक्त रहते हैं। ये पदाधिकारी हैं।

9   *दिक्पाल* दसों दिशाओं के दस दिक्पाल होते हैं। ये गज पर सवार होने के कारण दिग्गज शब्द प्रचलित हुआ। 

10 *सिद्ध* - चौरासी सिद्धदेव महर्लोक में  रहते हैं और समय समय पर स्वर्ग, भूलोक तक में धर्मसंस्थापनार्थ सहयोग करते हैं।

11 *सप्तर्षि* -- सभी मन्वन्तरों में भिन्न भिन्न सप्तर्षि होते हैं।

*मात्रकाएँ* - ये देवियाँ हैं। मूलतः भारती सावित्री के समान देवी है। मही श्री लक्ष्मी के समान, सरस्वती ब्रह्माणी के समान और ईळा  उमा के समान ।
उक्त भारती,मही,सरस्वती और ईळा और इनके ही विभिन्न रूप मातृकाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं।

13 *क्षेत्रपाल* - किसी क्षेत्र विशेष के पालक शासक। प्रायः राजन्य वर्ग क्षेत्रपाल होते हैं। काशी के क्षेत्रपाल कालभैरव हैं। ग्राम सीमा पर खेड़ापति हनुमानजी  के रूप में क्षेत्रपाल ही स्थापित होते हैं।क्षेत्रपाल आन्तरिक सुरक्षा (पुलिस) प्रशासन के पदाधिकारी हैं।

14 *आभास्वर* -- आभास्वर का अर्थ आभावान हैं। आभास्वरों की संख्या चौसठ  कही गयी है।  ये पञ्चभूत,दश इंद्रिय और अंत:करण चतुष्ठय को वश में रखते  हैं इसलिये इन्हे देवता श्रेणी में रखा गया है।
यह भी उल्लेख है कि, तमोलोकों में 1आभास्वर, 2 महाभास्वर और 3 सत्यमहाभास्वर  नामक  तीन देवनिकाय हैं।

15  *महाराजिक* -- दो सौ बीस महाराजिक देवगण सदेव एकसाथ समुह में ही रहते हैं, यज्ञ भाग प्राप्त करने भी इकट्ठे ही जाते हैं।  पङ्क्ति में चलते हैं। अभियांत्रिकीऔर चिकित्सा क्षेत्र में सृजन और संरक्षण में सहयोगी का कार्य भी करते हैं। 

16 *लोक मातृकाएँ* - कौशिकी चण्डिका की सहयोगी देवियाँ लोकमातृकाएँ कहलाती है।

17 *देव गन्धर्व* - यह गन्धर्वों का ही एक प्रकार है।  नारद, तम्बुरा जैसे देवगन्धर्व होते हैं जो स्वर्गलोग में आ जा सकते हैं और देवताओं का सहयोग करते हैं। यें अति रूपवान, सुघड़, होते हैं पर कौमल शरीर और कोमल स्वभाव के होते हैं। तीन प्रकार के गन्धर्व होते हैं देवगन्धर्व,मानव गन्धर्व और असुर गन्धर्व । किन्तु मानव गन्धर्व और असुर गन्धर्व  देवता श्रेणी में नही आते हैं।

18 *अप्सराएँ* - अप्सराएँ भी प्रायः गन्धर्व परिवार की ही हैं। जलक्रीड़ा में अतिकुशल, सुन्दर और नाट्यशास्त्र प्रवीण प्रायःइन्द्र सभा में देव नर्तकियाँ और देवलोक के लिये गुप्तचरी का कार्य भी करती हैं।

19 - *किन्नर* किन्नर या किम्पुरुष देवताओं के सेवक हैं। किन्नरियाँ भी इनके परिवार की ही होती है। वस्तुतः ये नर यानि मनुष्य ही हैं। किन्तु देवतागण इनकी सेवा लेते हैं। हिमालय में उत्तराखण्ड के किन्नोर क्षेत्र के में निवास करते हैं।

20 *चारण* - ये भी देवताओं के चरण सेवक हैं। और स्तुति करते हैं। ये भी मानव ही हैं।

21 *देवयक्ष* -  स्वर्ग के धनाध्यक्ष कुबेर, यक्षराज मणिभद्र आदि देव यक्ष है।
यक्ष सदेव भूखे, अतिभक्षी, अति स्थुल (सुमो जैसे), होते हैं ये भी देवताओं के सहायक हैं।  ये प्रायः शैव होते हैं। और रुद्रगणों में सम्मिलित होते हैं। 
यक्ष भी तीन प्रकार के होते हैं 1 देवयक्ष, 2 मानव यक्ष एवम्  3 असुर यक्ष। मानव यक्षों का मूल निवास तिब्बत है। असुर यक्ष  छोटी सी कमी/ गलती पकड़ कर यक्ष आवेश आदि के द्वारा परेशान करते हैं। वर्तमान में लोग इन्हें भी भूत प्रेत ही समझते हैं। राक्षस भी यक्ष जाति के ही सदस्य हैं।

22   *विद्याधर* - विद्याधर भी यक्ष श्रेणी के ही हैं।विद्यधरों के प्रमुख चित्ररथ हैं। विद्याधरी भी इनके परिवार की ही सदस्य होती है। ये यक्ष जाति का ही रूप है। पर ये विद्वान, और गुप्तचरी में दक्ष होते हैं।

23  *ग्रह* -- ग्रसने/ निङ्गलने वालों को ग्रह कहा जाता है। सुर्य,  चंद्रदेव, के अलावा ज्योतिष के अनुसार सौर मण्डल में आठ ग्रह  1 बुध,2 शुक्र, 3 भूमि, 4 मंगल,5 बृहस्पति, 6 शनि 7 युरेनस 8 नेपच्युन ।
ग्रह शान्ति प्रयोग में इनमें अन्तिम दो ग्रह युरेनस और नेपच्युन नाम नही मिलते हैं। इन्हे किस नाम से पुकारा जाता था या इन्हे छोड़ दिया गया था यह स्पष्ट नही है।ग्रहशान्ति प्रयोग में भूमि को ग्रह नही माना है। भूमि के स्थान पर भूमि केन्द्रित ग्रहों के समान भूमि के सापेक्ष सुर्य को ग्रह बतलाया गया है और भूमि के उपग्रह चन्द्रमा को भी ग्रह माना है।
 इसी प्रकार युरेनस और नेपच्यून के स्थान पर चन्द्रमा की कक्षा के दो पात राहू और केतु को छाँया ग्रह कहा गया है। जबकि ये कोई पिण्ड नही है। केवल पात यानि क्रान्तिवृत और चन्द्रमा की कक्षा के परस्पर कटान बिन्दु (क्रास) हैं। 

24   *अन्य देवता* -- कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, नाग,  कामदेव,  , ऋत, द्यौः,  वाक, काल, अन्न,वन, वनस्पति, पर्वत,नदियाँ, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष),  पिंगला, जय, विजय,  त्रिप्रआप्त्य, अपांनपात, त्रिप,

अन्य देवी- दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, उषा, औषधि, , ऋतु  सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

*देवताओं के प्रकार*

स्वर्ग के प्रमुख त देवगण

1 तैंतीस देवता --  1प्रजापति 2 इन्द्र  , द्वादश आदित्य गण 
 3.अंशुमान, 4.अर्यमन, 5.इन्द्र , 6.त्वष्टा, 7.धातु, 8.सवितृ, 9.पूषा, 10.भग, 11.मित्र, 12.वरुण, 13.विवस्वान , 14.विष्णु। (पर्जन्य भी आदित्य माने जाते हैं।) अष्ट वसु:- 15.आप, 16.ध्रुव, 17.सोम, 18.धर (या धर्म), 19.अनिल, 20 अनल, 21.प्रत्यूष , 22. प्रभास।  एकादश रुद्र -- 23 शंकर, 24 हर, 25 त्र्यम्बक, 26 वृषाकपि, 27 कपर्दी (जटाधारी), 28 अजैकपाद, 29.अहिर्बुध्न्य, 30.अपराजित, 31.रैवत, 32.बहुरुप और 33.कपाली।

अभिमानी देवता - *प्राकृतिक शक्तियों के अधिकारी अभिमानी देवता कहलाते है तथा 
देवांश - देवताओं के द्वारा देवयोनि से बाहर के व्यक्ति (प्रायः नारी) से उत्पन्न  जेनेटिक सन्तान देवांश कहलाते है।* 
भगवान ---

जिस किसी देव, या अवतार में समग्र ऐश्वर्य, बल, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, इन छः को “भग” कहते हैं। (ये जिसमें एकत्रित हैं, वह भगवान् है।

*अवतारी*

*जिस देव के गुण स्वभाव वाला व्यक्ति अवतरित होता है तब वह मूल देव अवतारी कहलाता है  और उस अवतारी देव के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने वाला अष्टाङ्ग योग सिद्ध बुद्धियोगी व्यक्ति  प्रारब्ध भोग शेष रहने पर्यन्त का जीवन जीता है तब वह व्यक्ति या उस जन्म के बाद लोकसंग्रह हेतु कोई विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध करने हेतु स्वैच्छया  जन्म ग्रहण करना स्वीकार करता है तो वह व्यक्ति अवतार कहलाता है ।*
 

 *अवतरण मतलब उतरना* --

अवतरण का मतलब होता है उतरना। योग की परम सिद्ध अवस्था में व्यवहार सम्भव नही है। व्यावहारिक जगत में लोकसंग्रह कर्म व्यवहार करने हेतु सिद्धों को उनकी सिद्धावस्था से थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है। 

 *जब कोई बुद्धियोगी तुरीय अवस्था में अष्टाङ्ग योग की सर्वोच्च या उच्चतम अवस्था संयम पर पहूँच कर सिद्ध हो जाता है और वह सिद्ध योगी सकल जगत कल्याण हेतु अपने प्रारब्ध पुर्ण होने तक का शेष जीवन लोकसंग्रह कार्यार्थ निवेश करता है वह सिद्ध योगी एवम् इस जीवन में प्रारब्ब पुर्ण होनें के पश्चात भी स्वेच्छया जन्म धारण कर  लोक कल्याणकारी कोई  विशेष प्रयोजन पुर्ण करने के निमित्त जीवन निवेष करता है तो वह सिद्ध बुद्धियोगी अवतार कहलाता है।* 
 
ये जन्मजात  बुद्धियोगी सिद्ध  होते हुए भी  अगले जन्म में एक साधारण व्यक्ति की भाँति हो जीवन यापन कर परमात्मा के विधान ऋत के अनुसार नियत कार्य सिद्ध करता है।
वे ज्ञानि पुरुष तुरीयावस्था में ही रहते हुए भी जन साधारण में उनके ही समान रहते हुए ही लोकसंग्रह अर्थात लोक कल्याणकारी कर्म करते है । और विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध करते हैं।
उन बुद्धियोगी की साधना सिद्धि के तारतम्य के अनुसार इनकी कला निर्धारित होती है। यथा महा तपस्वी महर्षि नारायण का अगला जन्म में श्रीकृष्ण के रुप में हुआ और वे षोडषकलात्मक पुर्ण अवतार कहलाते हैं । श्रीकृष्ण अकेले पुर्णावतार कहलाते हैं शेष  सभी अंशावतार कहलाते हैं। श्रीराम भी द्वादशकलात्मक अंशावतार ही थै। 
 जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध भोग सिमित  होते हैं, वे अल्पावधि के लिये निर्धारित प्रयोजन पुर्ण करने हेतु ही अवतार ग्रहण करते हैं। जैसे मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराह अवतार, और नृसिह अवतार। इन्हे  आवेशावतार भी कहते हैं। 
 किसी व्यक्ति में किसी प्रयोजन सिद्धि हेतु किसी देवता का आवेश आता है जो उस अवधि में उसे भी आवेशावतार कहा जाता हैं । 
उदाहरणार्थ जब  शंकराचार्य जी ने जब स्वैच्छा से तान्त्रिक द्वारा बलि दिये जाने के लिये स्वयम् को प्रस्तुत कर दिया और तान्त्रिक शंकराचार्य जी को बलि देने के लिये उद्यत हुआ तब  पद्मपादाचार्य को अपनें गुरु शंकराचार्य जी के जीवन रक्षणार्थ नृसिंह आवेश हुआ था । उन नृसिंह आवेश के समय वे भगवान नृसिंह का आवेशावतार भी कहा जता है।
जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध इतने अधिक होते हैं कि अवतार का दायित्व पुर्ण होनें के पश्चात भी वे भूमि पर चिरञ्जीवी रहते हैं; जैसे परशुराम जी और हनुमान जी।
ये अंशावतार ही कहलाते हैं।

 *किस देव का अवतार होता है?--* 

विष्णु प्रथम सगुण किन्तु सर्वव्यापी स्वरूप हैं।  निराकार परब्रह्म, विधाता परमेश्वर विष्णु का कोई अंश भी नही हो सकता तथा अवतार भी नही हो सकता।
श्रीविष्णु के संकल्प मात्र से भूत काल में भी, वर्तमान में भी सम्पुर्ण सृष्टि उत्पन्न होगयी, संचालित हो रही है और लय को प्राप्त होगी, और भविष्य में भी होगी। वे विष्णुजी को रावण और कन्स जैसे तुच्छ राक्षसों को मारने के लिये नर देह धारण करना पड़े और फिर जन्म मृत्यु स्वीकारना पड़े बेतुका तर्क लगता है।

यदि विष्णुजी स्वयम् मत्स्य, कश्यप/ कुर्म, वराह, नृसिह या मानव देह में जन्मते हैं  या  देह धारण करते हैं तो वे एकदेशी हो  जायेंगे। यह सम्भव नही है।
लोग मजाक कर गायेंगे कि, जो यहाँ था वो वहाँ क्योंकर हुआ?  अतः यह नही हो सकता।
 सवितृ देव/  श्री हरि  प्रथम साकार ,मूलतः तरङ्गाकार एवम् दिर्घगोलाकार स्वरूप हैं। ब्रह्म महेश्वर सवितृ देव या श्री हरि के भी  अवतार और अंश नही होते हैं।
 पुराणों में अवतार तो विराट अपरब्रह्म नारायण के ही कहे जाते हैं  हैं पर नारायण के भी अंश तो नही होते हैं।

कहा जाता है कि,नारायण स्वयम्  मानव देह में जन्मते हैं और उनके साथ अन्य देव / देवता भी मानव, ऋक्ष, कपि आदि योनियों में जन्म लेकर देह धारण करते हैं तो वे भी एकदेशी हो जायेंगे। लोग गायेंगे कि, जो यहाँ था वो वहाँ क्योंकर हुआ?
 यह भी सम्भव नही है कि कोई देव या देवता देह तक सिमित होजाये। और  देवता  अमर होते हैं तो वे अवतारी देह में मरणधर्मा बनें। यह भी तर्कसङ्गत नही लगता है।
 श्री परशुराम स्वयम् एक विष्णु अवतार पहले से थे फिर श्रीराम के रुप में दुसरे विष्णु अवतार की क्या आवश्यकता थी? और यदि परशुराम जी और श्रीराम दोनो नारायण के अवतार थे तब सीता स्वयम्वर के समय भगवान परशुराम जी को यह ज्ञात होना चाहिए था कि, श्रीराम जी भी मेरे ही स्वरूप हैं  या नारायण के ही अवतार हैं। पर वे दोनों एक दुसरे को पहचान नही पाये ! वाल्मीकि रामायण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि, परशुरामजी यह नही जान पाये कि, श्री राम नारायण के ही अवतार हैं। जब परशुरामजी श्री राम को प्रत्यञ्चा चड़ाने हेतु श्रीराम के हाथों में वैष्णव धनुष देते है वैसे ही श्रीराम द्वारा भगवान परशुराम जी के हाथों से वैष्णव धनुष लेने के साथ ही भगवान परशुराम का अवतारत्व का आवेश/ चार्ज श्रीराम में  समा गया ! ऐसा क्यों हुआ?
 फिर उसके बाद भगवान परशुराम जी बिना अवतारत्व वाले केवल ऋषि ही रह गये ऐसा क्यों कहा जाता है?

ऐसे ही श्रीमद्भागवत पुराण 10/89 में उल्लेखित ब्राह्मण बालकों के पुनर्जीवित करने के प्रकरण में श्रीकृष्ण क्षीरसागर में/ शेषनाग भवन में स्वयम् खड़े रहकर सम्मुख शेष शय्या पर विराजित भूमा,पुरुषोत्तम, भगवान अनन्त को प्रणाम क्यों करते हैं?
 श्रीकष्ण को वहाँ तक क्यों जाना पड़ा?  जैसे पुरुषोत्तम अनन्त भगवान भूमा ने उन्हे वहीँ स्थित रहते हुए ही अपने लोक में बुलवा लिया था। वैसे ही श्रीकृष्ण भी जहाँ चाहते वहीँ ब्राह्मण बालकों को बुला लेना चाहिए था। पर उन्हे स्वयम् क्यों जाना पड़ा
भूमा,पुरुषोत्तम, भगवान अनन्त ने श्रीकष्ण को सम्बोधित कर उन्हें पुर्व जन्म में नारायण ऋषि के रूप में तपस्वी होने के पश्चात इस जन्म में श्रीकृष्ण केरूप में जन्म लेनें और अर्जुन को उनके पुर्व जन्म में  नर ऋषि थे ऐस कह कर कहा कि, तुम दोनों को देखने के लिए ही ब्राह्मण बालकों को क्षीरसागर में बुलवाया था। ईश्वर की तो न जन्म नही होता है न मृत्यु। फिर गत जन्म में नारायण अवतार होना एवम् भूमा, पुरुषोत्तम अनन्त भगवान के बुलाने पर उन्हें क्षीर सागर क्यों जाना पड़ा?

इससे सिद्ध है कि, कुछ जीवनमुक्त सिद्ध पुरुष प्राकृतिक नियम ऋत के अनुसार स्वैच्छया स्वयम् का जीवन लोक संग्रहार्थ निवेश करते हैं। यही अवतार कहलाते हैं। विष्णुजी आदि देव या देवता जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नही होते हैं। 

अवतार की प्रकृति यानि स्वभाव और स्वाभाविक कर्मों के अनुसार निर्धारण होता है। कोई अवतार  नारायण का है, या हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का, प्रजापति का,या दक्ष/ रुचि/ मनु का या ब्रहस्पति का, या इन्द्र का,या बृह्मणस्पति का, आदित्यों का, या वाचस्पति का या वसुओं का, या पशुपति का, या रुद्रों का, या गणपति का या सदसस्पति का; या श्री का, लक्ष्मी का या सरस्वती का, या वृहति का,या ब्राह्मी का , या वाक का, रौद्रियों का, भारती का या मही का या, सरस्वति का या ईळा (ईला) का   यह उस अवतार के गुण कर्म और स्वभावानुसार ज्ञात किया जाता है। । 
इध सब के ही अवतार हुवे हैं। 

रामायण आदि में ऐसा कहा गया है कि,नारायण अवतारों के साथ सभी देवताओं का अवतार होता है ।

तदनुसार ही भैरव, वीरभद्र, हनुमान आदि रुद्र अवतारों को शंकरजी का अवतार हुए हैं ।
  
विश्वकर्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (पञ्चमुख ब्रह्मा) के भी अवतार और  अंश नही होते क्योंकि इस स्तर तक केवल मानस सन्ताने ही होती है।
सम्भवामि युगे यूगे वाली उक्ति तो वेदों के अनुसार तो  विश्वरूप प्रजापति ब्रह्मा (चतुर्मुख ब्रह्मा) पर ही लागु होती है। अर्थात मूलतः अवतार भी प्रजापति के ही होते है।

 देवांश

*देवांश कया होता है? किस श्रेणी के देवताओं के अंश हुए हैं?*

उपनिषदों में तो समान्य मानव को भी पिता का अंश और पिता का ही दुसरा जन्म कहा गया है।

प्रजापति ब्रह्मा के अंश भी कहे गये हैं। त्वष्टा के भी अंश हुए हैं। पर अवतार नही सुने।
किन्तु मूलतः 1इन्द्र- शचि,2 दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति, 3 स्वायम्भुव मनु - शतरूपा, 4 अग्नि- स्वाहा, 5 पितरः - स्वधा (अर्यमा और स्वधा), तथा 6 रुद्र - रौद्री से ही मैथुनि सृष्टि आरम्भ हुई।
 इसलिए इनके ही वंश और अंश हैं। तदनुसार जाम्बन्तजी भी दक्ष प्रजापति (प्रथम ) के अंश होना चाहिये।


हनुमानजी रुद्र के अवतार होते हुए भी वायु पुत्र होनें से पवनांश भी कहलाते हैं।  दुष्टदलन राक्षसों के प्रति रौद्ररूप होनें से रुद्रावतार भी कहलाते हैं।और श्री रामभक्त होनें से रघुनाथ कला भी कहलाये।
बालि सुर्यपुत्र होनें से सुर्यांश, सुग्रीव इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश, जामवन्त जी दक्ष प्रजापति ब्रह्मा (प्रथम )  के पुत्र होनें से ब्रह्मांश कहलाते थे।

कर्ण सुर्यपुत्र होने से सुर्यांश कहलाते हैं   युधिष्ठिर धर्म के पुत्र होने सें  धर्मांश कहलाते हैं।  ऐसे ही भीम वायु पुत्र वातांश/ पवनांश कहाते हैं। अर्जुन इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश कहलाये आदि आदि।
मतलब किसी देवता का औरस पुत्र उस देवता का देवांश कहलाता है। 

देव के गुण वाले व्यक्ति विशेष रूप से प्रतिभाशाली व्यक्ति है ; स्वाध्याय के लिए सक्षम होने के बाद, संभावित निष्क्रियता के संभावित भविष्य के लिए संभावित निष्क्रियता का पता लगाने के लिए वैच्छ्य या जन्म स्थान निर्धारित किया गया था ।*
 * शक्तियों के अधिकारी अवतारी कहलाते हैं और के देवयोनि से बाहर के वायुयान सनटन देवसंस् कहलाते हैं।* 


अतः देवांव मतलब देवपुत्र हुआ। 
 हनुमानजी पवनांश और रुद्रावतार हुए  दोनों हैं।अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।
वायु के अभिमानी देवता का औरस पुत्र वातांश/ पवनांश और शंकर के समान भक्ति में लीन, दुनियादारी से दूर  भोले भाले (ब्रह्मचारी), बलीष्ट और वीर होते हुए भी अपनेआप में मस्त और निरभिमानी किन्तु राक्षसों का काल, दुष्टों का दमन करनें वाला, अपराध का दण्डदेनें वाला होनें से शंकर सुवन रुद्रावतार हनुमान जी वायुपुत्र वातांश थे। यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।