शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस में अन्तर।

वाल्मीकि जी का आश्रम अयोध्या के निकट ही था। सीताजी वाल्मीकि आश्रम में रही वहीं कुश और लव का जन्म हुआ। और वाल्मीकि आश्रम में ही लवकुश का शिक्षण -प्रशिक्षण हुआ।
इसी दौरान महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण इतिहास ग्रन्थ रचा और लव कुश को मुखाग्र करवा कर श्री रामचन्द्र जी के अश्वमेध यज्ञ में सुनाने हेतु भेजा।
इस इतिहास का अनुमोदन स्वयम् श्री रामचन्द्र जी ने किया। इस लिए मूल वाल्मीकि रामायण में केवल अश्वमेध यज्ञ तक का ही वर्णन है। उत्तर काण्ड भरद्वाज जी की रचना मानी जाती है।
इसलिए इतिहास के रूप में केवल वाल्मीकि रामायण ही प्रमाण है।
तुलसीदास जी ने प्रयागराज में माघ मेले में कवि कम्बन रचित राम चरित्र पर प्रवचन सूना था।
उसी से प्रभावित होकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की द्वितीय आवृत्ति लिखी थी। 
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में कई स्थानों पर अत्यधिक अन्तर है।


वाल्मीकि रामायण के अनुसार ---
कौशल्या जी के पास स्त्री धन के रूप में कोसल प्रदेश के पन्द्रह गावों की जागीर की जमींदारी थी। इस प्रकार आर्थिक रूप से वे आत्मनिर्भर और सक्षम थी।

कैकेई देश की सुन्दर और साहसी राजकुमारी कैकेई से महाराज दशरथ को अत्यधिक लगाव था। इस कारण पटरानी होते हुए भी कौशल्या जी की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
इसलिए ही सुमित्रा जी ने लक्ष्मण जी को श्रीरामचन्द्र जी के साथ और शत्रुघ्न जी को भरत जी के साथ अटैच कर दिया। यह राजनीति थी।
श्री रामचन्द्र जी, भरत जी, लक्ष्मण जी और शत्रुघ्न जी के जन्म में केवल एक-एक दिन का अन्तर था। मतलब चारों भाई समवयस्क थे।
लेकिन 
जब श्रीराम क्रीड़ा में विजयी होते तो भी उन्हें भरत जी को विजयी घोषित कर देते थे। (यह विवशता की राजनीति कहलाती है।)
मतलब स्पष्ट है कि, उत्तानपाद - सुनीति और सुरुचि तथा ध्रुव जी और उत्तम वाली कहानी रिपिट हो रही थी।
अयोध्या और भारत भूमि में किसी मूर्ति/ प्रतिमा पूजन का उल्लेख नहीं है। लेकिन देवों और देवताओं की आराधना - उपासना हेतु उपासना स्थल / स्थानक होते थे। कौशल्या जी विष्णु उपासक थी।

सूर्यवंश, इक्ष्वाकु वंश, रघुकुल की परम्परा अनुसार श्री रामचन्द्र जी ही उत्तराधिकारी होंगे यह बात कैकई भली-भांति जानती थी और उसने स्वीकार भी कर लिया था। लेकिन 
कैकेई का श्री राम के प्रति प्रेम का तुलसीदास जी का प्रचार मात्र है।

इन्द्र को अपने प्रति आकर्षित देखकर प्रसन्न और उत्साहित होकर अहिल्या जी ने स्वैच्छया इन्द्र को शीघ्रातिशीघ्र उनके साथ रमण कर गोतम ऋषि के लौटने के पहले भाग जाने की सलाह देतीं हैं। मतलब अहिल्या जी भी समान रूप से दोषी थी।
गोतम ऋषि ने अहिल्या जी के उद्धार का उपाय बतलाता कि, श्री रामचन्द्र जी जब यहाँ से गुजरेंगे, तब तक तुम्हें यज्ञ भस्म लपेटे,केवल वायु का सेवन कर (निराहार रहकर) सब लोगों से अदृश्य रहकर (छुपकर) शिलावत स्थिर रहकर तप करना है । जब श्रीरामचन्द्र जी का आतिथ्य, स्वागत - सत्कार करोगी तब तुम दोषमुक्त होंगी।
मतलब अहिल्या जी पत्थर की नहीं बनी थी ।
जब सुनसान आश्रम देखकर श्री रामचन्द्र जी ने महर्षि विश्वामित्र जी से जिज्ञासा प्रकट की, तो महर्षि विश्वामित्र ने इन्द्र-अहिल्या- महर्षि गोतम के पुरे प्रकरण की जानकारी देकर आश्रम में प्रवेश किया। श्री रामचन्द्र जी ने सादर झुक कर माता अहिल्या के चरणों में प्रणाम किया।
अहिल्या जी ने फल-फूल आदि से महर्षि सहित श्री रामचन्द्र जी और लक्ष्मण जी का आतिथ्य सत्कार किया। और महर्षि गौतम के शाप से मुक्त होकर महर्षि गौतम से जा मिली।
अर्थात न तो अहिल्या जी शिला (पाषाण) हुई थी, न रामचन्द्र जी ने अशिष्टता पुर्वक ऋषि पत्नी की पाषाण देह को लात मारी। (चरण नहीं छुआये।) ये सब कवि कम्बन और तुलसीदास जी की कल्पना मात्र है।

मिथिला पहुँचने पर विश्वामित्र जी ने जनक जी और गौतम ऋषि के पुत्र का परिचय कराया और शिव धनुष की जानकारी दी।
महर्षि ने जनक जी से शिव धनुष दिखलाने का कहा। तब जनक जी ने पिनाक धनुष की विशेषता और पिनाक धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले से सीता जी के विवाह का प्रण के विषय में बतलाया।
 एक गाड़ी में सन्दुक में रखे पिनाक धनुष को बहुत से भृत्य धका कर लाये। तब उन्हें बड़े से सन्दुक में रखे शिव धनुष पिनाक के दर्शन करवाए।
महर्षि के निर्देश पर श्री रामचन्द्र जी ने पिनाक पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर ज्यों ही प्रत्यञ्चा कान तक खींच कर टंकार की वैसे ही पुराना होने से धनुष टूट गया।

जनक जी ने प्रण अनुसार सीता जी का विवाह श्री रामचन्द्र जी से करने का प्रस्ताव रखा जिसे महर्षि और श्री रामचन्द्र जी ने स्वीकार किया।

दशरथ जी को सुचित किया गया। वे सदलबल बारात लेकर आये तब अपने छोटे भाइयों की पुत्रियों के विवाह भी दशरथ पुत्रों से करने का प्रस्ताव किया। और सबने सहर्ष स्वीकार किया।
विवाह सम्पन्न हुआ। जब बारात लौट रही थी तब मार्ग में भगवान परशुराम जी का आगमन हुआ। परशुराम जी ने क्रोधित हुए लेकिन श्रीरामचन्द्र जी ने शिष्टता पूर्वक निवेदन किया कि, धनुष पुराना था इसलिए टूट गया। जानबूझकर नहीं तोड़ा। लेकिन परशुराम जी ने नाराज होकर श्री रामचन्द्र जी को वैष्णव धनुष देकर उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर दिखलाने की चुनौती दी।
लेकिन जैसे ही परशुरामजी ने वैष्णव धनुष श्रीरामचन्द्र जी के हाथों में दिया वैसे ही भगवान परशुराम जी का अवतारत्व का तेज (चार्ज) श्रीरामचन्द्र जी में प्रवेश कर गया और भगवान परशुराम जी केवल ऋषि ही रह गये। उनको प्राप्त अवतार का प्रभार समाप्त हो गया।(डिस्चार्ज्ड हो गये।) 
मतलब न तो धनुषयज्ञ/ सीता स्वयम्वर हुआ था। न स्वयम्वर में परशुरामजी जी और लक्ष्मण जी का विवाद हुआ। और
अवतारत्व एक दायित्व है। पदभार है। जो अवतार पद के दायित्व निर्वहन कर्ता व्यक्ति के पदभार समाप्त होने पर दूसरे योग्य व्यक्ति को अन्तरित हो सकता है।
एक अवतार दुसरे अवतार को नहीं पहचान पाता है।
सीता जी जनकपुरी में उमादेवी के उपासना स्थल / स्थानक पर उमादेवी की उपासना करतीं थी।  
 श्री रामचन्द्र जी दैनिक पञ्च महायज्ञ के अलावा उपासना स्थलों/ स्थानकों पर जाकर देवों की उपासना करते थे।
अवध राज्य गणराज्य था, गणराज्य के राजा का चुनाव सभी वर्णों के प्रतिनिधियों की समिति करती थी।
श्रीरामचन्द्र जी को युवराज घोषित करने का अनुमोदन भी दशरथ जी ने उक्त समिति से लिया था। तत्पश्चात ही घोषणा की थी।

भरत जी और शत्रुघ्न जी को कैकेई देश भेज कर अचानक श्री रामचन्द्र जी को युवराज घोषित करना भी राजनीति थी। जिससे कैकेई पक्ष को सन्देह होना स्वाभाविक था।

वनवास यात्रा में दशरथ जी सुमन्त के साथ रथ से श्रीरामचन्द्र जी - सीता जी और लक्ष्मण जी को अयोध्या नगरी की सीमा तक छोड़ने गए थे।

भरत जी जब अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने उन्हें बहुत बुरा कहा, उनकी और कैकेई की निन्दा की, उनकी अवहेलना की इसका कारण जानकर भरत जी व्यथित हो गये। स्वाभाविक है कि, भरत जी समझ गए कि, श्रीरामचन्द्र जी के स्थान पर उनका राजा होना जनता को स्वीकार्य नहीं है।

अतः भरत जी श्री रामचन्द्र जी को राजकीय सम्मान सहित वापस लेने चित्रकूट गये।
लेकिन न केवल लक्ष्मण जी अपितु श्रीरामचन्द्र जी भी सेना सहित भरत के आगमन पर शंकित हो गये थे। लेकिन उन्होंने धैर्य रखा और भरत की भावभङ्गिमा और गतिविधियों को देखकर निश्चिन्त हो गये।

वाल्मीकि रामायण में भरत जी के नन्दी ग्राम वास के दौरान उर्मिला जी और माण्डवी जी तथा श्रुति कीर्ति जी के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं है।
लोगों ने मन गड़न्त कहानियाँ गढ़ ली है।

लक्ष्मण रेखा की कहानी भी मनगढ़न्त है।

जब सीताजी माया (नारायणी/ श्री लक्ष्मी) की अवतार ही थी, तो माया को माया की सीता बनाने की कल्पना ही हास्यास्पद लगती है। इसलिए वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।

अङ्गद जी के नेतृत्व वाले खोजीदल को सुग्रीव जी ने तञ्जावूर पर पाण्ड्य देश के द्वारा में प्रवेश करने का स्पष्ट इन्कार कर दिया था। मतलब तमिलनाडु में प्रवेश निषेध था।
इसी प्रकार सुग्रीव जी के नेतृत्व में सुग्रीव जी की सेना सहित श्री रामचन्द्र जी सह्य पर्वत से पश्चिम घाट पर कर्नाटक - केरल सीमा पर के कोझीकोड पर उतरे और पहले तीन दिन तप कर समुन्द्र देव से मार्ग मांगा। समुद्र देवता को प्रसन्न होता नहीं देखकर श्री रामचन्द्र जी क्रोधित हो गए। (लक्ष्मण जी नहीं)।
श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र को सुखा देने के लिए शर संधान किया। लक्ष्मण जी ने श्री रामचन्द्र जी को समझाया। लेकिन श्रीरामचन्द्र जी का क्रोध शान्त नहीं हुआ। तब समुद्र में तुफान आ गया। समुद्र देवता प्रकट हुए। बाण पश्चिम दिशा में छोड़ने का सुझाव दिया जिससे पश्चिम में मरुस्थल बन गया।
फिर समुद्र देवता ने ही विश्वकर्मा पुत्र नल के विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) कौशल का परिचय देकर उनसे सेतु बनवाने का सुझाव दिया।
सेतु निर्माण हेतु पर्वतों की शिलाएँ तोड़कर लाने और उँचे-उँचे वृक्ष तोड़कर लाने हेतु बड़े-बड़े यन्त्रों का उपयोग किया गया।

 नल के नेतृत्व में विश्वकर्म (इंजीनियरिंग) कौशल के आधार पर कर्नाटक - केरल सीमा पर के कोझीकोड से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप तक उथले समुद्र में भराव कर, फिर वृक्षों से जाली बना कर, शिलाओं से ढककर, मिट्टी से आच्छादित कर समुद्र में पहले दिन 14 योजन सेतु निर्माण किया। दुसरे दिन 6 योजन निर्माण किया। कुल बीस योजन हो गया। समुद्र की गहराई बढ़ने के कारण तीसरे दिन, चौथे दिन और पाँचवे दिन एक-एक योजन सेतु निर्माण किया। इस प्रकार कुल तेइस योजन अर्थात लगभग 296 या 297 किलोमीटर का सेतु निर्माण किया गया था।

न श्रीरामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये, न वहाँ रामेश्वरम शिवलिङ्ग की स्थापना की। अतः रावण को पुरोहित बनाने और रावण द्वारा सीता जी को लाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हुआ। श्री रामचन्द्र जी कभी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) भी नहीं गये। अतः मन्नार की खाड़ी में स्थित मात्र 48 किलोमीटर का (तथाकथित एडम ब्रिज) सेतु बनाने का भी कोई प्रश्न ही नहीं ।
उस समय तक भारतीय भूमि पर कोई मूर्ति पूजा प्रचलित नहीं थी। 
सीता जी की खोज में गये हनुमानजी ने रावण की लङ्का में रावण की कुलदेवी निकुम्भला नामक योगीनी यक्षणी की प्रतिमाएँ तोड़कर बहुत से मन्दिर डहाये/ तोड़े।
ऐसे ही श्रीरामचन्द्र जी के साथ युद्ध के दौरान भी रावण और मेघनाद के द्वारा निकुम्भला के गुप्त मन्दिर में वाममार्गी / शाबरी/ डाबरी मन्त्रों से किया जा रहे तान्त्रिक होम हवन को विध्वंस कर निकुम्भला की मूर्ति और मन्दिर तोड़े।
मतलब श्री रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी और हनुमान जी मूर्ति पूजा और तन्त्र के घोर विरोधी थे।

श्री रामचन्द्र जी ने अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण अमावस्या तिथि को रावण के वक्षस्थल पर ब्रह्मास्त्र चला कर वध किया था। रावण तत्काल ही मर गया था। अतः लक्ष्मण जी को राजनीति सिखाने की सम्भावना ही नहीं थी।

पुष्पक विमान से श्री रामचन्द्र जी, सीता जी और लक्ष्मण जी, हनुमान जी, सुग्रीव जी और जामवन्त जी सहित चैत्र शुक्ल पञ्चमी को चित्रकूट पहूँचे। भरत जी के आचार-विचार (नीयत) की जानकारी लेने पर अनुकूल पाकर चैत्र शुक्ल षष्ठी तिथि को नन्दी ग्राम भरत जी के पास पहूँचे। फिर वहाँ से राजकीय स्वागत सत्कार समारोह पूर्वक अयोध्या पहूँचे।

इसलिए दीपावली को श्री रामचन्द्र जी का अयोध्या लौटना केवल कल्पना मात्र है।

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

अन्तरात्मा की आवाज।

चित्त में सर्वप्रथम जो विचार आए वह सत्य होता है। उसे मान लो, उसपर दृढ़ रहो। उसे नोट करलो- अन्यथा भूल सकते हो।
क्योंकि 
फिर तत्काल तर्क, वितर्क और कुतर्कों का सिलसिला चलेगा। उसमें उलझनें में केवल हानि ही होगी अत उनपर ध्यान मत दो।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

धर्म

धर्म का अर्थ, स्वरूप और लक्षण---

धर्म का अर्थ है,सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के व्रत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है।  स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ मानवों द्वारा आचरित आचरण धर्म है।
धर्म का स्वरूप पञ्चमहायज्ञों में परिलक्षित होता है।
धर्म लक्षण--- अहिंसा, अक्रोध, क्षमा , दया, करुणा, 
सत्य, ऋतु के अनुकूल होना,
अस्तेय, अलोभ, पराये धन, पर नारी के प्रति आकर्षण नहीं होना, ब्रह्मचर्य,संयम,निर्व्यसन होना,   
अपरिग्रह, दान
शोच, सन्तोष, शान्ति,पर दोष दर्शन न करना, अपने दोष निवारण,
स्वच्छता, पवित्रता,
तप, अन्द्रिय निग्रह, तितिक्षा, ईज्या अर्थात पञ्च महा यज्ञ, यज्ञ के लिए यज्ञ, यज्ञ-याग, पूजा आदि,  
ईश्वर प्राणिधान,
स्वाध्याय श्रवण, अध्ययन, मनन, चिन्तन, धी, विद्या, सद्गुणों के प्रति श्रद्धा।
ईश्वर प्राणिधान - सम्पूर्ण समर्पण, परमात्मा में अनन्य, अनन्त प्रेम- भक्ति।