वेदार्थ कल्पद्रुम के आधार पर श्री पंडित विशुद्धानन्द मिश्र के आलेख - ⤵️
ऋग आदि मंत्र से इतर मंत्र के व्याख्यान रूप ब्राह्मण वेद पदाभिधेय नहीं है।
वेद के व्याख्यान रूप ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते' इस पक्ष का समर्थन करते हुये सनातन-धर्मियों के शिरोमणि वेदों में परिश्रम करने वाले सामश्री जी ने 'ऐतरेयालोचन' ग्रन्थ में लिखा है- "सायणाचार्य ने स्वकण्ठ से ही ब्राह्मणों को मन्त्रों का व्याख्यानरूप माना है जैसे कि - तैत्तिरीय संहिताभाष्य की भूमिका में ब्राह्मणों के, मन्त्रव्याख्यान रूप होने से, “आदि में मंत्र ही बने" इत्यादि ।
इसी प्रकार मीमांसा दर्शन में भी अनाग्नातेष्वम-त्रत्वम् इत्यादि (२।१।३४) सूत्र में महर्षि जैमिनी ने ऊह, प्रवर नामधेयों में मन्त्रत्व नहीं माना और कहा है कि मन्त्रों से सम्बन्ध रखने मात्र से ब्राह्मणों का मन्त्रत्व नहीं माना जा सकता । ईश्वर द्वारा उक्त न होने से, तथा पुरुषों के द्वारा रचित होने से ब्राह्मण ग्रन्थों का मन्त्रत्व नहीं कहा जा सकता ।
पौराणिकों के प्रमाणीभूत हरिवंशपुराण में भी 'ऋचो यजूंषि इत्यादि श्लोक में ऋगादि चारों वेदों का स्पष्ट वेदत्व कहा है ब्राह्मण ग्रन्थों का नहीं । इसी प्रकार स्वयं गोपथ ब्राह्मण में भी 'चत्वारो वा इमे वेदा' तथा महाभारत में 'त्रयीविद्यामित्यादि श्लोक में और 'विनियोक्तव्य- रूपश्च मंत्रों वेद चतुष्टये' श्लोक द्वारा वैदिक ग्रन्थ सर्वानुक्रमणी में भी विविध प्रकार के ऐसे शास्त्रीय प्रमाण हैं जिनमें ब्राह्मण ग्रन्थों को छोड़ कर केवल मन्त्र भाग को ही वेद कहा गया है।
उक्त आलेख के प्रकाश में ⤵️
यह कहा जा सकता है कि,
पुरुष सुक्त, (उत्तर नारायण सुक्त सहित), नासदीय सुक्त और अस्यवामिय सुक्त और ,श्री सुक्त, लक्ष्मी सुक्त,और देवी सुक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां, बत्तीसवां और चालिसवाँ अध्याय (ईशावास्योपनिषद) ही मुख्य प्रमाण है। श्वेताश्वतरोपनिषद द्वितियक प्रमाण है और ब्राह्मण ग्रन्थों से निकले शेष केन, कठ, एतरेय, तैतरीय, प्रश्न, मण्डुक, माण्डुक्य, छान्दोग्य, बृहदारण्यक उपनिषद् तृतियक प्रमाण है। और इन्हीं के आधार पर तैयार पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दर्शन भी स्वतः प्रमाण कोटि के ग्रन्थ हैं। लेकिन ये इसलिए प्रमाण है क्योंकि उक्त प्रमाणों के आधार पर तैयार है, और उक्त प्रमाणों को ही प्रमाण घोषित करते हैं। चतुर्थ प्रमाण है।
रामायण - महाभारत से निकले श्रीमद्भगवद्गीता आदि पञ्चम प्रमाण है, सांख्य कारिकाएँ, माण्डुक्य कारिकाएँ, कपिल सांख्य दर्शन और पतञ्जली योग दर्शन षष्ट प्रमाण है, गोतम न्याय दर्शन और कणाद वैशेषिक दर्शन सप्तम प्रमाण है। पुराणोक्त ब्रह्मविद्या सम्बन्धित वर्णन अष्टम प्रमाण है;क्योंकि, उत्तर मीमांसा दर्शन में इनके प्रमाणों को सन्दर्भित किया गया है।