रविवार, 12 जून 2022

दर्शन में कुछ भ्रमों का निवारण---

१ - महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता) में जीव ब्रह्म का अंश  कहा गया।
निम्बार्काचार्य नें   अग्नि से स्फुर्लिंग के समान ब्रह्म से जीवों की उत्पत्ति होने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
निरालम्बोपनिषद और आदि शंकराचार्य जी नें जगत मिथ्या का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
इन तीनों सिद्धान्तों को सही और उचित ढङ्ग से न समझनें के कारण बड़े बड़े शास्त्री और आचार्य भी भ्रमित हुए हैं। और उनने जन साधारण को भी भ्रमित किया।
 कई भारतीय दर्शनों में अंशी अंश सिद्धान्त प्रचलित हुआ। तो कुछ ने विरोध भी किया।
अग्नि स्फुर्लिंग सिद्धान्त का उदाहरण भी कई दार्शनिकों को पसन्द आया तो कुछ नें इसकी भी कटु आलोचना की।
 परिवर्तनशील, अस्थाई होनें से  सत असत अनिर्वचनीय के अर्थ में जगत को मिथ्या कहे जाने की बात प्रायः अधिकांश शास्त्री और आचार्य नही समझ पाये। परिणाम स्वरूप उननें जगत मिथ्या सिद्धान्त की घोर कटु आलोचना की। लेकिन उससे अधिक दुःखद यह रहा कि, इस सिद्धान्त को सत्य घोषित करनें की डींगें हाँकनें वाले कई शास्त्री और आचार्य भी बेसिरपेर के तर्कों के आधार पर जगत को असत सिद्ध करनें में लगे रहे। इसकारण पक्ष विपक्ष में कटुता पूर्ण विद्वेष उत्पन्न हो गया। एक दुसरे के प्रति आरोप प्रत्यारोप का आक्रमण होनें लगा।
श्रीकृष्ण और निम्बार्काचार्य का समय पाँच हजार दो सौ वर्ष से अधिक पुराना मान्य है।
कुछ  ब्राह्मण,आरण्यकों, उपनिषदों में और सुत्र ग्रन्थों , दर्शन शास्त्रों में श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास/ वेदव्यास जी, बादरायण, पाराशर,व्यास जी के शिष्य जेमिनी, और प्रमाण के रूप में उक्त ऋषियों के मतों का और ग्रन्थों का उल्लेख होनें के आधार पर इन ग्रन्थों को भी श्रीकृष्ण जी और वेदव्यास जी के समय की रचना मानते हैं।
अतः इस मत को एक दम से परवर्ती मत भी नही कहा जा सकता।
समुद्र के जल की बुन्द से अंशी ब्रह्म का अंश जीव की तुलना गलत है।
इसी प्रकार अग्नि स्फुर्लिंग वाला मत भी गलत है। क्योंकि उक्त दोनों उदाहरण में मूल पदार्थ सें उसका अंश प्रथक हो जाता है। इन दोनों के बीच आकाश, दिक, अन्तरिक्ष, वायु आदि पदार्थ रहते हैं। अतः यह विभाजन है। जबकि अंशी और अंश में विभाग काल्पनिक हैं, वास्तविक नही।
जैसे वृत्त में जो अंश होते हैं वे काल्पनिक हैं लेकिन सही अर्थों में अंशी वृत्त के अंश हैं। अतः अक्षांश- देशान्तर वाला उदाहरण ही सही है। चाहे यह उदाहरण समझने़ में कठिन हो; लेकिन, वृत्त के अंश वाले उदाहरण ही सही हैं।

माया वाद के अनुसार माया विष्णु की शक्ति है। 
जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश है। क्या प्रकाश के बिना सूर्य को सूर्य कहा जा सकता है? 
क्या बिना सूर्य के सूर्य प्रकाश का कोई अस्तित्व हो सकता है?
 प्रकाश उत्सर्जन न करनें वाले ब्लेक होल भी भूतकाल में सूर्य थे और भविष्य काल में पुनः सूर्य होंगे।
 लेकिन क्या सूर्य के बिना सूर्य प्रकाश का कोई अस्तित्व किसी भी काल में हो सकता है?
 नही ना। 
अतः सूर्य प्रकाश सूर्य पर आश्रित  है। इसकारण सूर्यप्रकाश सत असत अनिर्वचनीय/ मिथ्या है। यही प्रकृति (स्वभाव/ गुण) माया की भी है।
अतः ब्रह्म/ सवितृ/ अन्तर आत्मा (प्रत्यगात्मा) के लिए माया वास्तविक है लेकिन विष्णु, परब्रह्म, प्रज्ञात्मा के लिए वह उसकी सामर्थ्य, शक्ति, गुण है। और विश्वात्मा ॐ के लिए और परमात्मा / परम आत्मा के लिए माया का अस्तित्व सांकल्पिक है, वास्तविक नही है।
आकाश में, भूमि में अक्षांश देशान्तर या वृत्त में अंश का उदाहरण आवश्यक है। क्योंकि, श्रोता जिस पदार्थ को जानता समझता है उसी का उदाहरण दे कर परम तत्वों को समझाने की परम्परा विकसित हुई।
लेकिन अग्नि- स्फुर्लिंग और जल- बिन्दु, महाकाश-घटाकाश वाले उदाहरण गलत ही है।

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