मंगलवार, 28 जून 2022

साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ।

साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---

मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। उक्त साधन के उपसाधन क्रियाएँ और कर्मकाण्ड हैं।
यदि मूल भारतीय धर्म-दर्शन और संस्कृति की बात की जाये तो वह थी सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।
ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है। अति संक्षिप्त में बतला रहाहूँ। विस्तार के लिए गृह्यसुत्र आदि शास्त्राध्ययन ही उचित है।
यज्ञ मतलब परमार्थ — परम के लिए। परम के निमित्त। विष्णु के प्रति समर्पित हो, विष्णु के निमित्त, विष्णुअर्पण कर्म।
१ ब्रह्मयज्ञ — संध्या-जप-स्वाध्याय- निधिध्यासन- धारणा, ध्यान, समाधि, अष्टाङ्गयोग, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन,  भजन-किर्तन सभी ब्रह्मयज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। अष्टाङ्ग योग- यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ब्रह्मयज्ञ का भाग ही है।

वेदाध्ययन - 
वेद मतलब ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं को वेद कहते हैं।  
आरण्यकों और उपनिषद सहित ब्राह्मण ग्रन्थों को भी श्रुति की मान्यता है।
उपवेद 
१ आयुर्वेद (मेडिकल साइन्स), 
२ धनुर्वेद (अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवम् मिलिट्री साइन्स),
३ शिल्पवेद/ स्थापत्य वेद (सिविल इंजीनियरिंग एवम् आर्किटेक्ट) और 
४ गन्धर्ववेद (संगीत एवम् नाट्य) ये चार उपवेद है

वेदाङ्ग ---
१ कल्प -- चार प्रकार के सुत्र ग्रन्थों को कल्प कहते हैं। १ शुल्बसुत्र २ श्रोतसुत्र ३ गृह्यसुत्र और ४ धर्मसुत्र।

शुल्बसुत्र - ब्रह्माण्ड के नक्षों/ मानचित्रों की प्रतिकृति अनुसार यज्ञ वेदी और मण्डप निर्माण विधि,  
श्रोत सुत्र - बड़े यज्ञों की विधि, 
गृह्यसुत्र - संस्कार, व्रत, उत्सव विधि, 
धर्म सुत्र - आचरण संहिता/ संविधान हैं। 
धर्मसुत्रों की स्मृतियों को ही मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि कहते हैं। 
२ ज्योतिष --- कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी एवम् मौसम विज्ञान, 
३ शिक्षा -- उच्चारण विधि/ फोनेटिक, 
४ निरुक्त --भाषाविज्ञान, शब्द व्युत्पत्ति, 
५ व्याकरण (ग्रामर) - वाक्य रचना। और 
६ छन्द -- काव्यशास्त्र या पिङ्गल शास्त्र।
इन छः शास्कोत्रों को वेदाङ्ग कहते हैं। वेदों का तात्पर्य समझनें के लिए उपवेदों और वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक है।
उपवेद, वेदाङ्ग और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्म काण्ड भाग की व्याख्या जैमिनी की पूर्व मीमान्सा दर्शन और आरण्यकों- उपनिषदों की व्याख्या उत्तर मीमान्सा दर्शन (षड दर्शनों) में पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा एवम् श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात कर्म मीमांसा भी वेदों के समान ही आदरणीय मान्य है, श्रुति के समान ही आदरणीय है। उक्त समस्त अध्ययन भी वेदाध्ययन कहलाता ही है।
वेदाध्ययन द्वारा निश्चयात्मक बुद्धि का विकास और विवेक जागृत होनें उपरान्त ही गोतम के न्याय दर्शन,कणाद के वैशेषिक दर्शन, पतञ्जली के योग दर्शन, ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाएँ - कपिल के सांख्य दर्शन का अध्ययन करना चाहिए। ताकि, विभिन्न मत मतान्तर के अध्ययन से मतिभ्रम न हो 
उक्त ग्रन्थों  - वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों,वेदाङ्गों, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा सहित षडदर्शनों  में ही बत्तीस विद्याएँ , चौसठ कलाएँ, ज्ञान विज्ञान, धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब प्रकार का अध्ययन, मनन, चिन्तन,जप, एवम् अष्टाङ्ग योग के अन्तर्गत यम, नियमों के पालन पूर्वक बहिरङ्ग योग आसन, प्राणायाम के द्वारा धृति वर्धन के साथ प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (अन्तरङ्ग योग) के माध्यम से मानसिक, बौद्धिक विकास करते हुए चित्त वृत्तियों का निरोध कर देवयज्ञ के द्वारा अहंकार का स्वाहा (स्व का पूर्ण समर्पण) करके नृयज्ञ में मानव सेवा, भूत यज्ञ में बलिवैश्वदेव कर्म करके सर्व प्राणियों, वनस्पतियों, दृष्य अदृश्य जीवन जी रहे दैविक शक्तियों की सेवा और पितृ यज्ञ के माध्यम से हमारे वरिष्ठो, पूर्वजो,पितरों के समाजसेवा, जन सेवा, भूतमात्र की सेवा के संकल्पों को आगे बढ़ाकर पूर्ण करने हेतु पूर्तकर्म करना सम्मिलित था। आगे इनका वर्णन करते हैं।---
२ देवयज्ञ — यह है वैदिक पूजा पद्यति। इनकी शास्त्रोक्त विधि वैदिक संहिताओं,  ब्राह्मण ग्रन्थों - आरण्यको - उपनिषदों, और श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, पूर्व मीमांसा दर्शन- उत्तर मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसुत्र) एवम् कर्मयोग शास्त्र (श्रीमद्भगवद्गीता) में अध्ययन किया जा सकता है।
देव मतलब प्रकाश स्वरूप/ प्रकाशक। ज्ञान दाता। अतः प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं, सेवाओं का लाभ लेनें के पूर्व, लेते समय और लेनें के बाद उन सेवा-सुविधाओं के अधिष्ठाता अधिकारी देवता का स्मरण कर उनके प्रति स्व का हनन कर स्वाहाकार, हवन करना, अग्निहोत्र, इष्टि आदि।
पूजा शब्द का अर्थ सेवा है।
यदि आप अपने माता— पिता, और गुरुजनों की सेवा करना चाहते हैं तो सर्वोत्तम तरीका उनके कार्यों में हाथ बंटाना ही होगा।
वैदिक धर्म में किसी देवालय या मन्दिर, चैत्यालय, मठ आदि का कोई स्थान नहीं है। न कोई मुर्ति न मूर्ति पूजा की कोई अवधारणा है। बस समर्पित भाव से सेवा ही धर्म है।
३ नृयज्ञ/ अतिथि यज्ञ — अतिथि यज्ञ- अपरिचित, आगन्तुक, गुरुकुल, गुरुकुल के ब्रह्मचारी, सन्यासी, वृद्ध, रोगी, असहाय, असमर्थ की सफाई, जल, भोजन, आवास, दवाई/ चिकित्सा/ शारीरिक सेवा, शिक्षा आदि में योगदान आदि के माध्यम से यथायोग्य सेवा-सहायता करना।
४ भूतयज्ञ — मानवेत्तर योनियों, गौ, कुत्ता, काक (कव्वा), चिटियों (पिप्पलिका), जलचर, वनचर, पाल्य पशुपक्षियों, वृक्ष, पैड़-पौधे, गन्धर्व, यक्ष आदि अदृष्य योनियों में जो जीव हैं उनकी जल, भोजन, सफाई आदि से सेवा— सहायता करना।
५ पितृयज्ञ — श्राद्ध अर्थात अपने दिवङ्गत माता— पिता, दादा- दादी, परदादा— परदादी, वृद्ध प्रपितामह — वृद्ध प्रपितामही आदि पितृकुल की सात पीढ़ियों, मातृकुल की पाँच पीढ़ियों के दिवङ्गत पूर्वजों की अधूरी— अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए पूर्तकर्म -सदावृत, अतिथि-गृह, धर्मशाला, विश्रान्ति गृह, विद्यालय, वाचनालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औशधालय, चिकित्सालय, कुए, तालाब, नहर, बाग-बगीचे, मार्गों के आसपास फलदार और छाँयादार वृक्षारोपण जैसे कार्यों में सहकारिता , सामुहिक योगदान, धन दान, श्रमदान, आवश्यकता अनुरूप वस्तु या सेवा उपलब्ध करवाना।
ताकि,  हमारे पूर्वजों ने जिन अभावों को भोगा, जिन कष्टों को सहा वे जिनके लिए तरसे, आगे उनका सामना किसी को न करना पड़े उनकी इस इच्छा की पूर्ति हो सके। 
यह वास्तविक श्राद्ध है, वास्तविक पितृ यज्ञ है। वास्तविक पूर्तकर्म है। 

यह प्रक्रिया दम्पत्ति के विवाह और गर्भाधान संस्कार से आरम्भ होती थी तो सन्तान के षोडष संस्कार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में भलीभाँति स्थापित कर दी जाती थी।
वर्तमान में इसे वैदिक/ आर्य सभ्यता और संस्कृति कहा जाता है। यह मूल भारतीय संस्कृति है। 
इस संस्कृति में गुरुकुल होते थे।  समाज के लिए योग्य सक्षम, समर्थ,और योग्य मानव तैयार करना गुरुकुल शिक्षा का लक्ष्य था।
यह साधन करना या आत्म साधना है। इसमें नेमित्तिक कर्म, अनुष्ठान आदि की आवश्यकता नही है।

अब आते हैं मन्त्र साधना पर -
मन्त्र साधना -
वेदप्राप्त्यर्थ मन्त्र साधना ब्रह्मचर्य आश्रम में की जाती है।
मन्त्र साधना हेतु सर्वप्रथम कच्छ चांद्रायण व्रत किया जाता है। जिसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने  शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।
कुछ लोग अमावस्या से अमावस्या तक कच्छ चान्दद्रायण व्रत करते हैं। उसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्वितीया को तेरह ग्रास कर अमावस्या को निराहार रहकर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने  शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है। लेकिन यह मूलतः वानप्रस्थ प्रवेश के पहले किया जाना उचित है।
लेकिन वेद प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से ब्रह्मचारी भी ऐसा व्रत करते थे।
तदुपरान्त ही सावित्री मन्त्र (गायत्री मन्त्र) का पुरुश्चरण किया जाता है। पुरुश्चरण की पूर्णता पर पूर्णाहुति यज्ञ में पुनः सर्वस्व दान कर अपराध क्षमा प्रार्थना की जाती है।
यह मन्त्र साधना मूलतः सकाम कर्म है। लेकिन वेद प्राप्ति, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करने हेतु और वानप्रस्थ आश्रम पूर्ण कर सन्यास आश्रम में प्रवेश करने हेतु आवश्यक है। अतः इसमें सकामता होते हुए भी कोई स्वार्थ और अहन्ता ममता युक्त कर्म न होने और विश्वकल्याण की मानसिकता होनें से दोषपूर्ण और बन्धन का कारण बनने वाला कर्म नही है।

तन्त्र परम्परा 
वैदिक मत से ठीक विपरीत तन्त्र मत है।   मठ- मन्दिर इस संस्कृति के ही अङ्ग हैं। वैष्णव, सौर, शैव सम्प्रदाय के तन्त्र आगम के अनुसार ही मन्दिरों में मुर्ति पूजा होती है। आगमों के अतिरिक्त पुराण इस मत के आदरणीय ग्रन्थ हैं।
त्रेतायुग के अन्त में यह प्रक्रिया आरम्भ हुई। 
इसका प्रथम उल्लेख वशिष्ठ - विश्वामित्र युद्ध, जमदग्नि - कार्तवीर्यार्जुन विवाद, रावण द्वारा निकुम्भला पूजन और मेघनाद के तान्त्रिक हवन का वर्णन वाल्मीकि रामायण में आता है। भरत के साथ गये ऋषि जबाली द्वारा नास्तिक बौद्ध मत का प्रवचन सुन श्रीराम के क्रुद्ध होनें का प्रसङ्ग भी है।
द्वापर अन्त में भी नेमिनाथ नास्तिक श्रमण मतावलम्बी थे। काश्यप ब्राह्मण द्वारा वृक्ष सुखाकर पुनर्जीवित करनें का उल्लेख है।
वैदिक वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों के त्याग पूर्वक निर्वहन में अक्षम,  स्व को धारण किये स्वधा प्रधान वेद विरोधी तान्त्रिकों द्वारा स्थापित मठ परम्परा में मठों में  चैत्य बनना आरम्भ हुआ। 
इन तन्त्राचार्यों की भिन्न भिन्न आस्थाओं के आधार पर सनातन धर्म में अनेक सम्प्रदाय बन गये।
इनमें वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त, गाणपत्य, कार्तिकेय सम्प्रदाय आज तक प्रचलित हैं।
आदि शंकराचार्य जी ने तन्त्र मत को सनातन धर्म में अपनाया। 
जैन - बौद्धों के समान दशनामी महन्तों के मठों में मूर्तिपूजा और मन्दिर स्थापित करना आरम्भ हुआ।
मठ परम्परा ने वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त और गाणपत्य सम्प्रदायों में शेष सभी सम्प्रदायों का संलयन कर पञ्चदेवोपासना विधान तैयार किया गया।
मन्दिरों में कलाकारों के विभिन्न समारोहों का आयोजन कर मन्दिरों को जन आकर्षण के केन्द्र बनाये गये। धर्म के नाम पर पुराणकथाओं के आख्यान, भजन-किर्तन को भक्ति मार्ग बतलाकर और तान्त्रिक होम आहुतियों को यज्ञ घोषित कर वैदिक यज्ञ कर्म से विलग किया ।

कौल मत,  कापालिक वामाचार ---

तन्त्र में कौल मत शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप  तथा दत्तात्रेय और उनके शिष्य कार्तवीर्यार्जुन और रावण से आरम्भ हुआ।
इसमें काली और भैरव मुख्य आराध्य हो गये। पञ्चमकार साधना आरम्भ हुई जिसका वर्णन असभ्यता पूर्ण होनें से नही किया जा रहा है।

तन्त्र मत की सर्वाधिक प्रबलता  पार्श्वनाथ, सिद्धार्थ गोतम बुद्ध और वर्धमान महावीर के युग में प्रकट हुई।
इस समय तान्त्रिक श्रमण मत पराकाष्ठा पर पहुँच गया। जैन मत यक्षोपासक तान्त्रिक साधकों का मत है। वज्रयान बौद्ध मत भी तान्त्रिकों का प्रसिद्ध मत है।
नागार्जुन के शुन्यवाद में लोगों को अद्वैत वेदान्त दर्शन की झलक दिखती है। उससे साधारण जन बहुत प्रभावित होते हैं। ठीक यही स्थिति त्रिक मत की भी है।
लोग इसे अद्वैत वेदान्त दर्शन समझ कर आकर्षित होते हैं।
यहीँ से मठ और मन्दिर परम्परा का आरम्भ हुआ और यज्ञ और गुरुकुल परम्परा का ह्रास होना आरम्भ हुआ।

ईरानी पारसी आक्रमण,तुर्क इस्लामी आक्रमण  और पोलेण्ड, ब्रिटेन और फ्रान्स के ईसाई आक्रमण ने इस मठ मन्दिर संस्कृति की भी नीव हिलादी।
लेकिन आज लोग  मठ, मन्दिर, मुर्तिपूजा, टोने-टोटके, पर्दा प्रथा, बाल विवाह को ही सनातन धर्म समझने लगे हैं।

रविवार, 12 जून 2022

दर्शन में कुछ भ्रमों का निवारण---

१ - महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता) में जीव ब्रह्म का अंश  कहा गया।
निम्बार्काचार्य नें   अग्नि से स्फुर्लिंग के समान ब्रह्म से जीवों की उत्पत्ति होने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
निरालम्बोपनिषद और आदि शंकराचार्य जी नें जगत मिथ्या का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
इन तीनों सिद्धान्तों को सही और उचित ढङ्ग से न समझनें के कारण बड़े बड़े शास्त्री और आचार्य भी भ्रमित हुए हैं। और उनने जन साधारण को भी भ्रमित किया।
 कई भारतीय दर्शनों में अंशी अंश सिद्धान्त प्रचलित हुआ। तो कुछ ने विरोध भी किया।
अग्नि स्फुर्लिंग सिद्धान्त का उदाहरण भी कई दार्शनिकों को पसन्द आया तो कुछ नें इसकी भी कटु आलोचना की।
 परिवर्तनशील, अस्थाई होनें से  सत असत अनिर्वचनीय के अर्थ में जगत को मिथ्या कहे जाने की बात प्रायः अधिकांश शास्त्री और आचार्य नही समझ पाये। परिणाम स्वरूप उननें जगत मिथ्या सिद्धान्त की घोर कटु आलोचना की। लेकिन उससे अधिक दुःखद यह रहा कि, इस सिद्धान्त को सत्य घोषित करनें की डींगें हाँकनें वाले कई शास्त्री और आचार्य भी बेसिरपेर के तर्कों के आधार पर जगत को असत सिद्ध करनें में लगे रहे। इसकारण पक्ष विपक्ष में कटुता पूर्ण विद्वेष उत्पन्न हो गया। एक दुसरे के प्रति आरोप प्रत्यारोप का आक्रमण होनें लगा।
श्रीकृष्ण और निम्बार्काचार्य का समय पाँच हजार दो सौ वर्ष से अधिक पुराना मान्य है।
कुछ  ब्राह्मण,आरण्यकों, उपनिषदों में और सुत्र ग्रन्थों , दर्शन शास्त्रों में श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यास/ वेदव्यास जी, बादरायण, पाराशर,व्यास जी के शिष्य जेमिनी, और प्रमाण के रूप में उक्त ऋषियों के मतों का और ग्रन्थों का उल्लेख होनें के आधार पर इन ग्रन्थों को भी श्रीकृष्ण जी और वेदव्यास जी के समय की रचना मानते हैं।
अतः इस मत को एक दम से परवर्ती मत भी नही कहा जा सकता।
समुद्र के जल की बुन्द से अंशी ब्रह्म का अंश जीव की तुलना गलत है।
इसी प्रकार अग्नि स्फुर्लिंग वाला मत भी गलत है। क्योंकि उक्त दोनों उदाहरण में मूल पदार्थ सें उसका अंश प्रथक हो जाता है। इन दोनों के बीच आकाश, दिक, अन्तरिक्ष, वायु आदि पदार्थ रहते हैं। अतः यह विभाजन है। जबकि अंशी और अंश में विभाग काल्पनिक हैं, वास्तविक नही।
जैसे वृत्त में जो अंश होते हैं वे काल्पनिक हैं लेकिन सही अर्थों में अंशी वृत्त के अंश हैं। अतः अक्षांश- देशान्तर वाला उदाहरण ही सही है। चाहे यह उदाहरण समझने़ में कठिन हो; लेकिन, वृत्त के अंश वाले उदाहरण ही सही हैं।

माया वाद के अनुसार माया विष्णु की शक्ति है। 
जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश है। क्या प्रकाश के बिना सूर्य को सूर्य कहा जा सकता है? 
क्या बिना सूर्य के सूर्य प्रकाश का कोई अस्तित्व हो सकता है?
 प्रकाश उत्सर्जन न करनें वाले ब्लेक होल भी भूतकाल में सूर्य थे और भविष्य काल में पुनः सूर्य होंगे।
 लेकिन क्या सूर्य के बिना सूर्य प्रकाश का कोई अस्तित्व किसी भी काल में हो सकता है?
 नही ना। 
अतः सूर्य प्रकाश सूर्य पर आश्रित  है। इसकारण सूर्यप्रकाश सत असत अनिर्वचनीय/ मिथ्या है। यही प्रकृति (स्वभाव/ गुण) माया की भी है।
अतः ब्रह्म/ सवितृ/ अन्तर आत्मा (प्रत्यगात्मा) के लिए माया वास्तविक है लेकिन विष्णु, परब्रह्म, प्रज्ञात्मा के लिए वह उसकी सामर्थ्य, शक्ति, गुण है। और विश्वात्मा ॐ के लिए और परमात्मा / परम आत्मा के लिए माया का अस्तित्व सांकल्पिक है, वास्तविक नही है।
आकाश में, भूमि में अक्षांश देशान्तर या वृत्त में अंश का उदाहरण आवश्यक है। क्योंकि, श्रोता जिस पदार्थ को जानता समझता है उसी का उदाहरण दे कर परम तत्वों को समझाने की परम्परा विकसित हुई।
लेकिन अग्नि- स्फुर्लिंग और जल- बिन्दु, महाकाश-घटाकाश वाले उदाहरण गलत ही है।

शुक्रवार, 10 जून 2022

भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों और उनके शासन का संक्षिप्त इतिहास।

*भारत पर विदेशी आक्रमण और शासन  ---* 
भारत पर अधिकांश आक्रमण तुर्किस्तान के तुर्क लोगों ने ही किया। चाहे वे सीधे तुर्किस्तान से आए हों या पहले अफगानिस्तान में बस कर फिर भारत आये हों या तेमुरलङ्ग पहले उज़्बेकिस्तान में बसा फिर भारत आया। पर शक, कुशाण, हूण,  मुहम्मद गजनवी, मुहम्मद घोरी, जलालुद्दीन खिलजी, गयासुद्दीन तुगलक हो, या सैय्यद खिज्रखाँ हो,या तेमुरलङ्ग हो, या अफगानिस्तान का बहलोल लोधी हो या अफगानिस्तान से आया बाबर हो सभी मूलतः तुर्किस्तान के तुर्क ही थे।
केवल, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, बाली,और ज़रथ्रुष्ट, मुहम्मद बिन कासिम, अफगानिस्तान पर आक्रमण करने वाला याकुब एलस ईराक के थे। चङ्गेज खाँ मङ्गोलिया का था और युरोपीय जातियाँ तुर्क नही थी। 
इसी प्रकार दक्षिण भारत के बहमनी वंश और निजाम तथा टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में अभी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नही हुई है।
इसी कारण हमारे भक्तिकाल के कबीर दास जी, नानक देव जी, रामानन्दाचार्य जी, सूरदास जी, तुलसीदास जी सबने इस्लामी आक्रान्ताओ को तुर्क ही कहा है।

आक्रमणकारियों की सुची ---

(१) हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु।

(२) बली का केरल पर शासन--- बलि को वामन द्वारा भारत से निष्कासित कर बोलिविया भेजने पर बलि अपनी सेना सहित सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, होते हुए लेबनान पहूँचा। लेबनान में फोनिशिया बसा कर लेबनान से दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया में बसा। इस बीच उसके कुछ सैनिक तुर्किस्तान में ही बस गये। इनलोगों ने आदित्यों को तिब्बत में खदेड़ दिया। और तुर्किस्तान पर अधिकार कर लिया। ये ही लोग वर्तमान में उइगर मुसलमान कहलाते हैं।
 बाद में इन्हीं के वंशज शक, हूण, मंगोल, और मुस्लिमों के रूप में अफगानिस्तान होते हुए भारत पर बारम्बार आक्रमण करते रहे। 

(३) अफ्रीका - माली-सुमाली का लक्ष्यद्वीप पर (कुबेर की लङ्का पर रावण के साथ आक्रमण)। लगभग ८,६६,१०० ई,पू.

(४) यमन -- कालयमन का मथुरा पर *असफल आक्रमण* ।३२०० ई.पू.

(५) ईराक का ईरान पर ज़रथ्रुष्ट द्वारा *बौद्धिक हमला*। ३२०० ई.पू.। कुछ लोग ३५०० ई.पू. लिखते हैं। लेकिन पारसी ग्रन्थों (शायद गाथा) में उल्लेख है कि, कृष्ण द्वेपायन व्यास जी भारत से ईरान गये थे। वहां ज़रथ्रुष्ट से वेदव्यास जी की चर्चा/ वार्ता हुई थी। और वेदव्यास जी भगवान श्रीकृष्ण एक साथ थे। श्रीकृष्ण के गोलोक गमन से कलियुग आरम्भ माना जाता है। कलियुग ३१०० ई.पू. में आरम्भ हुआ। अतः वेदव्यास जी को अधिकतम ३२००ई.पू. माना जा सकता है।
 
(६) *ईरान* के *करूष (सायरस द्वितीय)* का भारत पर ५५० ई. पू.।

(७) *युनान* का भारत पर --- *अलेक्ज़ेंडर* (सिकन्दर) ३२६ ई.पू., *डेमिट्रियस* ने ई.पू. १८३ में, *मिनेण्डर* / मिलिन्द आदि) का ईरान, अफगानिस्तान और भारत पर।

 *तुर्क आक्रमण* ---
(८) *तुर्किस्तान* का भारत पर -- *शक* १२० इ. पू. से ३८८ इस्वी तक।  ( *चष्टान, रुद्रदामा* आदि) (सिन्ध में मीन नगर राजधानी बनाई।)

(९) *तुर्किस्तान* का भारत पर -- *कुषाण* (६०ईस्वी से २४० ईस्वी तक) कुजल *कडफाइसिस* ने *ईरान पर* , *अफगानिस्तान* , *उत्तर पश्चिम सीमा, पञ्जाब तक* , कुजल के पुत्र *विम तक्षम* ( *मथुरा विजय* ), *कनिष्क* १२७ से १४० ईस्वी तक *सारनाथ (काशी/ वाराणसी तक* विस्तार किया।)

(१०) *तुर्किस्तान* का -- *हूण* (४९९ ईस्वी से ५३२ ईस्वी तक) ईरान *अफगानिस्तान, से उज्जैन* तक। *तुरमानशाह* (तोरणमल), और *मिहिरगुल* (मिहिरकुल)।

 *ईराकी आक्रमण--* 
(११) अरब- *ईराक* का -- आक्रमण (६३८ से ७११ तक ७८ वर्ष में ९ खलिफाओं के आदेश पर १५ बार आक्रमण किया। पहले *ईरान विजय* ।

(१२) *इराक* का--  *मुहम्मद बिन कासिम*   मोहम्मद बिन कासिम का *बलुचिस्तान और सिन्ध* पर। (७११ ईस्वी -७१२ईस्वी)
सिन्ध पर खलिफा के प्रतिनिधि *जूनेद* का कब्जा रहा। सीमा विस्तार में असफल रहा।

(१३) *इराक* का -- *याकुब एलस* (८७० ईस्वी) का *अफगानिस्तान* पर। 
 
 *पुनः तुर्क आक्रमण---* 
(१४) *तुर्किस्तान* का *मोहम्मद गजनी* ने १०१९ ईस्वी में *कपिशा छोडकर शेष अफगानिस्तान* जीता । ९९९ से १०२६ के बीच  भारत पर १७ बार आक्रमण किये।

(१५) *तुर्किस्तान* -- का *महमूद घोरी* ९७७ ईस्वी। *अफगानिस्तान* मे और ११७५ से ११९४ तक कई  बार आक्रमण किया। *अजमेर* के शासक पृथ्वीराज चौहान और *कन्नोज* के शासक जयचंद को हराया।

१६ *गुलाम वंश* (१२०६ से १२९० तक) कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिश, रजिया सुल्तान से बलवन तक।

(१६) *मंगोलिया* --- *मंगोल आक्रमण* - चङ्गेज खाँ (१२२० में सिन्ध कश्मीर, पञ्जाब पर)।

(१७) *तुर्किस्तान  के खिलजी* --  तुर्किस्तान से अफगानिस्तान में बसे *खिलजी वंश के सुल्तान* (१२२० से १३९०) जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी।

(१८) *तुर्क तुग़लक़ वंश* - १३२० से १४१४ तक । मुख्य रहे मगयासुद्दीन तुग़लक़ और मोहम्मद तुग़लक़।

(१९) *तुर्क का सैय्यद वंश* (१४१४ से १४५१ तक) खिज्र खांँ, मुबारक शाह, मुहम्मद शाह, अलाउद्दीन आलम मुख्य हुए।

(२०)  *तुर्किस्तान से उजाबेगिस्तान मे बसे  तेमुरलङ्ग* - १३६९ से १४०५ तक। १३६९ में उज़्बेकिस्तान के समरकंद पर कब्जा। १३८० से १३८७ तक में खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि विजितकर १३९८ में पौत्र को भारत पर आक्रमण करने भेजा, फिर स्वयम् तेमुरलङ्ग आया *मुल्तान* विजय किया। फिर *दिल्ली* और *गुजरात* विजय किया।

(२१) *अफगानिस्तान* का *लोधी वंश* (१४५१ से १५२६ तक) बहलोल लोधी, सिकन्दर लोदी और इब्राहीम लोदी।

(२२) *अफगानिस्तान का मुगल वंश बाबर* १५२६ । हिमायु, अकबर, जहाङ्गीर, शाहजहां, ओरङ्गजेब और बहादुर शाह जफर,

(२३) दक्षिण भारत में बहमनी वंश (१३४७-१५३८) और निजामशाही वंश (१४९०-१६३६) ,हेदर अली और टीपू सुल्तान,  प्रमुख रहे, जो दक्षिण के हिन्दू साम्राज्य विजयनगरम साम्राज्य से लड़ते रहते थे। 
(२४) युरोपीयन शासन -१६९९ से १९४७ तक।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी १६९९ से १८५७ तक।  ब्रिटिश राज १८५७ से १९४७ तक।