साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---
मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। उक्त साधन के उपसाधन क्रियाएँ और कर्मकाण्ड हैं।
यदि मूल भारतीय धर्म-दर्शन और संस्कृति की बात की जाये तो वह थी सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।
ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है। अति संक्षिप्त में बतला रहाहूँ। विस्तार के लिए गृह्यसुत्र आदि शास्त्राध्ययन ही उचित है।
यज्ञ मतलब परमार्थ — परम के लिए। परम के निमित्त। विष्णु के प्रति समर्पित हो, विष्णु के निमित्त, विष्णुअर्पण कर्म।
१ ब्रह्मयज्ञ — संध्या-जप-स्वाध्याय- निधिध्यासन- धारणा, ध्यान, समाधि, अष्टाङ्गयोग, अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, भजन-किर्तन सभी ब्रह्मयज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। अष्टाङ्ग योग- यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ब्रह्मयज्ञ का भाग ही है।
वेदाध्ययन -
वेद मतलब ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं को वेद कहते हैं।
आरण्यकों और उपनिषद सहित ब्राह्मण ग्रन्थों को भी श्रुति की मान्यता है।
उपवेद
१ आयुर्वेद (मेडिकल साइन्स),
२ धनुर्वेद (अस्त्र-शस्त्र निर्माण एवम् मिलिट्री साइन्स),
३ शिल्पवेद/ स्थापत्य वेद (सिविल इंजीनियरिंग एवम् आर्किटेक्ट) और
४ गन्धर्ववेद (संगीत एवम् नाट्य) ये चार उपवेद है।
वेदाङ्ग ---
१ कल्प -- चार प्रकार के सुत्र ग्रन्थों को कल्प कहते हैं। १ शुल्बसुत्र २ श्रोतसुत्र ३ गृह्यसुत्र और ४ धर्मसुत्र।
शुल्बसुत्र - ब्रह्माण्ड के नक्षों/ मानचित्रों की प्रतिकृति अनुसार यज्ञ वेदी और मण्डप निर्माण विधि,
श्रोत सुत्र - बड़े यज्ञों की विधि,
गृह्यसुत्र - संस्कार, व्रत, उत्सव विधि,
धर्म सुत्र - आचरण संहिता/ संविधान हैं।
धर्मसुत्रों की स्मृतियों को ही मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि कहते हैं।
२ ज्योतिष --- कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी एवम् मौसम विज्ञान,
३ शिक्षा -- उच्चारण विधि/ फोनेटिक,
४ निरुक्त --भाषाविज्ञान, शब्द व्युत्पत्ति,
५ व्याकरण (ग्रामर) - वाक्य रचना। और
६ छन्द -- काव्यशास्त्र या पिङ्गल शास्त्र।
इन छः शास्कोत्रों को वेदाङ्ग कहते हैं। वेदों का तात्पर्य समझनें के लिए उपवेदों और वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक है।
उपवेद, वेदाङ्ग और ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्म काण्ड भाग की व्याख्या जैमिनी की पूर्व मीमान्सा दर्शन और आरण्यकों- उपनिषदों की व्याख्या उत्तर मीमान्सा दर्शन (षड दर्शनों) में पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा एवम् श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात कर्म मीमांसा भी वेदों के समान ही आदरणीय मान्य है, श्रुति के समान ही आदरणीय है। उक्त समस्त अध्ययन भी वेदाध्ययन कहलाता ही है।
वेदाध्ययन द्वारा निश्चयात्मक बुद्धि का विकास और विवेक जागृत होनें उपरान्त ही गोतम के न्याय दर्शन,कणाद के वैशेषिक दर्शन, पतञ्जली के योग दर्शन, ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाएँ - कपिल के सांख्य दर्शन का अध्ययन करना चाहिए। ताकि, विभिन्न मत मतान्तर के अध्ययन से मतिभ्रम न हो
उक्त ग्रन्थों - वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों, उपवेदों,वेदाङ्गों, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा सहित षडदर्शनों में ही बत्तीस विद्याएँ , चौसठ कलाएँ, ज्ञान विज्ञान, धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब प्रकार का अध्ययन, मनन, चिन्तन,जप, एवम् अष्टाङ्ग योग के अन्तर्गत यम, नियमों के पालन पूर्वक बहिरङ्ग योग आसन, प्राणायाम के द्वारा धृति वर्धन के साथ प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (अन्तरङ्ग योग) के माध्यम से मानसिक, बौद्धिक विकास करते हुए चित्त वृत्तियों का निरोध कर देवयज्ञ के द्वारा अहंकार का स्वाहा (स्व का पूर्ण समर्पण) करके नृयज्ञ में मानव सेवा, भूत यज्ञ में बलिवैश्वदेव कर्म करके सर्व प्राणियों, वनस्पतियों, दृष्य अदृश्य जीवन जी रहे दैविक शक्तियों की सेवा और पितृ यज्ञ के माध्यम से हमारे वरिष्ठो, पूर्वजो,पितरों के समाजसेवा, जन सेवा, भूतमात्र की सेवा के संकल्पों को आगे बढ़ाकर पूर्ण करने हेतु पूर्तकर्म करना सम्मिलित था। आगे इनका वर्णन करते हैं।---
२ देवयज्ञ — यह है वैदिक पूजा पद्यति। इनकी शास्त्रोक्त विधि वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों - आरण्यको - उपनिषदों, और श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, शुल्बसुत्रों, धर्मसुत्रों, पूर्व मीमांसा दर्शन- उत्तर मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसुत्र) एवम् कर्मयोग शास्त्र (श्रीमद्भगवद्गीता) में अध्ययन किया जा सकता है।
देव मतलब प्रकाश स्वरूप/ प्रकाशक। ज्ञान दाता। अतः प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं, सेवाओं का लाभ लेनें के पूर्व, लेते समय और लेनें के बाद उन सेवा-सुविधाओं के अधिष्ठाता अधिकारी देवता का स्मरण कर उनके प्रति स्व का हनन कर स्वाहाकार, हवन करना, अग्निहोत्र, इष्टि आदि।
पूजा शब्द का अर्थ सेवा है।
यदि आप अपने माता— पिता, और गुरुजनों की सेवा करना चाहते हैं तो सर्वोत्तम तरीका उनके कार्यों में हाथ बंटाना ही होगा।
वैदिक धर्म में किसी देवालय या मन्दिर, चैत्यालय, मठ आदि का कोई स्थान नहीं है। न कोई मुर्ति न मूर्ति पूजा की कोई अवधारणा है। बस समर्पित भाव से सेवा ही धर्म है।
३ नृयज्ञ/ अतिथि यज्ञ — अतिथि यज्ञ- अपरिचित, आगन्तुक, गुरुकुल, गुरुकुल के ब्रह्मचारी, सन्यासी, वृद्ध, रोगी, असहाय, असमर्थ की सफाई, जल, भोजन, आवास, दवाई/ चिकित्सा/ शारीरिक सेवा, शिक्षा आदि में योगदान आदि के माध्यम से यथायोग्य सेवा-सहायता करना।
४ भूतयज्ञ — मानवेत्तर योनियों, गौ, कुत्ता, काक (कव्वा), चिटियों (पिप्पलिका), जलचर, वनचर, पाल्य पशुपक्षियों, वृक्ष, पैड़-पौधे, गन्धर्व, यक्ष आदि अदृष्य योनियों में जो जीव हैं उनकी जल, भोजन, सफाई आदि से सेवा— सहायता करना।
५ पितृयज्ञ — श्राद्ध अर्थात अपने दिवङ्गत माता— पिता, दादा- दादी, परदादा— परदादी, वृद्ध प्रपितामह — वृद्ध प्रपितामही आदि पितृकुल की सात पीढ़ियों, मातृकुल की पाँच पीढ़ियों के दिवङ्गत पूर्वजों की अधूरी— अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए पूर्तकर्म -सदावृत, अतिथि-गृह, धर्मशाला, विश्रान्ति गृह, विद्यालय, वाचनालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, औशधालय, चिकित्सालय, कुए, तालाब, नहर, बाग-बगीचे, मार्गों के आसपास फलदार और छाँयादार वृक्षारोपण जैसे कार्यों में सहकारिता , सामुहिक योगदान, धन दान, श्रमदान, आवश्यकता अनुरूप वस्तु या सेवा उपलब्ध करवाना।
ताकि, हमारे पूर्वजों ने जिन अभावों को भोगा, जिन कष्टों को सहा वे जिनके लिए तरसे, आगे उनका सामना किसी को न करना पड़े उनकी इस इच्छा की पूर्ति हो सके।
यह वास्तविक श्राद्ध है, वास्तविक पितृ यज्ञ है। वास्तविक पूर्तकर्म है।
यह प्रक्रिया दम्पत्ति के विवाह और गर्भाधान संस्कार से आरम्भ होती थी तो सन्तान के षोडष संस्कार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में भलीभाँति स्थापित कर दी जाती थी।
वर्तमान में इसे वैदिक/ आर्य सभ्यता और संस्कृति कहा जाता है। यह मूल भारतीय संस्कृति है।
इस संस्कृति में गुरुकुल होते थे। समाज के लिए योग्य सक्षम, समर्थ,और योग्य मानव तैयार करना गुरुकुल शिक्षा का लक्ष्य था।
यह साधन करना या आत्म साधना है। इसमें नेमित्तिक कर्म, अनुष्ठान आदि की आवश्यकता नही है।
अब आते हैं मन्त्र साधना पर -
मन्त्र साधना -
वेदप्राप्त्यर्थ मन्त्र साधना ब्रह्मचर्य आश्रम में की जाती है।
मन्त्र साधना हेतु सर्वप्रथम कच्छ चांद्रायण व्रत किया जाता है। जिसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है।
कुछ लोग अमावस्या से अमावस्या तक कच्छ चान्दद्रायण व्रत करते हैं। उसमें अमावस्या को निराहार रहकर प्रतिपदा को आँवले के बराबर एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास ऐसे बढ़ाते हुए पुर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन कर कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्वितीया को तेरह ग्रास कर अमावस्या को निराहार रहकर पूर्णाहुति यज्ञ में सम्पूर्ण धन सम्पत्ति योग्य पात्रों को दान कर आश्रम या ग्राम के मध्य में खड़े होकर अपने शारीरिक, मानसिक,और भावनात्मक (अध्यात्मिक) असावधानियों, त्रुटियों, अपराधों का वर्णन कर क्षमा प्रार्थना करना होता है। लेकिन यह मूलतः वानप्रस्थ प्रवेश के पहले किया जाना उचित है।
लेकिन वेद प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से ब्रह्मचारी भी ऐसा व्रत करते थे।
तदुपरान्त ही सावित्री मन्त्र (गायत्री मन्त्र) का पुरुश्चरण किया जाता है। पुरुश्चरण की पूर्णता पर पूर्णाहुति यज्ञ में पुनः सर्वस्व दान कर अपराध क्षमा प्रार्थना की जाती है।
यह मन्त्र साधना मूलतः सकाम कर्म है। लेकिन वेद प्राप्ति, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करने हेतु और वानप्रस्थ आश्रम पूर्ण कर सन्यास आश्रम में प्रवेश करने हेतु आवश्यक है। अतः इसमें सकामता होते हुए भी कोई स्वार्थ और अहन्ता ममता युक्त कर्म न होने और विश्वकल्याण की मानसिकता होनें से दोषपूर्ण और बन्धन का कारण बनने वाला कर्म नही है।
तन्त्र परम्परा
वैदिक मत से ठीक विपरीत तन्त्र मत है। मठ- मन्दिर इस संस्कृति के ही अङ्ग हैं। वैष्णव, सौर, शैव सम्प्रदाय के तन्त्र आगम के अनुसार ही मन्दिरों में मुर्ति पूजा होती है। आगमों के अतिरिक्त पुराण इस मत के आदरणीय ग्रन्थ हैं।
त्रेतायुग के अन्त में यह प्रक्रिया आरम्भ हुई।
इसका प्रथम उल्लेख वशिष्ठ - विश्वामित्र युद्ध, जमदग्नि - कार्तवीर्यार्जुन विवाद, रावण द्वारा निकुम्भला पूजन और मेघनाद के तान्त्रिक हवन का वर्णन वाल्मीकि रामायण में आता है। भरत के साथ गये ऋषि जबाली द्वारा नास्तिक बौद्ध मत का प्रवचन सुन श्रीराम के क्रुद्ध होनें का प्रसङ्ग भी है।
द्वापर अन्त में भी नेमिनाथ नास्तिक श्रमण मतावलम्बी थे। काश्यप ब्राह्मण द्वारा वृक्ष सुखाकर पुनर्जीवित करनें का उल्लेख है।
वैदिक वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों के त्याग पूर्वक निर्वहन में अक्षम, स्व को धारण किये स्वधा प्रधान वेद विरोधी तान्त्रिकों द्वारा स्थापित मठ परम्परा में मठों में चैत्य बनना आरम्भ हुआ।
इन तन्त्राचार्यों की भिन्न भिन्न आस्थाओं के आधार पर सनातन धर्म में अनेक सम्प्रदाय बन गये।
इनमें वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त, गाणपत्य, कार्तिकेय सम्प्रदाय आज तक प्रचलित हैं।
आदि शंकराचार्य जी ने तन्त्र मत को सनातन धर्म में अपनाया।
जैन - बौद्धों के समान दशनामी महन्तों के मठों में मूर्तिपूजा और मन्दिर स्थापित करना आरम्भ हुआ।
मठ परम्परा ने वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त और गाणपत्य सम्प्रदायों में शेष सभी सम्प्रदायों का संलयन कर पञ्चदेवोपासना विधान तैयार किया गया।
मन्दिरों में कलाकारों के विभिन्न समारोहों का आयोजन कर मन्दिरों को जन आकर्षण के केन्द्र बनाये गये। धर्म के नाम पर पुराणकथाओं के आख्यान, भजन-किर्तन को भक्ति मार्ग बतलाकर और तान्त्रिक होम आहुतियों को यज्ञ घोषित कर वैदिक यज्ञ कर्म से विलग किया ।
कौल मत, कापालिक वामाचार ---
तन्त्र में कौल मत शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप तथा दत्तात्रेय और उनके शिष्य कार्तवीर्यार्जुन और रावण से आरम्भ हुआ।
इसमें काली और भैरव मुख्य आराध्य हो गये। पञ्चमकार साधना आरम्भ हुई जिसका वर्णन असभ्यता पूर्ण होनें से नही किया जा रहा है।
तन्त्र मत की सर्वाधिक प्रबलता पार्श्वनाथ, सिद्धार्थ गोतम बुद्ध और वर्धमान महावीर के युग में प्रकट हुई।
इस समय तान्त्रिक श्रमण मत पराकाष्ठा पर पहुँच गया। जैन मत यक्षोपासक तान्त्रिक साधकों का मत है। वज्रयान बौद्ध मत भी तान्त्रिकों का प्रसिद्ध मत है।
नागार्जुन के शुन्यवाद में लोगों को अद्वैत वेदान्त दर्शन की झलक दिखती है। उससे साधारण जन बहुत प्रभावित होते हैं। ठीक यही स्थिति त्रिक मत की भी है।
लोग इसे अद्वैत वेदान्त दर्शन समझ कर आकर्षित होते हैं।
यहीँ से मठ और मन्दिर परम्परा का आरम्भ हुआ और यज्ञ और गुरुकुल परम्परा का ह्रास होना आरम्भ हुआ।
ईरानी पारसी आक्रमण,तुर्क इस्लामी आक्रमण और पोलेण्ड, ब्रिटेन और फ्रान्स के ईसाई आक्रमण ने इस मठ मन्दिर संस्कृति की भी नीव हिलादी।
लेकिन आज लोग मठ, मन्दिर, मुर्तिपूजा, टोने-टोटके, पर्दा प्रथा, बाल विवाह को ही सनातन धर्म समझने लगे हैं।