आरम्भ सबकी सुनी हुई अत्यन्त सुमधुर सुन्दर कहानी से करता हूँ।
रचनाकार का नामोल्लेख कहीँ पढ़ने को नहीं मिला अतः उन कथाकार महोदय को सादर प्रणाम कर धन्यवाद सहित साभार प्रस्तुत है। कथा में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो अतः कॉपी पेस्ट किया है। इस कथा को समझनें पर आपको श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय का बाइसवाँ मन्त्र का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।
*प्रारब्ध*
एक गुरूजी थे । हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे । काफी बुजुर्ग हो गये थे । उनके कुछ शिष्य साथ मे ही पास के कमरे मे रहते थे ।
जब भी गुरूजी को शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य ले जाते थे ।
धीरे धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते ।
एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते है, तुरन्त एक बालक आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है । अब ये रोज का नियम हो गया ।
एक दिन गुरूजी को शक हो जाता है कि, पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे । लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है ।
एक दिन गुरूजी उस बालक का हाथ पकड लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है ? मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं ।
वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे; उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया।
गुरूजी रोते हुये कहते है :
हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है । यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना ।
प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है । आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम का जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ ।
गुरूजी कहते है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है ।
प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म नियम है । इसलिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।
ईश्वर कहते है:
*प्रारब्ध तीन तरह* के होते है।
*मन्द*, *तीव्र*, तथा *तीव्रतम*
*मन्द प्रारब्ध*
मेरा नाम जपने से कट जाते है ।
*तीव्र प्रारब्ध*
किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है । पर *तीव्रतम प्रारब्ध*
भुगतने ही पडते है।
लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं; उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ ।
*प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।*
*तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर।।*
*।। जय श्री कृष्णा ।।*
कथा पूर्ण हुई। कथाकार को पुनः बहुत बहुत धन्यवाद। एवम् उनके प्रति पुनः आभार व्यक्त करता हूँ।
मूल आलेख
क्रियमाण, सञ्चित, प्रारब्ध, और नियति।
प्रारब्ध कब और कैसे खत्म होता है इसका उत्तर तो उक्त कहानी में दिया जा चुका है किन्तु यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि,
प्रारब्ध क्या होता है? क्यों होता है? कैसे बनता है?
प्रारब्ध का अर्थ - प्रारब्ध का तात्पर्य है पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के सञ्चित कर्मों में से इस जन्म में भोगे जा सकने योग्य कर्म फलों का उदित हुआ समुच्चय (समुह)। जो उदित हो चुका है और अब जिसे भोगना ही होगा।
अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि,
पिछले जन्मों में किये गये कर्मों का फल उसी जन्म में क्यों नहीं मिल पाया? उनका सञ्चय क्यों हुआ?
किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया को हम जिस उद्देश्य से करते हैं, उस कर्म का उद्देश्य उस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राप्त हो जाता है। जैसे आपने स्मरण हेतु लगन पूर्वक पाठ पढ़ा, वह स्मरण है गया। मतलब उद्देश्य पूर्ण हुआ। यही क्रियमाण है।
परीक्षा के समय वह पाठ याद न आना, उपयोग करते समय वह सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाना किसी अन्य कर्म का परिणाम हो सकता है।
जैसे गुरु द्रोणाचार्य की अवहेलना कर छल पुर्वक मिथ्या बोलकर, स्वयम् को ब्राह्मण बतलाकर कर्ण द्वारा परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान को अर्जुन वध के लिए उपयोग न करपाना, उपयोग करते समय भूल जाना इसका उदाहरण है।
छल पूर्वक गलत जानकारी देकर कोई रोजगार प्राप्त करले और रहस्योद्घाटन सोनें पर दण्डित हो तो उसमें डिग्री/ प्रमाण-पत्र का क्या दोष। प्रमाण-पत्र सही उपयोग हेतु जारी किते जाते हैं। छल-कपट का परिणाम मिलते समय हम यह भूल जाते हैं कि, यह परिणाम छल-कपट का है।
यदि कोई जीवन भर बचा रहे तो उसका फल सञ्चित हो जायेगा और कभी न कभी प्रारब्ध रूप में उदय होना ही है।
कुशलतापूर्वक किये गये कर्मों के उद्देश्य सफल होते हैं। अकुशल कर्मों के परिणाम पारिस्थितिक होते हैं। पूर्ण सफल, आंशिक सफल, कुछ परिवर्तन के साथ सफल या असफल परिस्थितियों और कौशल के अनुरूप हो सकता है।
किन्तु फल और परिणाम में भिन्नता होती है।
फल निर्भर करता है कर्म करते समय उस कर्म को किये जानें के प्रयोजन पर, उस कर्म को किये जानें के हेतु पर। उस समय आपनें जिस आशय से कर्म किया, जो मानकर कर्म किया, जो सोचकर कर्म किया तदनुसार उस कर्म का फल निर्धारित होगा।
अमर शहीद चन्द्रशेखर, भगतसिंह, द्वारा अंग्रेजों का खजाना लूट लेना और डाकुओं द्वारा की गई डकेती का अन्तर सब जानते हैं? अमर शहीद चन्द्रशेखर, भगतसिंह, द्वारा अंग्रेजों का खजाना लूट लेना देश के स्वातन्त्र्य संग्राम का अङ्ग था; न कि, डकेती। स्वतन्त्रता सैनानियों द्वारा किया गया अंग्रेजों का वध या किसी सैनिक द्वारा युद्ध में आक्रान्ताओ का वध करना हत्या नहीं कहलायेगी, बल्कि देशभक्ति पूर्ण कार्य कहे जाते हैं और पुरस्कार के योग्य कर्म माना जाते हैं।
क्रियाओं और कर्मों में यही अन्तर स्पष्ट है। क्रिया समान है पर कर्म भिन्न भिन्न है। परिणाम क्रियाओं और कौशल के अनुसार होते हैं। लेकिन कर्मफल कर्म के हेतु और प्रयोजन के अनुसार मिलते हैं; न कि, गतिविधियों या क्रियाओं के अनुसार।
आप किसी भी प्रयोजन से, किसी भी हेतु से आग में हाथ डालें परिणाम स्वरूप हाथ जलना स्वाभाविक है। किन्तु किसी के जान-माल की सुरक्षार्थ आग में हाथ डालने पर कर्मफल शुभफल के रूप में ही मिलेगा। और अन्य प्रयोजन और हेतु का फल भी तदनुसार ही होगा।
कर्मफल सञ्चित क्यों होते हैं? सञ्चित प्रारब्ध में परिवर्तित कैसे होते हैं?
प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन अनेकानेक कर्म किये जाते हैं। उन सबके फल उसी जन्म में मिलना सम्भव नहीं होता। अतः ये कर्म फल भोग हेतु सञ्चित होते रहते हैं। और बहुत से फलों के फल भोगने योग्य समुच्चय (समुह) बनने पर तदनुसार देश (स्थान) में, तदनुसार काल (समय) में, तदनुसार योनि में, तदनुसार कुल और परिवार में, तदनुसार देहयष्टि वाले शरीर में जन्म होना सुनिश्चित है।
तो क्या केवल हमारे कर्मफल भोगार्थ ही संसार चल रहा है। या यहाँ कुछ नियत भी है?
जगत उत्पत्ति, सञ्चालन और प्रलय के प्राकृतिक नियमों अर्थात ऋत के अनुसार ही यह संसार चल रहा है, न कि, आपके कर्मफल भोगार्थ। सृष्टि, पालन और जगत सब नियत है। इसी को नियति कहते हैं।
किन्तु आप सुख-दुःख क्या भोगें या कब सुखी होंगे, कब दुःखी रहेंगे, क्यों सुखी-दुःखी होंगे इससे नियन्ता ईश्वर को कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा कोई लेख विधाता अकारण नहीं लिखता। विधाता अकारण आपका भला-बुरा नहीं लिखता। बल्कि भाग्य मतलब इस जन्म में जो कर्मफल भोगना होगा जाना है सञ्चित थे उनका उदय होना है।
इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि,
क्रियमाण- जो वर्तमान में हम कर्म कर रहे हैं इसे क्रियमाण कहते हैं।
सञ्चित - पूर्व जन्मों और इस जन्म के जिन कर्मों के भोग भोगना शेष है उसे सञ्चित कहते हैं।
प्रारब्ध - सञ्चित कर्मों के इस जन्म में उदित फलों को प्रारब्ध कहते हैं।
नियति - किन्तु प्राकृतिक कर्म नियत होते हैं। अतः उन्हें नियति कहते हैं।