वेदिक संहिताओं से उपनिषदों तक में अष्टाङ्गयोग / राजयोग का स्पष्ट उल्लैख है। ब्रह्मयज्ञ का का एक भाग अष्टाङ्गयोग है।
पहले अष्टाङ्गयोग सिद्ध युक्त पूरुषों को ही योगी कहा जाता था। निवृत्ति मार्गी अष्टाङ्गयोग सिद्ध ज्ञानियों को मुनि कहा जाता था। ये भक्तिभाव लीन होते थे।
वेदिक मत के ठीक विरुद्ध तन्त्रमत है। अतः तन्त्र को वेदमत में कोई स्थान नही है।
अतः अष्टाङ्गयोग और राजयोग में हटयोग और तन्त्रमत के अष्टचक्र / सप्तचक्रों का उल्लेख नही है।
श्रमणों में शैव और शाक्त पन्थ के उदय के पश्चात सर्वप्रथम दत्त सम्प्रदाय ने ही तान्त्रिकों, अघोरियों और औघड़ो को योगी शब्द से सम्बोधित करना आरम्भ किया जो नाथ सम्प्रदाय में रूढ़ हो गया।
दत्त सम्प्रदाय ने हटयोग और तन्त्रशास्त्र को योग से जोड़ा। और सर्वप्रथम योग के निबन्ध के आरम्भिक ग्रन्थों में तन्त्र और हटयोग के आरम्भिक ग्रन्थों में अष्ट चक्र --
1सहस्रार चक्र- 2आज्ञाचक्र;
3अनाहत चक्र- 4विशुद्ध चक्र;
5 मणिपूरक चक्र- 6 स्वाधिस्ठानचक्र:
और 7 मूलाधार चक्र - 8 कुण्डली
को मुख्य चक्र और उप चक्र जैसा माना है।
मूलाधार रूपी शिवलिङ्ग को साढ़े तीन लपेटे से लिपटे नाग / नागिन के रूप में कुण्डलिनी शक्ति चक्र माना गया है।
जबकि मूल तन्त्र ग्रन्थों में सप्त चक्रों का ही उल्लेख है।
1सहस्रार चक्र, 2आज्ञाचक्र,3 विशुद्ध चक्र, 4 अनाहत चक्र, 5 मणिपूरक चक्र, 6 स्वाधिस्ठानचक्र, और 7 मूलाधार चक्र को ही माना है। कुण्डली शक्ति चक्र के रूप में का प्रथक उल्लेख नही है।
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