शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आत्मा का अज, अनादि, अजर, अमर, अनन्त होते हुए मानव जनसंख्या वृद्धि क्यों और कैसे?

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से  -- 
वास्तविक तर्क --
1 -- मूलतः आत्मा अर्थात वास्विकता मैं, और परमात्मा अर्थात परम मैं एक ही तत्व है।अतः यह अनेक नही अपितु एक ही है। 
वास्तविक तथ्य तो यही है कि, आत्म तत्व में अनेकत्व है ही नही।
जड़- चेतन सभी उसी आत्म तत्व के ही सःवरूप मात्र हैं ।

ख -- धार्मिक आधार से तर्क  --

1 -- यदि मान लिया जाये कि, सृष्टि में जीवों की संख्या बराबर ही रहती हो तोऐसा भी तो हो सकता है कि, स्वर्गादि उर्ध्व लोकों के जीव मानव योनि में जन्म लेरहे हों और अन्धलोकों/ अधोलोकों के जीव भी कर्मफल भोगकर मानव योनि में जन्म लेनें के कारण मानव जनसंख्या बड़ रही हो। और अधिकांश मानव दुराचारी, पापी होनें के कारण बेक्टीरिया, वायरस आदि अनेकरूद्र के रूप में जन्मलेकर रोगादि फैलाकर संहार कर रहे हैं।

2 -- जन्तुओं , वनस्पतियों और पाषाणादि जड़ पदार्थों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गयी।  सम्भवतया वे अधिकांश पुण्यात्मा हो और उन्हे मानव योनि में जन्म मिला हो इसकारण उन प्रजातियों के जन्तु वनस्पतियों की संख्या कम हो गई और मानवीय जनसंख्या बड़ गई हो।

वास्तविक तर्क --
अर्थात -- कोई कम हो रहा है कोई बढ़ रहा है। कुल मिलाकर  जीवों की संखा वही रहती हो।

ग -- आधिदैविक  दृष्टिकोण से 

1 -- जैसे एक सिद्ध व्यक्ति एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होजाते हैं। अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न कर्म करते देखे जाते हैं।
2 -- जैसे ईश्वर कई स्थानों पर कई स्वरूपों में प्रकट हुए दिखते हैं ,व्यवहार करते हुए दिखते हैं।
 तो क्या वह आत्मा कई टुकड़ों में बँट गई? और फिर एक हो गई। यह कल्पना ही परम मुर्खतापूर्ण लगती है।

घ --भौतिकवादी दृष्टिकोण से --
 

1 --जैसे आकाश के  दिगंश या राशि नक्षत्र के रुप में काल्पनिक विभाग किये गये, जैसे भूमि पर अक्षांश देशान्तर रेखाओं की कल्पना की गयी,
2 -- जैसे एक ही सागर को छः महासागर, कई सागरों, और खाड़ियों में काल्पनिक रुप से विभाजित किया गया। 
3 -- जैसे भूमि को महाद्वीपों में माना गया।

वास्तविक  तर्क --
वैसे ही विभाग रहित एक आत्मा को अनेकों प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) और जीवात्माओं और भूतात्माओं आदि के स्वरूपों में विभाग माने जाते है।

रविवार, 13 दिसंबर 2020

सबका वास्तविक स्वरूप परम आत्म परमात्मा, सर्वाधिक प्रिय है; रौद्ररूप भयंकर नही।

*परमात्मा वास्तविक मैं, परम मैं, मेरा वास्तविक स्वरूप है। ईश्वर परमप्रिय है। भगवान प्रेमपात्र हैं रौद्र या भयंकर नही। मृत्यु नियत है, अवश्यम्भावी है, न एक पल पहले आयेगी न एक पल बाद होगी अतः मृत्यु अविचारणीय सत्य है।* 

*इष्ट का मतलब जिसकी इच्छा हो* / जैसे इष्ट मित्र, यथेष्ठ अर्थात जैसी इच्छा हो शब्दोंं मे स्पष्ट है।
 *सनातन धर्मियों के इष्ट भगवान होते है। सर्वाधिक प्रिय वह ईश्वर ही है। परम आत्म मतलब परम मैं अर्थात मेरा वास्तविक स्वरूप , वास्तविक मैं परमात्मा है ।* 
वे *सनातन धर्मी पापकर्म करने से डरते हैं। दुराचार करनें से डरते हैं। अनाचार अनीति पूर्ण कर्म से डरते हैं।पापियों, दुरात्माओं, दुष्टों, अनाचारियों, दुराचारियों के सङ्ग से दूर रहता है।* 
 *सनातन धर्मी मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अमर होनें की चाह नही रखते।* इच्छा मृत्यु प्राप्त व्यक्ति भी अपनी मृत्यु का उपाय विपक्षी को स्वयम् बतलाता है। अर्थात सनातन धर्मी --
 *ईश्वर से/ भगवान से प्रेम करता है। अपना वास्तविक सत्य परमात्मा है यह जानता है। अवश्यम्भावी मृत्यु से भी नही डरता।* 
 *असुर लोग अनाचार दुराचार, पापाचार में सदैव सलग्न रहते हैं इसलिये असुर, दैत्य, दानव  ईश्वर से डरते हैं, भगवान से डरते हैं मृत्यु से डरते हैं।*
 सदाचारी सनातन धर्मी भगवान से प्रेम करते हैं। मित्रभाव से तो ठीक भगवान को पुत्र मानकर भी लाड़ प्यार करते हैं। नृसिंह मेहता और सुरदास तो भगवान से रुठ जाते थे और भगवान उन्हे मनाते थे। मीराबाई ने पति मानकर उपासना की तो अर्जुन ने मित्र मानकर द्रोपदी ने बन्धु और सखा भावसे उपासना की। ये लोग भगवान से क्यों डरनें वाले।
असुर,दैत्य दानव आज भी ही ईश्वर और मौत से डरते हैं। आज भी वे ही उपदेश देते हैं कि, ईश्वर से डरो, मौत से डरो । 
वेद कहते हैं ईश्वर सर्वाधिक प्रिय है ईश्वर से स्वाभाविक प्रेम होता है भय नही। मृत्यु समय पूर्व होना नही और समय होनें पर रुकना नही तो मृत्यु अविचारणीय सत्य है। हमें केवल अपने कर्तव्य पालन के प्रति सजग रहना है। वर्णाश्रम अनुकूल  स्वधर्म पालन में तत्पर रहना चाहिए न कि, भयभीत। डराहुआ व्यक्ति सदैव गलती ही करता है।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।

सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।

केवल होली दिवाली जैसी इष्टियाँ, कोजागरी - शरदपुर्णिमा जैसे कुछ विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को छोड़ शेष सभी वृत पर्वोत्सव सायन सौर संक्रान्तियों, और उनके गतांश के अनुसार ही मनाये जावें।
 
 इष्टियों और अष्टका-एकाष्टका वेदिक पर्व है।अतः इन विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि (अर्ध चन्द्रमा) पर ही किया जाता था अतः इन्हें दर्शाया जा सकता है।
कृष्णपक्ष की तिथियों को 16, 17, 18 से 30 तक गिनती मानकर जो व्रत पर्वोत्स्व जिस तिथि को मनाया जाता है उसी गतांश पर मनाया जाये। नागपञ्चमी जैसे कुछ व्रत पर्वोत्सवों में राजस्थान और शेष भारत में एक चान्द्र पक्ष अर्थात लगभग 15 दिन का अन्तर पड़ता है उनका निबटारा भी शास्त्रज्ञानियों की बैठक करवा कर करना होगा।

खालसा पन्थ के मनिषियों को भी समझाया जावे । वे भी यदि सायन सौर संक्रान्तियों से अपने व्रत पर्वोत्स्व जोड़ना उचित समझे तो अत्युत्तम होगा।

ऐसे ही जैन और बौद्ध सम्प्रदायों के आचार्यों, और उपाध्यायों को भी समझाया जावे। जैनों से तो आशा की जा सकती है। 

पारसियों और ईसाइयों के कुछ व्रतपर्वोत्सव तो पहले से सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित है ही।

यदि इसाई क्रिसमस सायन मकर संक्रान्ति (22/23 दिसम्बर) को और नव वर्ष आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च) के सुर्योदय से आरम्भ करना स्वीकार करले तो अत्युत्तम।
  
भारत में यहूदी तो नगण्य ही शेष हैं। 

यहूदियों की परम्परा पर चलनें वाले इस्लाम के कट्टर पन्थियों से कोई आशा नही है। 
विशेषकर भारतीय मुस्लिमों के लिये प्राकृतिक और वैज्ञानिक तथ्यों का कोई मुल्य नही है केवल परम्पराओं के प्रति आस्था ही सबकुछ है। अतः उन्हें उनके हाल पर ही छोड़देना उचित होगा। यदि वे स्वतः समझदारी दिखाये तो उनका स्वागत किया जाये।