अध्यात्मिक दृष्टिकोण से --
वास्तविक तर्क --
1 -- मूलतः आत्मा अर्थात वास्विकता मैं, और परमात्मा अर्थात परम मैं एक ही तत्व है।अतः यह अनेक नही अपितु एक ही है।
वास्तविक तथ्य तो यही है कि, आत्म तत्व में अनेकत्व है ही नही।
जड़- चेतन सभी उसी आत्म तत्व के ही सःवरूप मात्र हैं ।
ख -- धार्मिक आधार से तर्क --
1 -- यदि मान लिया जाये कि, सृष्टि में जीवों की संख्या बराबर ही रहती हो तोऐसा भी तो हो सकता है कि, स्वर्गादि उर्ध्व लोकों के जीव मानव योनि में जन्म लेरहे हों और अन्धलोकों/ अधोलोकों के जीव भी कर्मफल भोगकर मानव योनि में जन्म लेनें के कारण मानव जनसंख्या बड़ रही हो। और अधिकांश मानव दुराचारी, पापी होनें के कारण बेक्टीरिया, वायरस आदि अनेकरूद्र के रूप में जन्मलेकर रोगादि फैलाकर संहार कर रहे हैं।
2 -- जन्तुओं , वनस्पतियों और पाषाणादि जड़ पदार्थों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गयी। सम्भवतया वे अधिकांश पुण्यात्मा हो और उन्हे मानव योनि में जन्म मिला हो इसकारण उन प्रजातियों के जन्तु वनस्पतियों की संख्या कम हो गई और मानवीय जनसंख्या बड़ गई हो।
वास्तविक तर्क --
अर्थात -- कोई कम हो रहा है कोई बढ़ रहा है। कुल मिलाकर जीवों की संखा वही रहती हो।
ग -- आधिदैविक दृष्टिकोण से
1 -- जैसे एक सिद्ध व्यक्ति एक ही समय में अनेक स्थानों में प्रकट होजाते हैं। अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न कर्म करते देखे जाते हैं।
2 -- जैसे ईश्वर कई स्थानों पर कई स्वरूपों में प्रकट हुए दिखते हैं ,व्यवहार करते हुए दिखते हैं।
तो क्या वह आत्मा कई टुकड़ों में बँट गई? और फिर एक हो गई। यह कल्पना ही परम मुर्खतापूर्ण लगती है।
घ --भौतिकवादी दृष्टिकोण से --
1 --जैसे आकाश के दिगंश या राशि नक्षत्र के रुप में काल्पनिक विभाग किये गये, जैसे भूमि पर अक्षांश देशान्तर रेखाओं की कल्पना की गयी,
2 -- जैसे एक ही सागर को छः महासागर, कई सागरों, और खाड़ियों में काल्पनिक रुप से विभाजित किया गया।
3 -- जैसे भूमि को महाद्वीपों में माना गया।
वास्तविक तर्क --
वैसे ही विभाग रहित एक आत्मा को अनेकों प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) और जीवात्माओं और भूतात्माओं आदि के स्वरूपों में विभाग माने जाते है।