लोकवास की परम्परा स्मृतियों , और पुर्वमिमान्सा दर्शन से वैष्णव और शैवों में आई है।
जिसका अर्थ है मृत्यलोक से मरकर किसी उर्ध्व या अधोलोक में जन्म ग्रहण करना।
किसी लोक में वास होने का अर्थ उसलोक में जन्म लेना होता है। जन्मलिया मतलब योनि ही है।
हनुमान चालिसा में तुलसीदास जी नें कहा है, अन्तकाल रघुवर पुर जाईं जहा जन्म हरिभक्त कहाई।
शतक्रतु का मतलब भी सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला है। सौ अश्वमेध यज्ञकरनें के फल स्वरूप पुरन्दर को इन्द्रपद प्राप्ति हुई।
नारद तम्बूरा आदि के भी पुर्वजन्मों का उल्लेख है।
वैवस्वत मनु की सन्तानों मे सर्वप्रथम मरनें वाले व्यक्ति यम थे।उन्हें धर्म नें धर्मशासन करने वाला मृत्यलोक का वाला शासक धर्मराज पद दिया।
1 जय - विजय का तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्म लेना,
2 यमलार्जुन का वृक्ष होना और पुर्व में विजीत लोक में पुनः जाना की कहानी,
3 पद्मिनी अप्सरा द्वारा रसायन विद्या द्वारा सदानन्द ऋषि के नवजात पुत्रों को युवा बनाकर विद्या के दुरुपयोग के फल स्वरूप आसुरी योनि में जन्म लेकर बन्ध्या होना और रसायन विद्या से प्रद्युम्न को युवा बना कर लोक कल्याणकारी कार्य के पुण्य से पुनः अप्सरा होकर पुर्व लोक में जाना,
4 पुष्पदन्त का शिव गणों में जन्म लेना,
5 शिवपुत्र कार्तिकेय और इन्द्र का पुत्र जयन्त, बृहस्पति का पुत्र कच, गणपति पुत्र लाभ-शुभ होना सभी देवयोनियों में प्रजनन के प्रमाण हैं। और कर्म के प्रमाण भी है।
उपनिषदों में विभिन्न मन्वन्तरों में देवताओं का ब्रह्मज्ञ होनें की कथाएँ आती है। जिसमें केनोपनिषद की भगवती उमा से इन्द्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश पाकर अग्नि और वायु को भी ब्रह्मज्ञानोपदेश देकर ब्रह्मज्ञानी बनादेने की कथा हैं।और
छान्दोग्योपनिषद की कथा - धैर्यपूर्वक 101 वर्ष तप कर अन्तःकरण निर्मल करके, शास्त्र चिन्तन करनें से विवेक जाग्रत होनें के कारण, प्रजापति से उपदेश ग्रहण कर इन्द्र का आत्मज्ञानी हो जाने की कथा। तथा
उसी कहानी में असुरों में विरोचन भी आत्मज्ञानोपदेश हेतु प्रजापति के पास बत्तीस वर्ष ब्रह्मश्चर्य पुर्वक तपस्या रत रहे। किन्तु कर्मवादी होनें के कारण ज्ञान को भी कर्मफल समझनें वाले होनें के कारण ज्ञानमार्ग का अनुसरण न कर सके। (बुद्धिवृक्ष का फल नही खा पानें के कारण मुर्ख 😁) अज्ञानी ही रह गये।
गजेन्द्र मौक्ष कथा में भी गज द्वारा श्रद्धा भक्ति पुर्वक स्तुति करनें यानि पशुयोनि में भी कर्माधिकार का वर्णन है।
अर्थात मानवैत्तर देवादि उच्च योनियाँ और पशु-पक्षी एवम् असुर दैत्य आदि निम्न योनियों में भी कर्म करना, कर्मफलभोग, परलोक गमन, और मौक्ष प्राप्ति सबकछ होता होता है।
परलोक में जन्म होनें की बात नयी और अटपटी लगेगी इस सम्भावना के कारण उच्च और अधो लोकों में जन्म, मरण, कर्म और ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञाश और मौक्ष सबकी कथाएँ स्मरण करवाने हेतु प्रसङ्ग दिये हैं।
श्राद्ध का औचित्य है या नही ? ---
अन्तरात्मा जैसे ही देह छोड़ती है।उसीके साथ ही जीवात्मा से लिङ्ग शरीर तक रहते हैं।
अतः अधिकतम दस दिन तक कारण शरीर, सुक्ष्म शरीर और लिङ्ग शरीर ही प्राण / देही की देह रह पाती है। जिसके आकार के कारण ही उस प्राणी / देही को पहचाना जासकता है । परिवार को झलक दिखलाने वाला लिङ्ग शरीर ही होता है। ऐसी कहानियाँ सुनी होगी कि, दुर्घटना में मरनें वाले व्यक्ति के परिवार वालों को अपनी दुर्घटना सुचना स्वयम् लिङ्ग शरीर ही देता है।
सुक्ष्म शरीर स्वप्न और सम्मोहन में यात्रा करता है; कारण शरीर केवल दृष्टाभाव से उस यात्री सुक्ष्मशरीर रूपी यात्री / कर्ता की पीठ और आँख भी देख पाता है।
दशाह कर्म -- लिङ्ग शरीर को देह के प्रति लगाव त्यागने के निर्देश देनें हेतु तिर्थ स्थान पर जाकर दशाह कर्म के अन्तर्गत अस्थि विसर्जन के उपरान्त अवशिष्ट अस्थी को देह मानकर उसका पुनः दाह कर अन्त्येष्टि की जाती है। दसवें की क्रियाओं से लिङ्ग शरीर नही रहा यह मान लिया जाता है।
एकादशाह कर्म में मृतक की अतृप्त इच्छाओं के रहते बची आसक्ति को समाप्त करनें हेतु (ब्राह्मणों के लिए) चाँवल का पिण्ड बनाकर उसके टुकड़े टुकड़े कर उसे इस जीवन की स्मृतियों की आसक्ति छोड़ने का सन्देश देना और गौ दान, भूमि दान आदि कर उसके शेष रहे संकल्पों, निश्चयों और कामनाओं की पुर्ति करके सुक्ष्म शरीर को बिदाई दी जाती है। और मान लिया जाता है कि सुक्ष्म शरीर नष्ट होगया।
द्वादशाह श्राद्ध में घर पर आकर दशाह - एकादशाह कर्म की क्रियाओं के दृष्य की प्रतिकात्मक पुनरावृत्ति कर वैसे ही पिण्ड निर्माण कर पुनः उनको विसर्जित कर घर में बचे उस जीव की स्मृतियों, लगावों का विसर्जन कर कारण शरीर को बिदा कर दिया जाता है। और मान लिया जाता है कि, अब उस जीव का हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
तृयोदशाह कर्म में तो बारह दिनों से जारी शोक की निवृत्त करना एवम् बन्द हुए माङ्गलिक कार्य आरम्भ करनें के प्रतिक रूप मंगल श्राद्ध करते हैं, तथा तथा कथित पगड़ी रस्म के माध्यम से उत्तराधिकार घोषणा की जाती है।
इसके बाद भी हमारी स्मृति में रहने के कारण स्पप्न आदि में दिखनें के कारण दो वर्ष तक यह माना जाता है कि,हम उसके प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं अतः मासिक कुम्भ, त्रेमासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक तथा द्विवार्षिक श्राद्ध कर पिण्डोदक आदि क्रियाओं के द्वारा यह आश्वस्त किया जाता है कि, हम आपको भूले नहीँ हैं। आपकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। कुआ, बावड़ी, तालाब, बगीचा, धर्मशाला निर्माण जैसी दिर्घकालिक योजनाओं की पुर्ति इन दो वर्षों में कर ली जाती है। फिर तीसरे वर्ष श्राद्ध तिथि में पुनः श्राद्ध कर यह मान लिया जाता है कि, अब वे देव रूप सप्त पितरः के रूप में हमारे द्वारा अर्पित नित्य श्राद्ध को ग्रहण कर सकेंगे।
सत्य क्या है? --- अस्थि विसर्जन के पश्चात गृहशुद्धि यज्ञ के उपरान्त की जानें वाली उक्त सभी क्रियाएँ चन्द्रवंशियों , नागों, और आग्नेयों के साथ भारत में आई। और दुष्यन्त - शाकुन्तल चन्द्रवर्षिय सम्राट भरत के उत्तराधिकारी महर्षि भारद्वाज नें वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में भारत में आरम्भ की।
बलिवैश्वदेव कर्म के साथ सप्त पितर और विश्वेदेवाः के निमित्त स्वधा अर्पण रूप नित्य श्राद्ध, तर्पण और शुभकार्यारम्भ के पहले होनें वाले नान्दिमुख सांकल्पिक श्राद्ध आदि गृह्य सुत्रों के अनुसार शोत्रिय विधि से की जानेंवाली क्रियाएँ वेदिक कर्म है।
ऋग्वेद का वचन है कि, दस दिन में ही या अधिकतम ग्यारहवें दिन जीवात्मा और देही (प्राण) सहित अन्तरात्मा (प्रत्यगात्मा) , किसी भी योनि में प्रवेश कर लेता है यानि गर्भ में स्थापित हो जाता है।
स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् स्वीकार किया है कि, स्मृतियों और पुराणों में वेदवाह्य और वेद विरुद्ध कई वचन निहित है। साथ ही मनिषियों के लिए स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् निर्देश दिये हैं कि स्मृतियों और पुराणों में उल्लेखित केवल वेदिक मत और तथ्य ही स्वीकार किये जायें। वेद विरुद्ध और वेदवाह्य मत त्याज्य हैं।
अतः समय समय पर प्रविष्टि कुरीतियाँ त्यागी जाना ही उचित और धर्म है।