धर्मशास्त्र और कर्मकाण्ड
धर्मशास्त्र क्या है-
धर्म का तात्पर्य है - क्या करना, कैसे करना , क्या नही करना (आचार विधि, निषेधाज्ञा) का निर्णय धर्म शास्त्र ।
धर्मशास्त्र का करण बुद्धियोग -
बुद्धियोग के माध्यम से ही धर्मशास्त्रोक्त किसी कार्यकर्म (कर्तव्य कर्म) को करते समय मनोभाव क्या/ किस प्रकार के हो और अकार्य कर्म ( निषिद्ध कर्म ) करने का संकल्प यदि होने लगे तो उसका निराकरण कैसे करें इसका सिद्धान्त और प्रयोग विधि,उपयोग को बुद्धि योग / योग दर्शन/ कर्मयोग दर्शन/ निष्काम कर्मयोग दर्शन कहते हैं।
वर्तमान में संहिताबद्ध रुप में बुद्धियोग या कर्म मिमान्सा दर्शन केवल श्रीमद्भगवद्गीता में ही उपलब्ध है।
धर्मशास्त्र द्वारा ज्योतिष का उपयोग-
ज्योतिष धर्मशास्त्र की आँख है, हिन्दी में हम जिसे नीतिशास्त्र कहते हैं लगभग वही संस्कृत में धर्मशास्त्र कहलाता है।और जिसे हिन्दी में नीति या नैतिक कर्तव्य कहते हैं लगभग वे ही कर्म धर्म हैं।
मुहुर्त और वास्तु संस्कृत के धर्मशास्त्र यानि हिन्दी के नीतिशास्त्र के विषय हैं।
धर्मशास्त्र चुकि ज्योतिष की आँखों से देखता है इसलिए इन प्रकरणों को ज्योतिष के संहिता स्कन्ध में भी समाविष्ट किया गया। किन्तु उचित अनुचित देश यानि स्थान या वास्तु और उचित अनुचित काल यानी समय के निर्णय में धर्म शास्त्र ही प्रमाण है। ज्योतिष केवल सहायक मात्र है।
अस्तु मुहुर्त और वास्तु मुख्यतया धर्मशास्त्र के ही विषय है। मुहुर्त और वास्तु के विषय में शुभाशुभ की वर्तमान प्रचारित प्रचलित धारणा पुर्णत: गलत और काल्पनिक है। हाँ यों कह सकते हैं कि हर एक उचित कार्य ही शुभ होता है और अनुचित कार्य अन्त: अशुभ ही होता है।
किन्तु मुलत: मुहुर्त और वास्तु का शुभाशुभ से दूर तक कोई सम्बन्ध नही है।
मुहुर्तशास्त्र - धर्मशास्त्र में अनुकुल / प्रतिकुल ऋतुओं/ मोसम,उचित या अनुचित समय आदि की गणनाओं के लिये ही ज्योतिष का उपयोग करता है जिका उल्लेख संहिता ज्योतिष स्कन्ध के मुहुर्त प्रकरण में उपलब्ध है।
वास्तुशास्त्र -- इसी प्रकार किसी कार्य विशेष के लिए कैसा स्थान या कौनसा स्थान उचित होगा और कौनसा स्थान अनुचित होगा यह निर्णय संहिता ज्योतिष स्कन्ध के वास्तु (आर्किटेक्चर) प्रकरण में उपलब्ध है।और धर्मशास्त्र इसकी सहायता लेता है। इस प्रकार वास्तुशास्त्र भी धर्मशास्त्र का सहायक है।
नाविकों से लेकर अन्तरिक्ष यात्राओं तक में ज्योतिष के संहिता स्कन्ध का यही मुहुर्त और मौसम विज्ञान आवश्यक है। आज भी उन्ही के नियमों की नींव पर विज्ञान के नाते सिद्धांत तैयार हुए हैं। या यों कहें आधुनिक विज्ञान ने इन्हें अपडेट किया है।
ऐसे ही यही वास्तुशास्त्र वर्तमान का आर्किटेक्चर साइंस है। आर्किटेक्चर भी वास्तुशास्त्र का अपडेटेड वर्जन है।
कर्मकाण्ड अर्थात् क्रियाएँ क्या है-
नित्य कर्म -
यानि धर्म कर्म जिन्हेँ करना कार्य अर्थात कर्तव्य है, आवश्यक है और न करना दोष है, पाप है जिसका और न करने पर प्राश्चित करना होता है वे ही कार्य कर्म धर्म हैं।
इसमें मुख्यतः धर्म यानि केवल धर्मशास्त्रोक्त कर्म ही आते हैँ। जैसे-
जागने पर कर दर्शन, भूमि स्पर्ष, शोघ, मुख मार्जन, वरिष्ठों को प्रणाम, सम वयस्कों को भी नमस्कार कनिष्ठोँ को स्नेह, स्नान, सन्ध्या, पञ्चमहायज्ञ, बलिवैश्वदेव, दान, भोजन, आराम उपरान्त आजीविका उपार्जन, उपरान्त सन्ध्या,अतिथियों सहित भोजन, पुनः आजीविका उपार्जन, और अतिथियों के आराम की व्यवस्था कर शयन आदि समस्त कर्तव्य कर्मों प्रक्रिया समाविष्ट है या कहें समस्त कार्य कर्मों की क्रियाएँ हैँ ,
निर्धारित विधियाँ हैँ।
पर्व और संस्कार - विभिन्न पर्वोँ को मनाने और संस्कारों की भी निर्धारित क्रिया विधियों निषेधों का उल्लेख गृह्य सुत्रोँ में है।
ये भी देश (स्थान), कुल , गोत्र, प्रवर के अनुसार अपने अपने ऋषियोँ के द्वारा निर्धारित गृह्य सुत्रोँ के निर्देशानुसार किये जाते हैँ और पालनीय हैँ।
चुक होने पर प्राश्चित उपरान्त पुनः छुटे या चुके हुए संस्कारादि किये जाते हैँ।
नैमित्तिक कर्म - किसी उद्दैश्य विशेष की सफलता या प्राप्ती के लिए या सकामोपासना के लिये बड़े यज्ञानुष्ठान , वृत आदि -
इनको करना अनिवार्य तो नही पर अवस्था, / पद, प्रतिष्ठा / हेसियत के अनुसार अपेक्षित होने से अनुपालनीय माने जाते है।
इनका वर्णन श्रोत सुत्रों में है।ये प्रायः बड़े यज्ञो के नाम से जाने जाते हैं। जैसे अश्वमेघ यज्ञ, राजसुय यज्ञ , पुत्रैष्टि यज्ञ आदि-
विशिष्ट उद्दैश्यों की पुर्ति के लिए या वाञ्छित फलों के प्राप्त्यर्थ किये जाने वाले अनुष्ठानों की विधि निषेध सहीत निश्चित मन्त्रोँ या अपवादित प्रकरणों में कुछ वैकल्पिक मन्त्रोँ को निर्धारित शिक्षा अर्थात उच्चारण विधि से ही उन मन्त्रों के पाठ के साथ या मन्त्रपाठ पुर्वक आचार्य चयन, आचार्य वरण करके फिर आचार्य की अधीनता स्वीकार कर आचार्य के निर्देशानुसार ही निर्धारित मन्त्रोँ के उच्चार सहित भूमि चयन,भूमि शोधन, सामग्री चयन, सामग्रीयोँ को लाना, सामग्रियोँ का शोधन, सामग्रियोँ संग्रह ( भण्डारण), आसन बिछाना, (तन्त्रों के अनुसार तिलक करना भी),मण्डप निर्माणार्थ युप (स्तम्भ) गाड़ने और हवन के लिये बेदी निर्माण हेतु भुमि खनन (खोदना), मण्डप छाना (बनाना), बेदी निर्माण - इष्टिका ( ईंटों का) चयन, चुनाई, छाबना, लिपना (लेपन), पोतना, श्रङ्गार करना,(रांगोली बनाना आदि), आचार्य का पीठ (आसन) लगाना, अन्य आसन लगाना,आचार्य को पीठासीन करना, आचार्य पुजन, आचार्य की आज्ञानुसार स्वयम् का आसन शुद्धि कर आसन बिछाना और आसन पर बैठना, विभिन्न क्रियाओंँ के लिये भिन्न भिन्न दिशाओँ में मुख रख कर बैठना या खड़े होना, पत्नी को साथ रखना, ना रखना, पत्नी को दाहिने हाथ की ओर बिठाना, (तन्त्र परम्परा में तिलक करना ), दीप प्रज्वलित करना,सन्ध्या करना,मन्त्र जप, समिधा बेदी पुजन, स्थापन, अग्नि आव्हान पुर्वक अरणी मन्थन कर अग्नि स्थापन,देवताओँ का आव्हान, देवताओँ को निर्धारित दिशा में निर्धारित आसन पर स्थापित कर अर्ध्य, पाद्यादि षोडष उपचारों से पुजन सेवन कर प्रसन्न करना,जैसे इदम् इन्द्राय इदम् न मम् कह कर आहुतियाँ दी जाती है वैसे ही
अग्नि में आहुतियाँ डाल कर देवताओँ को आहुति प्रदान करना, पुर्णाहुति,विसर्जन, उत्थापन, मण्डप उत्थापन (जिसे उद्यापन कहते हैँ।) ,आचार्य को दक्षिणा देना, उपाध्यायोँ को दक्षिणा देना, ब्राह्मणोँ को दान करना दक्षिणा देना, यज्ञभाग आवण्टन करना ।
(आजकल बेन बेटियोँ को कपड़े करते हैँ।)
सबको प्रथक प्रथक प्रणाम कर आशिर्वाद प्राप्त करना, सामुहिक अभिवादन कर आभार प्रदर्शन कर भोजन कराना फिर भोजन की दक्षिणा देना, उपहार देकरआभार प्रदर्शन कर पुर्व कुछ कदम छोड़ने जाकर बिदाई देना।आदि-आदि कर्म करना।
ऐसी क्रियाओँ को कर्मकाण्ड कहते हैँ।
तन्त्रों द्वारा निर्धारित पञ्चदेवों की पुजन विधि, ग्रहण के आचार निषेध और कर्म और श्राद्ध कर्म इसके अलावा प्रथक है और अति क्लिष्ठ है।
अब आप कल्पना करें कि, बस ड्राइवर, रेल्वे ड्राइवर, पायलेट, विद्युत और सञ्चार विभाग के तकनीकी स्टॉफ, डॉक्टर, इञ्जिनीयर, वैज्ञानिक यदि अपने कर्त्तवय छोड़कर ये सब क्रियाएँ करने लगे ,
विशेष कर श्राद्ध और ग्रहण के समय के कर्मकाण्ड जो सबको एक ही समय मे करने होते है ये सब लोग करने बैठ जाये तो? पुरी व्यवस्थाएँ भङ्ग हो जायेगी।अव्यवस्था फैल जायेगी।
यदि पुलिस और सैनिक भी ये सब करने लग जायेँ तो नास्तिक, विधर्मी, अपराधी, और विदेशी आपकी जानमाल और व्यवस्थाओं का क्या हश्र करेंगे।
इस लिये प्रशासनिक सेवाओँ, आवश्य सेवाओँ में नियुकत अधिकारियोँ, कर्मचारियोँ , अर्ध और पुर्ण सैन्यबलों मे नियुक्त अधिकारियोँ और कर्मचारियोँ के लिये धर्मशास्त्रोँ मेँ न केवल इन्हेँ छुट है बल्कि निषेध भी है।
इनके प्रतिनिधि परिवारजनों द्वारा इनकी सहायता से बचे समय में ये कर्म कर सकते हैं।
मतलब इनकी गृहणियोँ को भी पहले इनकी सेवा सहायता आवश्यक धर्म है पश्चात कर्मकाण्ड।
इस लिये ग्रहण काल में छोटे वणिक लोग नदियोंँ में दिखते हैँ, अड़ानी, अम्बानी, बिड़ला जैसे श्रेष्ठी वर्ग और अधिकारी- कर्मचारी वर्ग इस समय इन स्थानों पर कर्मकाण्डरत नही दिखते बल्कि अपने कर्त्तव्य पर तैनात रहते हैं।
विद्युत कर्मी, पुलिस वाले दिवाली तक नही मनाते तो बैचारे श्राद्ध करने नदियोँ पर कैसे जायेंगे।
किन्तु समाज पर आये संकट मेंं वही अधिकारी- कर्मचारी, और श्रेष्ठिवर्ग आगे दिखेगा। क्यों कि, वे धर्मपाल हैं। न कि, क्रिया कर्मी।
हमारे धर्म ग्रन्थ तो वेद हैं।
शेष ग्रन्थ तो अलग - अलग विषयवस्तु के अनुसार वेदों की व्याखयाएँ मात्र हैँ।
वर्णाश्रम धर्म कर्म सम्बन्धी व्याखयाएँ ब्राह्मण ग्रन्थों में हैं उन्ही ब्राह्मण ग्रंथों के अन्तिम अध्यायों में जिसे आरण्यक कहा जाता है उनमें जगत, सृष्टि, संसार, जीवन,सृजक / स्रजेता, संचालक ईश्वर, ब्रह्म, परमात्मा का विचार और परस्पर इनके आपसी सम्बन्ध, जीवन कला / बुद्धियोग आदि के विषय में दार्शनिक व्याख्याएँ आरण्यकों में हैं।और इन आरण्यकों का भी अन्तिम भाग उपनिषद है। जिसमें आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान का उपदेश है।
श्रोतसुत्रों में बड़ेयज्ञों की विधि है,
ग्रह्य सुत्रों में संस्कारों की,पर्वोत्सवों की विधि है,
शुल्बसुत्रों में यज्ञवेदी- मण्डप बनाने का और समय निर्धारण अर्थात पञ्चाग तैयार करने की विधि है, धर्मसुत्रों में आचरण के नियमों और नीतियों की व्याख्या,विधि, व्यवस्थादि हैं।
वेदों के उप वेद और वेदांगों और दर्शनों के नाम से ही उनके विषय स्पष्ट होजाते हैं।जैसे --
आयुर्वेद -ऋग्वेद का उपवेद -आयुर्वेद में --
जीवन जीने की कला, अष्टाङ्ग योग , भक्ष्याभक्ष्य विवेचन, ऋतु आहार, पथ्यापथ्य, औषध विज्ञान, औषधी चयन, औषधियों की कृषि/ काष्ट, रसायनों खनिजों का उत्खनन,औषधि निर्माण, योग / योगिक रसायन निर्माण, मिश्रण या मिनरल धातुओं का रसायन, सम्पुर्ण रसायन शास्त्र, जीवन विज्ञान, जन्तू विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, वन ज्ञान, भुगोल, और समुद्र विज्ञान, सुंदरम विज्ञान, चन्द्रमा और तारों के प्रकाश का विज्ञान, शल्य चिकित्सा, शल्य चिकित्सा के यन्त्र निर्माण आदि-आदि।
धनुर्वेद-यजुर्वेद का उपवेद -धनुर्वेद में--
आयुध निर्माण से युद्ध कौशल , किला निर्माण, और योग से लेकर मल्ल तक सभी व्यायाम और एकाग्रता, सतर्कता, कौशल विकास, जीवन संघर्ष या कह सकते हैं कमाण्डो ट्रेनिंग है।
गन्धर्ववेद-सामवेद का उपवेद - गन्धर्ववेद में--
संगीत , वाद्ययंत्र यन्त्र निर्माण से गायन, वादन प्रस्तुतिकरण तक सभी ज्ञान,और नाट्यशास्त्र अभिनय,कवित्त, काव्यपाठ, मंच निर्माण से मञ्चन तक की सभी तैयारियाँ करना आदि-आदि।
शिल्प वेद-अथर्ववेद के उपवेद शिल्प वेद में--
गेरिसन इंजीनियरिंग, सिविल इंजीनियरिंग, आर्किटेक्चर, इण्टिरियर डिजाइन आदि सभी ज्ञान के लिए अंक गणित, बीज गणित, रेखा गणित, ज्यामिति, ठोस ज्यामिति, त्रिकोणमिति, वृत्रासुर और गोलीय त्रिकोणमिति,करना, अवकलन, समाकलन आदि सम्पुर्ण गणित और भौतिकी , थोड़ा रसायन का भी ज्ञान आदि।
वेदाङ्ग छ: हैं जिसमें
1 शिक्षा -- शिक्षा के अन्तर्गत उच्चारण शास्त्रर्थ यानि फोनिक्स है।
2 व्याकरण -- व्याकरण में वाक्य के अङ्ग,वाक्य निर्माण,वाक्य विन्यास,भाषा शुद्धि आदि । पाणिनि की अष्टाध्यायी मुख्यमंत्री ग्रन्थ है ।इस पर पतञ्जली का महाभारत, का वार्तिक आदि भी सम्मिलित हैं।
3 निरुक्त -- निरुक्त में शब्द व्युत्पत्ति यानि भाषा शास्त्रर्थ है।यास्काचार्य का निरुक्त मुख्य ग्रन्थ है।
4 छन्द -- जनरल शास्त्र में काव्य के अङ्ग,श्लोक, दोहा, चौपाई, सोरटा आदि का वर्णन विवरण का शास्त्र है। इसका मुख्य ग्रन्थ पिङ्गल का छन्द शास्त्र है।
5 ज्योतिष -- ज्योतिष त्रीस्कन्द है्।
1 सिद्धांत ज्योतिष स्कन्द -- इसमें अंक गणित, बीज गणित, रेखा गणित, ज्यामिति, ठोस ज्यामिति, त्रिकोणमिति, वृत्रासुर और गोलीय त्रिकोणमिति,करना, अवकलन, समाकलन आदि सम्पुर्ण गणित और भौतिकी कास्मोलॉजी आदि सब है।
2 होरा ज्योतिष स्कन्द -- इसमें जातक, ताजिक आदि फलित कथन आते हैं।
3 संहिता ज्योतिष स्कन्द -- इसमें ब्रह्माण्ड विद्या, सृष्टि विज्ञान, मोहम्मद स विज्ञान, मुहुर्त, वास्तु, मेदिनी यानि भूमि पृथ्वी, और देशों का भूत भविष्य कथन आदि सब है।
ये सब वेदों के छ: अङ्ग हैं।
षड आस्तिक दर्शन --
1-- पुर्व मिमान्सा दर्शन - (ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड की मिमान्सा),
2 -- उत्तर मिमान्सा दर्शन - (उपनिषदों के दर्शन की मिमान्सा),
3 -- सांख्य दर्शन ( तत्वमीमांसा)
4 -- योगदर्शन ( जीवन दर्शन),
5 -- वैशेषिक दर्शन ( विज्ञान),
6 -- न्याय दर्शन (तर्क मिमान्सा )
आदि।
इतिहास,पुराण,गाथाओं में --
रामायण-महाभारत आदि मे इतिहास है। और विष्णु पुराणादि अष्टादश पुराणों में सभी विषयों की रुपकात्मक व्याख्या।
परमात्मा सर्वव्याप्त होने से पुर्ण निर्गुण निराकार।
ॐ -(ओ३म्) परमात्मा का कल्याणमयी सङ्कल्प।
परब्रह्म विष्णु -- परम देव परमेश्वर हैं,पुर्ण निराकार सर्वव्यापी किन्तु (ओ३म्) ॐ तत् सत्, सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म, सत् चित् आनन्द, सत्यम् शिवम, सुन्दरम् आदि गुणों वाला, कल्याण स्वरुप, सत्य, चेतन्य, ज्ञान स्वरुप, आनन्दघन,सर्वव्यापी, अनादि ,अनन्त आदि गुण सम्पन्न।
ब्रह्म सवितृ --महेश्वर , सृष्टि के जनक, प्रेरक, रक्षक,
अपर ब्रह्म नारायण -- जगदीश्वर, जगत्पालक,
हिरण्यगर्भ -- सर्वभूत रचियता,
विश्वकर्मा जगत् की सर्व वस्तुओं का रचियता,
प्रजापति -- सर्वजीवों के देह रचीयता,
दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति, स्वायम्भूव मनु -शतरुपा और रुद्र-रौद्री -- जीवन चक्र निर्धारण से और प्रलय तक की व्यवस्था,
इन्द्र देव शासक,
मनु, दक्ष आदि मानव शासक,
द्वादशआदित्य, अष्टवसु ,एकादश रुद्र, यम,* जगत संचालन कार्याधिकारी।
ये अनेक नही एक के ही अलग-अलग स्वरुप हैं जैसे एक व्यक्ति पुत्र, भाई, पति, पिता, स्वामी ,नोकर सब कुछ होता है।
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 3 में स्पष्ट निर्देश " न तस्य प्रतिमा अस्ति ।" के प्रमाण पर्याप्त है कि, सनातन वैदिक धर्म में मुर्ति पूजा नही थी। बल्कि निषिद्ध थी।
भारत में सनातन वैदिक धर्म मे मुर्ति पूजा (शिश्णेदेवा:) और मृतकों की समाधी आदि बनाकर या किसी प्रकार की स्मृति चिह्न को रखकर भी) पुजा करने वालों की छाँया भी यदि यज्ञ शाला में पड़ जाते तो तत्काल यज्ञ बन्द कर शुद्धि करने और शुद्धि करण के पश्चात ही यज्ञारम्भ करने का स्पष्ट आदेश वेदों ,और ब्राह्मण ग्रंथों में हैं।
इसके विपरित फिलिपिन्स,पश्चिमी ईरान ,ईराक,सउदी अरब, सिरिया, मिश्र, टर्की, युनान (ग्रीस), आष्ट्रिया, इटली,इंग्लेण्ड,लक्ष्यद्वीप (रावण की लंका) में भी मुर्तिपुजा होती थी तब भी भारत में सनातन वेदिक धर्म में मुर्तिपुजा निषिद्ध थी।
अकेले काबा के शिव मन्दिर में ही शिव परिवार और सुर्य की 360 मुर्तियां थी।भारत में कहीं भी इतना बड़ा मन्दिर नही है।काबा शिव मन्दिर की मुख्य प्रतिमा एक शिवलिंग को छोड़कर शेष सभी मुर्तियां पेगअम्बर मोह मद ने तोड़ दी ।
दुनिया का हर मुसलमान उसी एक शिवलिंग की ओर सिर झुका कर सजदा कर्ता है।पाँच बार रोज नमाज पढ़ता है । उसी की परिक्रमा कर्ता है।
इससे बड़ी मुर्ति पूजा और क्या होगी?
भारत के बाहर सभी देशों में मुर्ति पुजा और मृतकों की समाधि,स्मृति चिह्नो की पुजा के पुरातात्विक और साहित्य प्रमाण है। भारत में भी लंका में रावण जैसे तांत्रिकों द्वारा केवल तांत्रिक क्रियाओं में मुर्ती का प्रयोग होता था।और मुर्ति पुजा, बलि आदि का प्रचलन था।किन्तु ये लोग गुप्त रुप से दबे छुपे ये क्रियाएँ करते थे। बाहरी तोर पर स्वयम् को वेदिक ही बतलाते थे।
यह दैत्य, दानवों और राक्षसों की रीति, नीति और संस्कृति और रिवाज हैं। यह देवों और मानवों की संस्कृति नही है।
श्री राम के वनवास यात्रा में कहीँ किसी मन्दिर काऔर मुर्तिपुजा का उल्लेख नही है।
श्रीराम जी के दास, परम राम ,भक्त शिरोमणी हनुमानजी द्वारा लंका में निकुम्भला के सेकड़ों मन्दिर और मुर्तियाँ तोड़ने का वर्णन पुरे युद्ध काण्ड में है।
महाभारत में बलदेव जी की प्रभास क्षेत्र की तिर्थ यात्रा में कहीँ किसी मन्दिर या मुर्तिपुजा का उल्लेख नही है।
कलियुग में भी ढाई हजार साल तक नही हुई। सिकन्दर के साथ आये किसी इतिहासकार ने भारत में किसी मन्दिर या मुर्तिपुजा का उल्लेख नही किया।
चीनी यात्री व्हेनसांग और फाइयान ने भी भारत में वैष्णवों के किसी मन्दिर /मुर्तिपुजा का वर्णन नही किया।
वेद को प्रमाण नही मानने के कारण वेदिक जन, जैन सम्प्रदाय को नास्तिक कहते हैं। जैन सम्प्रदाय ईश्वर की सत्ता को नकारने वाला विश्व का एक मात्र सम्प्रदाय /धर्म है।और तामसी तप करने के कारण आसुरी प्रवृत्ति का सम्प्रदाय माना जाता है।
जैन शास्त्रों का मानना है कि रावण जैन सम्प्रदाय का अगला तिर्थंकर होगा।
इसी कारण तान्त्रिक विधि से यक्षों , गन्धर्वों और तिर्थंकरों अर्थात मानवों की मुर्ति बनाकर पुजा करने वाले जैन सम्प्रदाय ने भारत में सर्वप्रथम मुर्तिपुजा अपनाई थी। जैन मन्दिरों में सनातन वैदिक देव विष्णु और इन्द्रादि देवताओं द्वारा यक्षों और तिर्थङ्करों
(मानवों) के समक्ष हाथ जोड़े और चँवर डुलाते दिखलाया जाता है।
जैनों के बाद बौद्धों ने मुर्तिपुजा अपनाई।क्योंकि, जैन बौद्ध दोनों के इष्ट देव मानव देहधारी रहे थे। इसलिए उनकी मुर्ति बन सकती है।
किन्तु सर्वव्यापी अनादि अनन्त कभी साकार नही हो सकता इसलिए विष्णु आदि देवों की मुर्ति नहीं बन सकती।
कुछ सम्प्रदाय के लोग लोक कल्याणकारी कोई कार्य नही करते। केवल मन्दिरों के नाम पर रिसोट्स तैयार कर रहे हैं।
जबकि खालसा पंथ की निस्वार्थ सेवाएँ जंग प्रशंसनीय है। कुम्भ में, महामारी / भुकम्प आदि के समय सनातन वेदिक के अग्रवाल समाज की सेवाएं और अब उन्हे देख कर महेश्वरी और खण्डेलवाल लोग भी सेवा देने लगे हैं इनकी निस्वार्थप्र सेवा प्रशंसनीय है।
जबकि कुछ सम्प्रदाय धर्मांतरण करवाने केलिये अत्यधिक सेवा करते हैं। किन्तु कुत्सित उद्देश्य से कीगई उनकी अति सेवाएँ भी उतना महत्व नहीं पाती है।कुछ सम्प्रदाय केवल अपने सम्प्रदाय में ही भाईचारा निबाह हैँ और अपने सम्प्रदाय के लोगों की ही सेवा को ही धर्म मानते हैं।गैर सम्प्रदाय के लोगों की सेवा पसन्द नही करते। बल्कि बुरा समझते हैँ ।
पुजा और नैवेद्य अर्पण के लिये किसी प्रतिमा/ मुर्ति की आवशकता नही होती है।
पुजन यजन, तर्पण और श्राद्ध
पुजा और नैवेद्य अर्पण के लिये किसी प्रतिमा/ मुर्ति की आवशकता नही होती है।
सर्व प्रथम एक निर्व्यसनी, विद्वान सज्जन सद्गुणी व्यक्ति को आचार्य वरण किया जाता है। जो वाञ्छित उद्देश्य की पुर्ति हेतु की जाने वाली पुजा या यज्ञ विधि का ज्ञाता और अनुभवी हो।फिर उनके मार्गदर्शन में
पुजा स्थल की साफ सफाई कर; अस्थि मान्स, मदिरा जैसी अपवित्र वस्तुओं को हटा कर; गाय के गोबर से लेपन कर ,गौमुत्र छिड़क कर अपवित्रता दुर करते हैं ।फिर गङ्गाजल से पवित्र कर, सात्विक ,सुन्दर, सुगन्धित पुष्प, और ॐ,श्री, स्वस्तिक आदि शुभ चिन्हों से युक्त वन्दशवारादि मांगलिक पवित्र वस्तुएँ स्थापित कर स्थल शुद्धि की जाती है।
फिर निर्धारित भूमि पर मण्डप तैयार कर देश/ देवताओं/देवगणों की प्रकृति अनुसार मण्डल रचना की जाती है। और यज्ञ बेदी तैयार की जाती है।
इनमें देवताओं की दिशा, प्रकृति, पुजा के उद्देश्य की पृकृति जैसी समस्त तथ्यों को ध्यान में रख कर ही मण्डल और बेदी तैयार की जाती है।
मण्डल और बेदी एक क्लिष्ट ज्यामितीय / त्रिकोणमितीय या गोलीय त्रिकोणमितिय संरचना होती है।जो त्रीआयामी भी होती है।
प्रसिद्ध श्री यन्त्र जो द्विआयामी और त्रीआयामी दोनों रुपों में पाया जाता है ,देवी मन्दिरों में लगे बीसा यन्त्र, आदि सब मण्डल ही होते हैं। यज्ञ बेदी, मण्डप, मिनरल के पिरामिड आदि भी ऐसी ही मण्डलाकार संरचना ही है।
जिस किसी देव या देवता या देवतागणों की पुजा अर्थात सेवा सत्कार करने की इच्छा हो उन देव या देवता को या देवगणों को या देवताओं को कवितामयी ऋग्वेद की ऋचाओं अर्थात मन्त्रो से आव्हाहन किया जाता है अर्थात बुलाया जाता हैं।
तदुपरान्त यजुर्वेद के मन्त्रों द्वारा पहले से निर्मित मण्डल में देवता की प्रकृति और दिशा अनुसार निर्धारित स्थान पर रखी सुपारी को इंगित कर निर्धारित आसन पर स्थापित होने यानि बैठने का निवेदन किया जाता है।
फिर यजुर्वेदीय मन्त्रों से ही स्थापित देवता के चरण धोने, पैर पौंछने, दुध,दहीं, घीं आदि उबटनों से स्नान कराने/ नहलाने बदन पौंछने, चन्दन आदि सुगन्धित दृव्यों का लेपन कर,कपड़े पहनाकर, पुष्प, फुलमाला आदि से सुसज्जित कर फिर नैवेद्य अर्पण कर भोजन कराया जाता है।फिर पान सुपारी आदि खिलाकर पंखा झेल कर आराम से बैठने का कहा जाता है। यह पुजन कहलाती है। यह समस्त अररिया सांकेतिक यानि मानसिक ही होती है।
गृहशांति, वास्तुपुजन,यज्ञ आदि में यह सब प्राय: सबने देखा होगा या देख सकते हैं।
फिर यजमान और यजमान पत्नी के अतिरिक्त आचार्या द्वारा चयनित ऋत्विक मिलकर यजुर्वेद के गद्यात्मक मन्त्रों से यजन करते हैं मतलब उन्हे यज्ञभाग अर्पित कर अर्थात उनके निमित्त जो सामग्रियाँ देना है हवन कर उनकी आहुतियाँ दी जाती है। ये चारों ऋत्विक चारों वेदों के प्रतिनिधि होते हैं।
ऋग्वेद का होता आह्वान करता है, यजुर्वेद का अर्ध्वयु आहुती देता है,, सामवेद का उद्गाता सामान कर रिझाता है और अथर्ववेद का ब्रह्मा स्वस्तिवाचन करता है।
फिर सामवेद के सामगान से उनकी प्रशंसा की जाती है।
ज्ञातव्य है कि,
यजुर्वेद पर रावण कृत भाष्य सहित यजुर्वेद संहिता को कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं।
कृष्ण यजुर्वेद को मानने वाले कृष्णयजुर्वेदी लोग मुर्ति का अभिषेक करते हैं। फिर अथर्वेदीय विधि से अकेले स्वयम् ही हवन करते हैं।
मध्याह्न के पहले बलिवैश्वदेव कर्म कर गौ, काक ( कव्वों), कुकुर (श्वान/कुत्तों), पिप्पलिका (चिटियों को), और गुरुकुल के बटुकों ( ब्रह्मचारी शिष्यों को), वानप्रस्थों, सन्यासियों और बाहर से बिना बुलाये आये हुए अतिथियों को भोजन सामग्रियाँ और दान सामग्रियाँ , सहयोगियों को दक्षिणा ( पारिश्रमिक) देकर बिदा करने को या आश्रय ग्रह में ठहराने को श्राद्ध कहते हैं फिर आमन्त्रित विद्वानों को भोजन दान दक्षिणा आदि से तृप्त कर पितृ तर्पण करते हैं।
फिर कभी कभी.अथर्ववेद की विशिष्ठ विधि से वांछित कुछ उपकार करने के लिये हवन की अग्नि में औषधियाँ पकाने, अस्त्र शस्त्रों को अभिमन्त्रित करने जैसे कार्य भी किये जाते हैं।
फिर अन्त में यजुर्वेद के मन्त्रों से शान्ति पाठ कर,क्षमा याचना कर दान दक्षिणा भोजन सामग्रियाँ अर्पित कर विसर्जन मन्त्रों से बिदा अपने लोक वापस पधारने (प्रस्थान करने) का बोला जाता है।( उक्त क्रियाएँ कर्मकाण्ड कहलाती है।ये अच्छे उद्देश्य और सदाशयता से करने पर ये क्रियाएँ / कर्म धर्म है पर कुत्सित उद्देश्य और आशय से करने पर अधर्म हो जाती है।
रात्री में इतिहास, गाथाओं और पौराणिक आख्यानों , प्रवचनों, परिचर्चाओं, शतरंज खेलने, नृत्य गान संगीत आदि से कर्मकाण्डरतनोरंजन किया जाता है।
घुड़दोड़, रथ दोड़, मल्ल ,कुश्ती क्रिड़ाओं का आयोजन भी होता है।