वैदिक काल में तो वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से ही संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्तऋतु आरम्भ और मधुमास आरम्भ होता था।
शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति (२२/२३ सितम्बर) से वैदिक दक्षिणायन आरम्भ, शरद ऋतु आरम्भ और ईष मास आरम्भ होता था।
उत्तर परम क्रान्ति , सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से उत्तर तोयन और सहस्य मासारम्भ होता था। तथा
दक्षिण परम क्रान्ति, सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से दक्षिण तोयन, शचि मास आरम्भ होता था।
इन सबका निर्धारण सायन सौर संक्रान्तियों के अनुसार ही होते थे।
३० दिन के सावन मास भी प्रचलित थे। इस कारण पाँच वर्ष में दो अधिकमास करके संवत्सर आरम्भ वसन्त सम्पात से ही किया जाता था।
साथ ही अमावस्या, पुर्णिमा को अन्वाधान अर्थात यज्ञ वेदी में समिधा डालने तथा दुसरे दिन इष्टि (हवन) होता था, अर्धचन्द्रमा का दिन (अष्टमी) को अष्टका, एकाष्टका के पर्व मनाते जाते थे।
परवर्ती ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल और विशेषकर शुल्बसुत्र, श्रोतसुत्र, गृह्यसुत्र,धर्मसुत्रों के रचनाकाल में कहीँ अमान्त चान्द्रमास तो कहीँ पुर्णिमान्त चान्द्रमास प्रचलन में आये।
किन्तु संवत्सर आरम्भ, अयनारम्भ, तोयनारम्भ, और ऋतु आरम्भ सायन सौर संक्रान्तियों से ही होता रहा।
चान्द्र वर्ष को सायन सौर वर्ष के तुल्य करने के लिए दो संक्रान्तियों के बीच पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से चान्द्रमास आरम्भ माना जाता था। मासो के नाम पूर्णिमान्त मे पड़ने वाले नक्षत्र के नाम के आधार पर पड़े।
जिन दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़ जाती वह (मास अहनस्पति का) अधिक मास माना जाने लगा। लेकिन जिन दो संक्रान्तियों के बीच कोई अमावस्या न पड़े बल्कि दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति का दुर्लभ संयोग बने उसे क्षय मास कहने लगे। ऐसा योग प्रायः १९ वर्ष और फिर १४१ वर्ष के चक्र में पड़ता है। किन्तु संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के पहले पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से ही माना जाता है। फिर वह कोई सा भी चान्द्रमास क्यों न हो।
पौराणिक युग में विष्णु पुराण में भी संवत्सर, उत्तरगोल (वैदिक उत्तरायण) का आरम्भ वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से आरम्भ होना और दक्षिण गोल (वैदिक दक्षिणायन) शरद सम्पात (२२/२३ सितम्बर) से आरम्भ होना होना बतलाया है।
विष्णु पुराण और शिव पुराण में पौराणिक उत्तरायण (वैदिक उत्तर तोयन) उत्तर परमक्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से आरम्भ होना और पौराणिक दक्षिणायन (वैदिक दक्षिण तोयन) दक्षिण परमक्रान्ति दिवस, सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से ही आरम्भ करने का वर्णन है।
साथ ही ऋतुएँ भी तदनुसार सायन सोर संक्रान्तियों से ही आरम्भ करने के निर्देश हैं।
किन्तु वराहमिराचार्य, सूर्यसिद्धान्त रचियता मयासुर, और सिद्धान्त शिरोमणि (लीलावती गणितम् ग्रहगणिताध्याय, गोलाध्याय) के रचयिता भास्कराचार्य ने शकाब्ध को नाक्षत्रिय वर्ष गणना से जोड़कर, संवत्सर आरम्भ और चान्द्रमासों को निरयन सौर संक्रान्तियों से जोड़ दिया।
जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़ जाती वह अधिक मास माना जाने लगा। लेकिन जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच कोई अमावस्या न पड़े बल्कि दो अमावस्याओं के बीच दो निरयन संक्रान्ति का दुर्लभ संयोग बने उसे क्षय मास कहने लगे। ऐसा योग प्रायः १९ वर्ष, १२२ वर्ष और फिर १४१ वर्ष के चक्र में पड़ता है। किन्तु संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के पहले पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से ही माना जाता है। फिर वह कोई सा भी चान्द्रमास क्यों न हो।
लेकिन इस निरयन संक्रान्तियों से संस्कृत चान्द्र मासो के कारण व्रत,पर्व, उत्सव और मुहुर्त सभी का सम्बन्ध वास्तविक ऋतुओं और वैदिक मासों से हट गया।
पहले पहल वाराणसी (काशी के ज्योतिषाचार्य) बापू शास्त्री जी ने इस गलती को सुधारने हेतु ब्राह्मण काल/ सुत्र रचनाकाल में प्रचलित सायन संक्रान्तियों से संस्कृत चान्द्रमासो वाली पञ्चाङ्ग प्रकाशित की। लेकिन कर्मकाण्डी पण्डितों ने इसे नही अपनाया, अस्तु जनता द्वारा स्वीकृत नही होने के कारण श्री बापू शास्त्री जी को प्रकाशन रोकना पड़ा। और बाद में सूर्यसिद्धान्त आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित होने लगी।
आचार्य दार्शनेय लोकेश ने उक्त गलतियों को पकड़ा और सही पञ्चाङ्ग अपने पिताश्री के शुभ नाम से जारी किया जो श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् नाम से प्रति वर्ष प्रकाशित हो रहा है।
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