गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

हिन्दू फारसी भाषा में कहा गया अपशशब्द है न कि, संस्कृत शब्द।

सिन्धु शब्द के स का उच्चारण ह होनें का सिद्धान्त सरासर मिथ्या है। क्योंकि, भारत में सिकन्दर के आक्रमण के पहले से ईरान में प्रचलित हिन्दू शब्द प्राचीन ईरानी साहित्य में प्रचलित था।

एक लेख में उल्लेख है कि, जरथुस्त्र रचित- उनके धर्म गृन्थ की आयत 163 वें में लिखा है –

” अकनु विर हमने व्यास नाम अज हिन्द आमद दाना कि अकल चुनानेस्त वृं व्यास हिन्दी वलख आमद ,गस्ताशप जरतस्त रख ,ख्वानंद मन मरदे अम हिन्दी निजात व हिन्दुवा जगस्त”

मतलब ईरान में हिन्दू शब्द जरथुस्त्र के समय से प्रचलित है।

फारसी के प्राचीन शब्दकोशों के अनुसार हिन्दूशब्द का अर्थ काला, कलूटा,दास दस्यु ,चोर, डाकू, लुटेरा, सेंधमार , लूच्चा, लफङ्गा, बदमाश, मिथ्या भाषी (झूठा), आदि अर्थों में प्रयुक्त होता था।

अतः सिन्धु शब्द का फारसी उच्चारण हिन्दू कदापि सत्य नही हो सकता।

किन्तु सिकन्दर के आक्रमण के समय तो ठीक शकों और हूणों के आक्रमण तक भी किसी भारतीय नें अथवा भारतीय ग्रन्थ में हिन्दू जाति, हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, या हिन्दूदेश हिन्दूस्थान या हिन्दूस्तान शब्द के प्रयोग भारतीय या संस्कृत ग्रन्थ और भारतीय इतिहास में नही पाया जाता है।

हिन्दू-कुश को संस्कृत साहित्य और इतिहास में पारियात्र पर्वत कहा जाता था और बाद में यह हिन्दू-कुश के नाम से प्रसिद्ध हो गया | फारसी भाषा में कुश शब्द का अर्थ होता है क़त्ल करना | जिस स्थान पर हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ हो वह स्थान हिन्दू-कुश कहलाता है, – जैसे खुद-कुशी |

भविष्य पुराण में हिन्दूस्थान शब्द आया है।किन्तु उसमें तो राजाभोज का इतिहास तो है ही पृथ्वीराज चौहान, जयचन्द , अकबर और विक्टोरिया तक का इतिहास भविष्यकालिन रूप में नही बल्कि भूतकालिक रूप में दिया है।

बृहस्पति आगम -- आचार्य बृहस्पतिजी ने विशालाक्ष शिव द्वारा रचित राजनीति शास्त्र के ग्रन्थ का सार संक्षेप बार्हस्पत्य शास्त्र नामक ग्रन्थ में किया। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता की रचना की। बृहत्संहिता की रचनाके बाद लगभग 300 ई. में बृहस्पति-आगम की रचना हुई। अतः ब्रहस्पति आगम में हिन्दू शब्द या भारत को हिन्दस्थान कहना कोई आश्चर्यजनक नही है। क्योंकि, उस समय मुस्लिम शासकों ने यही शब्द प्रचलित कर दिया था।

शैव तन्त्र के मेरुतंत्र नामक ग्रन्थ को बने हुए 300-400 वर्ष ही हुए हैं । अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

पारिजात हरण नाटक लगभग 1325 ई. के आसपास अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन मिथिलानिवासी उमापति उपाध्याय ने पारिजात हरण नाटक की रचना की थी। अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

सम्राट विक्रमादित्य के समय 58 ई.पू. से 34 ई. के बीच रचित अमरकोश उपलब्ध कोषों में सबसे प्राचीन कोश है जिसमें हिन्दू शब्द नही है। शेष सभी कोश राजा भोज के समय 1000ई के बाद के हैं। उनमें से एक कल्पद्रुम नामक शब्दकोश भी परवर्ती ही है।कल्पद्रुम लक्ष्मीधर रचित है ।लक्ष्मीधर गडहवाल वंशी कन्नोजके राजपूत राजा गोपीचंद का मन्त्री था। जयचन्द गोपीचन्द का ही वंशज था जो ईसा की तेरहवीं सदी का है। अतः इसमें आये हिन्दू शब्द और उसका अर्थ देना कोई महत्व नही है।

माधव या माधव विद्यारण्य का समय 1296 -1386 का है वे विजयनगर साम्राज्य हरिहर राय और बुक्काराय के गुरु, संरक्षक,दार्शनिक सन्त थे। अतः माधवविजय भी ईसा की चौदहवीं सदी का ग्रन्थ है।

कालिका पुराण दसवी शताब्दी का ग्रन्थ है। औरशारंगधर पद्धति रचना 1363 ई. मे हुई |

अर्थात उक्त समस्त ग्रन्थ भारत में इस्लामिक शासन स्थापित होजाने के पश्चातवर्ती हैं। अतः मुस्लिमों द्वारा भारतियों के प्रति कहेजानेवाले अपमानजनक शब्द हिन्दू को संस्कृत शब्द घोषित करना उनलोगों रचनाकारों द्वारा शर्म छुपाने का प्रयास मात्र था।

कुछ आलेखों में कहा गया कि ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में द्वितीय सुक्त के 41 वें मन्त्र में विवहिन्दू नामक किसी दानी राजा का वर्णन है। किन्तु श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का ऋग्वेद सुबोध भाष्य में 08/02/41 में विवहिन्दु नही मिला। विभिन्दो या विऽभिन्दो शब्द को भ्रमवश विवहिन्दू समझने की भूल हुई होगी।

मूल मन्त्र प्रस्तुत है---

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:41 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:6 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:41

देवता: विभिन्दोर्दानस्तुतिः ऋषि: मेधातिथिः छन्द: पादनिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

शिक्षा॑ विभिन्दो अस्मै च॒त्वार्य॒युता॒ दद॑त् । अ॒ष्टा प॒रः स॒हस्रा॑ ॥

पद पाठ

शिक्ष॑ । वि॒भि॒न्दो॒ इति॑ विऽभिन्दो । अ॒स्मै॒ । च॒त्वारि॑ । अ॒युता॑ । दद॑त् । अ॒ष्ट । प॒रः । स॒हस्रा॑ ॥ ८.२.४१

पदार्थान्वयभाषाः -(विभिन्दो) हे शत्रुकुल के भेदन करनेवाले (ददत्) दाता ! आप (अस्मै) मेरे लिये (अष्टा, सहस्रा, परः) आठ सहस्र अधिक (चत्वारि, अयुता) चार अयुत (शिक्षा) देते हैं ॥४१॥

भावार्थभाषाः -सूक्त में क्षात्रधर्म का प्रकरण होने से इस मन्त्र में ४८००० अड़तालीस हज़ार योद्धाओं का वर्णन है अर्थात् कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासुजनों की यह प्रार्थना है कि आप शत्रुओं के दमनार्थ हमको उक्त योद्धा प्रदान करें, जिससे शान्तिमय जीवन व्यतीत हो ॥४१॥

अन्य प्रकार से अर्थ ऐसा हो सकता है।

पदार्थान्वयभाषाः -(विभिन्दो) हे पुरन्दर=दुष्ट जनों का विशेषरूप से विनाश करनेवाले और शिष्टों के रक्षक ईश ! (ददत्) यद्यपि तू आवश्यकता के अनुसार सबको यथायोग्य दे ही रहा है। तथापि (अस्मै) इस मुझ उपासक को (चत्वारि) चा२र (अयुता) अयुत १०००× दश सहस्र=१००००×४=४०००० अर्थात् चालीस सहस्र धन (शि३क्ष) दे तथा (परः) इससे भी अधिक (अष्ट+सहस्रा) आठ सहस्र धन दे ॥४१॥

भावार्थभाषाः -यद्यपि परमात्मा प्रतिक्षण दान दे रहा है, तथापि पुनः-पुनः उसके समीप पहुँच कर अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्त्यर्थ निवेदन करें और जो नयनादि दान दिए हुए हैं, उनसे काम लेवें ॥४१॥

टिप्पणी:१−विभिन्दु−भिदिर् विदारणे। पुरन्दर और विभिन्दु दोनों एकार्थक हैं। जो दुष्टों के नगरों को छिन्न-भिन्न करके नष्ट कर देता है, वह विभिन्दु।

सम्भवतः वि॒भि॒न्दो॒ या विऽभिन्दो शब्द से यह भ्रम हुआ है।


हीनम् च दुष्यतेव्हिन्दूरित्युच्च ते प्रिये ।

और हीनम् दुष्यति इति हिन्दूः

में हीन शब्द में ही दीर्घ मात्रा है जबकि हिन्दू में हि लघु मात्रा है। अत्ः शब्द व्युत्पत्ति ठीक ठीक नही बनती। यदि कोई विद्वान इसे सिद्ध करना चाहे तो सादर स्वागत है।

अब उचित समय है इस शब्द को त्याग कर वेदिकालीन शब्द ब्राह्म धर्म (अर्थात वेदिक धर्म) या परम्परागत सनातन धर्म ही अपनाना ही उचित होगा।

उल्लेखनीय है कि, वेदमन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं अतः वेद आधारित धर्म होने से ब्राह्म धर्म कहते हैं। 
श्रुति आधारित धर्म श्रोत्रिय धर्म और वेद आधारित धर्म होने से वैदिक धर्म कहलाता है।
ब्राह्म धर्म का  दृढ़तापूर्वक आचरण करनें वाले व्यक्ति को ब्राह्मण कहते हैं। ऐसे ब्राह्मण के द्वारा आचरित और ब्राह्मण ग्रन्थों में व्याख्यायित धर्म ब्राह्मण धर्म कहलाता है।
ऋषियों द्वारा आचरित धर्म होनें से आर्षधर्म कहलाता है। तथा श्रेष्ठ जनों द्वारा आचरित धर्म होने से आर्यधर्म कहलाता है। और शाश्वत रूप से सनातन काल से प्रचलित धर्म होने से सनातन धर्म कहलाता है।
स्वायम्भुव मनु द्वारा रचित मानव धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण किया गया मानव धर्म कहलाता था और स्वायम्भुव मनु से पाँचवी पीढ़ी में जन्में भरत चक्रवर्ती (भरत मुनि/ जड़भरत) के राज्य का  मानव धर्मशास्त्र आधारित संविधान के अनुसार आचरण भारतीय धर्म कहलाता है।

ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शुद्र जाति नही थी गुण कर्माधारित वर्ण हैं। 
श्रोत्रिय, वेदिक और ब्राह्मण समानार्थी शब्द हैं। वेद ज्ञाता विप्र कहलाते हैं। संस्कारवान व्यक्ति द्विज कहलाता हैं। 
समाज के रक्षक क्षत्रीय कहलाते हैं। व्यवहार कुशल, व्यावहारिक व्यक्ति वैश्य कहलाते हैं। सेवा करके ज्ञानार्जन के अभिलाषी शुद्र कहलाते हैं। 
शुद्र ही वैष्य बनता है फिर उत्तरोत्तर क्षत्रीय और फिर वैदज्ञ होकर विप्र और ब्रह्मज्ञ होकर ब्राह्मण होता है। यह वर्ण व्यवस्था है।
इसलिए वर्णाश्रम धर्म भी कहलाता है।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

अयन, तोयन, ऋतु, मास और व्रत, उत्सव का सम्बन्ध सायन संक्रान्तियों से।

वैदिक काल में तो वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से ही संवत्सर आरम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्तऋतु आरम्भ  और मधुमास आरम्भ होता था। 
शरद सम्पात सायन तुला संक्रान्ति (२२/२३ सितम्बर) से वैदिक दक्षिणायन आरम्भ, शरद ऋतु आरम्भ और ईष मास आरम्भ होता था।
उत्तर परम क्रान्ति , सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से उत्तर तोयन और सहस्य मासारम्भ होता था। तथा 
दक्षिण परम क्रान्ति, सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से दक्षिण तोयन, शचि मास आरम्भ होता था।
इन सबका निर्धारण सायन सौर संक्रान्तियों के अनुसार ही होते थे। 
३० दिन के सावन मास भी प्रचलित थे। इस कारण पाँच वर्ष में दो अधिकमास करके संवत्सर आरम्भ वसन्त सम्पात से ही किया जाता था। 
साथ ही अमावस्या, पुर्णिमा को अन्वाधान अर्थात यज्ञ वेदी में समिधा डालने तथा दुसरे दिन इष्टि (हवन) होता था, अर्धचन्द्रमा का दिन (अष्टमी) को अष्टका, एकाष्टका के पर्व मनाते जाते थे।

परवर्ती ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल और विशेषकर शुल्बसुत्र, श्रोतसुत्र, गृह्यसुत्र,धर्मसुत्रों के रचनाकाल में कहीँ अमान्त चान्द्रमास तो कहीँ पुर्णिमान्त चान्द्रमास प्रचलन में आये। 
किन्तु संवत्सर आरम्भ, अयनारम्भ, तोयनारम्भ, और ऋतु आरम्भ सायन सौर संक्रान्तियों से ही होता रहा। 
चान्द्र वर्ष को सायन सौर वर्ष के तुल्य करने के लिए दो संक्रान्तियों के बीच पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से चान्द्रमास आरम्भ माना जाता था। मासो के नाम पूर्णिमान्त मे पड़ने वाले नक्षत्र के नाम के आधार पर पड़े। 
जिन दो संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़ जाती वह (मास अहनस्पति का) अधिक मास माना जाने लगा। लेकिन जिन दो संक्रान्तियों के बीच कोई अमावस्या न पड़े बल्कि दो अमावस्याओं के बीच दो संक्रान्ति का दुर्लभ संयोग बने उसे क्षय मास कहने लगे। ऐसा योग प्रायः १९ वर्ष और फिर १४१ वर्ष के चक्र में पड़ता है। किन्तु संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के पहले पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से ही माना जाता है। फिर वह कोई सा भी चान्द्रमास क्यों न हो।

पौराणिक युग में विष्णु पुराण में भी संवत्सर, उत्तरगोल (वैदिक उत्तरायण) का आरम्भ वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से आरम्भ होना और दक्षिण गोल (वैदिक दक्षिणायन) शरद सम्पात (२२/२३ सितम्बर) से आरम्भ होना होना बतलाया है। 
विष्णु पुराण और शिव पुराण में पौराणिक उत्तरायण (वैदिक उत्तर तोयन) उत्तर परमक्रान्ति दिवस सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से आरम्भ होना और पौराणिक दक्षिणायन (वैदिक दक्षिण तोयन) दक्षिण परमक्रान्ति दिवस, सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से ही आरम्भ करने का वर्णन है। 
साथ ही ऋतुएँ भी तदनुसार सायन सोर संक्रान्तियों से ही आरम्भ करने के निर्देश हैं।

किन्तु वराहमिराचार्य, सूर्यसिद्धान्त रचियता मयासुर, और सिद्धान्त शिरोमणि (लीलावती गणितम् ग्रहगणिताध्याय, गोलाध्याय) के रचयिता भास्कराचार्य ने शकाब्ध को नाक्षत्रिय वर्ष गणना से जोड़कर, संवत्सर आरम्भ और चान्द्रमासों को निरयन सौर संक्रान्तियों से जोड़ दिया।
जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़ जाती वह अधिक मास माना जाने लगा। लेकिन जिन दो निरयन संक्रान्तियों के बीच कोई अमावस्या न पड़े बल्कि दो अमावस्याओं के बीच दो निरयन संक्रान्ति का दुर्लभ संयोग बने उसे क्षय मास कहने लगे। ऐसा योग प्रायः १९ वर्ष, १२२ वर्ष और फिर १४१ वर्ष के चक्र में पड़ता है। किन्तु संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के पहले पड़ने वाली अमावस्या के समाप्ति काल से ही माना जाता है। फिर वह कोई सा भी चान्द्रमास क्यों न हो।

लेकिन इस निरयन संक्रान्तियों से संस्कृत चान्द्र मासो के कारण व्रत,पर्व, उत्सव और मुहुर्त सभी का सम्बन्ध वास्तविक ऋतुओं और वैदिक मासों से हट गया।
पहले पहल वाराणसी (काशी के ज्योतिषाचार्य) बापू शास्त्री जी ने इस गलती को सुधारने हेतु ब्राह्मण काल/ सुत्र रचनाकाल में प्रचलित सायन संक्रान्तियों से संस्कृत चान्द्रमासो वाली पञ्चाङ्ग प्रकाशित की। लेकिन कर्मकाण्डी पण्डितों ने इसे नही अपनाया, अस्तु जनता द्वारा स्वीकृत नही होने के कारण श्री बापू शास्त्री जी को प्रकाशन रोकना पड़ा। और बाद में सूर्यसिद्धान्त आधारित पञ्चाङ्ग प्रकाशित होने लगी।

आचार्य दार्शनेय लोकेश ने उक्त गलतियों को पकड़ा और सही पञ्चाङ्ग अपने पिताश्री के शुभ नाम से जारी किया जो श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् नाम से प्रति वर्ष प्रकाशित हो रहा है।

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

वसन्त सम्पात जिस नक्षत्र पर होता था तदनुसार व्रत पर्वों के आरम्भ में

वेद मन्त्रों को ब्रह्म कहते हैं। ,वेदों पर आधारित होनें के कारण हमारा सनातन वेदिक धर्म ब्राह्म धर्म है। 
 वेदों से लेकर पुराणों तक संवत्सर आरम्भ वसन्त विषुव दिवस अर्थात वसन्त सम्पात दिवस से होता है।वेदिककाल में वसन्त विषुव से उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमासारम्भ होता था। 
जिसदिन भूकेन्द्रीय ग्रह गणनानुसार सूर्य वसन्त सम्पात यानी सायन मेषादि बिन्दु पर होता है। इसदिन सूर्य ठीक भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है। तथा दिनरात बराबर होते हैं। वह दिन वसन्त महाविषुव दिवस कहलाता है। वेदों में इस दिन से संवत्सरारम्भ, उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, और मधुमास आरम्भ दिवस कहा गया है। क्योंकि, उसी अवधि में आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में वसन्त ऋतु आरम्भ होती है।
अर्थात वसन्त विषुव दिवस से ही पञ्जाब,हरियाणा, सिन्ध, कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, पकजाकिस्तान, उजाबेगिस्तान, पामीर तथा ईरान,अफगानिस्तान,में वसन्त ऋतु आरम्भ होती है।
वेदों में वसन्त विषुव से उत्तरायण आरम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ, और मधुमास आरम्भ कहा गया है।तथा मुख्यरूप से 1 मधु, 2 माधव, 3 शुक्र, 4 शचि, 5 नभः, 6 नभस, 7 ईष, 8 ऊर्ज, 9 सहस, 10 सहस्य,11 तपस और 12 तपस्य नामक (सायन) सौर  मास प्रचलित थे। 
उत्तरायण मधु मास आरम्भ से नभस मासान्त तथा ईश मासारम्भ तक रहता था।  उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षाऋतु आती थी। दक्षिणायन  ईष मासारम्भ से तपस्य मासान्त तक अर्थात मधुमासारम्भ के दिन तक होती थी। दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
उत्तरायण और ग्रीष्म ऋतु के मध्य में उत्तर तोयन और दक्षिणायन और हेमन्त ऋतु के मध्य में दक्षिण तोयन होता था।
इसके अतिरिक्त ऋग्वेदोक्त पवित्र आदि मास भी इसी प्रकार प्रचलित रहे।
उत्तर वेदिक काल में तैत्तरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार चित्रा तारे को नक्षत्र मण्डल का मध्य स्थान मानकर चित्रा तारे  से 180° पर नक्षत्र मण्डल का आरम्भ बिन्दू माना गया। इसे निरयन मेषादि बिन्दु कहा जाता है।
वर्तमान में 23 सितम्बर को पड़नें वाले शरद विषुव जिसदिन भूकेन्द्रीय ग्रह गणना से  सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर भूमध्य रेखा से दक्षिण (दक्षिण गोलार्ध) में प्रवेश करता है उस समय से दक्षिणायन, शरद ऋतु, और ईष मास का आरम्भ होता था।
इसी प्रकार वर्तमान में 22/23 दिसम्बर को पड़ने वाली सूर्य की उत्तर परमक्रान्ति दिवस (सायन) कर्क संक्रान्ति जिसदिन सूर्य कर्क रेखा पर होता है उस समय वेदिककाल में उत्तर तोयन तथा शचि मास आरम्भ होता था। इसी प्रकार वर्तमान में 22/ 23 दिसम्बर को पड़नें वाली  दक्षिण परमक्रान्ति दिवसको  (सायन) मकर संक्रान्ति को जब सूर्य मकर रेखा पर होता है उस समय वेदिककाल में दक्षिण तोयन और सहस्य मास आरम्भ होता था।


 किन्तु वेदिक काल में  न तो 1 मेष, 2 वृष, 3 मिथुन, 4 कर्क,5 सिंह, 6 कन्या,7  तुला, 8 वृश्चिक, 9 धनु, 10 मकर,11 कुम्भ और 12 मीन (निरयन) राशियाँ प्रचलित थी। और 1 चैत्र, 2 वैशाख, 3 ज्यैष्ठ, 4 आषाढ़, 5 श्रावण, 6 भाद्रपद, 7 आश्विन, 8  कार्तिक, 9 मार्गशीर्ष, 10 पौष, 11 माघ, और 12 फाल्गुन मास भी अप्रचलित थे। 

जब निरयन मेषादि मास और निरयन सौर संस्कृत चैत्रादि मास प्रचलित हुए तब भी जो मास वसन्त सम्पात / वसन्त विषुव दिवस के आसपास आरम्भ होता उसी मास को प्रथम मास माना जाता था। 
ऋग्वेद  में तो निरयन शब्द सायन कर्कसंक्रान्ति और सायन मकर संक्रान्ति दिवस के लिए हुआ है। 
संवत्सरारम्भ सदैव सायन मेष संक्रान्ति से ही होता था। निरयन संक्रान्तियों में वसन्त सम्पात आने के कारण उन निरयन संक्रान्तियों को और उन निरयन संक्रान्तियों से सम्बद्ध चैत्रादि मासान्त अमावस्या या मासारम्भ तिथियों में पर्वोत्सव या पुर्णिमा में  मनाये जाते थे जिनकी परम्परा आज भी प्रचलन में है।
इसके उदाहरण नीचे है।⤵️
सन 25515 ई.पू. तथा सन 285 ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन) मेष 00° पर था अर्थात (निरयन) मेष संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ फाल्गुन अमावस्यान्त / चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा) से होता था। चैत्री नवरात्रि ईसी कारण मनाते हैं।

24440 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मीन 15° पर था। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को नवसस्येष्टि पर्व एवम् होलीका उत्स्व इसी कारण मनाते हैं।

सन 23365 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मीन 00° पर था अर्थात (निरयन) मीन संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ माघी अमावस्यान्त /  फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था।  महा शिवरात्रि पर्व एवम् मौनी अमावस्या व्रत इसी उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

22290 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कुम्भ 15° पर था। माघी पूर्णिमा। विश्वकर्मा जयन्ती एवम् दाण्डा रोपिणी पूर्णिमा इसी उपलक्ष्य में मनाते हैं ।

सन 21215  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कुम्भ 00° पर था अर्थात (निरयन) कुम्भ संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ पौषी अमावस्यान्त /  माघ शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 
गुप्त नवरात्रि आरम्भ एवम् वसन्त पञ्चमी इसी उपलक्ष्य में मनाते हैं।

20140  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मकर 15° पर था। पौष शुक्ल पूर्णिमा शाकम्भरी जयन्ती पर्व।

सन 19065  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मकर 00° पर था अर्थात (निरयन) मकर संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ मार्गशीर्ष अमावस्यान्त (पित्र) अमावस्यान्त/  पौष  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 

17990 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) धनु 15° पर था। मार्गशीर्ष पूर्णिमा दत्त जयन्ती पर्व।

सन 16915  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) धनु 00° पर था अर्थात (निरयन) धनु संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ कार्तिक अमावस्यान्त /  मार्गशीर्ष  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। 

15840 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृश्चिक15° पर था। कार्तिक पूर्णिमा / काशी में देवदिवाली/ छोटी दिवाली पर्व।

सन 14765  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृश्चिक 00° पर था अर्थात (निरयन) वृश्चिक संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ आश्विन अमावस्यान्त दिवाली/  कार्तिक  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पञ्चदिवसीय  दिवाली पर्वोत्सव धन्वन्तरि जयन्ती, नर्क चतुर्दशी, दिवाली, बलिप्रतिपदा, अन्नकूट एवम् / यम द्वितीय इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 13690 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) तुला 15° पर था। आश्विन पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा उत्सव, कोजागरी पूर्णिमा व्रत पर्व।

सन 12615  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) तुला 00° पर था अर्थात (निरयन) तुला संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ भाद्रपद अमावस्यान्त /  आश्विन  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। सर्वपितृ अमावस्या और शारदीय नवरात्रि इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 11540 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कन्या 15° पर था। भाद्रपद पूर्णिमा, प्रोष्टपदी पूर्णिमा व्रत । महालय आरम्भ।

सन 10465  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कन्या 00° पर था अर्थात (निरयन) कन्या संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  श्रावण अमावस्यान्त /  भाद्रपद  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पितृ अमावस्या, कुशग्रहणी अमावस्या, हरियाली अमावस्या, पिठोरा अमावस्या, हरतालिका तृतीया, नाग पञ्चमी और  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 9390 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  सिंह 15° पर था। श्रावण पूर्णिमा, यजुर्वेदी उपाकर्म, राखी ।

सन 8315  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) सिंह  00° पर था अर्थात (निरयन) सिंह संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  आषाढ़ अमावस्यान्त /  श्रावण  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। पितृ अमावस्या, कुशग्रहणी अमावस्या, हरियाली अमावस्या, पिठोरा अमावस्या, हरतालिका तृतीया, नाग पञ्चमी और  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 7240 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  कर्क 15° पर था। आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा/ गुरु पूर्णिमा ।

सन 6165  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) कर्क  00° पर था अर्थात (निरयन) कर्क संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ  ज्यैष्ठ अमावस्यान्त /  आषाढ़  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। गुप्त नवरात्रि  इसी उपलक्ष्य में मनता है। 

 5090 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  मिथुन 15° पर था। ज्यैष्ठ पूर्णिमा,वट सावित्री पूर्णिमा ।

सन 4015  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) मिथुन  00° पर था अर्थात (निरयन) कर्क संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ वैशाख  अमावस्यान्त /  ज्यैष्ठ  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। वट सावित्री अमावस्या  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

 2940 ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  वृष 15° पर था। वैशाख पूर्णिमा,कुर्म जयन्ती, नृसिह जयन्ती।(सिद्धार्थ गोतम बुद्ध पूर्णिमा।)

सन 1865  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन) वृष  00° पर था अर्थात (निरयन) वृषभ संक्रान्ति को  हुआ था। 
तब संवत्सरारम्भ चैत्र  अमावस्यान्त /  वैशाख  शुक्ल प्रतिपदा  से आरम्भ होता था। अक्षय तृतीया  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

790  ई.पू. में वसन्त सम्पात (निरयन)  वृष 15° पर था। चैत्र पूर्णिमा, हनुमान जयन्ती।

सन 285  ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन) मेष  00° पर था अर्थात (निरयन) मेष संक्रान्ति को  हुआ था। 

तब संवत्सरारम्भ फाल्गुनी  अमावस्यान्त /  चैत्र  शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी)  से आरम्भ होना आरम्भ हुआ था। गुड़ीपड़वाँ चैत्री और नवरात्रि  इसी उपलक्ष्य में मनती है। 

1360  ईस्वी में वसन्त सम्पात (निरयन)  मेष 15° पर था। फाल्गुनी पूर्णिमा, होली।

यही स्थिति 22 मार्च 285 ईस्वी के आसपास का इतिहास देखिये।⤵️

जैसे ईस्वी सन 285 के 22 मार्च को जब  वसन्त सम्पात चित्रा नक्षत्र से 180° पर अर्थात निरयन मेषादि बिन्दु पर आया तो उस कालावधि से चैत्र मास प्रथम मास कहलाता है। 
इस समय को इतिहासकारों की दृष्टि से देखें तो निम्नानुसार स्थिति बनती है।⤵️
1 अयनांश 355° से 05° तक।
 सन 75ई.पू. से 645 ई. तक। 
शुंगवंश और *कण्व वंश* से  हर्षवर्धन, व्हेनसांग के यात्रा काल और दक्षिण में चालुक्य वंश के आरम्भ  का समय तक वसन्त सम्पात निरयन मेषादि बिन्दु अर्थात चित्रा तारे से 180° पर रहा। 
2 अयनांश 350° से 10° तक ।
सन 430ई.पू. से 1000ई. तक।
बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु  और उज्जैन में शिशुनाग के शासन से राजा भोज के शासन , मोहमद गजनी के आक्रमण  और दक्षिण में चालुक्य वंश के अन्त और चोल वंश के उदय तक।
3  अयनांश 345° से 15° तक।
सन 790 ई.पू. से 1369 ई. तक।
ईतिहासकारों की दृष्टि से महाभारत रचनाकाल या महाकाव्य काल से  मोहम्मद तुगलक तक। इब्नबतूता के यात्राकाल तक।

मतलब ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में वेदिक परम्पराओं का टूटना आरम्भ होकर पौराणिक स्थापनाएँ जमनें लगी थी।


मतलब  चैत्रादि मास अत्याधुनिक हैं।
वेदिक काल में (सायन) सौर गणनानुसार ही संवत्सर , अयन, तोयन, ऋतुएँ और मास और गतांश तथा संक्रान्ति गते के रूप में दिनांक प्रचलित रहे।
तत्पश्चात महाभारत के बाद चित्रा नक्षत्र से 180° पर सूर्य होनें के दिन/ समय से नाक्षत्र वर्ष , मास , और गतांश और गते प्रचलित हुए। जो पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, बङ्गाल, उड़िसा, तमिलनाड़ु, केरल में आजतक प्रचलित है। 

पौराणिक काल में संवत्सर , अयन, तोयन, ऋतुएँ तो (सायन) सौर गणनानुसार ही रहे पर चैत्रादि चान्द्रमास और तिथियाँ प्रचलित हो गये। जिन्हें (निरयन) संक्रान्तियों से अधिक मास क्षय मास कर नाक्षत्रीय वर्ष के बराबर कर उत्तर भारत में कुषाण वंशिय कनिष्क नें शकाब्द नाम से कश्मीर, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार में प्रचलित किया और दक्षिण भारत में सातवाहन वंश ने और विशेषकर गोतमीपुत्र सातकर्णी नें शालिवाहन शकाब्द नाम से  आन्ध्रप्रदेश,तेलङ्गाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, गुजरात प्रचलित किया। 
किन्तु यह (निरयन) सौर संस्कृत शकाब्द और इसके चान्द्रमासों का सम्बन्ध परम्परागत (सायन) सौर संवत्सर और ऋतुचक्र से संयुक्त रखनें का प्रयास जारी रहता है। किन्तु यह जुगाड़ बहुत लम्बे समय सम्भव नही होगा।
अतः उचित होगा कि,
1 वेदिक परम्परानुसार ही संवत्सर, अयन, तोयन, ऋतु, मधु माधवादि मास, संक्रान्ति गतांश, और संक्रान्ति गते तथा दशाह के वासर पुनः प्रचलित किये जायें।
यथा सम्भव मुख्य मुख्य व्रतोत्सव भी उक्त गतांश अनुसार ही निर्धारित किये जायें।
किन्तु  अमावस्या, पूर्णिमा या अर्धचन्द्र से सम्बन्धित व्रतोत्सव को तिथियों से मनाते हैं। 
2  सौर संक्रान्तियों और नक्षत्रों पर आधारित व्रतोत्सव को नक्षत्र योगतारा को केन्द्र में रखकर आसपास के तारासमुह को मही नक्षत्र मानकर असमान भोगांश वाले नक्षत्रों पर चन्द्रमा और सूर्य और बृहस्पति आदि ग्रहों की स्थिति अनुसार भी मनाये जासकते हैं। किन्तु इसमें वर्तमान प्रचलित 30° की (निरयन) राशि और 13°20"' के काल्पनिक नक्षत्रों को कोई महत्व नही दिया जावे। नक्षत्र भोग फिर से निर्धारित किये जाये।
3  इस विषय में आचार्य दार्शनेय लोकेश नें मोहन कृति आर्ष पत्रक में (सायन) सौर संक्रान्तियों पर आधारित (सायन) सौर संस्कृत चान्द्रमास और नक्षत्र योगतारा को आरम्भ बिन्दु मानकर असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्रों को भी मान्यता दी जा सकती है। 
4   चित्रा नक्षत्र से 180° से आरम्भ  फिक्स झोडिएक में  नक्षत्र योगतारा को केन्द्र में रखकर आसपास के तारासमुह को मही नक्षत्र मानकर असमान भोगांश वाले 88 आधुनिक नक्षत्रों और  28 वेदिक नक्षत्रों पर सौर मण्डल के चलित पिण्डों /सूर्य, चन्द्र और ग्रहों की पोजीशन (स्थिति) भी दर्शाई जाये। यह संहिता ज्योतिष में अति महत्वपूर्ण होंगे।
5  चित्रा तारे से 180° पर स्थित (निरयन) मेषादि बिन्दु से भी अंशात्मक स्थिति दर्शाई जाये। यह इतिहास निर्धारण में भविष्य में उपयोगी होगा।