मंगलवार, 1 जून 2021

मौक्ष और गतियाँ।

ऋते ज्ञानानमुक्ति।
ऋत यानि परमात्मा का प्राकृत विधान को जानने पर ही समस्त राग (प्रियता) और द्वेष (अप्रियता), मैं - मेरा (अहन्ता - ममता) समाप्त हो पाती है। 
( मात्रत्व और वात्सल्य भाव देवीय प्रवृत्ति हैं। ममता मतलब मेरापन भाव मैं से उपजा है। अतः ममता उचित नही है। यह आसुरी प्रवृत्ति है।)
आत्म ज्ञान ही मौक्ष है। 
प्रज्ञानम् ब्रह्म।
अयम् आत्मा ब्रह्म।
तत् त्वम असि। (वह ब्रह्म तुम हो। पर तुम ही नही, अपितु तुम भी वह ब्रह्म ही हो।)
अहम् ब्रह्म अस्मि । (मैं ब्रह्म हूँ। पर मैं ही नही बल्कि मैं भी ब्रह्म ही हूँ।)
सर्व खलु इदम् ब्रह्म। ख मतलब आकाश। आकाश आदि जो कुछ भी है सब ब्रह्म ही है। क्योंकि, परमात्मा ने स्वयम् को ही जड़ - चेतन जगत (पदार्थ और जीवों) के स्वरूप में प्रकट किया। अतः  वास्तविक मैं  (परम आत्म)  परमात्मा  के अलावा कुछ है ही नही। हमारी सबकी वास्तविकता तो परमात्मा ही है।
जैसे सोने के आभूषण हो या ईंट  है तो सोना ही। बर्फ हो, पानी हो या भाप हो है तो पानी ही। वैसे ही सबकुछ परमात्मा ही है।
ईश आवास्यम् इदम सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
 (इस जगत में जो कुछ है उन सबको ईश से ही आच्छादित / व्याप्त  जानलो।)
कण कण में भगवान नही बल्कि, कण कण भगवान ही है। हर एक में परमात्मा नही बल्कि हर एक परमात्मा ही है। क्यों कि, परमात्मा को छोड़ कुछ है ही नही।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा।
उस जगत की वस्तुओं का अत्यावश्यक होनें पर ही उपयोग करो। त्याग पुर्वक भोग करो
मा गृधः ,कस्यस्वीत् धनम्। इस संसार में जो कुछ है सब परमात्मा ही है। परमात्मा ने हिरण्यगर्भ स्वरूप हो इनका सृजन किया; किन्तु उस हिरण्यगर्भ की रात्रि (नैमित्तिक प्रलय) में सब उसी में लीन होजाता है। सृष्टि हिरणण्गर्भ ही हो जाती है।
हम मरने पर सब यहीँ छोड़ जाते हैं यहाँ तक कि देह तक भी। तो किस चीज का लालच करें। यह धन कल किसी और का था, अभी हमारा है या किसी अन्य का है। कल फिर किसी ओर का हो जायेगा। तो लोभ क्यों। किसी के धन का लोभ न करें।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥..
कर्म करते हुए ही यानि स्वयम् को परमात्मा का मानकर और देहादि को जगत का मानकर जगत की सेवा करते हुए ही, सौ वर्ष जीनें की इच्छा करें। शरीर , इन्द्रियों, अन्तःकरण  (मन ,अहंकार, बुद्धि और चित्त), अभिकरण (तेज औरओज) और अधिकरण (प्राण/ देही और  जीव) को स्वस्थ्य रखें यह हमारा दायित्व है। यह शरीर यह जगत हमें सोंपा गया है, उसकी सुरक्षा और देखभाल हमारा दायित्व है। इसको छोड़ कर कोई ऐसा मार्ग नही है; जिससे तुझे कर्म का बन्धन (कर्म का लेप/लगाव) न हो। 
ईश आवास्यम् इदम सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा।मा गृधः ,कस्यस्वीत् धनम्।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥
ये उक्त चार बातें ज्ञान है। इस ज्ञान को जिसनें आचरण में ढाल लिया वह जीवित रहते ही मुक्त हो जाता है।
किन्तु अनन्त जन्मों में कर्मासक्ति (कर्म का लगाव, मेनें किया का भाव) और फलासक्ति (मैं भोग रहा हूँ या मेनें भोगा, मैं भोगूँगा का भाव) के कारण हुए कर्मों के संग्रह/ यानि संचित कर्मों का जितना और जो भाग इस जन्म में भोगने योग्य उदित हो चुका उस प्रारब्ध का भोग आवश्यक है। प्रारब्ध भोग पर्यन्त ही जीव की आयु होती है। अतः सद्योमुक्त आत्मज्ञ भी प्रारब्ध भोग के पश्चात ही देह त्याग करते हैं। तत्पश्चात जीवन मुक्त या सद्योमुक्त (सदेह मुक्त) हो विदेह जीव मृत्यु उपरान्त यहीँ परमात्मा में लीन हो जाता है। उसे कहीँ भी  किसी भी लोक में नही जाना होता। यही मौक्ष है।
उर्ध्व लोकों में नारायण, हिरण्यगर्भ आदि अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता), प्रजापति , इन्द्र आदि आजानज देव (जन्मजात देवता) और अश्विनी कुमार, मरुद्गण, धन्वन्तरि आदि कर्मदेव  (सत्कर्मों से देवता पद पर क्रमोन्नत) आदि देवादि योनियों में जन्म लेकर वैकुण्ठ, गौलोक, साकेत, ब्रह्म लोक, सत्यलोक, तपः लोक, जनः लोक, महर्लोक, स्वर्गलोक, भुवः लोक (अन्तरिक्ष में रुद्र, पितरः आदि), भू-लोक में (एल पुरुरवा जैसे दश विश्वैदेवाः आदि) के रूप में जन्म लेकर सुखभोग कर श्रेष्ठ कर्म करके पदोन्नत या क्रमोन्नत हो सकते हैं, ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो सकते हैं या नहूष जैसे वापस पतीत हो सकते हैं। यहाँ तक कि, तल, अतल, सुतल, तलातल, महातल या पाताल में असुर गन्धर्व, असुर यक्ष, नाग, असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, (यातुधान, ताल-बैताल, विनायक आदि) पिशाच योनियों में जन्म लेकर पाप कर्मों का भोग कर वापस मानव योनि में भूलोक में जन्म ले सकते हैं।
पुण्यों का फल उर्ध्व लोक में देवादि श्रेष्ठ योनियों में प्रारब्ध भोग तक निवास और कर्तव्य कर्म न करनें और निषिद्ध कर्म करनें के पाप का फल अन्धतम अधोलोकों में निम्न योनियों में जन्म ले प्रारब्ध भोग तक रहना पड़ता है। फिर प्रारब्ध समाप्ति पर पुनः भू-लोक में ही पुनर्जन्म होता है।
यदि पाप पुण्य बराबर हो तो तुरन्त ही भूलोक में ही पुनर्जन्म हो जाता है।
जीव बिना किसी योनि में जन्में मात्र दस दिन ही रह सकता है।और यम लोक तक की यात्रा बारह दिनों में पूर्ण कर कर्मभोगानुसार  योनि प्राप्त कर देहान्तर में पुनर्जन्म निश्चित है।
यातुधान, विनायक , ताल- बेताल आदि पिशाच योनि, राक्षस, दानव, दैत्य, असुर, नाग,यक्ष, गन्धर्व- किन्नर, पशु-पक्षी, पैड़ पौधे, मानव, देवता किसी भी योनि में भी तेरहवें दिन गर्भप्रवेश निश्चित है।
वेदिक धर्म / ब्राह्म धर्म में मरा हुआ जीव का शेष आयु पर्यन्त भूत / प्रेत योनि में भटकने का कोई उल्लेख नही है। यातुधान, विनायक, ताल- बेताल आदि पिशाच योनियों , राक्षस, असूर यक्ष, असूर गन्धर्व योनियों में जीवों के क्रियाकलाप ठीक वैसे ही होते हैं जैसे इस्लाम में जिन्न , जिन्नात के होते हैं। और पारसियों, यहुदियों, ईसाइयों और इस्लाम में भी तथाकथित अपवित्र आत्माओं (घोस्ट) के क्रियाकलाप होते हैं।  किन्तु उनमें पुनर्जन्म सिद्धान्त नही होने से वे लोग इन योनियों को भी मरा हुआ मानव का ही रूप मानते हैं। इसी प्रकार तथाकथित पवित्र आत्मा को फ़रिश्ते मानते हैं। 
स्वाध्याय के अभाव और दासत्व के कारण सनातन धर्मियों ने भी भूत और प्रेत दो नवीन अवधारणा विकसित करली। जबकि मूल वेदिक ग्रन्थों में ऐसा कोई उल्लेख ही नही है। क्योंकि, बिना शरीर कोई भी जीव क्षणमात्र भी नही रहता। भूत मतलब (भूमि,जन,अग्नि, वायु और आकाश) पञ्च महाभूत होता है। और मृत देह को प्रेत कहते हैं। 
दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप जीवात्मा की अधोलोकों में आसुरी योनियों (पिशाच, यातुधान, राक्षस, दानव, दैत्य, नाग,असुर यक्ष या असुर गन्धर्व योनि) में जन्म होता है। या जड़ योनि, वायरस, बैक्टीरिया,परजीवी, सुक्ष्म जीवी, फफुन्द, कवक, कीट, पतङ्ग, और रेंगनें वाले बिना रीड़ वाले जीवों में जन्म होता है।
कार्य कर्म (कर्तव्य कर्म) न करने वाले, निषिद्ध कर्म करनें वालों का जन्म नाग- सर्प, सुअर, कुत्ता, भेड़िया,  योनियों (वन्य जीवों) में जन्म होता है।
मिश्रित कर्मों का कमल, पाटल, केतकी, चम्पा, फल वट -पिपल, आम -आँवला, नीम - शमी आदि वनस्पति, मृग, गौ, या  रोगी, मान्सिक रुग्ण, अपङ्ग, विकलाङ्ग, दीन-हीन, दरीद्र, अतिकृपण, मानवों में होता है।
पुण्यात्मा, योगभ्रष्ट (जिसकी साधना अपूर्ण रह गई), पुरुष स्वर्गादि उर्ध्व लोकों में जन्म लेकर बादमें श्रीमान (राजा, सामन्त) या धनवान श्रेष्ठी परिवार में जन्म लेता है।
निष्काम कर्मयोगी, बुद्धियोगी, जिसका विवेक उदय हो चुका है, पञ्चाग्नि सेवी, पञ्च महायज्ञ कर्ता, अष्टाङ्ग योग सेवी के कर्तव्य शेष रह जाने पर वैकुण्ठादि में जन्म लेकर वहीँ से आत्मज्ञान लब्ध होकर मुक्त हो जाता है या लोक वास पश्चात विप्र (वेदज्ञ), और ब्राह्मण (आत्मज्ञ) के घर जन्म होता है। फिर इस जन्म में शेष कर्तव्य पूर्ण कर आत्मज्ञानी होकर सद्योमुक्त होता है।

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