बुधवार, 9 जून 2021

वैदिक सृष्टि उत्पत्ति के अन्तर्गत सृष्टिक्रम और सृष्टिकर्म तत्व वर्णन।

सृष्टिक्रम और सृष्टिकर्म तत्व वर्णन।

सृष्टिक्रम और सृष्टिकर्म

वेदिक मत पुरुष सूक्त के अनुसार सर्वप्रथम केवल परमात्मा ही था। परमात्मा ने ही अपने आप को ही सृष्टि के रूप में सृजित किया।
जो सम्पूर्ण सृष्टि में कुछ सोचा जा रहा है, व्यक्त किया जा रहा है, व्यक्त नहीं हो पा रहा है, दृष्य है, अदृष्ट है, हुआ है, हो चुका है, हो रहा है, होगा, सबकुछ परमात्मा ही है। अतः उसके बारे में न कुछ सोचा जा सकता है, न अभिव्यक्ति की जा सकती है, न कुछ किया जा सकता है। इस कारण वेदों में न इति, न इति अर्थात नेति-नेति कहते हैं।

परमात्मा में सृष्टि का संकल्प हुआ जो विश्वात्मा है। जो ॐ कहलाता है। परमात्मा और विश्वात्मा ॐ के बारे में भी कितना ही विचार किया जाए, व्यक्त किया जाए, कहा जाए सब अपूर्ण ही है। नेति-नेति।

परमात्मा के इस ॐ संकल्पके साथ ही (विश्वात्मा ॐ के अंशमात्र में) प्रज्ञात्मा हुआ जिसे आधिदैविक दृष्टि से परब्रह्म कहते हैं । 
यह तत्व शरीरस्थ आत्म तत्व (वास्तविक मैं) है, अधियज्ञ है, सनातन अक्षर है, कुटस्थ है, परम गति है, निर्गुण है, सर्वव्यापी हैं अतः निराकार है, क्षेत्रज्ञ है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप को समझने के लिए परम पुरुष और पराप्रकृति के रूप मे जानते/ समझते हैं। आधिदैविक वचनों में इन्हे ही दिव्य पुरुष विष्णु और माया कहते हैं। ये परमेश्वर हैं। अर्थात वास्तविक शासक हैं।
 ऋग्वेद और एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में विष्णु को परम पद कहा है। और कहा है कि, देवता भी विष्णु परम पद को (टकटकी लगाकर) देखते हैं।

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥ ऋग्वेद 1/22/20

विष्णु लिङ्ग अर्थात विष्णु का प्रतीक चिह्न शालिग्राम शिला है।
विष्णु के हाथ में नियति चक्र है । ऋग्वेदोक्त 90×4 =360 अरों का चक्र है। (चार गुणित नब्बे अर्थात 360अरोंं का संवत्सर चक्र है।)  तीनसौ साठ सायन सौर दिनों का संवत्सर ही नियति चक्र कहलाता है।

"चतुर्भि: साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत्। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमार: प्रत्येत्याहवम् ॥" ऋग्वेद 01/155/06
 यही संवत्सर चक्र काल है। (आगे बतलाया जायेगा कि जीवात्मा अपरब्रह्म को महाकाल कहते हैं। वे यही नियति चक्र हैं।)
विशेष - एक चित्रकार ने द्विभुज विष्णु के हाथ में जो चक्र बतलाया वह गेलेक्सी या ब्रह्माण्ड दिखता है। भगवान विष्णु की उङ्गली ब्लेकहोल में है और ब्लेकहोल के आसपास शनि के छल्लों के समान गेलेक्सी है।

सभी तत्वों के कर्म ऋत के अनुसार निर्धारित हैं। वे क्रमानुसार अपने कर्म में प्रवृत्त होते रहते हैं।
प्रज्ञात्मा तो विश्वात्मा में लीन रहती ही है। दृष्टाभाव से प्रत्यगात्मा के साथ रहते हुए भी असङ्ग ही रहती है।

सृष्टिकर्म को आगे बड़ने के क्रम में प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) स्वरूप में प्रकट किया। यह तत्व अधिष्ठान है अर्थात आधार है या कहें शासन है ।
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) को आधिदैविक दृष्टि से ब्रह्म कहते हैं। ये  विधाता है, ये ही महा-आकाश है। ये अधिदेव हैं, क्षेत्र हैं। प्रथम सगुण तत्व होने से सर्वगुण सम्पन्न हैं, कालातीत हैं, दृष्टा हैं। 
प्रत्यगात्मा ब्रह्म को पुरुष और प्रकृति के स्वरूप में जानते हैं। पुरुष अधिष्ठान है। इन्हें आधिदैविक दृष्टि से सवितृ और सावित्री कहते हैं। लोक में इन्हें  प्रभविष्णु कहते हैं। और  श्री लक्ष्मी इनकी शक्ति है। ध्यान मन्त्रों के आधार पर इन्हे  अष्टभुजा भूमा लेटे हुए और श्री देवी चँवर डुलाते और लक्ष्मी देवी चरण सेवा करते दिखाया जाता है। 
 प्रभविष्णु  और श्री लक्ष्मी अजयन्त देव (जन्मजात देवता) हैं।  ये महेश्वर कहे जाते हैं।
 सुचना - गुण- धर्म, सत्ता, साख, स्थाई सम्पत्ति, भूमि श्री का क्षेत्र है और चल सम्पत्ति रत्न, स्वर्ण, नगदी लक्ष्मी का क्षेत्र है। 

व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा यानी अन्तरात्मा।
प्रत्यगात्मा में (जीवभाव के बजाय) केवल प्रज्ञात्म भाव ही रहे तो प्रत्यगात्मा सद्योमुक्त अवस्था में ही आयु पर्यन्त रहते हुए सद्यो मुक्त ही देह त्यागता है। देह धारण कर आयु समाप्त होने पर जीवादि तत्व अपनें कारण प्रत्गात्मा में लय होजाते है। और प्रत्यगात्मा भी अपनें कारण प्रज्ञात्मा में लीन हो जाता है। अतः पूनर्जन्म की परम्परा का लोप हो जाता है।
किन्तु प्रत्गात्मा का झुकाव यदि जीव की ओर हो जाता है तो संचित कर्मों में से कर्म फल भोग हेतु प्रारब्ध का उदय होकर नवीन योनि में जन्म लेना पड़ता है।
विज्ञान की दृष्टि से समझने हेतु उदाहरण है कि, जैसे क्वाण्टा कण और तरङ्ग दोनों व्यवहार करता है। तरङ्ग रूप में रहे तो जीवन-मुक्त है और कण रूप में रहने पर पुनर्जन्म होता है।

इस प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म ने स्वयम् को जीवात्मा स्वरूप में प्रकट किया जीवात्मा   अधिकरण है।
जीवात्मा को आधिदैविक दृष्टि से अपर ब्रह्म कहते हैं। पुरुष सुक्त में उल्लेखित विराट यही है। ये स्वभाव (स्व भाव) हैं, अध्यात्म हैं, यही महाकाल है। प्रथम साकार तत्व, महा तरङ्गाकार हैं, प्रकृति जनित गुणों का भोक्ता होने से गुण सङ्गानुसार योनि में जन्मते हैं।  ये क्षर हैं, वेद वक्ता हैं।
जीवात्मा अपरब्रह्म को अपर पुरुष जीव और आयु त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति के रूप में जाना जाता है। जीव अधिकरण है। (दुसरा अधिकरण प्राण अर्थात चेतना अर्थात देही है।) अधिकरण मतलब मुख्य यन्त्र या प्रमुख इंस्ट्रूमेंट।
जिन्हे आधिदैविक दृष्टि से चतुर्भुज नारायण श्री हरि और नारायणी कमला (पद्मा) कहते हैं। ये जिष्णु भी कहलाते हैं मतलब स्वाभाविक विजेता या अजेय भी कहते हैं। नारायण श्री हरि अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं। ये जगदीश्वर कहे जाते हैं इनको शिशुमार चक्र (उर्सा माइनर) में क्षीर सागर में स्थित बतलाया जाता है। ध्यान मन्त्रों के आधार पर चित्रों में कमल पर स्थित नारायण श्री हरि और कमला लक्ष्मी एक ही कमल पर विराजित बतलाते हैं।

जिसकी आयु निश्चित है वह जीव। जिसके देह त्याग पर शरीर की मृत्यु हो जाती है। निर्धारित आयु जीव की ही विशेषता है। मानव आयु की गणना समय में करता है जबकि प्रकृति आयु गणना श्वाँसों की संख्या में करती है। इसी कारण प्राणायाम के फलस्वरूप धृति वृद्धि (प्राण की धारण करने की शक्ति में वृद्धि)  होनें से व्यक्ति दीर्घायु (चिरञ्जीवी) हो जाता है। मृत्यु के तत्काल बाद या तो उर्ध्व लोकों मे या अधो लोकों मे या भूमि पर ही नवीन योनि धारण कर लेता है। यात्रा में अधिकतम बारह दिन लग सकते हैं या अधिकतम दस दिनों तक तक जीव मृतदेह के आसपास रह सकता है और बारह दिन तक भूमि पर रह सकता है। इसलिए रुचि प्रजापति और महर्षि भरद्वाज आदि ने मृत्यु उपरान्त दस दिन का अशोच और बारह दिनों तक श्राद्ध कर्म का नियम बनाए।

इसी क्रम मे जीवात्मा अपरब्रह्म ने स्वयम् को भूतात्मा स्वरूप में प्रकट किया। 
भूतात्मा को आधिदैविक दृष्टि से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा कहा है। हिरण्यगर्भ की पत्नी (शक्ति) वाणी कहलाती है। पुरुषसूक्त के विश्वकर्मा यही हैं। ये  अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
ये महादिक हैं। इन्हे "क" भी कहते हैं। अभिभूत, अति विशाल आकार, दीर्घगोलाकार (लगभग अण्डाकार होने से पञ्चमुखी कहलाते हैं।) इनकी आयु दो परार्ध (इकतीस नील,दस खरब, चालिस अरब वर्ष) है। ये प्रथम अनुभव गम्य तत्व हैं। कास्मिक सूप से तुलना करें।
इन्हे समझने के लिए प्राण और धारयित्व अथवा चेतना और धृति अथवा देही और अवस्था के रूप में जाना जाता है। प्राण भी अधिकरण है। अर्थात मुख्य करण है।
आधिदैविक दृष्टि से इन्हें त्वष्टा और रचना कहते हैं। त्वष्टा भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं। ये ईश्वरीय सत्ता मे मात्र ईश्वर ही कहे जाते हैं। ये भौतिक जगत के रचियता हैं। ऋग्वेद के अनुसार त्वष्टा नें ब्रहाण्ड के गोलों को सुतार की भाँति घड़ा

जो बालक, कुमार, किशोर, युवा, अधेड़ वृद्धावस्था में परिवर्तनशील दिखता है वह प्राण ही देही और शरीरी कहलाता  है। शरीर से प्राण (देही) निकल जाने पर वापसी भी सम्भव है।  जबतक शरीर में प्राण है तभीतक आन्तरिक शारिरीक क्रियाएँ चलती है। शरीर में संज्ञान रहता है, शरीर सचेष्ट रहता है।

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) त्वष्टा-रचना के अलावा (2) सनक, (3) सनन्दन, (4) सनत्कुमार और (5) सनातन तथा (6) नारद , (7) प्रजापति, और (8) एकरुद्र हैं।
सुचना - इन अर्धनारीश्वर एकरुद्र ने ही कालान्तर में स्वयम् को नर और नारी स्वरूपों में अलग-अलग विभाजित  कर  शंकर और उमा के स्वरूप में प्रकट किया। बादमें शंकर ने स्वयम् को दश रुद्रों के रूप में प्रकट किया और उमा भी दश रौद्रियों के स्वरूप में प्रकट हुई। ये सब एकादश रुद्र कहलाये। अतःएव एकरुद्र भी प्रजापति आदि के तुल्य हैं और शंकरजी, दक्ष (प्रथम), रुचि  और कर्दम आदि  प्रजापतियों के तुल्य हुए। एवम् शेष दश रुद्र तो प्रजापति की सन्तानों (मरीचि, भृगु आदि) के तुल्य हुए।
 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा नें स्वयम् को सुत्रात्मा स्वरूप में प्रकट किया। 
सुत्रात्मा को आधिदैविक रूप से प्रजापति कहते हैं। क्योंकि ये जैविक सृष्टि के रचियता हैं। प्रजापति की पत्नी (शक्ति) सरस्वती कहलाती है। प्रजापति भी अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता) हैं।
 प्रजापति विश्वरूप (अर्थात ब्रह्माण्ड स्वरूप) हैं। इनकी आयु एक कल्प (चार अरब, बत्तीस करोड़, वर्ष) है। ये प्रथम जीव वैज्ञानिक तत्व हैं। विशाल अण्डाकार हैं।  लेकिन शीर्ष चपटे होने के कारण चतुर्मुख कहलाते हैं।
इसलिए पुराणों में कथा है कि, पहले ब्रह्मा के पाँच मुख थे उन्हीं से उत्पन्न रुद्र ने उनका एक सिर काट दिया तो उनके चार सिर रह गये। जबकि हिरण्यगर्भ  दीर्घ गोलाकार या लगभग अण्डाकार है इसलिए पञ्चमुखी कहे गए हैं और प्रजापति भी अण्डाकार हैं लेकिन शिर्ष चपटा होने से चतुर्मुखी कहे गए हैं।
ये देवताओं में सबसे वरिष्ठ होने से पितामह और महादेव कहलाते हैं। लेकिन शैवमत में एकरुद्र प्रजापति से पहले उत्पन्न होने के कारण महादेव मानेगये। (बादमें पुराणों में शंकरजी को महादेव कहने लगे।)
सुत्रात्मा प्रजापति को समझने की दृष्टि से ओज और आभा (Ora) या रेतधा और स्वधा कहा जाता है।
ओज (तीनों प्रजापति) अभिकरण है। (दुसरा अभिकरण तेज है।) अभिकरण अर्थात अधिनस्थ करण या निकटस्थ करण। अधिनस्थ औजार या इंस्ट्रूमेंट।
ओज को आधिदैविक दृष्टि से इन्हें मुख्यरूप से तीन प्रजापतियों की जोड़ी बतलाया गया है।
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा एवम् एक (3) देवर्षि नारद मुनि हैं अविवाहित होने से प्रजापति नहीं हैं।  
आठ भूस्थानी प्रजापति ये हैं (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और उनकी पत्नी प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। (ब्रह्मर्षि देश यानी हरियाणा में गोड़ देश अर्थात कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र) एवम इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए। 
 इन्द्र - शचि और  अग्नि - स्वाहा और नारद जी के अलावा निम्नलिखित स्वर्गस्थानी देवगण हुए 
 (12) रुद्र- रौद्री (शंकर - सति पार्वती) - रुद्र मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं।
(13) धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ । (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनके अलावा (14) पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। पितरः ने स्वयम् सप्त पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह  तीन निराकार और (४) अर्यमा, (५) अनल (६) सोम और (७) यम चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।

सुत्रात्मा प्रजापति नें स्वयम् को अणुरात्मा स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक रूप से ये वाचस्पति कहे जाते हैं। वाचस्पति की पत्नी (शक्ति) वाक कहलाती है। ये आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं।  इन्हें "ख" भी कहते हैं।
ये परमाणु तुल्य, परम अणु आकार हैं। आयु एक मन्वन्तर (तीस करोड़, सड़सठ लाख, बीस हजार वर्ष) है।
अणुरात्मा वाचस्पति को समझने के लिए इन्हे तेज और विद्युत के रूप में समझते हैं। जिन्हें आधिदैविक दृष्टि से इन्द्र और शचि कहते हैं।
(ओज के साथ) तेज भी अभिकरण है। अर्थात अधिनस्थ करण या निकटस्थ करण। अधिनस्थ औजार या इंस्ट्रूमेंट।
जबतक शरीर में ओज-आभा और तेज-विद्युत है तबतक शरीर  सक्रिय रहता है। 

आधिदैविक दृष्टि से ये द्युलोक में (1) (शतकृतु / शक्र) इन्द्र - शचि, (2) त्रिलोक में अग्नि-स्वधा, (3) भूवर्लोक (अन्तरिक्ष) में पितरः (पितृ अर्यमा) - स्वधा और (4) भूलोक में स्वायम्भुव सोम- वर्चा और मतान्तर से मनु- शतरूपा के रूप में जाने जाते है। इन्द्र आजानज देव (जन्मजात देवता) हैं। जबकि अग्नि वैराज देव (प्राकृतिक देवता) हैं।
कुछ विज्ञानियों के अनुसार यह तत्व वैज्ञानिक दृष्टि से कोशिकाओं के केन्द्रक में माइक्रोकोंण्ड्रिया में माना जा सकता है। किन्तु यह मत विश्वसनीय नही है।
ओज - आभा और तेज- विद्युत के कारण शरीर  सक्रिय रहता है। तेज मतलब शरीर की उर्जा। तन्त्रिकाओं में दोड़ने वाले रासायनिक सिगनल भी इसी तेज - विद्युत पर आधारित है।
 प्रजापति के ब्रह्मज्ञानी शिश्य इन्द्र-शचि देवेन्द्र और  देवराज हैं। इन्द्र के अधीन (द्वादश) आदित्य गण, (अष्ट) वसुगण, (एकादश) रुद्रगण हैं।
(1) प्रजापति, (2) इन्द्र, (3 से 14 तक) द्वादश आदित्य, (15 से 22 तक) अष्ट वसु तथा (23 से 33 तक) एकादश रुद्र मिलकर तैंतीस देवता कहलाते हैं। कुछ लोग इन्द्रसभा में प्रजापति और इन्द्र के स्थान पर (1) दस्र और (2) नासत्य नामक अश्विनीकुमारों को रखकर इन्द्रसभा के तैंतीस देवता मानते हैं।
प्रजापति अजयन्त देव हैं और इन्द्र आजानज देव है। और शेष इकतीस देवता वैराज देव हैं।

(2) अग्नि-स्वधा - द्यु स्थानी देवता होते हुए भी  स्वः में सूर्य, भूवः में विद्युत (तड़ित) और भूः में सप्तज्वालामय अग्नि के रूप में प्रकट होने वाले स्वर्ग अन्तरिक्ष और भू लोक में  व्याप्त है।

(3) सप्त पितरः अन्तरिक्ष स्थानी देवता हैं।- 
(1) अर्यमा पितरों के प्रमुख हैं। अर्यमा आदित्य भी हैं।  (2)  अनल कहीँ-कहीँ अग्निक नाम भी आता है। अनल /अग्नि वसु भी हैं।  और त्रिलोकी में व्यापक हैं। (3) सोम इनका वास मृगशीर्ष नक्षत्र में है। ये वसु भी हैं।  (4) यम (यम मनु पुत्र होकर मानवों में प्रथम मरने वाले, मृत्यु के स्वामी के रूप में नियुक्त हैं।) (1) अर्यमा, (2) अनल, (3) सोम और (4) यम ये चारों साकार पितरः हैं। इनके अलावा ये तीन निराकार पितर हैं।
(5) अग्निष्वात कहीँ-कहीँ  अग्निष्वाताः और कहीँ-कहीँ साग्निक नाम भी आता है,  (6) बहिर्षद और (7) कव्यवाह  ये तीनों निराकार हैं।

(4) सोम राजा - वर्चा या स्वायम्भुव मनु- शतरूपा भूलोक के इन्द्र ही हैं, इन्द्र के साथ ही उत्पन्न होते और इन्द्र के साथ ही लय भी होते हैं तथा भूस्थानी प्रजापति भी हैं। स्वायम्भूव मनु की सन्तान मनुर्भरत (राजन्य / क्षत्रिय) कहलाती है। इनका राज्यक्षेत्र यों तो समुचि भूमि ही थी। लेकिन इनका वासस्थान या राजधानी क्षेत्र पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू, कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, सिन्ध, बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ईरान तक था ।

"सुत्रात्मा  (एवम्  अणुरात्मा) आनन्दमय कोष एवं कारण शरीर  कहलाते है।"
 
अणुरात्मा से विज्ञानात्मा हुआ जिसे आधिदैविक में ब्रह्मणस्पति कहते हैं। ब्रह्मणस्पति की पत्नी (शक्ति) सुनृता है। ये भी सुक्ष्मातिसुक्ष्म होकर सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहते हैं।
इसे चित्त और चेत या चित्त और वृत्तियों के रूमें समझा जा सकता है। चित्त में ही सारे संस्कार, प्रत्येक घटना अंकित रहती है। अन्तःकरण चतुष्ठय (चित्त, बुद्धि, अहंकार और मन) का यह प्रथम तत्व है।
 आधिदैविक दृष्टि से इन्हे इनकी शक्तियों सहित द्वादश आदित्य   (1) विष्णु, (2) सवितृ, (3) त्वष्टा, (4) इन्द्र, (5) वरुण, (6) विवस्वान, (7) पूषा, (8) भग, (9) अर्यमा, (10) मित्र, (11) अंशु और (12) धातृ) के नाम से जाना जाता है। 
(सुचना --- इन विष्णु की पत्नी महर्षि भृगु की पुत्री श्री लक्ष्मी है। और इन्द्र पत्नी को भी शचि ही कहा जाता है। इससे भ्रम उत्पन्न होता है।)
भूमि पर आदित्यों का वासस्थान कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, तिब्बत, तुर्किस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, पश्चिम चीन और युक्रेन तक था। विवस्वान की सन्तान वैवस्वतमनु नें अयोध्या को राजधानी बनाया।
उपनिषदों का महत और सांख्य दर्शन का  महत्तत्व (महत् तत्व) चित्त ही है। हृदयस्थ बुद्धि गुहा में अतिसुक्ष्म  चित्त का निवास माना जाता है। किन्तु कुछ विज्ञानियों के अनुसार यह तत्व वैज्ञानिक दृष्टि से कोशिकाओं के केन्द्रक (Nucleus) में माना जाता  है। क्योंकि, हृदय (Heart) नामक संस्थान केवल मानवादि विकसित जीवो में ही पाया जाता है। हृदय प्रत्यारोपण (Heart replacement) की स्थिति में अन्तःकरण चतुष्टय का क्या होगा? इस प्रश्न का कोई समाधान नही निकलता। 
वस्तुतः ये सब तत्व वैशेषिक के परमाणु अर्थात इलेक्ट्रॉन,फोटॉन आदि मूल कणों का भी मूल  परम अणु में स्थित हैं। क्योंकि, तथाकथित जड़ योनियों में भी ये समस्त तत्व होते हैं। मात्रात्मक अन्तर से सक्रीयता और चेतन्य दिखता है। किन्तु कम हो या ज्यादा पर सभीमें होता ही है ।

जबतक चित्त स्थिर है, चित्त में तरङ्ग नही उठ रही तब तक शरीर समाधिस्थ है।
जैसे ही तरङ्गे लहराने लगे/उठनें लगे जागृत कहलाता है।
तरङ्गे तो है, लेकिन ताल में है तो तन्द्रावस्था।
तरङ्गे बहूत मन्द मन्द हैं तो निन्द्रा /सुषुप्ति अवस्था। 
यदि तरङ्गे बे तरतीब हो तो अशान्त चित्त होता है। विक्षिप्त कहलाता है।

विज्ञानात्मा से ज्ञानात्मा हुआ। ज्ञानात्मा अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं। विज्ञानात्मा के लिए देह के समान है।
 ज्ञानात्मा अधिदेवता ब्रहस्पति हैं। ब्रहस्पति की तीन पत्नियाँ (शक्ति) है१ शुभा, २ ममता और ३ तारा। 
इसे बुद्धि और बोध या बुद्धि और मेधा के रूप में समझा जाता है। आधिदैविक दृष्टि से इन्हे शक्तियों सहित अष्ट वसु [(1) प्रभास, (2) प्रत्युष, (3) धर्म, (4) ध्रुव, (5) अर्क, (6) अनिल, (7) अनल और (8) अप् )] और के नाम से जाना जाता है।
वसुगण मूलतः आदित्यों के सहचारी रहे लेकिन इनकी सन्तान पूर्ण भारतवर्ष में फैल गई।

केवल नापतोल आदि मापन का विश्लेषण कर बुद्धि चित्त को सुचनाएँ देती है। चित्त जब संस्कार रूप तदाकार वृत्ति से तुलना कर निर्णय करता है कि, यह क्या पदार्थ या वस्तु है। तब, तदानुसार ओज निर्णय करता है कि, इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया देना है और कार्यादेश का सिगनल तेज को भेजदेता है।

"विज्ञानात्मा (एवं ज्ञानात्मा ) विज्ञानमय  कोष एवं सुक्ष्म शरीर कहलाते हैं।"

ज्ञानात्मा से लिङ्गात्मा हुआ । लिङ्गात्मा भी अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं। ज्ञानात्मा के लिए देह के समान है। लिङ्गात्मा को आधिदैविक दृष्टि से पशुपति के नाम से जाना जाता है।  हिरण्यगर्भ के प्रथम मानस पुत्र एकरुद्र  का तपस्या से जब उत्थान हुआ तब उन्हें पशुपति पद सोपा गया।
लिङ्गात्मा पशुपति को अहंकार और अस्मिता के रूप में समझा जा सकता है। इन्हे आधिदैविक दृष्टि से शंकर और उमा के रूप में जानते हैं; जिनने स्वयम्  शक्तियों/ रौद्रियों सहित एकादश रुद्र [(1) हर, (2) त्र्यम्बकं, (3) वृषाकपि, (4) कपर्दी, (5) अजैकपात, (6) अहिर्बुधन्य, (7) अपराजित, (8) रैवत, (9) बहुरूप, (10) कपाली और (11) शम्भु (शंकर))] के रूप में प्रकट किया।  ये अधिकांशतः कैलाश से टर्की तक, और अफ्रीका महाद्वीप कै उत्तर पूर्व में फैलेहुए थे।
(एकादश रुद्र भी कई प्रकार के हैं। इसलिए इन्हे आदि एकादश रुद्र लिखा है।)

अहङ्कार उसमें अहन्ता- ममत्व (मैं - मेरा) जोड़ कर क्रियाओं का स्वरूप में तो कोई परिवर्तन नही करता। किन्तु अहंकार क्रियाओं में अहन्ता - ममता (मैं-मेरा) जोड़कर क्रिया को कर्म में परिवर्तित कर देता है।
कर्म के हेतु, आशय और उद्देश्य के अनुरूप संस्कार बनकर चित्त के स्वरूप में विकृति उत्पन्न करता है। जिसका प्रभाव देही (प्राण) पर भी पड़ता है। जीव के जन्म मृत्यु का कारण ये कर्म ही होते हैं।

लिङ्गात्मा से मनसात्मा  हुआ। मनसात्मा भी अङ्गुष्ठ तुल्य,अङ्गुष्ठ आकर के हैं।  लिङ्गात्मा के लिए मनसात्मा देह के समान है।
मनसात्मा को आधिदैविक दृष्टि से गणपति कहते हैं। गणपति की पत्नियाँ (शक्ति) ऋद्धि और सिद्धि कही जाती है।  प्रमथ गणों के गणपति विनायक को गणाधिपति शंकर जी नें रुद्रगणों का गणपति पद पर नियुक्त किया । और निधिपति के पद पर कुबेर को नियुक्त किया जबकि, गणानान्त्वाम्ँ गणपति हवामहे वाले ये गणपति सभी गणों के अध्यक्ष हैं। निधिपति भी हैं, प्रियपति भी हैं अर्थात स्वयम् शंकर ही हो सकते हैं; विनायक नही। इनकी तुलना राष्ट्रपति से कर सकते हैं। अतः सोम राजा और वर्चा या मतान्तर से स्वायम्भूव मनु और शतरूपा प्रथम गणपति रहे।
मनसात्मा गणपति को मन और संकल्प के रूप में समझ सकते है। मन की संकल्प शक्ति के बराबर और विपरीत विकल्प शक्ति भी है। विकल्प भी सृष्टि संचालन में आवश्यक तत्व है। किन्तु विवेक (निश्चयात्मिका बुद्धि) के अभाव में संकल्प की दृढ़ता न होनें पर यही विकल्प पारसी धर्म का शैतान कहलाता है।
आधिदैविक दृष्टि से मन और संकल्प विकल्प का अधिदेवता अन्तरिक्ष में सप्तवीश नक्षत्र के रूप में सोम राजा  या वैवस्वत मनु को जाना जाता है। सोम का वास मृगशीर्ष नक्षत्र में है। जैसे श्रोत्रियों/वैदिको के मुख्य देवता नारायण हैं ऐसे ही मिश्र के मुख्य देवता सोम हैं। ऐसा माना जाता है कि, अवेस्ता के होम मूलतः वैदिक देवता सोम ही हैं। सेमेटिक वंश सोमवंश भी कहलाता है। जबकि भूस्थानीय स्वायम्भूव मनु और शतरूपा (या मन्वन्तर के मनु) मन और संकल्प के अधिदेवता हैं।

मन उस कर्म के प्रति अपनें सङ्कल्प विकल्प तैयार कर अगली क्रियाओं के लिये मान्सिकता तैयार कर लेता है। जो रिफ्लेक्स के रूप में प्रकट होती है। 
तब मस्तिष्क की तन्त्रिकाएँ कर्मेन्द्रियों को व्यवहार करनें के सिगनल दे देती है। लेकिन चेहरे के हावभाव बदलदेता है जिससे देखनें वालों को वह क्रिया कर्म के रूप में समझ आनें लगती है।और देखने समझने वाले तदनुसार प्रतिक्रिया करते हैं।

(लिंगात्मा एवं) मनसात्मा मनोमय कोष एवं लिंग शरीर कहलाते हैं।

मनसात्मा से "स्व" हुआ। स्व अङ्गुष्ठ तुल्य पुरुषाकृति है। मनसात्मा के लिए स्व देह के समान है।
 मनसात्मा को सदसस्पति (सभापति) के रूप में जानते हैं। लोकसभा अध्यक्ष से इनकी तुलना हो सकती है।
स्व की शक्ति "स्वभाव" है।  "स्वभाव" का अधिदेवता मही देवी हैं। भूमि को भी मही कहा जाता है। भू देवी को वराह की पत्नी भी कहते हैं 
स्व और स्वभाव तत्व भौतिकि के डार्क मेटर  (Dark  matter)  और डार्क इनर्जी (Dark Energy) से भी मैल रखते हैं और भौतिकि  की सिंग्युलरिटी (Singularity) और इनर्जी Energy से भी स्व और स्वभाव की तुलना कर सकते हैं। पर इसका अर्थ यह नही कि, ये यही भौतिक तत्व हैं।

"शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती। इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञिया: ॥" ऋग्वेद 01/142/09
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः।। ऋग्वेद 01/13/09

 स्वभाव तीन स्वरूप में विभक्त हुआ ---
(1) वैकारिक स्वभाव अर्थात स्वाहा (स्व का हनन या समर्पण)स्वाहा का अधिदेवता भारती देवी  हैं। यह भौतिकि विज्ञान की दृष्टि से यह आधिदैविक शक्ति कहाती है। मनोविज्ञान में इसे में सुपर ईगो कहते है।

(2) तेजस स्वभाव या वषटकार (मस्तिष्क सम्बन्धी/ वैचारिक) का अधिदेवता सरस्वती देवी है। भौतिकि में अध्यात्मिक शक्ति और मनोविज्ञान में यह ईगो कहाता है। येही  मान्सिकता शक्ति (क्षमता) (willpower) है।

(3) भूतादिक स्वभाव अर्थात स्वधा (स्व को धारण करना है अर्थात स्वार्थ) का अधिदेवता ईळादेवी हैं। मनोवैज्ञानिक इड (Id) और भौतिकि की कास्मिक ईनर्जी (Cosmetic Energy) की तुलना स्वधा से कर सकते हैं।

(1) सात्विक स्वभाव / स्वाहा भारती से अधिदेव हुआ का अधिदेव का अधिदेवता अष्टादित्य [ (1)मार्तण्ड {विवस्वान}, (2) इन्द्र, (3) वरुण, (4) मित्र, (5) धाता, (6) भग, (7) अंश और (8) अर्यमा)] हैं इसे भौतिकि में दृष्य़ आकाश (Sky)  और मनोविज्ञान में साक्षात या प्रत्यक्ष अनुभूति (कांशियस Councious) कहते है। (कृपया इसे चेतना न समझें। चेतना प्राण को कहते हैं‌।)

(2) राजसी स्वभाव/ वषट सरस्वती से अध्यात्म हुआ जिसे दुसरे अष्ट वसु [(1) द्रोण, (2) प्राण, (3) ध्रुव, (4) अर्क, (5) अग्नि (6) दोष, (7) वसु और (8) विभावसु )] कहते हैं। ये पूर्वकथित अष्ट वसु से भिन्न हैं। इसे भौतिकि में समय (Time) या तथा मनोविज्ञान का आंशिक प्रकट या तन्द्रा (सब कांशियस Subcouncious) कहते है।

(3) तामसी स्वभाव/ स्वधा/  ईळा से अधिभूत हुआ। अधिभूत का अधिदेवता दुसरे एकादश रुद्र [(1) मन्यु, (2) मन , (3) महिनस, (4) महान, (5) शिव, (6) उग्ररेता, (7) भव, (8) काल, (9) वामदेव, (10) धृतवृत और (11) मृगव्याध या मतान्तर] से अन्य नाम [(1) सर्प, (2) निऋति,(3) पिनाकी, (4) कपाली, (5) स्थाणु, (6) ईशान नाम और (7) दहन भी।] हैं। जो पूर्व कथित एकादश रुद्रों से भिन्न हैं। इसे भौतिकि में अन्तरिक्ष (Spece) और मनोविज्ञान में परोक्ष या सुप्त (अन् कांशियस Uncouncious) कहते हैं। 

(1) अधिदेव को हम पञ्च मुख्य प्राण और पञ्च उपप्राण  [(1) उदान -देवदत्त, (2) व्यान - धनञ्जय, (3) प्राण - कृकल, (4) समान - नाग, (5) अपान -कुर्म)]   के रूप में जानते हैं। इनके अधिदेवता द्वादश तुषितगण [(1) बुद्धि, (2) मन, (3) उदान, (4) व्यान, (5) प्राण, (6) समान, (7) अपान, (8) श्रोत, (9) स्पर्ष, (10) चक्षु,  (11) रसना और (12) घ्राण ] के रूप में भी जाने जाते हैं। 
2 अध्यात्म को हम पञ्चज्ञानेन्द्रिय तथा पञ्च कर्मेन्द्रिय  [(१)श्रोत - वाक (कण्ठ) , (२) त्वक - हस्त , (३) चक्षु - पाद , (४) रसना - उपस्थ (शिश्न या भग) और (५) घ्राण - पायु (गुदा)]   के रूप में जानते हैं। 
अध्यात्म के अधिदेवता शक्तियों सहित दुसरे उनचास मरुद्गण है। 
उनचास मरुद्गणों में सात प्रमुख माने गये हैं 
(1) आवह, (2) प्रवह, (3) संवह, (4) उद्वह, (5) विवह, (6) परिवह और (7) परावह है। ये सातों सैन्य प्रमुख के समान गणवेश धारण करते है। इनके प्रत्येक के छः छः स्वरूप (या पुत्र) अर्थात बयालीस मिलाकर उनचास मरुद्गण हुए।
 ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप देवता श्रेणी में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।

(3) अधिभूत को हम पञ्च महाभूत और पञ्च तन्मात्रा [(1)आकाश -शब्द, (2) वायु - स्पर्ष, (3) अग्नि - रूप, (4) जल - रस और (5)  भूमि - गन्ध ] के रूप में जानते हैं।
तन्मात्राओं का सम्बन्ध उर्जाओं से जोड़ा जा सकता है --[(1) शब्द -ध्वनि से, (2) स्पर्ष विद्युत से, (3) रूप प्रकाश से सीधे सम्बंधित हैं, (4) रस  का सम्बन्ध भी पकानें के रूप में  ऊष्मा से लगता है।   किन्तु (5) गन्ध का ही सीधा सम्बन्ध चुम्बकत्व नही दिखता है )] 
 दुसरे एकादश रुद्रों का ही स्वरूप इनके अधिदेवता अनेकरुद्र (विशेले कीट पतङ्ग, सर्प, बिच्छू, घोघा (कपर्दी) और सीपी (युनियो, पाईला),  सिंह, व्याघ्र आदि हिन्सक प्राणी, आतंकी, गुण्डे, बदमाश, चोर, उचक्के, डाकु, लुटेरे, वनवासी, पुलिस, सेना आदि रुलाने वाले सभी अनेकरुद्र हैं।)

(1) अधिदेव (अष्टादित्य) से कारण-शरीर हुआ कारण - शरीर के आधिदैवता  द्वादश साध्यगण[ (1) मन, (2) अनुमन्ता, (3) प्राण, (4) अपान, (5) विति , (6) हय, (7) हन्स, (8) विभु, (9) प्रभु, (10) नय, (11) नर और (12) नारायण )]  हैं। 
कारण शरीर को हम हटयोग और तन्त्रमत के चार् मुख्य चक्र और चार उप चक्र [(1) ब्रह्मरन्ध्र चक्र - आज्ञा चक्र, (2) अनाहत- विशुद्ध चक्र, (3) मणिपुरचक्र - स्वाधिस्ठानचक्र और  (4) मूलाधार चक्र - कुण्डलिनी)]  के रूप में जानते हैं। कुण्डलिनी को चक्र नाम नही दिया गया किन्तु चक्रों से सीधा सम्बन्ध कुण्डलिनी को उपचक्र के रूप में ही दर्शाता है। चक्रों के अधिदेवता चौरासी सिद्धगण हैं।

(2) अध्यात्म (द्वितीयअष्टवसु) से सुक्ष्म शरीर हुआ जिसके अधिदेवता प्रभास वसु और (ब्रहस्पति की बहन) वरस्त्री के पुत्र देवशिल्पी विश्वकर्मा हैं।
सुक्ष्म शरीर  को हम  संस्थान और तन्त्र के रूप में जानते हैं।[(1)मस्तिष्क - तन्त्रिका तन्त्र, (2) हृदय - श्वसन तन्त्र, (3) यकृत - पाचन तन्त्र और (4) लिङ्ग - जनन तन्त्र) के रूप में जानते है।] इन ग्रन्थियों / अङ्गो - तन्त्रों के अधिदेवता (शुक्राचार्य के पुत्र) त्वष्टा हैं।

(3) अधिभूत (अष्टमूर्ति एकादश रुद्र) से लिङ्ग शरीर हुआ। लिङ्ग शरीर के अधिदेवता यह्व ( महादेव) हैं। ऋग्वेद में अग्नि को भी यह्व कहा है।(यह्व का मतलब महादेव है।) यह्व शब्द से ही यहुदियों के परमेश्वर यहोवा या याहवेह (शब्द) बना है।
लिङ्गशरीर को हम अष्ट सिद्धि (चार मुख्य सिद्धि एवम चार उप सिद्धि)  [(1) ईशित्व- वशित्व, (2) अणिमा-लघिमा, (3)  महिमा- गरिमा और (4) प्रकाम्य - प्राप्ति) के रूप में जानते हैं। सिद्धियों के अधिदेवता अष्ट विनायक हैं। [(1)सम्मित-उस्मित, (2) मित- देवयजन, (3) शाल - कटंकट और (4) कुष्माण्ड - राजपुत्र हैं] ये आठों पिशाच हैं और शिवगण हैं।)  
(सुचना - ये मूलतः पिशाच हैं। ये शुभकार्यों में विघ्नकर्ता ग्रह (ग्रसने वाले) हैं। तन्त्र में विनायक शान्ति प्रयोग द्वारा विघ्नबाधाएँ दूर करनें का विधान है। )

1 कारण-शरीर (साध्यगण) से सुशुम्ना (नाड़ी) हुई। सुशुम्ना के अधिदेवता दस  विश्वैदेवगण (विश्वैदेवगणों के प्रमुख प्रचेताओं के पुत्र और सति के पिता, शंकरजी के श्वसुर दक्ष द्वितीय हैं।)
दस विश्वैदेवगण - [(1) दक्ष (द्वितीय), (2) कृतु, (3) सत्य, (4) काल (यम), (5) काम, (6) मुनि, (7) एल पुरुरवा, (8) श्रव, (9) रोचमान, (10) आर्द्रवान हैं।

(2) सुक्ष्मशरीर से पिङ्गला (नाड़ी) हुई। पिङ्गला के अधिदेवता शुक्राचार्य के पौत्र , त्वष्टापुत्र त्रिशिरा विश्वरूप हैं। जो देवताओं के पुरोहित होकर भी चुपके से असुरों को यज्ञभाग देते थे। जिनका वध इन्द्र नें किया था। ये वत्रासुर के अग्रज भाई थे।

(ईळा से ईड़ा तक के क्रम में।)   
(3) लिङ्ग शरीर (यह्व) से ईड़ा (नाड़ी) हुई। ईड़ा के अधिदेवता ईला नामक रौद्री के पुत्र  एल भैरव हैं। ( या वैवस्वतमनु की पुत्री ईला और बुध के पुत्र  एल पुरुरवा हैं)। 
(यहुदियों में एल शब्द ईश्वरवाचक है। तथा इला से इलाही और एल से अल और अल से ही अल्लाह शब्द बना है। भैरव और अल्लाह दोनों उग्र (जलाली) और शीघ्र प्रसन्न होने वाले (रहीम  और करीम) भी हैं। (ह्रीम् क्लीम् / क्रीम्  से तुलना करें)

(1)सुशुम्ना (2) पिङ्गला और (3) ईड़ा का संयुक्त संघात ही ---
 पिण्ड (पदार्थ) है जिसे भौतिकि में एलिमेण्ट का एटम कहते हैं। जीव विज्ञान में कोषिका ( सेल Cell) कहते हैं। तथा मेडिकल साइन्स की दृष्टि से तन (शरीर) है।
इस प्रकार परमात्मा ने स्वयम् को सृष्टि के रूप में प्रकट किया।

तत्व मीमांसा प्रकरण में उक्त आलेख का आधार ऋग्वेद एवं यजुर्वेद सामवेद और विशेषकर मुख्य रुप से उनके निम्नलिखित  सुक्त हैं -
ऋग्वेद का पुरुष सूक्त, (यजुर्वेद का अध्याय ३१ उत्तर नारायण सुक्त सहित पुरुष सूक्त), नासदीय सुक्त और  अस्यवामिय सुक्त और ,श्री सुक्त, लक्ष्मी सुक्त,और देवी सुक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां और बत्तीसवां और चालिसवां अध्याय में  वर्णित  सृष्टि रचना  विवरण  एवम् वर्णन ;
और निम्नांकित ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद / ब्राह्मणोपनिषद / आरण्यकोपनिषदों  में  प्रमुख ब्रह्म सुत्र (अर्थात उपनिषद) ये हैं -
ईशावास्योपनिषद (शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अन्तिम / चालिसवां अध्याय), श्वेताश्वतरोपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय) , केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद,  एतरेयोपनिषद, तैत्तरियोपनिषद, मण्डुकोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद, कौशितकी ब्राह्मणोपनिषद और इन ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों के आधार पर रचित पुर्व मिमांसा दर्शन , उत्तर मिमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र) के अलावा सांख्य कारिकाएँ, कपिल का सांख्य दर्शन, पतञ्जली का योग दर्शन, अक्षपाद गोतम का न्याय दर्शन, कणाद का वैशेषिक दर्शन में  वर्णित  सृष्टि रचना  विवरण।
इसके अलावा स्वभाव के बाद के विवरण हेतु  इसमें विष्णु पुराण, (भागवत पुराण), तन्त्र शास्त्रों, भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान की शब्दावली हेतु सम्बन्धित शास्त्रों से जानकारी जुटाई गई है।
विशेष --- विष्णु पुराण महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के पिता महर्षि पराशर की रचना मानी जाती है, इसलिए इसे सबसे प्राचीन पुराण माना जाता है।
क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
 अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है।
इसलिए पुराणों में ऐतिहासिक महत्व विष्णु पुराण का अधिक है।

आगे कर्म मीमांसा और ज्ञान मीमांसा में कई प्रकरणों को समझने के लिए भूमिका रूप में इस जानकारी को स्मरण रखना आवश्यक है। यथा ---
 श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण नें भी कहा है कि, सांख्यदर्शन के अनुसार यह माना जाना जाता है कि, विश्व के समस्त कर्म और भोग वास्तव में प्रकृति के सत्व, रज, तम इन त्रिगुणों का पारस्परिक अन्तःसम्बन्ध और आपसी व्यवहार  ही होते हैं। अर्थात त्रिगुणों के पारस्परिक अन्तःसम्बन्ध और आपसी व्यवहार को हम भ्रम वश ही स्वयम् द्वारा किये गये कर्म मे अपना अहम् जोड़ कर स्वकर्म समझ बैठते हैं और इन्ही के द्वारा भोगे जाने की क्रियाओं को स्वयम् द्वारा भोगे जाने वाले भोग मानते रहते हैं। यही बन्धन है। और इसका विवेक होना ही निर्वाण है।
त्रिगुण संयोजन ठीक ऐसा ही है जैसे लाल, हरा और बैंगनी रंगों के समायोजन से ही अगणित सभी रंग बने हैं। और लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई से ही सभी आकार बने हैं।
मतलब हम जो आकार देख रहे हैं वह मात्र  त्रिआयामी संरचना मात्र है। पदार्थों के जो रंग देख रहे हैं वह मात्र तीन रंगों का समायोजन भर है। और जो कर्म और भोग देख रहे हैं वह मात्र प्रकृति के त्रिगुणों का आपसी व्यवहार मात्र है।
इस प्रकार की ज्ञान मीमांसा तैयार की जा रही है।

मंगलवार, 1 जून 2021

मौक्ष और गतियाँ।

ऋते ज्ञानानमुक्ति।
ऋत यानि परमात्मा का प्राकृत विधान को जानने पर ही समस्त राग (प्रियता) और द्वेष (अप्रियता), मैं - मेरा (अहन्ता - ममता) समाप्त हो पाती है। 
( मात्रत्व और वात्सल्य भाव देवीय प्रवृत्ति हैं। ममता मतलब मेरापन भाव मैं से उपजा है। अतः ममता उचित नही है। यह आसुरी प्रवृत्ति है।)
आत्म ज्ञान ही मौक्ष है। 
प्रज्ञानम् ब्रह्म।
अयम् आत्मा ब्रह्म।
तत् त्वम असि। (वह ब्रह्म तुम हो। पर तुम ही नही, अपितु तुम भी वह ब्रह्म ही हो।)
अहम् ब्रह्म अस्मि । (मैं ब्रह्म हूँ। पर मैं ही नही बल्कि मैं भी ब्रह्म ही हूँ।)
सर्व खलु इदम् ब्रह्म। ख मतलब आकाश। आकाश आदि जो कुछ भी है सब ब्रह्म ही है। क्योंकि, परमात्मा ने स्वयम् को ही जड़ - चेतन जगत (पदार्थ और जीवों) के स्वरूप में प्रकट किया। अतः  वास्तविक मैं  (परम आत्म)  परमात्मा  के अलावा कुछ है ही नही। हमारी सबकी वास्तविकता तो परमात्मा ही है।
जैसे सोने के आभूषण हो या ईंट  है तो सोना ही। बर्फ हो, पानी हो या भाप हो है तो पानी ही। वैसे ही सबकुछ परमात्मा ही है।
ईश आवास्यम् इदम सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
 (इस जगत में जो कुछ है उन सबको ईश से ही आच्छादित / व्याप्त  जानलो।)
कण कण में भगवान नही बल्कि, कण कण भगवान ही है। हर एक में परमात्मा नही बल्कि हर एक परमात्मा ही है। क्यों कि, परमात्मा को छोड़ कुछ है ही नही।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा।
उस जगत की वस्तुओं का अत्यावश्यक होनें पर ही उपयोग करो। त्याग पुर्वक भोग करो
मा गृधः ,कस्यस्वीत् धनम्। इस संसार में जो कुछ है सब परमात्मा ही है। परमात्मा ने हिरण्यगर्भ स्वरूप हो इनका सृजन किया; किन्तु उस हिरण्यगर्भ की रात्रि (नैमित्तिक प्रलय) में सब उसी में लीन होजाता है। सृष्टि हिरणण्गर्भ ही हो जाती है।
हम मरने पर सब यहीँ छोड़ जाते हैं यहाँ तक कि देह तक भी। तो किस चीज का लालच करें। यह धन कल किसी और का था, अभी हमारा है या किसी अन्य का है। कल फिर किसी ओर का हो जायेगा। तो लोभ क्यों। किसी के धन का लोभ न करें।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥..
कर्म करते हुए ही यानि स्वयम् को परमात्मा का मानकर और देहादि को जगत का मानकर जगत की सेवा करते हुए ही, सौ वर्ष जीनें की इच्छा करें। शरीर , इन्द्रियों, अन्तःकरण  (मन ,अहंकार, बुद्धि और चित्त), अभिकरण (तेज औरओज) और अधिकरण (प्राण/ देही और  जीव) को स्वस्थ्य रखें यह हमारा दायित्व है। यह शरीर यह जगत हमें सोंपा गया है, उसकी सुरक्षा और देखभाल हमारा दायित्व है। इसको छोड़ कर कोई ऐसा मार्ग नही है; जिससे तुझे कर्म का बन्धन (कर्म का लेप/लगाव) न हो। 
ईश आवास्यम् इदम सर्वम्, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा।मा गृधः ,कस्यस्वीत् धनम्।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥
ये उक्त चार बातें ज्ञान है। इस ज्ञान को जिसनें आचरण में ढाल लिया वह जीवित रहते ही मुक्त हो जाता है।
किन्तु अनन्त जन्मों में कर्मासक्ति (कर्म का लगाव, मेनें किया का भाव) और फलासक्ति (मैं भोग रहा हूँ या मेनें भोगा, मैं भोगूँगा का भाव) के कारण हुए कर्मों के संग्रह/ यानि संचित कर्मों का जितना और जो भाग इस जन्म में भोगने योग्य उदित हो चुका उस प्रारब्ध का भोग आवश्यक है। प्रारब्ध भोग पर्यन्त ही जीव की आयु होती है। अतः सद्योमुक्त आत्मज्ञ भी प्रारब्ध भोग के पश्चात ही देह त्याग करते हैं। तत्पश्चात जीवन मुक्त या सद्योमुक्त (सदेह मुक्त) हो विदेह जीव मृत्यु उपरान्त यहीँ परमात्मा में लीन हो जाता है। उसे कहीँ भी  किसी भी लोक में नही जाना होता। यही मौक्ष है।
उर्ध्व लोकों में नारायण, हिरण्यगर्भ आदि अजयन्त देव (ईश्वर श्रेणी के देवता), प्रजापति , इन्द्र आदि आजानज देव (जन्मजात देवता) और अश्विनी कुमार, मरुद्गण, धन्वन्तरि आदि कर्मदेव  (सत्कर्मों से देवता पद पर क्रमोन्नत) आदि देवादि योनियों में जन्म लेकर वैकुण्ठ, गौलोक, साकेत, ब्रह्म लोक, सत्यलोक, तपः लोक, जनः लोक, महर्लोक, स्वर्गलोक, भुवः लोक (अन्तरिक्ष में रुद्र, पितरः आदि), भू-लोक में (एल पुरुरवा जैसे दश विश्वैदेवाः आदि) के रूप में जन्म लेकर सुखभोग कर श्रेष्ठ कर्म करके पदोन्नत या क्रमोन्नत हो सकते हैं, ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो सकते हैं या नहूष जैसे वापस पतीत हो सकते हैं। यहाँ तक कि, तल, अतल, सुतल, तलातल, महातल या पाताल में असुर गन्धर्व, असुर यक्ष, नाग, असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, (यातुधान, ताल-बैताल, विनायक आदि) पिशाच योनियों में जन्म लेकर पाप कर्मों का भोग कर वापस मानव योनि में भूलोक में जन्म ले सकते हैं।
पुण्यों का फल उर्ध्व लोक में देवादि श्रेष्ठ योनियों में प्रारब्ध भोग तक निवास और कर्तव्य कर्म न करनें और निषिद्ध कर्म करनें के पाप का फल अन्धतम अधोलोकों में निम्न योनियों में जन्म ले प्रारब्ध भोग तक रहना पड़ता है। फिर प्रारब्ध समाप्ति पर पुनः भू-लोक में ही पुनर्जन्म होता है।
यदि पाप पुण्य बराबर हो तो तुरन्त ही भूलोक में ही पुनर्जन्म हो जाता है।
जीव बिना किसी योनि में जन्में मात्र दस दिन ही रह सकता है।और यम लोक तक की यात्रा बारह दिनों में पूर्ण कर कर्मभोगानुसार  योनि प्राप्त कर देहान्तर में पुनर्जन्म निश्चित है।
यातुधान, विनायक , ताल- बेताल आदि पिशाच योनि, राक्षस, दानव, दैत्य, असुर, नाग,यक्ष, गन्धर्व- किन्नर, पशु-पक्षी, पैड़ पौधे, मानव, देवता किसी भी योनि में भी तेरहवें दिन गर्भप्रवेश निश्चित है।
वेदिक धर्म / ब्राह्म धर्म में मरा हुआ जीव का शेष आयु पर्यन्त भूत / प्रेत योनि में भटकने का कोई उल्लेख नही है। यातुधान, विनायक, ताल- बेताल आदि पिशाच योनियों , राक्षस, असूर यक्ष, असूर गन्धर्व योनियों में जीवों के क्रियाकलाप ठीक वैसे ही होते हैं जैसे इस्लाम में जिन्न , जिन्नात के होते हैं। और पारसियों, यहुदियों, ईसाइयों और इस्लाम में भी तथाकथित अपवित्र आत्माओं (घोस्ट) के क्रियाकलाप होते हैं।  किन्तु उनमें पुनर्जन्म सिद्धान्त नही होने से वे लोग इन योनियों को भी मरा हुआ मानव का ही रूप मानते हैं। इसी प्रकार तथाकथित पवित्र आत्मा को फ़रिश्ते मानते हैं। 
स्वाध्याय के अभाव और दासत्व के कारण सनातन धर्मियों ने भी भूत और प्रेत दो नवीन अवधारणा विकसित करली। जबकि मूल वेदिक ग्रन्थों में ऐसा कोई उल्लेख ही नही है। क्योंकि, बिना शरीर कोई भी जीव क्षणमात्र भी नही रहता। भूत मतलब (भूमि,जन,अग्नि, वायु और आकाश) पञ्च महाभूत होता है। और मृत देह को प्रेत कहते हैं। 
दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप जीवात्मा की अधोलोकों में आसुरी योनियों (पिशाच, यातुधान, राक्षस, दानव, दैत्य, नाग,असुर यक्ष या असुर गन्धर्व योनि) में जन्म होता है। या जड़ योनि, वायरस, बैक्टीरिया,परजीवी, सुक्ष्म जीवी, फफुन्द, कवक, कीट, पतङ्ग, और रेंगनें वाले बिना रीड़ वाले जीवों में जन्म होता है।
कार्य कर्म (कर्तव्य कर्म) न करने वाले, निषिद्ध कर्म करनें वालों का जन्म नाग- सर्प, सुअर, कुत्ता, भेड़िया,  योनियों (वन्य जीवों) में जन्म होता है।
मिश्रित कर्मों का कमल, पाटल, केतकी, चम्पा, फल वट -पिपल, आम -आँवला, नीम - शमी आदि वनस्पति, मृग, गौ, या  रोगी, मान्सिक रुग्ण, अपङ्ग, विकलाङ्ग, दीन-हीन, दरीद्र, अतिकृपण, मानवों में होता है।
पुण्यात्मा, योगभ्रष्ट (जिसकी साधना अपूर्ण रह गई), पुरुष स्वर्गादि उर्ध्व लोकों में जन्म लेकर बादमें श्रीमान (राजा, सामन्त) या धनवान श्रेष्ठी परिवार में जन्म लेता है।
निष्काम कर्मयोगी, बुद्धियोगी, जिसका विवेक उदय हो चुका है, पञ्चाग्नि सेवी, पञ्च महायज्ञ कर्ता, अष्टाङ्ग योग सेवी के कर्तव्य शेष रह जाने पर वैकुण्ठादि में जन्म लेकर वहीँ से आत्मज्ञान लब्ध होकर मुक्त हो जाता है या लोक वास पश्चात विप्र (वेदज्ञ), और ब्राह्मण (आत्मज्ञ) के घर जन्म होता है। फिर इस जन्म में शेष कर्तव्य पूर्ण कर आत्मज्ञानी होकर सद्योमुक्त होता है।

शक संवत का प्रारंभ कब और किसने किया गया था?

शक संवत का प्रारंभ कब और किसने किया गया था?
उन्नीस वर्षिय, एकसौ बाईस वर्षीय और एकसौ एकतालिस वर्षिय चक्र अधिकमास, क्षय मास वाला निरयन सौर वर्ष से मैल वाला चान्द्र वर्ष का आरम्भ किसने और कब किया?
भारत में वेदिक काल में संवत्सरारम्भ वसन्त विषुव से होता था। जिस दिन सुर्य भुमध्य रेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश करता है, पुरे विश्व में दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सुर्यास्त होता है, सुर्योदय के समय सुर्य ठीक पुर्व में उदय होता है और सुर्यास्त के समय सुर्य ठीक पश्चिम में अस्त होता है उस दिन को वसन्त विषुव कहते हैं। तीनसौ साठ दिन के सावन वर्ष में अन्तिम पाँच/ छः दिन यज्ञ होता था तथा पाँच वर्ष उपरान्त पुरे माह यज्ञसत्र चला कर वसन्त विषुव से संवत्सरारम्भ करते थे।

महाभारत काल की ज्योतिर्गणना के अनुसार हर अट्ठावन माह पश्चात दो माह अधिक मास मान कर इकसठवें माह को नियमित मास माना जाता था। यह गणना कठिन थी जिसे भीष्म पितामह द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन भी नही समझ पाया था।

आकाश की मध्य रेखा विषुववृत (Meridian) पर उत्तर की ओर जहाँ भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत्त क्रास करता है उसे वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेषादि बिन्दु कहते हैं। 
इसी वसन्त सम्पात बिन्दु पर भूमि के केन्द्र से सुर्य का केन्द्र दिखने को महा विषुव या वसन्त विषुव कहते हैं। यही समय वेदिक संवत्सरारम्भ का है।
इस गणना का लाभ यह है कि यह ऋतु चक्र के बिल्कुल अनुकुल होने से इसके मास और मासांश दिवसों को ऋतु ठीक ठीक बैठती है। दिनमान रात्रिमान , सुर्योदयास्त समय प्रति वर्ष ठीक ठीक समान समय पर ही आवृत्ति होती है।

दिनांक 20 मार्च 2020 शुक्रवार को पुर्वाह्न 09:20 बजे वसन्त विषुव हुआ। अर्थात इस समय सुर्य का सायन मेष संक्रमण हुआ और वेदिक नव संवत्सर आरम्भ हुआ। कल्प संवत्सरारम्भ, सृष्टि संवत्सरारम्भ, और कलियुग संवत्सरारम्भ इसी दिन को माना जाना चाहिए।

महर्षि विश्वामित्र जी ने नवीन गणना प्रणाली का सुत्रपात किया जिसे नाक्षत्रीय गणना कहा जाता है। जब सुर्य के केन्द्र भू केन्द्र और चित्रा नक्षत्र के योग तारा (Spica Virginia) का केन्द्र एक रेखा में हो तब सुर्य अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है जिसे निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं। इस गणना का लाभ यह है कि, चलते रास्ते भी चन्द्रमा, और ग्रहों के नक्षत्रचार देखे जा सकते हैं। कौनसा ग्रह किस निरयन राशि और किस नक्षत्र पर है किसान भी बतला देते हैं। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति 13/14 अप्रेल को पड़ती है। इसी दिन वैशाखी मनाई जाती है।इस दिन से निरयन संवत्सरारम्भ माने जाना लगा।

परम्परा के अनुसार इस वर्ष 13 अप्रेल 2020 सोमवार को 20:23 बजे (अपराह्न 08:23 बजे रात में) निरयन मेष संक्रान्ति से कल्पारम्भ गताब्ध संवत 1,97,29,49,121 का आरम्भ होगा , सृष्टिगताब्ध संवत 1,95,58,85,121 का आरम्भ होगा। एवम् युधिष्ठिर संवत 5158 का आरम्भ होगा। पञ्जाब हरियाणा उड़िसा, दिल्ली में विक्रम संवत 2077 का आरम्भ मनाया जायेगा। पञ्जाब का मालव संवत भी इसीदिन आरम्भ होता है।
शक और कुषाण वंश के मूल आवास के विषय में यदि आप नेट पर सर्च करेंगे तो मुख्य रूप से निम्नांकित तथ्य पायेंगे।

1 शक संभवतः तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे। शक झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
2 चीन अधिकृत पश्चिमी तिब्बत के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (आर। ५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे। [४४] इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (आर। ४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ।  इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत में तथा गुजरात में प्रचलित किया।
दक्षिण भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। 
यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क ने मथुरा विजय  होने की खुशी में और दक्षिण भारत में पेठण महाराष्ट्र विजय के शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।

वैदिक काल में सायन सौर संक्रान्तियों के गतांश और गत दिवस तथा सायन सौर मधुमाधवादि मासो में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर तथा अमावस्या पूर्णिमा और अष्टमी को व्रत, पर्वोत्सव मनाने की परम्परा थी। 
बाद में भारत में निरयन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से वृतोत्सव मनाने का प्रचलन आरम्भ हुआ  जो दक्षिण भारत और बङ्गाल में अभी भी प्रचलित है। जैसे निरयन सिंह के सुर्य में श्रवण नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो वामनावतार जयन्ती ओणम मनाते हैं। गया में कन्या राशि के सुर्य में कृष्ण पक्ष में श्राद्ध का विशेष महत्व है। बंगाल में भी नवरात्रि में तुला राशि के सुर्य और मूल, पुर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा में ही देवी आव्हान, स्थापना, पुजन, बलिदान और विसर्जन होता है।

मध्यकाल में जब निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर के चैत्रादि मास प्रचलित हुआ तब केवल अन्वाधान और इष्टि के लिये अमावस्या, पुर्णिमा, तथा अर्ध चन्द्र दिवस उपरान्त अष्टका एकाष्टका के लिये अष्टमी तिथियाँ ही मुख्य रुप से प्रचलित थी। एकादशी का प्रचलन चन्द्रवंशी ययाति के समय हुआ। तिथी वार, नक्षत्र , योग और करण युक्त पञ्चाङ्गों का प्रचलन वराहमिहिर के बाद ही हुआ।