मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

क्या जीव और प्रकृति अनादि, अनन्त है?

वैदिक मत के अनुसार परमात्मा का कल्याणमय संकल्प विश्वात्मा ॐ  के साथ परमात्मा ने स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप में प्रकट किया।
विश्वात्मा मतलब विश्व का मूल स्वरूप, विश्वात्मा मतलब विश्व का वास्तविक स्वरूप। विश्व को जिस रूप में हम समझ रहे हैं यह आभासी स्वरूप है। विश्व का मूल स्वरूप विश्वात्मा ॐ ही है।
ॐ परमात्मा का कल्याण मय संकल्प है। स्रष्टि उत्पत्ति के पहले ॐ शब्दनाद हुआ। इसे परमात्मा की प्रथम अभिव्यक्ति भी कहा जा सकता है। ॐ ही वेद (ज्ञान) है। ॐ परमात्मा का नाम कहा गया है। ॐ परमात्मा को सम्बोधित करनें के लिए ध्यान करने (याद करनें) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। अ+उ+म् +अनुस्वार जिसका स्वतन्त्र उच्चारण नही किया जा सकता। यो उच्चारण की दृष्टि से यदि तीन सेकण्ड ओ का उच्चारण हो तो एक सेकण्ड म् का उच्चारण कर अनुस्वार का उच्चार होता है।

अनादिमत्परब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते गीता 13/2
प्रज्ञात्मा परब्रह्म को आत्म तत्व,परमपद, परमधाम, परमगति, पुरुषोत्तम, सनातन, अक्षर, अव्यक्त, अधियज्ञ, क्षैत्रज्ञ, कुटस्थ, निर्गुण, सर्वगुण कहा जाता है।
परमात्मा की प्रेरणा से ---
प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को परम पूरुष और परा प्रकृति के रूप में प्रकट किया। वस्तुतः यह स्वरूप ऐसा ही है जैसे सूर्य और प्रकाश । बिना प्रकाश के सूर्य नही होता (ब्लैक होल हो जायेगा) और बिना सूर्य के (सोर्स के बिना) प्रकाश नही हो सकता। अतः इन्हे अलग अलग नही रखा जा सकता। किन्तु शक्ति और शक्तिमान की मानवीय अवधारणा के कारण यह समझनें के लिए है। वास्तविक नही माना हुआ है।
परम पूरुष को दिव्य पूरुष, अक्षर पूरुष भी करते हैं। 
आधिदैविक दृष्टि से परम पूरुष को विष्णु और परा प्रकृति को माया कहते हैं।
सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, सर्वव्याप्त विष्णु को परम पद कहा है। विष्णु को किसी शेप साईज में मापतोल नही हो सकती। अर्थात विष्णु का कोई रूप आकार नही है। माया को भी केवल विष्णु की शक्ति के रूप में समझा जा सकता है। जैसे सूर्य का प्रकाश, चुम्बक का चुम्बकत्व।
माया विष्णु की कल्पना स्वरूप सत असत अनिर्वचनीय है। जैसे आप जाग्रति में कल्पना करो, तन्द्रावस्था (हिप्नोसिस) के अनुभव और स्वप्नावस्था में अनुभव किये गये लोग और उनके द्वारा की गई परस्पर अन्तःक्रियाओं को उन कल्पना या स्वप्न के लोगों की दृष्टि से कभी गलत नही कहा जा सकता। क्योंकि उनने उसे भोगा है। किन्तु क्या उनका कोई यथार्थ अस्तित्व है ? बिल्कुल नही। अतः ऐसे ही यह कल्प, यह सृष्टि यथार्थतः सत्य नही है। विष्णु के लिए उनकी कल्पना मात्र है अतः कल्प कहलाती है। किन्तु जबतक ऋत को जानने के बाद आत्मस्वरूप का ज्ञान नही हो जाता तबतक इस मोहावस्था में  हमारे लिए पूर्ण सत्य है। हम इसे अनुभव कर रहे हैं इसमें अन्तःक्रिया कर रहे हैं। हम इसे गलत कह नही सकते पर मान तो सकते हैं।
अब माया सत्य है यह भी नही कहा जा सकता तो अनादि कहाँ से होगी? 

परमात्मा की प्रेरणा से ----
प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को प्रत्यगात्मा (सबका अन्तरात्मा) स्वरूप में प्रकट किया। आधिदैविक स्वरूप में इसे ब्रह्म कहते हैं। 
ब्र मतलब बरः यानी बड़ा। बरः इति ब्रह्म।
महः मतलब महा, महियो महियान,
जो बड़ों में महत् (महा) हो वह ब्रह्म। जो महा (विशाल) से भी बड़ा हो वह ब्रह्म। 
जैसे फारसी का अहुर मज्द --- महा असूर। अरबी का अकबर -- अकस्मात बरः इति अकबरः। जिससे बड़ा कोई न हो वह अकबर है। यह एक उपमा है जो इस्लाम में अल्लाह नामक अश्शुर   के लिए प्रयुक्त है। इनमें एक महत है दुसरा बरः (बड़ा) है।किन्तु ब्रह्म बड़े से भी महत और महा से भी बड़ा है।
यह सर्वगुणसम्पन्न प्रथम सगुण स्वरूप है। फिरभी इसके गुणों का वर्णन अति संक्षिप्त है पर सभी महत्वपूर्ण गुण इसीके हैं। ---
कालातीतम् त्रिगुण रहितम्, प्रकृतिस्थ, (हृदय गुहा में बुद्धि आकाश में चित्त में रहनें वाला। यहाँ हृदय मतलब केन्द्र है हार्ट Heart नही है।) ,सुखदुःख का हेतु, दृष्टा,अणियो अणिमाम्, महतो महियान, 
उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ताभोक्ता,महेश्वरः कहा गया है। गीता 13/22
प्रत्यगात्मा ब्रह्म ही विधि विधाता है। अधिदेव है। महाकाश है। क्षेत्र है। 
वेदान्त शास्त्राभ्यास उपरान्त निर्मल अन्तःकरण के शिष्य को जब सद्गुरु कहते हैं सर्वखल्विदम् ब्रह्म। (आकाशादि सबकुछ ब्रह्म है।), ईशावास्यम् इदम् सर्वम्, यत्किच् जगत्याम् जगत। (ईस जगत में जोकुछ भास रहा है उन सबको ईश यानी परमेश्वर परब्रह्म में ही जानलो। ईश से ही आच्छादित करदो ताकि, ईश को छोड़कर कोई अनुभव न रहे।)  तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मा गृधः कस्यस्वीधनम्। (तब उसे त्याग पूर्वक भोग करो, किसी के किसी धन का लोभ मत करो क्योंकि, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का रचा यह जगत उसकी रात्रि में निन्द्रा मग्न होनेपर उसी में लीन होजाता है। तो तुम्हारा कहाँ रहेगा। ), प्रज्ञानम् ब्रह्म (प्रज्ञान ही ब्रह्म है।), अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है।), अहम् ब्रह्मास्मि (मैं भी वही ब्रह्म हूँ यह जानले।) तत् त्वम् असि (वह ब्रह्म तुह्मी हो, वह तुमसे अलग भी नही है, तुम्ही हो।)
यह सुनते ही सर्वमेधयाजी, (जिसके समस्त कर्तव्य पूर्ण होचुके), योगस्थः (निर्मल अन्तःकरण होनें से जिसके सन्देह मिट चुके होने से सदा समाधिस्थ), विवेकशील (स्वभाविक रूप से जिसे सत् असत् का बोध होचुका है) शिष्य के द्वारा उक्त महावाक्य श्रवण होते ही उसे आत्मबोध हो जाता है और वह कह उठता है *"अहम्ब्रह्मास्मि"* ।
परमात्मा की प्रेरणा से ----
 (मानव बोध में) प्रत्यगात्मा ब्रह्म ने स्वयम् को पूरुष और प्रकृति के विभाग स्वरूप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से पूरुष सवितृ है। सवितृ देव, अज (अजन्मा),प्रभविष्णु (होने वाला , जिसके प्रभाव से ही सबकुछ / भव हुआ है।) है।महेश्वर है। 
संस्कृत में हमारे सूर्य मार्तण्ड  की तुलना सवितृ से की गई है। सवितृ मतलब जो प्रसवित्र होकर सृष्टि का सृजन करता है। सृष्टि को प्रेरित करता है।(जीवित करता है।), सृष्टि की रक्षा करता है। रक्षण करता है। सावित्री मन्त्र / गायत्रीमन्त्र में इन्ही की उपासना की गई है। ये प्रथम उपास्य हैं।
पूरुष (सवितृ) की शक्ति प्रकृति है जिसे आधिदैविक दृष्टि से सवितृ की सावित्री कहा गया है। ये ही प्रभविष्णु की प्रभा है। जिसको मूल आधार मानकर जिससे तुलना कर तुलनात्मक  प्रमाणन होता है प्रमाणित किया जाता है;वह प्रमा है।

परमात्मा की प्रेरणा से ----

प्रत्यगात्मा ब्रह्म ने स्वयम् को जीवात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से अपरब्रह्म कहा जाता है। यह स्वरूप विराट कहलाता है। इसे प्रथम साकार स्वरूप कहा जासकता है। किन्तु इसका कोई निश्चित रूप नही है। कूट स्वरूप है। समझनें के लिए आकाश का कोई रूप या आकार नही होता लेकिन सभी आकारों का मूल आकाश को कहा गया है। ऐसे ही समझ सकते हैं। और सुगमता के लिए वायु से तुलना कर सकते हैं। जिसको देखा नही जा सकता। जिसका कोई निश्चित रूप और आकार नही होता।
अग्नि का रूप और आकार दोनों होते हुए भी अग्नि को किसी आकृति में नही ढाल सकते हैं।
और आसानी के लिए पानी का रूप तो होता है। देखा भी जा सकता है लेकिन आकृति निश्चित नही होती। लेकिन इसे किसी बरतन में रखकर आकृति दी जा सकती है। 
त्रिआयामी भूमि ही है। जिसे मनचाहा आकार दिया जा सकता है अतः उसका वास्तविक स्वरूप क्या था नही कहा जा सकता।
जीवात्मा अपरब्रह्म काल है अर्थात  नियति चक्र है। भगवान विष्णु के हाथ में नब्भै गुणित चार अंशों का (360° का संवत्सर चक्र) नियति चक्र है। ऐसा ऋग्वेद में उल्लेख है, यह वही है। 
जीवात्मा अपर ब्रह्म जिष्णु है। जो स्वभाव से ही विजेता है। 

जीवात्मा अपर ब्रह्म की स्थिति  शिशुमार चक्र के केन्द्र  कही गई है।  शिशुमार चक्र को आकाश में छोटा सप्त ऋषि मण्डल भी कहा जाता है। इन सात तारों में एकतारा ध्रुव तारा है। (उत्तरीध्रुव का तारा।)

गणना का साधन काल है। जिससे समय  की गणना की जा सकती है। (समय की गणना अवधि में होती है।)
तो जीवात्मा का कोई निश्चित रूप नही होता। अतः तरङ्गाकार कह सकते हैं।
यह महाकाल है। गीता में जीवात्मा को स्व भाव (स्वभाव) और अध्यात्म कहा है, क्षर कहा गया है। जीवात्मा को प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता और गुण सङ्गानुसार योनियों में संचरण करनें वाला कहा गया है।
परमात्मा की प्रेरणा से ----
जीवात्मा अपर ब्रह्म ने स्वयम् को अपर पूरुष और   अपरा प्रकृति में प्रकट किया। अपरा प्रकृति त्रिगुणात्मक है।अपरा प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज,तम कहे गये हैं।
वेदान्त में अपर पूरुष को जीव और अपरा प्रकृति को (जीव की) आयु कहा गया है।
सांख्य शास्त्र में अपर पूरुष को पूरुष और अपरा प्रकृति को प्रधान कहा गया है।
सांख्य शास्त्र के अनुसार प्रधान को पूरुष द्वारा प्रेरित करने पर प्रधान में विक्षेप होता है। फल स्वरूप गुणों में सक्रियता आजाती है। और सृष्टिचक्र का आरम्भ होता है।
 सांख्य शास्त्र में प्रधान (त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति) तो व्यापक होकर एक ही है किन्तु पूरुष अनेक हैं। अतः ये पूरुष प्रकृति पर निर्भर लगते हैं। 
आस्तिकों नें वेदोक्त पूरुष सुक्त के पूरुष से सांख्य शास्त्र के पूरुष को जोड़कर एक पूरुष जो प्रकृति पर शासन करता है कि, कल्पना करली जिसका सर्वश्रेष्ठ वर्णन भागवत पूराण में मिलता है। किन्तु यह सांख्यशास्त्र के विरुद्ध मत है।
अध्यात्मिक दृष्टि से (सत असत् का) विवेक और विद्या कहा गया है।
आधिदैविक दृष्टि से अपर पूरुष (जीव) को नारायण कहा जाता है। ये नार अर्थात प्रकृति मे अयन करते हैं।   नार यानी प्रकृति अर्थात देह में अयन करते हैं। अर्थात जीवकी गति देह में हैं। नार अर्थात जल में गति करते हैं।  अतः नारायण को क्षीरसागर वासी कहा गया है। धातृ नामक वेदिक देवता जिनकी शक्ति धात्री है यही हैं। 
नारायण की शक्ति नारयणी दो स्वरूप में विभक्त है; श्री और लक्ष्मी।स्वाभाविक गुणों, विशेषताएँ, विद्या;  राज्य सत्ता,अचल सम्पत्ति, समृद्धि श्री का कार्यक्षेत्र हैं। अर्थात सरस्वती श्री है। जबकि, सोना, चान्दी, रत्न,शासकीय मुद्रा (रुपये/ डालर/ पौण्ड/युरो), वाहन आदि सम्पन्नता लक्ष्मी के कार्यक्षेत्र है।
क्षीरसागर में शेषशय्या पर लेटे नारायण के शीष की ओर श्री चँवर डुलाती है तथा लक्ष्मी चरण सेवा करती हैं। मतलब श्री गुण धर्म में है अतः अचला है और लक्ष्मी चला है अतः चरणों में है।
 जीव/ नारायण को जगदीश या जगत के ईश्वर अर्थात जगदीश्वर कहते हैं अपर ब्रह्म इस जगत पर शासन करता है अतः जगदीश है; जगदीश्वर है।
यहाँ तक के वर्णन से स्पष्ट होजाता है कि, जीव और आयु स्वरूप अपर पूरुष और अपरा प्रकृति अनादि नही हैं। संख्यात्मक दृष्टि से जीव अनन्त हैं। पर अनादि-अनन्त नही है। सिमित है, बद्ध है।

परमात्मा की प्रेरणा से ----
जीवात्मा अपर ब्रह्म (विराट, महाकाल) नें स्वयम् को भूतात्मा के स्वरूप में प्रकट किया। जिसे आधिदैविक दृष्टि से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा कहते हैं। 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ विश्वकर्मा (सृष्टि के ब्रह्माण्डों के रचियता) हैं।भूतात्मा हिरण्यगर्भ महादिक है। भूतात्मा हिरण्यगर्भ को दीर्घगोल / या दीर्घ वृत्तीय गोलाकार कह सकते हैं। भूतात्मा हिरण्यगर्भ प्रथम वास्तविक साकार स्वरूप हैं।
भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को पञ्चमुख (सर्वतोमुख यानी सभीओर मुख वाले। या अण्डाकार) माना गया है। भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को वेदवक्ता भी कहा जाता है।
 भूतात्मा हिरण्यगर्भ की आयु दो परार्ध अर्थात इकतीस नील, दस खरब चालिस अरब सायन सौर वर्ष हैं। जिसमें से आधी से कुछ आयु पूर्ण कर चुके हैं। इनकी आयु के पचास वर्ष पूर्ण होकर इक्कावनवें वर्ष का प्रथम दिन भी आधे के  लगभग पूर्ण कर चौदह में से सप्तम मन्वन्तर चल रहा है।
अतः ये प्रथम अनुभवगम्य, प्राकृतिक, भौतिकवैज्ञानिक तत्व हैं। 
भूतात्मा हिरण्यगर्भ को गीता में अधिभूत कहा गया है।
परमात्मा की प्रेरणा से ----
भूतात्मा हिरण्यगर्भ विश्वकर्मा ने स्वयम् को प्राण और धारयित्व (धारण शक्ति धृति) के स्वरूप में प्रकट किया। 
प्राण ही चेतना कहलाता है और चेतना की शक्ति धृति कहलाती है।
प्राण/ चेतना को कठोपनिषद और  गीता में देही कहा है।तथा धारयित्व या धृति को देही की अवस्था कहा जाता है।
आधिदैविक दृष्टि से प्राण/ चेतना/ देही को त्वष्टा कहा गया है।  तथा धारयित्व या धृति/  अवस्था को त्वष्टा की शक्ति रचना कहते हैं।
ऋग्वेद में कहा गया है कि, त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्ड के गोलों को सुतार की भाँति घड़ा या गढ़ा। अतः ये अनेक ब्रह्माण्ड त्वष्टा की ही रचना है।
ये ईश्वर श्रेणी के देवताओं में ये अन्तिम कड़ी हैं। इन्हे इश्वर कहते हैं।

परमात्मा की प्रेरणा से ----
भूतात्मा हिरण्यगर्भ विश्वकर्मा नें स्वयम को सूत्रात्मा स्वरूप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से सूत्रात्मा को प्रजापति ब्रह्मा या आदि प्रजापति कहते हैं।
और आधिभौतिक दृष्टि से सूत्रात्मा को प्रजापति ब्रह्मा को विश्वरूप कहते हैं।
सूत्रात्मा को प्रजापति ब्रह्मा विश्वरूप ब्रह्माण्ड स्वरूप हैं। अर्थात विशाल अण्डाकार रूप में  निर्धारित आकृति वाले प्रथम स्वरूप हैं। प्रजापति को चतुर्मुख (चारों ओर मुख वाले या गोलाकार) कहा गया है। ये प्रथम जीववैज्ञानिक तत्व हैं। सूत्रात्मा को प्रजापति ब्रह्मा को विश्वरूप देवताओं में प्रथम होने से सबसे वरिष्ठ देवता महादेव कहलाते हैं। 
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा पञ्चमुखी और प्रजापति ब्रह्मा चतुर्मुखी होने से यह कथा प्रचलित होगई कि, रुद्र नें ब्रह्मा का एक मुख काटकर पञ्चमुखी से चतुर्मुख कर दिया। रावण की गरदन काटने पर वापस आ जाती थी। रक्तबीज की रक्त बुन्दों से रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे। लेकिन ब्रह्मा का सिर कटने पर वापस नही आया।शंकर जी गजानन बना देते हैं लेकिन असली सिर खोजकर वापस नही लगा सके थे। है ना आश्चर्यजनक। देवताओं से असूर अधिक बलशाली गजब! धन्य है पौराणिक लोग।  
सूत्रात्मा  प्रजापति ब्रह्मा  विश्वरूप की आयु हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प है। यानी चार अरब बीस करोड़ सायन सौर वर्ष है। जिसमें से लगभग आधी से थोड़ी कम आयु पूर्ण कर चौदह में से  सप्तम मन्वन्तर चल रहा है।
परमात्मा की प्रेरणा से ----
सूत्रात्मा  प्रजापति ब्रह्मा  विश्वरूप ने स्वयम् को संज्ञान और संज्ञा के स्वरूप में प्रकट किया जिसे वेदान्त में ओज और उसकी आभा के रूप में वर्णन किया जाता है। रेतधा और उसकी शक्ति स्वधा भी यही हैं। आधिदैविक दृष्टि से दक्ष (प्रथम) प्रजापति -प्रसूति, रूचि- आकुति, और कर्दम - देवहूति नामक प्रजापति कहते हैं।
विशेष सुचना ---
विष्णु, श्रीहरि (सवितृ), नारायण, वामन या आदित्य विष्णु सबको विष्णु कह दिया जाता है।
नारायण, हिरण्यगर्भ, आदिप्रजापति, प्रजापति गण (नौ ब्रह्मा नाम से विख्यात ऋषिगण),ब्रहस्पति, वाचस्पति, ब्रह्मणस्पति सब ब्रह्मा कहलाते हैं।
देवराज इन्द्र, इन्द्र नामक आदित्य गौतम पत्नी अहल्या के साथ रमण करनें वाला तिब्बत कश्मीर, तुर्किस्तान क्षेत्र के देवस्थान का शासक, सीरिया अर्थात सूर् संस्कृति का राजा सुरेश सभी इन्द्र कहलाते हैं।
सबसे वरिष्ठ देवता प्रजापति, देवताओं में प्रथम जन्मा पशुपति अर्धनारीश्वर रुद्र, एकादश रुद्रों में से शंकर जी सब महादेव कहलाते हैं।
पशुपति अर्धनारीश्वर रुद्र, एकादश रुद्रों में से शंकर जी, मनसात्मा महा गणपति, गणों के अलग अलग गणपति जिनमें से एक प्रमथ गणों के गणपति गजानन जिन्हें सभी रुद्रगणों का गणपति नियुक्त किया गया, , सदसस्पति और गणराज्य का चुनागया नेता/ राजा/ राष्ट्रपति रूपी गणपति सब गणपति कहलाते हैं।
इन कारणों से पुराणों में बहुत भ्रम फैला है।

आगे का वर्णन भाग -- 2 में।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

वेदिक अष्टाङ्गयोग तथा राजयोग और तान्त्रिक हटयोग।

वेदिक संहिताओं से उपनिषदों तक में अष्टाङ्गयोग / राजयोग का स्पष्ट उल्लैख है। ब्रह्मयज्ञ का का एक भाग अष्टाङ्गयोग है।
पहले अष्टाङ्गयोग सिद्ध युक्त पूरुषों को ही योगी कहा जाता था। निवृत्ति मार्गी अष्टाङ्गयोग सिद्ध ज्ञानियों को मुनि कहा जाता था।  ये भक्तिभाव लीन होते थे।

वेदिक मत के ठीक विरुद्ध तन्त्रमत है। अतः तन्त्र को वेदमत में कोई स्थान नही है।
अतः  अष्टाङ्गयोग और  राजयोग में हटयोग और तन्त्रमत के अष्टचक्र / सप्तचक्रों का उल्लेख नही है।
  
 श्रमणों में शैव और शाक्त पन्थ के उदय के पश्चात सर्वप्रथम दत्त सम्प्रदाय ने ही तान्त्रिकों, अघोरियों और औघड़ो को योगी शब्द से सम्बोधित करना आरम्भ किया जो नाथ सम्प्रदाय में रूढ़ हो गया
दत्त सम्प्रदाय ने हटयोग और तन्त्रशास्त्र को योग से जोड़ा। और सर्वप्रथम योग के निबन्ध के आरम्भिक ग्रन्थों में तन्त्र और हटयोग के आरम्भिक ग्रन्थों में अष्ट चक्र --  
1सहस्रार चक्र- 2आज्ञाचक्र; 
3अनाहत चक्र- 4विशुद्ध चक्र;
 5 मणिपूरक चक्र- 6 स्वाधिस्ठानचक्र:
 और  7 मूलाधार चक्र - 8 कुण्डली 
को मुख्य चक्र और उप चक्र जैसा माना है।
मूलाधार रूपी शिवलिङ्ग को साढ़े तीन लपेटे से लिपटे नाग / नागिन के रूप में कुण्डलिनी शक्ति चक्र माना गया है।

जबकि मूल तन्त्र ग्रन्थों में सप्त चक्रों का ही उल्लेख है।
1सहस्रार चक्र,  2आज्ञाचक्र,3 विशुद्ध चक्र, 4 अनाहत चक्र,  5 मणिपूरक चक्र, 6 स्वाधिस्ठानचक्र, और 7 मूलाधार चक्र  को ही माना है। कुण्डली शक्ति चक्र के रूप में का प्रथक उल्लेख नही है।