*अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।*
*अवतरण मतलब उतरना* --
जब कोई बुद्धियोगी तुरीय अवस्था में अष्टाङ्ग योग की सर्वोच्च या उच्चतम अवस्था संयम पर पहूँचने में सिद्ध हो जाता है और वह सकल जगत कल्याण हेतु अपने प्रारब्ध पुर्ण होनेतक लोकसंग्रह कार्यार्थ स्वयम् को निवेष करता है।
जन्मजात बुद्धियोगी सिद्ध होते हुए भी अगले जन्म में एक साधारण व्यक्ति की भाँति हो जीवन यापन कर ऋत द्वारा नियत कार्य सिद्ध करता है।
तो उस ज्ञानि का तुरीयावस्था में ही रहते हुए भी जन साधारण में उनके ही समान दिखता हुआ लोकसंग्रह अर्थात लोक कल्याणकारी कर्म करता है तो वह अवतार कहलाता है।
सिद्धि के तारतम्य के अनुसार इनकी कला निर्धारित होती है। तथा प्रयोजन के अनुसार
जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध भोग सिमित होते हैं, वे कम समय के भूमि पर रहते हैं। जैसे मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराह अवतार, और नृसिह अवतार। इन्हे आवेशावतार भी कहते हैं।
किसी व्यक्ति में किसी देवता का आवेश आने को भी आवेशावतार कहते हैं । जैसे आदि शंकराचार्य के शिष्य पद्मपादाचार्य को तान्त्रिक से शंकराचार्य जी की रक्षार्थ नृसिंह आवेश हुआ था ।
जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध इतने अधिक होते हैं कि अवतार का दायित्व पुर्ण होनें के पश्चात भी वे भूमि पर चिरञ्जीवी रहते हैं।जैसे परशुराम जी और हनुमान जी।
प्रायः इन्है अंशावतार भी कहते हैं। जबकि महा तपस्वी महर्षि नारायण के अगले जन्म में श्रीकृष्ण के रुप में जन्में अकेले ही षोडषकलात्मक पुर्ण अवतार कहेगये हैं । अर्थातश्रीकृष्ण को छोड़ सभी अंशावतार ही थे। श्रीराम भी द्वादशकलात्मक अंशावतार थै।
हनुमानजी रुद्र के अवतार होते हुए भी वायु पुत्र होनें से पवनांश भी कहलाते हैं। दुष्टदलन राक्षसों के प्रति रौद्ररूप होनें से रुद्रावतार भी कहलाते हैं।और श्री रामभक्त होनें से रघुनाथ कला भी कहलाये।
बालि सुर्यपुत्र होनें से सुर्यांश, सुग्रीव इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश, जामवन्त जी दक्ष प्रजापति ब्रह्मा (प्रथम ) के पुत्र होनें से ब्रह्मांश कहलाते थे।
कर्ण सुर्यपुत्र होने से सुर्यांश कहलाते हैं युधिष्ठिर धर्म के पुत्र होने सें धर्मांश कहलाते हैं। ऐसे ही भीम वायु पुत्र वातांश/ पवनांश कहाते हैं। अर्जुन इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश कहलाये आदि आदि।
मतलब किसी देवता का पुत्र उस देवता का देवांश कहलाता है।
उपनिषदों में तो समान्य मानव को भी पिता का अंश और पिता का ही दुसरा जन्म कहा गया है।
अतः देवांव मतलब देवपुत्र। तो हनुमानजी पवनांश और रुद्रावतार हुए दोनों हैं।अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।
वायु के अभिमानी देवता का औरस पुत्र वातांश/ पवनांश और शंकर के समान भक्ति में लीन, दुनियादारी से दूर भोले भाले (ब्रह्मचारी), बलीष्ट और वीर होते हुए भी अपनेआप में मस्त और निरभिमानी किन्तु राक्षसों का काल, दुष्टों का दमन करनें वाला, अपराध का दण्डदेनें वाला होनें से शंकर सुवन रुद्रावतार हनुमान जी वायुपुत्र वातांश थे। यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।