शनिवार, 23 मई 2020

*अवतार और देवांश*


 *अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।* 

 *अवतरण मतलब उतरना* --

जब कोई बुद्धियोगी तुरीय अवस्था में अष्टाङ्ग योग की सर्वोच्च या उच्चतम अवस्था संयम पर पहूँचने में सिद्ध हो जाता है और  वह सकल जगत कल्याण हेतु अपने प्रारब्ध पुर्ण होनेतक लोकसंग्रह कार्यार्थ स्वयम् को निवेष करता है।
 
जन्मजात  बुद्धियोगी सिद्ध  होते हुए भी  अगले जन्म में एक साधारण व्यक्ति की भाँति हो जीवन यापन कर ऋत द्वारा नियत कार्य सिद्ध करता है।
तो उस ज्ञानि का तुरीयावस्था में ही रहते हुए भी जन साधारण में उनके ही समान दिखता हुआ लोकसंग्रह अर्थात लोक कल्याणकारी कर्म करता है तो वह अवतार कहलाता है।
सिद्धि के तारतम्य के अनुसार इनकी कला निर्धारित होती है। तथा प्रयोजन के अनुसार

 जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध भोग सिमित  होते हैं, वे कम समय के भूमि पर रहते हैं। जैसे मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराह अवतार, और नृसिह अवतार। इन्हे आवेशावतार भी कहते हैं।
 किसी व्यक्ति में किसी देवता का आवेश आने को भी आवेशावतार कहते हैं । जैसे आदि शंकराचार्य के शिष्य पद्मपादाचार्य को तान्त्रिक से शंकराचार्य जी की रक्षार्थ नृसिंह आवेश हुआ था ।


जिन सिद्ध बुद्धियोगियों के प्रारब्ध इतने अधिक होते हैं कि अवतार का दायित्व पुर्ण होनें के पश्चात भी वे भूमि पर चिरञ्जीवी रहते हैं।जैसे परशुराम जी और हनुमान जी।
प्रायः इन्है अंशावतार भी कहते हैं। जबकि महा तपस्वी महर्षि नारायण के अगले जन्म में श्रीकृष्ण के रुप में जन्में अकेले ही षोडषकलात्मक पुर्ण अवतार कहेगये हैं । अर्थातश्रीकृष्ण को छोड़ सभी अंशावतार ही थे। श्रीराम भी द्वादशकलात्मक अंशावतार थै।

हनुमानजी रुद्र के अवतार होते हुए भी वायु पुत्र होनें से पवनांश भी कहलाते हैं।  दुष्टदलन राक्षसों के प्रति रौद्ररूप होनें से रुद्रावतार भी कहलाते हैं।और श्री रामभक्त होनें से रघुनाथ कला भी कहलाये।
बालि सुर्यपुत्र होनें से सुर्यांश, सुग्रीव इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश, जामवन्त जी दक्ष प्रजापति ब्रह्मा (प्रथम )  के पुत्र होनें से ब्रह्मांश कहलाते थे।

कर्ण सुर्यपुत्र होने से सुर्यांश कहलाते हैं   युधिष्ठिर धर्म के पुत्र होने सें  धर्मांश कहलाते हैं। ऐसे ही भीम वायु पुत्र वातांश/ पवनांश कहाते हैं। अर्जुन इन्द्रपुत्र होनें से इन्द्रांश कहलाये आदि आदि।
मतलब किसी देवता का पुत्र उस देवता का देवांश कहलाता है। 
उपनिषदों में तो समान्य मानव को भी पिता का अंश और पिता का ही दुसरा जन्म कहा गया है।
अतः देवांव मतलब देवपुत्र। तो हनुमानजी पवनांश और रुद्रावतार हुए  दोनों हैं।अवतार सम्बन्धित देवता के गुण, स्वभाव का प्रतिनिधि है तो देवांश जेनेटिक पुत्र है।
वायु के अभिमानी देवता का औरस पुत्र वातांश/ पवनांश और शंकर के समान भक्ति में लीन, दुनियादारी से दूर  भोले भाले (ब्रह्मचारी), बलीष्ट और वीर होते हुए भी अपनेआप में मस्त और निरभिमानी किन्तु राक्षसों का काल, दुष्टों का दमन करनें वाला, अपराध का दण्डदेनें वाला होनें से शंकर सुवन रुद्रावतार हनुमान जी वायुपुत्र वातांश थे। यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

सोमवार, 18 मई 2020

एक रुद्र, एकादश रुद्र, एकादश रुद्रगण, तथा अनेक रुद्र

एक रुद्र से ग्यारह रुद्र तथा एकादश रुद्रगण और फिर अनेक रुद्र का यथार्थ।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से नीललोहित वर्णी, अर्धनारीश्वर एक रुद्र हुआ जिसे कालान्तर में पशुपति का पद दिया।
यह एकरुद्र पशुपति यथा आवश्यकता अपना पुरुष रूप और स्त्री रूप अलग - अलग कर सकता था। इन्हें ही शङ्कर   कहते हैं। जिन्हें शंकर और उमा कहा जाता है।
पुरुष रूप शंकर ने और स्त्री रूप उमा ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया। चुँकि, प्रजापति और एकरुद्र (शंकर- उमा) दोनों ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की उत्पत्ति है अतः समकक्ष है। लेकिन पहले उत्पन्न होने के आधार पर वरिष्ठता क्रम में एकरुद्र वरिष्ठ होगये। प्रजापति और एकरुद्र दोनों के पाँच मुख थे, ऐसा कहा जाता है कि, एकरुद्र नें प्रजापति का एक शिर काट दिया। और प्रजापति ब्रह्मा चतुर्मुख हो गये।
इन एक रुद्र से दश रुद्र और हुए। स्वाभाविक रुप से ये दशरुद्र प्रजापति की सन्तानों के तूल्य हुए। अतः ये इन्द्र, आदि के समतुल्य हुए। लेकिन इन्द्र आत्मज्ञ, ब्रह्मज्ञानी हैं अतः देवराज होकर वरिष्ठ हैं।
 शंकर के अतिरिक्त दश रुद्रगण ये हैं - 1 हर, 2 त्र्यंबक (त्रिनैत्र),3 वृषाकपि, 4 कपर्दि (जटाधारी), 5 अजैकपाद,6 अहिर्बुध्न्य  (सर्पधर), 7 अपराजित, 8   रैवत, 9  बहुरुप,10 कपाली (कपाल धारी),।

एक रुद्र (पशुपति) तथा दस रुद्र जो एकरुद्र शंकर जी से प्रकट हुए थे कुल मिलाकर ग्यारह रुद्र कहलाते हैं।

पशुपति एक रुद्र   शंकर सहित 1  शंकर  तथा दश रुद्रगण  2 हर, 3 त्र्यंबक ,4 वृषाकपि, 5 कपर्दि , 6 अजैकपाद,7 अहिर्बुध्न्य  , 8 अपराजित, 9 रैवत, 10 बहुरुप,11 कपाली मिलकर एकादश रुद्र कहलाते हैं।

और शेष दस रुद्रों के नामों में मतैक्य नही है। क्योंकि कुछ लोग प्रभास-वरस्त्री के पुत्र विश्वकर्मा के पुत्र एकादश रुद्गगणों के नामों 
1 शम्भु, 2 ईशान, 3 महान, 4 महिनस,  5 भव, 6 शर्व, 7 काल, 8 उग्ररेता,  9 मृगव्याघ, 10 निऋति, 11 स्थाणु  को भी उक्त एकादश रुद्र नाम से प्रस्थापित करते हैं।
 ऐसे दो प्रकार के एकादश रुद्र हैं। 
इनके अलावा  रुद्र की अष्टमुर्ति ये हैं  1भव,2 शर्व ,3 ईशान, 4 पशुपति, 5 द्विज,6 भीम, 7 उग्र, 8 महादेव।

ये सब नाम एक दुसरे में प्रस्थापित कर कई स्थानों पर एकादश रुद्रों के नामों में अन्तर देखे जाते हैं।
एकरुद्र शंकरजी प्रमथ गणों के गणपति थे फिर मिढ गणों के गणपति मिढिश भी कहलाये बाद में रुद्रगणों के गणपति और गणाधिपति भी कहलाये। कुबेर के पहले शंकरजी ही नीधिपति का कार्य भी देखते थे। क्योंकि कल्याणकारी कार्यों के कारण ये सबके विश्वसनीय और प्रियातिप्रिय प्रियपति हो गये थे।
फिर इन दस रुद्रों ने रुद्र सृष्टि की यह रुद्र सृष्टि ही अनेकरुद्र कहलाती है।
भैरव,वीरभद्र, भद्रकाली, नन्दी, भृङ्गी, तथा
 विनायक गजानन को प्रकट किया।  यक्षराज मणिभद्र ,यक्ष  कुबेर तथा पुष्पदन्त गन्धर्व भी रुद्रगण हैं।
 गजानन विनायक सहित अष्ट विनायक हुए हैं। पहले एकरुद्र शंकरजी प्रथमेश और रुद्रगणों के गणपति थे। गजानन विनायक को सर्वप्रथम प्रमथ गणो के गणपति और बाद म समस्त  रुद्रगणो का गणपति स्वीकारा गया।
 अष्ट विनायकों के नाम ये हैं।
1 सम्मित,             5 उस्मित;
2 मित,                 6 देवयजन;
3 शाल,                7 कटंकट;
4 कुश्माण्ड,          8 राजपुत्र।

[ये विनायक रुद्रगण हैं, पिशाच हैं]





 सुचना --

1   जैसे रावण यथावश्यक्ता स्वयम् को एक मुखी या दशमुखी दिखा सकता था। वैसे ही रूद्र अपने आपको स्त्री पुरुष रूप में दिखा सकता था।
2   पुरुष रूप ने और स्त्री रूप ने स्वयम् को दस दस भागों में प्रकट किया। जैसे कौशिकी के शरीर से सब देवियाँ निकली और फिर समा गयी ऐसे ही।
3   यदि एक रुद्र ने स्वयम् को स्त्री पुरुष रुप में विभाजित तक फिर स्त्री और पुरुष भाग ने ग्यारह ग्यारह भागों में विभाजित कर लिया तो  मूल स्वरूप एकरुद्र सहित बारह रुद्र कहलाते।