मंगलवार, 12 मार्च 2019

वेदिक शास्त्र अर्थात सनातन धर्म के धर्मशास्त्र

हमारे धर्म ग्रंथ  - वेद, 1ऋग्वेद, 2यजुर्वेद, 3सामवेद और 4अथर्ववेद।

 ब्राह्मण ग्रन्थ

ऋग्वेद :

ऐतरेयब्राह्मण-(शैशिरीयशाकलशाखा)

कौषीतकि-(या शांखायन) ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

सामवेद :

प्रौढ(पंचविंश) ब्राह्मण

षडविंश ब्राह्मण

आर्षेय ब्राह्मण

मन्त्र (या छान्दौग्य) ब्राह्मण

जैमिनीय (या तलवाकार) ब्राह्मण

यजुर्वेद

शुक्ल यजुर्वेद :

शतपथब्राह्मण-(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा)

शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)

कृष्णयजुर्वेद :

तैत्तिरीयब्राह्मण

मैत्रायणीब्राह्मण

कठब्राह्मण

कपिष्ठलब्राह्मण

अथर्ववेद :

गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)

1गोपथ, 2 वंश, 3 शतपथ माध्यंदिनि, 4 ताण्ड्य विमांश ,5 छान्दोग्य (आरण्यक सहित)  , 6 आर्षेय, 7 सांख्यायन (आरण्यक सहित) , 8 साम विधान 9 एतरेय (आरण्यक सहित) , 10 तैत्तरेय (आरण्यक सहित) , 11 जेमिनी (आरण्यक सहित), 12 ताण्ड्य सदविमांश, 13 संहितोपनिषद, 14 कौथुम आर्ष्य, 15 दैवताध्याय, 16 काण्व शतपथ,17 वधुला अनवाख्यान, 18  काठक । 

ऋग्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ  ऐतरेय ब्राह्मण।

शुक्ल यजुर्वेद माद्यन्दिनि/ वाजसनेयी शाखा का शतपथ ब्राह्मण।

कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय आरण्यक

सामवेद की तलवाकार शाखा के जैमिनीय शाखा का जैमिनीय ब्राह्मण  और छान्दौग्य ब्राह्मण

अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा और शौनक शाखा का गोपथ ब्राह्मण।


इनमें निम्नांकित पाँच ब्राह्मण ग्रन्थों में आरण्यक भी हैं और  मैत्रायणी आरण्यक (सामवेद के मैत्रायणीय ब्राह्मण का भाग है।

आरण्यक

1जैमिनी, 2सांख्यायन, 3छान्दोग्य, 4 एतरेय, 5 तैत्तरीय  और 6 मैत्रायणी (प्रथक है।) 

इन्ही ब्राह्मण आरण्यकों का अन्तिम भाग वेदान्त या ब्रह्मविद्या, ब्रह्मसूत्र, और उपनिषद कहलाते हैं। तेरह उपनिषद मुख्य हैं। उपनिषद

ऐतरेय आरण्यक के चौथे, पाँचवे और छटे अध्याय अर्थात 1 ऐतरेयोपनिषद और 2 कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्

शुक्ल यजुर्वेद संहिता माध्यन्दिन शाखा का चालिसवाँ अध्याय 3 ईशावास्योपनिषद है। यह शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा में भी थोड़े से अन्तर से उपलब्ध है।

 शुक्ल यजुर्वेद के काण्वी शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण के अन्तर्गत आरण्यक भाग के वृहदाकार होनें के कारण 4 वृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है।

कृष्णयजुर्वेदीय 5 श्वेताश्वतरोपनिषद तथा कृष्णयजुर्वेदीय कठ शाखा का 6 कठोपनिषद तैत्तरीय शाखा के तैत्तरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नौवें अध्याय अर्थात 7 तैत्तरीयोपनिषद कहलाता है।

सामवेद के तलवाकार ब्राह्मण के तलवाकार उपनिषद जिसे जेमिनीयोपनिषद भी कहते हैं इसके प्रथम मन्त्र के प्रथम शब्द  केनेषितम् शब्द के कारण 8 केनोपनिषद नाम से प्रसिद्ध है तथा सामवेद के तलवाकार शाखा के छान्दोग्य ब्राह्मण के दस अध्याय में से तीसरे अध्याय से दसवें अध्याय तक को 9 छान्दोग्योपनिषद कहते हैं।

अथर्वेदीय पिप्पलाद शास्त्रीय ब्राह्मण के 10 प्रश्नोपनिषद एवम् अथर्ववेद की शौनक शाखा के 11 मुण्डकोपनिषद और 12 माण्डूक्योपनिषद्

तथा मैत्रायणी आरण्यक का अन्तिम अध्याय 13 मैत्रायणी उपनिषद है।

1ईश,2 केन 3 कठ, 4 मण्डुक, 5 माण्डूक्य, 6 एतरेय, 7 तैत्तरीय, 8 प्रश्न, 9 श्वेताश्वतर, 10 वृहदारण्यक, 11 छान्दोग्य, उक्त ग्यारह उपनिषदों पर भगवान शंकराचार्य जी ने भाष्य लिखे हैं अतः ये विशेष माने जाते हैं। इनके अलावा दो और वेदिक उपनिषद हैं।12 कौषीतकि, 13 मैत्रायणी उपनिषद।

वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थ में है।  जिसमें यज्ञ विध, संस्कार विधि, देश चयन (वास्तु ),काल चयन (ज्योतिष ),पात्र चयन (अधिकारी /अनधिकारी चयन ), मण्डप, बेदी विधि,  (यज्ञ कुण्ड ) निर्माण विधि,धर्माधर्म निर्णय सब कुछ विस्तार से बतलाया  / समझाया है।

बुद्धियोग/ कर्मयोग शास्त्र-  किसी भी कर्म को किस आशय और उद्दैश्य से कैसे किया जाय कि, कर्म का लेप न हो की विधि कर्मयोग शास्त्र, बुद्धियोग (वर्तमान में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता है);

फिर ब्राह्मण ग्रन्थों की विषयवार क्रियात्मक  व्याख्या / प्रेक्टिकल  बुक सुत्र ग्रन्थों का वर्णन वेदाङ्ग वर्णन में  कल्प के अन्तर्गत किया है।

उपवेद - चारों वेदों के उपवेद हैं-

ऋग्वेद - स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद - हारीत संहिता

स्थापत्य वेद - आर्किटेक्चर का ज्ञान - विज्ञान है। यह शुल्ब सुत्रों का सहयोगी शास्त्र है। इस से लगभग हर व्यक्ति परिचित है क्योंकि भवन निर्माण, रेल पथ, सड़क, हवाई अड्डे, बन्दरगाह, सेतु, पुल पुलिया आदि का निर्माण हमारे समक्ष होता रहता है। इसी का ज्ञान शिल्पवेद है।

यजुर्वेद - धनुर्वेद - भेल संहिता

धनुर्वेद - क्षत्रियोचित देहयष्टि तैयार कर अस्त्र- शस्त्र ,आग्नेयास्त्र, राकेट आदि निर्माण कर उनका सफल संचालन, निवारण ,सुरक्षा और संरक्षण का सैन्य शास्त्र। वैमानिकी शास्त्र, रथ, भूमि वाहन,सेतु निर्माण, दुर्ग रंरचना, निर्माण, व्यवस्थापन और संरक्षण, जहाज, नौकायन , विशाल यान्त्रिकी का ज्ञान, विज्ञान  हैं।

सामवेद -  गन्धर्ववेद -  कश्यप संहिता।

गन्धर्व वेद - संगीत, गायन , वादन, वाद्य यंत्र निर्माण, अनुरक्षण, संधारण,  नाट्य, नृत्य, अभिनय, मंच निर्माण, सुत्रधार कर्म आदि का ज्ञान विज्ञान।

अथर्वेद-  आयुर्वेद- चरक संहिता- सुश्रुत संहिता- वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शार्ङधर संहिता, माधव निदान संहिता।

आयुर्वेद - स्वस्थ्य तन- मन पुर्वक जीवन जीने की कला और अस्वस्थ्य होने पर उपचार विधि, चिकित्सा शास्त्र।
वर्तमान में औशध शास्त्र में चरक संहिता और शल्य चिकित्सा हेतु सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है।
गवायुर्वेद, श्वायुर्वेद, हस्ति आयुर्वेद आदि भी इसी के भाग हैं।

वेदाङ्ग - वेदांग छः हैं। कल्प, ज्योतिष,   निरुक्त, शिक्षा, व्याकरण  और छन्द

कल्प जिसमें श्रोत सुत्र, गृह्य सुत्र, शुल्ब सुत्र और धर्म सुत्र।
सुत्र ग्रन्थ -
श्रोत सुत्रों - में बड़े यज्ञों की विधि है;
ग्रह्य सुत्रों - में संस्कार विधि, उत्सव (त्योहार) और पर्व  मनाने की विधि, जन्म दिन आदि मनाने की विधि है;
शुल्बसुत्रों - में यज्ञ और क्रियाओं/ कर्मकाण्ड के लिये / संस्कारों के लिये ज्योतिष गणना (सिद्धान्त ज्योतिष) और उचित समय निर्धारण (मुहूर्त),उचित स्थान चयन मण्डप और यज्ञ वेदी बनाने की विधि (वास्तुशास्त्र) का ज्ञान प्रदान किया गया है।
धर्म सुत्र - उचित, अनुचित पात्र, उचित अनुचित कर्म निर्णय, कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्णय अर्थात कार्य अकार्य निर्णय), कर्त्तव्यों की अवहेलना या अकार्य कर्म होने के प्रायश्चित विधि आदि सब धर्म व्याख्या है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि इनके ही पुरक सहायक ग्रन्थ है।

ज्योतिष - त्रीस्कन्ध ज्योतिष के अन्तर्गत 1 सिद्धान्त ज्योतिष गणिताध्याय (ग्रह गणित), एवम् 2 सिद्धान्त ज्योतिष गोलाध्याय (खगोल) 3 संहिता ज्योतिष (नारद संहिता, गर्ग संहिता, रावण संहिता, वराह संहिता,और भद्रबाहु संहिता) मेदिनी यानी राष्ट्रीय भविष्य ज्ञान, मुहुर्त, वास्तु, शकुन शास्त्र, अंकविद्या आदि अनेक विभिन्न विषयों के सम्मिलित ज्ञान को संहिता कहते हैं।  तथा 4 फलित ज्योतिष को होराशास्त्र ( जिसमें  ताजिक अर्थात वर्षफल और प्रश्न ज्योतिष सम्मिलित है।) और 

निरुक्त - भाषा शास्त्र इसी का भाग है। वर्तमान में यास्क का निरुक्त और पाणिनि की अष्टाध्यायी एवम् अमरकोश ग्रन्थ उपलब्ध है।
शब्द व्युत्पत्ति इसका मुख्य विषय है। वेदिक ग्रन्थों को समझने के लिये निरुक्त और मिमांसा का ज्ञान अत्यावश्यक है।
वर्तमान में यास्काचार्य का निरुक्त उपलब्ध है।

प्रतिशाख्य - शिक्षा

ऋग्वेद एवम् सामवेद - पुष्पसुत्र ।

शुक्ल यजुर्वेद कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तरीय संहिता।

अथर्वेद - चतुराध्याय।

फोनेटिक्स इसी का भाग है। शब्दों, वाक्यांशों , वाक्यों और पदों का उच्चारण, पठन, पाठन शिक्षा के अन्तर्गत आता है।
चारों वेदों की शिक्षा (उच्चारण पद्यति) के अलग अलग शिक्षा ग्रन्थ हैं।
रुद्राभिषेक और यज्ञों में यजुर्वेदीय शिक्षा के दर्शन होते है। लगभग सभी ने वह श्रवण लाभ लिया है।
ठुमरी और थाट के रसिकों को सामवेदीय शिक्षा का अनुभव हुआ होता है।
श्रीसुक्त पाठ श्रवण में ऋग्वेदीय शिक्षा का अनुभव मिलता है।
अथर्ववेद में ऋग्वेद और यजुर्वेद दोनो का मिश्रण होता है।
इसी कारण वेद त्रयी कहा जाता है। कविताओं के समान पढ़े जाने वाले ऋक ऋग्वेद में, गद्य के समान पढ़े जाने वाले मन्त्र यजुर्वेद में, गायन योग्य गान/ साम सामवेद में रखे गये हैं। इसी को वेदों का संहिता करण कहते हैं।

व्याकरण -  वर्तमान में पाणिनी रचित अष्टाध्यायी उसपर पतञ्जलि का महाभाष्य और वररुचि कात्यायन  का वार्तिक उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है।
इनकी सर्वश्रेष्ठ कुञ्जी / मेड ईजी लघुसिद्धान्त कौमुदी, मध्यमसिद्धान्त कौमुदीऔर वृहत्सिद्धान्त कौमुदी ग्रन्थ है।
भाषा जानने यानि जिसे बोलना, पढ़ना और लिखना आता है उसकी भाषा परिमार्जित करने में व्याकरण का महत्व है।
पहले जब संस्कृत लोकभाषा थी तब सीधे व्याकरण से आरम्भ होता था जैसे इंग्लेण्ड में ग्रामर स्कूलों  (प्राथमिक शालाओं ) में ग्रामर यानी इंगलिश व्याकरण पढ़ाया जाता है।

छन्द - वर्तमान उपलब्ध ग्रन्थ पिङ्गल शास्त्र के कारण पिंगलशास्त्र नाम रुड़ होगया है।
इसमें दोहा चौपाई सोरठा कुण्डलियाँ आदि लगभग सभी ने माध्यमिक शिक्षा तक हिन्दी में पढ़े हैं।
संस्कृत में श्लोक शब्द सभी ने सुना है।जिसकी खोज महर्षि वाल्मिकी ने की थी।इसे विश्व का पहला काव्य कहाजाता है। जिसमें णार पद होते हैं और चारों षदों में समान मात्राएँ होती है। अतः यह मात्रिक छन्द अनुष्टप छन्द कहलाता है। अधिकांश ध्यान मन्त्र  और स्तुतियाँ / स्तोत्र अनुष्टप छन्द में ही हैं।
वार्णिक छन्द में वर्णों की संख्या समान होती है।
गायत्री छन्द सभी जानते है। सावित्री मन्त्र का नाम ही गायत्री मन्त्र इसके छन्द के कारण ही पड़ गया।
द्विअर्थी संवाद रुप श्लेष अलंकार से भी ज्यादातर लोग परिचित हैं ।उपमा अलंकार का प्रयोग भी सब करते हैं। यह अर्थालंकार है तो कुछ शब्दालंकार जैसे अनुप्रास अलंकार ।
ये सब भी पढ़े हुए लगे होंगे। अलंकार काव्य और भाषा के भुषण हैं।
यही सब ज्ञान छन्दशास्त्र में है।

इन वेदाङगों के ज्ञान प्राप्त करे बगैर वेदों को समझना असम्भव है।

ज्ञानमिमांसा - ब्रह्मसूत्र/ शारीरक सुत्र (बादरायण का उपलबद्ध है) में शुक्ल यजुर्वेद के  अन्तिम चतुर्थांश  अध्याय 30 से 39 और अध्याय 40 यानी ईशावास्योपनिषद  और ब्राह्मण ग्रन्थों के उत्तरार्ध आरण्यकों और  आरण्यकों के अन्तिम अध्याय  उपनिषदों की मिमांसा और व्याख्या है;

धर्म मिमांसा/ कर्म मिमांसा -
पुर्व मिमांसा दर्शन (जेमिनी का पुर्व मिमांसा दर्शन उपलब्ध है। जिसपर शबर स्वामी का भाष्य, कुमारील भट्ट का कातंत वार्तिक और श्लोक वार्तिक माधवाचार्य का जेमिनीय न्यायमाला भाष्य ) में ब्राह्मण ग्रन्थों के पुर्वार्ध क्रियात्मक भाग की मिमांसा और व्याख्या है ; प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि नामक साधनों की चर्चा की गई है। यह यज्ञ प्रधान और स्वर्ग को अन्तिम गति मानने वाला दर्शन है।

सांख्य दर्शन -  में तत्व मिमांसा है, पुरुषसुक्त की स्रष्टि उत्पत्ति विवरण और वर्णन की मिमांसा और व्याख्या है। इसे ब्रह्मसूत्र का सहायक भाग कह सकते हैं।(वर्तमान में ईश्वर कृष्ण की सांख्ययोग कारिकाओं के अतिरिक्त कपिल का सांख्य दर्शन उपलब्ध है।

योग दर्शन - में अष्टाङ्ग योग में  स्वस्थ्य चित्त और स्वस्थ्य, सुघड़, बलिष्ठ देह और धृतिमान होकर सफल जीवन की कला सिखाई गई है।
अष्टाङ्ग योग धनुर्वेद और आयुर्वेद के लिये बहुत बड़ा सहयोगी ग्रन्थ है। वर्तमान में पतञ्जलि का योग दर्शन और उसपर व्यास भाष्य और उसपर भी व्यास वृत्ति सहित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उपलब्ध है।

वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान की दृष्टि से सृष्टि उत्पत्ति वर्णन है  यह सांख्य शास्त्र का सहयोगी है।वर्तमान में कणाद का वैशेषिक दर्शन उपलब्ध है।

न्याय दर्शन - में तार्किक दृष्टिकोण से गहन और विषद तर्कों के माध्यम से सृष्टि उत्पत्ति समझाई गई है।
इसका सर्वाधिक उपयोग मिमांसा दर्शनों में हुआ है।फिर भी इसे वैशेषिक दर्शन का सहयोगी दर्शन माना जाता है।

दर्शन - सभी दर्शनों का उद्देश्य परमात्मा से आज तक की जैविक और भौतिक सृष्टि तक विकास/ पतन चक्र के आधार पर परमात्मा - जीव और जगत के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करना है। जगजीवन राम ( जगत- जीवन - ब्रह्म / ईश्वर) का ज्ञान ही दर्शन है।

अठारह स्मृतियाँ और अठारह  उप स्मृतियाँ है।

स्मृति

1 अङ्गिरा,2 व्यास,3 आपस्थम्ब, 4 दक्ष, 5 विष्णु, 6 याज्ञवल्क्य, 7 लिखित, 8 संवत, 9 शंख, 10 ब्रहस्पति,11 अत्रि, 12 कात्यायन, 13 पाराशर, 14 मनु, 15औशनस, 16 हारीत, 17गोतम,18 यम।

उपस्मृति

1कश्यप, 2पुलस्य, 3 नारद,  4 विश्वामित्र,  5 देवल,  6  मार्कण्डेय,  7 ऋष्यशङ्ग 8 आश्वलायन,   9 नारायण,  10 भारद्वाज,  11  लोहित,   12 व्याग्रपद,   13 दालभ्य,   14 प्रजापति,  15 शाकातप, 16 वधुला, 17 गोभिल, 18

निबन्ध  - अन्त में आते हैं निबन्ध ग्रन्थ, जिनमें उक्त भिन्न भिन्न विषयों पर उनके रचना काल की परिस्थितियों के अनुकूल / अनुरूप और अनुसार आधुनिक तरीकों से निर्णय दिये गये है। या उपपत्ति समझाई गई है।

जैसे ज्योतिष में सुर्यसिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणी, गर्ग संहिता,वृहत्पाराशर होराशास्त्र, वराह संहिता, मुहूर्त चिन्तामणी से केतकी ग्रहगणितम्,  तक ,
धर्म शास्त्र में हेमाद्रि, कालमाधव से
निर्णय सिन्धु धर्म सिन्धु तक।
आयुर्वेद में चरक संहिता, सुश्रुत संहिता से रसराज महोदधि तक ,
वास्तु मे विश्वकर्मा प्रकाश, और मय वास्तु और राजा भोज की से वर्तमान की अनेक पुस्तकों तक।