अथ वेदिक सृष्टी उत्पत्ति वर्णन :-
ऋग्वेद एवं यजुर्वेद सामवेद और विशेषकर मुख्य रुप से उनके निम्नलिखित सुक्त -
ऋग्वेद का पुरुष सुक्त, (उत्तर नारायण सुक्त सहित), नासदीय सुक्त और अस्यवामिय सुक्त और ,श्री सुक्त, लक्ष्मी सुक्त,और देवी सुक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां और बत्तीसवां और चालिसवां अध्याय, में वर्णित सृष्टि रचना विवरण एवम् वर्णन ;
और निम्नांकित ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद / ब्राह्मणोपनिषद / आरण्यकोपनिषदों में प्रमुख ब्रह्म सुत्र (अर्थात उपनिषद) ये हैं -
ईशावास्योपनिषद (शुक्ल यजुर्वेद संहिता का अन्तिम / चालिसवां अध्याय), श्वेताश्वतरोपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय) , केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, एतरेयोपनिषद, तैत्तरियोपनिषद, मण्डुकोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद, कौशितकी ब्राह्मणोपनिषद और इन ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों के आधार पर रचित पुर्व मिमांसा दर्शन , उत्तर मिमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र) के अलावा सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन में वर्णित सृष्टि रचना विवरण एवम् वर्णन ;इनके अलावा
मनुस्मृति, याग्यवल्क्य स्मृति;
रामायण, महाभारत; महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के पिता महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण में उल्लेखित सृष्टि उत्पत्ति वर्णनके आधार पर सृष्टि उत्पत्ति का इतिहास लिखा गया है।
क्वोरा एप के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध विद्वान लेखक श्री अरविन्द कुमार व्यास महोदय के द्वारा पुराणों के बारे में कुछ जानकारी सहित उनके कुछ विवादास्पद तथ्यों पर जानकारी प्रस्तुत है शीर्षक से लिख गए आलेख में उन्होंने विष्णु पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है कि,---
"विष्णु पुराण में ध्रुव तारे का विवरण उसके थुबन होने का परिचायक है; तथा इसके अनुसार यह लगभग चार हजार वर्ष से अधिक प्राचीन (2600–1900 ईसा पूर्व) खगोलीय परिस्थिति है; जोकि विशाखा नक्षत्र में शारदीय विशुव (2000–1500 ईसा पूर्व) तथा दक्षिण अयनान्त के श्रवण नक्षत्र में (लगभग 2000 ईसा पूर्व) से सुदृढ़ होता है।"
अर्थात विष्णु पुराण कम-से-कम 2600ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व में रचा गया है। इसलिए सभी पुराणों में विष्णु पुराण को वरीयता दी गई है
के अलावा भागवत पुराण, देवीभागवत पुराण , ब्रह्मपुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, अग्नि पुराण, पद्म पुराण, , मत्स्य पुराण , वराहपुराण, नृसिहपुराण, वामनपुराण, गरुड़पुराण, नारदपुराण, मारकण्डेयपुराण, स्कन्द पुराण, आदि पुराणो- उप पुराणों
के सृष्टि रचना विवरण और वर्णन के आधार पर सृष्टि रचना निम्नानुसार हुई।
नोट-केवल शिव पुराण और लिंग पुराण दो ही ऐसे पुराण है जिसके कुछ अंश इस वर्णन से भिन्न मत रखते हैं।
सर्व प्रथम केवल परमात्मा ही थे। तत्वतः तो आज भी परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नही। जैसे वैज्ञानिक दृष्टि से केवल इनर्जी के अलावा कुछ नही है। बर्फ हो भाप हो या पानी हो रासायनिक दृष्टि से केवल पानी ही है। स्वर्ण निर्मित आभुषण हो, मुकुट हो या सिंहासन हो रासायनिक दृष्टि से और स्वर्णकार की दृष्टि से भी केवल सोना ही है।वैसे ही ज्ञानी की दृष्टि से तो आज भी केवल परमात्मा ही है।
परमात्मा यानि परम आत्म अर्थात परम मैं या हमे वास्तव में जिस स्वरुप में स्वयम् को मैं जानना समझाना चाहिए उस स्व रुप में मैं ही परमात्मा है ।
परमात्मा स्वरुप अध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सभी दृष्टि से केवल परमात्मा ही कहे जाते है।
पुरी सृष्टि आदिकाल से अन्तकाल तक जो भी सोचती है वह परमात्मा से परमात्मा के बारे में परमात्मा को ही सोचती है। जो भी देखती है केवल परमात्मा से परमात्मा को ही देखती है। जो भी बोलती है, कहती- सुनती है केवल परमात्मा के विषय में परमात्मा को परमात्मा से ही परमात्मा ही कहती- सुनती है। जो भी करती है परमात्मा के द्वारा परमात्मा के लिये परमात्मा के विषय में परमात्मा ही करती है। न इति अर्थात् इतना ही नही इतना ही नही ।नैति नैति।
इस विषय में न हम कुछ सोच सकते हैं न कुछ कह सकते हैं। बस परमात्म भाव में स्थित होकर उसी अवस्था में ही परमात्मा होकर ही जान सकते है। बस वही स्वयम् को जानता है। अस्तु काष्ठ मौन ही सर्वश्रेष्ठ भाषा है।
इस रुप में जानने वाला सद्योमुक्त अर्थात् जीवन्मुक्त यानि जीवित रहते हुए ही मुक्त है।
परमात्मा ने विश्वात्मा स्वरुपी ॐ संकल्प किया। विश्वात्मा को ॐ कहते हैं।
विश्वात्मा ॐ को परम पुरुष पुरुषोत्तम, अव्यय, सर्वव्यापी आत्मा भी कहते हैं।
ये कल्याण स्वरुप, परम श्रेय हैं।
ये साधन भी हैं और स्वयम् ही साध्य भी हैं।
ॐ का आकार ॐ के समान ध्वनि तरंग के रुप में कहा गया है।
किन्तु परमात्मा के ही समान विश्वात्मा ॐ के बारे में भी कुछ कहा नही जा सकता। नैति नैति।
इस रुप मे जानने वाला आत्मज्ञ भी सद्योमुक्त होता है।
परमात्मा ने अपने विश्वात्मा ॐ स्वरुपी संकल्प से स्वयं को प्रज्ञात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
प्रज्ञात्मा को आधिदैविक रुप से परब्रह्म कहा जाता है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि, आत्मा, सनातन अक्षर,क्षेत्रज्ञ, अधियज्ञ, कुटस्थ, परमगति और लगभग निर्गुण है।इनके बारे में भी विशेष कुछ सोचना कहना सम्भव नही है नैति नैति।
इस स्वरुप में ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद, और सामवेद संहिताओं, ज्ञान मिमांसा में वर्णित इस रुप में जान कर अभेद दर्शी जीवन्मुक्त होता है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म ने स्वयम् को परम पुरुष एवं परा प्रकृति के स्वरुप में प्रकट किया ।इन्हे दिव्य पुरुष भी कहते हैं।
आधिदैविक रुप से परम दिव्य पुरुष को विष्णु एवं परा प्रकृति को माया कहते हैं।
पुरुषार्थ शब्द इन्ही पुरुष के निमित्त किये जाने वाले कर्म को कहते हैं तो विष्णु के निमित्त किये जाने वाले कर्म यज्ञ कहलाते हैं।
इस रुप में जानने वाला अद्वैत दर्शी जीवन्मुक्त है।
माया :- माया भगवान विष्णु की शक्ति है।जैसे सूर्य की शक्ति प्रकाश है।वैसी ही विष्णु शक्ति माया है।
भगवान विष्णु की शक्ति माया को भगवान विष्णु के संकल्प स्वरुप अर्थात् भगवान विष्णु की कल्पना के रुप में सत् असत् अनिर्वचनीय कहते है।क्योंकि, जैसे स्वप्न में आप देश के प्रधान मन्त्री बन गये, प्रधान मन्त्री के रुप में मन्त्रीमण्डल का गठन कर किसी को केबिनेट मन्त्री,किसी को राज्य मन्त्री की शफत राष्ट्रपति से दिलवाते है। किसी को गृह मन्त्री तो किसी को विदेश मन्त्री के विभाग आवण्टित कर मन्त्री मण्डल की मिटिंग ले रहे हैं।
स्वप्नकाल में तो आप प्रधान मन्त्री और आपके मन्त्री गण सभी सत्य थे। उनका आपके साथ और आपका उनके साथ हुआ वार्तालाप, व्यवहार सभी स्वप्न काल में पुर्ण सत्य थे। किन्तु जागने पर उस प्रधान मंत्री, और मन्त्रियों का उनके द्वारा आचरित व्यवहार, वार्ता का कोई वास्तविक अस्तित्व भुत वर्तमान किसी भी काल में सत्य नही था। न भविष्य में होने की कोई निर्धारित सम्भावना है ।
वह प्रधान मंत्री, मन्त्री गण,शफत ग्रहण समारोह, मन्त्री मण्डल की मिटिंग सत्य थी या असत्य।
स्वप्नकाल के प्रधान मंत्री एवम् मन्त्रियों के लिये स्वप्नकाल में तो पुर्ण सत्य थी। किन्तु मन्त्री के रूप में स्वप्न में दिख रहे व्यक्तियों को तो इस घटना की कल्पना भी नही होती।उनके लिये वह घटना भुत, भविष्य वर्तमान तीनो कालों में पुर्ण असत्य है।
ऐसे ही संकल्पना होने से भगवान् विष्णु के लिए माया असत है।जबकि हमें प्रत्यक्ष होने से यानि हमारे सामने संसार रुप से साक्षात सम्मुख दृष्टिगोचर होने से पुर्ण सत्य है।
अतःइसे न सत्य कह सकते हैं न असत्य कह सकते हैं। यही सत् असत् अनिर्वचनीयता है।
अतः माया सदासदनिर्वचनीय है।
उल्लेखनीय है कि, भगवान विष्णु के संकल्प से उत्पन्न माया; ब्रह्म=प्रभविष्णु- श्री लक्ष्मी,अपर ब्रह्म = नारायण श्रीहरि- नारायणी कमला लक्ष्मी; हिरण्यगर्भ ब्रह्मा = त्वष्टा- रचना; प्रजापति=रुचि प्रजापति - आकुति; वाचस्पति =इन्द्र - शचि; ब्रह्मणस्पत्ति =द्वादश आदित्य गण और उनकी शक्तियां; ब्रहस्पति = अष्ट वसु गण और उनकी शक्तियां; पशुपति = शंकर आदि एकादश रुद्र और उमा आदि उनकी शक्तयां; सदस्पत्ति और उनकी शक्ति भारती देवी और उनके तीनों स्वरुप मही, सरस्वती और इळा (इला) से व्युत्पन्न (अधिदेव =) कश्यप-अदिति के पुत्र अष्ट आदित्य ; (अध्यात्म =) धर्म पुत्र अष्ट वसु ; (अधिभुत =) प्रभास - वरस्त्री के पौत्र, विश्वकर्मा के पुत्र एकादश रुद्रों- रौद्रियां, और पञ्च मुख्यप्राण-पञ्च उपप्राण, द्वादश तुषितगण उनकी शक्तियों सहित; ज्ञानेन्द्रियाँ - कर्मेन्द्रियां, उनचास मरुद्गण -उनकी शक्तियों सहित;पञ्च महाभुत- पञ्च तन्मात्राएं (पांच इनर्जी), अनैक रुद्रों रौद्रियों सहित; कारण शरीर,द्वादश साध्य गण उनकी शक्तियों सहित; सुक्ष्मशरीर, विश्वकर्मा, लिंग शरीर, यह्व; चार मुख्य चक्र-चार उपचक्र, चौरासी सिद्धों, उनकी सिद्धियों सहित; चार देहांगो-चार देह तन्त्र, विश्वकर्मा, त्वष्टा और उनकी शक्ति रचना; चार सिद्धियाँ -चार उप सिद्धियाँ (चार बल-चार फिल्ड ), अष्ट विनायक उनकी शक्तियों सहित; सुशुम्ना नाड़ी,दक्ष द्वितीय; पिंगला नाड़ी, विश्वरूप; ईड़ानाड़ी, ऐल भैरव; अणु (एटम), राजन सहित आगे की आधिभौतिक सृष्टि वर्तमान सृष्टि तक सब माया ही है।
सभी सदासदनिर्वचनीय माया ही है।
माया को केवल माँँ मान कर भगवान विष्णु के निमित्त यज्ञ करें तो मुक्ति में सहायक विद्या है। माँँ के बाद या / अथवा लगाकर संसार को भोग्य मानने पर यही माया बन्धन कारक अविद्या की भुमिका निभाती है ।
यह हम पर निर्भर है कि हम माँँ मानकर सेवा करते हुए माँँ विद्या के रुप में ग्रहण करके मुक्त होते हैं। अथवा या लगाकर भोग्या मानकर अविद्या के रुप में स्वयं को ग्रसित करवा कर बन्धन में पड़ें। यही माया की माया है।
ध्यान रखा जाय माया विष्णु की है विष्णु की ही रहेगी।
उसे भोग्या मानने की भुल डुबा देगी। तरना हो तो जगत की मातृवत सेवा करें। और भगवान विष्णु को एकमात्र अपना माने। भगवान विष्णु को ही एक मात्र अवलम्बन / सहारा माने।
रामजी की माया रामजी का खेत, चुगो चिड़ियां भर भर पेट।
न कुछ हमारे अधिकार का है न कुछ हमारा है,न हम किसी को कुछ दे सकते है। संसार के तन मन धन को संसार की सेवा में लगाकर हम कुछ नया अथवा विशेष नही करते। वह तो करना ही था। होना ही था। हमारा उसमें कोई कृतित्व नही। कोई कर्त्तापन नही। क्योंकि यही नियत था। हम केवल दर्शक भर हैं निमित्त भर हैं।
कर्त्ता तो या तो मायापति को कह सकते हैं या उनकी शक्ति माया को ही कर्त्ता कह सकते है। किन्तु वह सर्व कर्त्ता को कुछ करने का न तो कोई कारण हैं न वह कुछ करता है। उसके संकल्प से काल / नियति के अनुसार सब अपने आप हो रहा है। यही ऋत है।
माया विष्णु के समान पुर्ण चेतन नही है। अतः माया भगवान विष्णु के द्वारा प्रेरित किये बगेर अर्थात भगवान विष्णु की प्रेरणा के बगैर कुछ भी नही कर सकती। माया स्वतः कुछ भी करने में असमर्थ है । माया भगवान विष्णु के अधीन है । स्वाधीन नही है। अतः माया कुछ नही कर सकती।
परन्तु यदि हम कर्त्ता- भोक्ता भाव से ग्रसित हो गये तो यथार्थ दर्शन के ठीक विरुद्ध केवल भ्रम ही भ्रम, माया ही माया दिखती है। हम विवर्त में/ भंवर में फंसते और गर्तमें गिरते ही चले जाते हैं। बन्धन पर बन्धन बड़ते जाते हैं। दुःख ही दुःख दिखेगा। बुद्धि - विवेक जागृत होने पर दिखेगा कि, दुविधा में दोनो गये न माया मिली न राम।
हरे हरे।
विष्णु परमेश्वर हैं और सर्वव्याप्त होने से निराकार है। किन्तु
मुर्ति पुजक लोग विष्णु को (विष्णुलिंग) शालग्राम शिला के रुप में पुजते है।
नोट -लिंग अर्थात पहिचान चिह्न यानि प्रतिमा या मुर्ति।
फिर (प्रज्ञात्मा) परब्रह्म (परम दिव्य पुरुष -परा प्रकृति) विष्णु - माया ने स्वयम् को प्रत्यगात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
नोट- प्रत्यगात्मा अर्थात सभी की अपनी नीजी अन्तरात्मा।
प्रत्यगात्मा को आधिदैविक रुप से ब्रह्म कहते हैं।
ये प्रज्ञात्मा ब्रह्म को विधाता, महाकाश, क्षेत्र कहे जाते हैं और निराकार स्वरूप हैं ।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म के गुण निम्न लिखित हैं।
ॐ तत्सत्,
सच्चिदानंद,
सत्यं ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म,
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
उपदृष्टा,अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर।
कृष्ण यजुर्वेद, एवम् अथर्ववेद संहिता में वर्णित इस स्वरुप में स्वयम् को जानने वाला शुद्धाद्वैत दर्शी ब्राह्मण
द्युलोक मेंं अजयन्त देव अर्थात जन्मजात देवता के रूप मेंं रहते हुए मुक्त हो जाता है।
( प्रत्यगात्मा) ब्रह्म ने स्वयं को
पुरुष एवं प्रकृति के स्वरुप में प्रकट किया। पुरुष यानि प्रज्ञान और प्रकृति यानि प्रज्ञा ।
पुरुष को प्रज्ञान कहते हैं प्रकृति को प्रज्ञा कहते हैं ।
पुरुष को आधिदैविक रुप से सवितृ कहते हैं जिन्हे सविता बोला जाता है। सवितृ यानि सृष्टि के जनक, प्रेरक, रक्षक। पृकृति को सावित्री कहते हैं। सावित्री सवितृ की शक्ति हैं।
सवितृ को अष्टभुजा प्रभविष्णु एवं अज भी कहते हैं ये महेश्वर हैं ।
सावित्री/ गायत्री मन्त्र से सवितृ की ही आराधना उपासना कर हमारे बुद्धि और कर्मों को अपनी ओर यानि सवितृ के रुप में परमात्मा की ओर ले चलने की प्रार्थना की गई है।
धारयित्व /धृति को आधिदैविक रुप से सावित्री कहते हैं। सावित्री को श्री लक्ष्मी भी कहते हैं।
इस स्वरुप मेंं आत्मदर्शी सवितृ के स्वरुप मेंं परमात्मा को जानने वाला पुर्व मिमांसक, विशिष्ठाद्वैत दर्शी क्रम मुक्ति पाता है।
(पुरुष- प्रकृति) सवितृ एवं सावित्री { प्रभविष्णु -श्री लक्ष्मी} प्रथम पुर्ण सगुण किन्तु निराकार स्वरुप हैं। किन्तु
ध्यान मन्त्रों के आधार पर मुर्तियों में प्रभविष्णु (सवितृ) को श्याम वर्ण अष्ट भुजा रुप में शेष शय्या (प्रकृति) पर लेटे हुए बताते हैं और श्री देवी चँवर डुलाती हैं और लक्ष्मी देवी चरण सेवा करती हुई दिखाते हैं।
*ध्यान मन्त्र "शान्ताकारम् भुजग शयनम्" के आधार पर इन्हे क्षीरसागर में शेष शय्यासनस्थ श्री लक्ष्मी सेवित अष्टभुज स्वरुप को मूर्तियों और चित्रों में दर्शाया जाता है।* [ किन्तु कहीं कहीं क्षीर सागर में शेष शय्यासीन लक्ष्मी सेवित चतुर्भुज स्वरुप में भी मुर्तियां- चित्र आदि मिलते हैं]
पुष्कर के ब्रह्म - सावित्री मन्दिर मुलतःसवितृ अर्थात प्रभविष्णु और सावित्री अर्थात् श्रीदेवी के ही मन्दिर हैं।
नोट- राज्य सत्ता/ प्रभुसत्ता/ प्रभुत्व तथा अचल सम्पत्ति एवं गुण/विशेषताओं को श्री कहते है
तथा
पद / प्रभाव एवं चल सम्पत्ति को लक्ष्मी कहते हैं।
(प्रत्यागातमा) ब्रह्म ( पुरुष - प्रकृति) सविता / प्रभविष्णु एवम् सावित्री/श्री लक्ष्मी ने स्वयं को जीवात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
जीवात्मा को आधिदैविक रुप से अपरब्रह्म कहते हैं।
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट, महाकाल, अध्यात्म, क्षर, स्वभाव, वेदवक्ता हैं।
जीवात्मा प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता; गुण संगानुसार योनि मे जाने वाला है। परम महान, तरंगाकार स्वरुप हैं।
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट का लोक शिशुमार चक्र (छोटा सप्तर्षि मण्डल) के हृदय (केन्द्र) में हैं ।
इस स्वरुप में आत्म दर्शी, अपरब्रह्म विराट स्वरुप में परमात्मा को जानने वाले ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद और सामवेद वे ब्राह्मण ग्रन्थों मेंं वर्णित और अचिन्त्य भेदाभेद दर्शी सांख्य दर्शन के ज्ञाता वैकुण्ठ मेंं आजानज देव के रुप में रहकर क्रम मुक्त होते हैं।
(जीवात्मा) अपरब्रह्म ने स्वयं को
जीव अर्थात अपर पुरुष एवं आयु अर्थात सत्व, रज, तम् गुण वाली त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति के रुप में प्रकट किया। जिसे सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रधान कहते हैं ।
जीव अर्थात अपर पुरुष को आधिदैविक रुप से जिष्णु और नारायण श्रीहरि कहते हैं। इन्हे धाता भी कहते हैं।और ये नियति चक्र हैं। ये ही विवेक / विज्ञान और विद्या कहलाते हैं।
नारायण श्री हरि जगदीश्वर हैं। इनका लोक शिशुमार चक्रस्थ वैकुण्ठ लोक कहलाता है। यहीं क्षीर सागर है।
प्रत्यैक जीवित के निर्धारित जीवन काल को आयु कहते हैं। आयु अर्थात त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति।
आयु अर्थात् त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति को आधिदैविक रुप से कमला लक्ष्मी (पद्मा) कहते हैं।
स्वाभाविक भेदाभेद वादी कपिल ऋषि के सांख्य दर्शन से इस स्वरुप में आत्मदर्शी नारायण श्रीहरि भक्त होकर क्रम मुक्ति पाता है।
(जीव-आयु) नारायण श्री हरि -कमला लक्ष्मी (पद्मा) प्रथम साकार तरंगाकार स्वरुप है।
कभी कभी [सफेद संगमरमर की मुर्ति ] चतुर्भुज स्वरुप में {गौर वर्णी} जिष्णु नारायण श्रीहरि के सांथ खड़े {गौर वर्णी} कमला लक्ष्मी (पद्मा) के रुप में दर्शाते हैं।
सत्यनारायण वृत कथा में भी
श्री सत्यनारायण को गौरवर्ण बतलाया है। जबकि हरि रुप श्याम सुन्दर कहा जाता है।
नोट - विष्णु, प्रभविष्णु, जिष्णु नारायण हरि, द्वादश आदित्यों में से एक विष्णु यानि वामन अवतार सभी को विष्णु समझ कर कई जगह शास्त्र को समझने मैं चुक हो जाती है।
नारायण ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, वाचस्पति, ब्रह्मणस्पति, बृहस्पति सबको ब्रह्मा कहा जाता है। इसे भी प्रकरण के अनुसार समझना पड़ता है।
स्वर्गाधिपति सदा विजेता, अपराजेय इन्द्र द्वादश आदित्यों, अष्ट वसुओं, एकादश रुद्रों, दक्ष प्रजापति और स्वायम्भुव मनु / वैवस्वत मनु के सम्राट हैं ।किन्तु
द्वादश आदित्यों मे से एक इन्द्र नामक आदित्य; अष्टादित्यों में से एक इन्द्र नामक आदित्य; एवं तिरसठ विश्वैदेवों में ये एक सुरेश नामक विश्वैदेव आदि को भी इन्द्र कहते हैं।
[नोट- कहीं- कहीं दक्ष और मनु की जगह दस्र और नासत्य दोनो अश्विनि कुमारो के नाम मिलते हैं।]
ऐसे ही
एकरुद्र (परब्रह्म ), महारुद्र (पशुपति) प्रजापति के समतुल्य हैं और एकादश रुद्र जिसमें शंकर जी भी हैं प्रजापति की सन्तानों के तुल्य हैं। मुलतः प्रजापति ही महादेव अर्थात् सब देवताओं में वरिष्ठ हैं किन्तु रुद्र की अष्टमुर्ति जिसमें एक महादेव भी है, महांकाल (धर्म के पौत्र, विश्वकर्मा के पुत्र एकादश रुद्रों में से एक), महाकाल (अपर ब्रह्म ) सबको शंकर समझते हैं। इससे शास्त्रों की व्याख्या में बहुत भ्रम पुर्ण मतभेद उभरे हैं।
(जीवात्मा) अपरब्रह्म (जीव - आयु) जिष्णु श्री हरि- कमला/ पद्मा) ने स्वयं को
भुतात्मा के स्वरुप में प्रकट किया। भुतात्मा को आधिदैविक रुप से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा कहा जाता है। इन्हे विश्वकर्मा भी कहते हैं। ये महादिक, अधिभुत हैं। हिरण्यगर्भ की शक्ति (पत्नी) वाणी कही जाती हैं।
भुतात्मा हिरण्यगर्भ प्रथम साकार रुप दीर्घगोलाकार स्वरुप है। इनकी आयु दो परार्ध अर्थात एकतीस नील,दस खरब,चालिस अरब वर्ष है।
जिसमें से ये आधी आयु पुर्ण कर अपनी आयु के पचास वर्ष पुर्ण कर एक्कावनवें वर्ष के प्रथम दिवस में चल रहे हैं।( या अन्य मत से तृतीय दिन में चल रहे हैं।)
एक्कावनवें वर्ष के प्रथम दिन में सत्ताइस महायुग व्यतित होकर अट्ठाइसवें महायुग के कृतयुग,
त्रेतायुग और द्वापर युग व्यतीत होकर कलियुग के भी पांच हजार एक सौ सोलह वर्ष व्यतीत हो चुके।
तदनुसार मानवीय वर्ष गणनानुसार हिरण्गर्भ ब्रह्मा जी की अवस्था / वय
एक्कावनवें वर्ष के प्रथम दिवस के सप्तम् मन्वन्तर के अट्ठाइसवें कलियुग के पांच हजार एकसौ सोलह वर्ष व्यतीत वय मानने पर मानवीय गणनानुसार हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की अवस्था / वय पन्द्रह नील पचपन खरब एक्कीस अरब सित्यानवे करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एक सौ सोलह वर्ष की हो चुकी है।
अन्य मतानुसार एक्कावनवें वर्ष के तृृृतीय दिवस के सप्तम् मन्वन्तर के अट्ठाइसवें कलियुग के पांच हजार एकसौ सोलह वर्ष व्यतीत वय मानने पर मानवीय गणनानुसार हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की अवस्था / वय
पन्द्रह नील पचपन खरब तीस अरब एकसठ करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एक सौ सोलह वर्ष हो चुकी है।
चुंकि अधिकतर पुराणों में आया है कि, पहला पाद्म कल्प, दुसरा ब्राह्म कल्प और तीसरा श्वैत वराह कल्प वर्तमान है ।अतः तीसरे दिन वाली उक्त गणना
पन्द्रह नील पचपन खरब तीस अरब एकसठ करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एक सौ सोलह वर्ष ही सही लगती है।
15,55,30,61,29,49,116 वर्ष व्यतीत मानने पर ब्रह्मायु के पन्द्रह नील पचपन खरब नौ अरब अड़तीस करोड़ सत्तर लाख पचास हजार आठ सौ चौरासी वर्ष शेष हैं। तत्पश्चात प्राकृत प्रलय/ महा प्रलय होगा जिसमे आगे/ जीवात्मा के बाद उलेलेखित सभी तत्व / देवता अपने कारण में लीन हो जावेंगे। भुतात्मा भी जीवात्मा में लीन हो जावेंगे। यानी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा भी विराट अपर ब्रह्म महाकाल में लीन हो जावेंगे।
ब्रह्मा जी की आयु के 15,55,21,97,29,49,116 वर्ष व्यतीत हुआ मानने पर प्राकृत /महा प्रलय को अभी 15,55,18,02,70,50,884 वर्ष शेष हैं।
कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थों मेंं वर्णित ,कर्म मिमांसक, योग दर्शन, त्रेत वादी दार्शनिक क्षत्रिय सत्य लोक मेंं वैराजदेव अर्थात् प्राकृतिक देवता के रुप में क्रम मुक्त होते हैं।,
(भुतात्मा) हिरण्गर्भ ने स्वयं को प्राण यानि देही एवम् धृति यानि धारयित्व /( जिसे संक्षिप्त में रयि भी कहते हैं) यानि अवस्था के रुप में प्रकट किया। यह प्राण ही चेतना कहलाता है। इसे संज्ञान भी कहते हैं। और धृति ही संज्ञा है। प्राण ही अपनी धारण शक्ति से शरीर (यानि जगत) को धारण किये हुए है। और ये ही देह त्यागते हैं तो मृत्यु घटित होती है। इस कारण प्राण को देही कहा जाता है।
आधिदैविक रुप से प्राण ( देही) को त्वष्टा और धृति (अवस्था) को रचना कहते हैं। त्वष्टा ईश्वर श्रणी के देवता हैंं।।
ये विश्वकर्मा इंजिनियरों के देवता हैं जो त्वष्टा के रुप में दृष्य संसार के रचियता है। यह संसार त्वष्टा की ही रचना है।
योग दर्शन एवं मध्व द्वैत वादी क्रम मुक्ति पाते हैं।
विशेष - ध्यान रहे ये विश्वकर्मा एवं त्वष्टा धर्म के पोत्र अर्थात वसु के पुत्र विश्वकर्मा और वसु के पौत्र त्वष्टा से प्राचीन हैं तथा ये त्वष्टा शुक्राचार्य के पुत्र, शाक्त पन्थ के प्रवर्तक त्वष्टा से अति प्राचिन हैं और भिन्न है।
भुतात्मा) हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को सृष्टि को आगे बढ़ानें का कार्य करना था। लेकिन कहा जाता है कि, उन्हें कोई सुत्र समझ नही आ रहा था इसकारण उन्हें रोष उत्पन्न हुआ उसके साथ ही अर्धनारीश्वर स्वरूप एकरुद्र उत्पन हुए। जन्मतः ये प्रजापति से वरिष्ठ हुए। किन्तु सृष्टि संवर्धन में असमर्थता वश ये तप में सलग्न हो गये। कालान्तर में इनने स्वयम् को एकादश रुद्र और रोद्रियों में प्रकट किया। जो प्रजापति की सन्तों के तुल्य हुए।
(भुतात्मा) हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (प्राण/ चेतना - धृति यानि देही और अवस्था) त्वष्टा - रचना ने स्वयम् को सुत्रात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक रुप से सुत्रात्मा को प्रजापति कहते हैं। प्रजापति की शक्ति (पत्नी) सरस्वती कही जाती हैं।
इनको प्रजापति ब्रह्मा, विश्वरुप, महादेव भी कहते हैं। ये दीर्घ गोलाकार हैं ।
सुत्रात्मा (एवम् अणुरात्मा) आनन्दमय कोष एवं कारण शरीर कहलाते है।
सुत्रात्मा प्रजापति की आयु हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक अहोरात्र के तुल्य आठ अरब चौसठ करोड़ मानवीय वर्ष होती है। जिसमें से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक दिवस/ दिन के तुल्य चार अरब बत्तीस करोड़ मानवीय वर्ष वे सक्रिय रहते हैं।
(और शेष आधी आयु/ हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की एक रात्रि भर निष्क्रिय आयु होती है। ) इनकी सक्रिय आयु सौ वर्ष मानकर
वर्तमान प्रजापति की सक्रिय आयु में से अवस्था /वय के पचास वर्ष पुर्ण कर एक्कावनवें वर्ष के प्रथम दिवस के छः मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं।सातवे वैवस्वत मन्वन्तर के सत्ताइस महायुग व्यतीत होकर अट्ठाइसवें महायुग के सतयुग,त्रेतायुग और द्वापरयुग व्यतीत होकर कलियुग के पांच हजार एक सौ सोलह वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। तदनुसार प्रथम दिवस के (कल्पारम्भ हृए) एक अरब सित्यानवे करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार एक सौ सोलह वर्ष पुर्ण हो चुके हैं।
तदनुसार हिरण्यगर्भ के दिवस समाप्ति अर्थात कल्पान्त को यानि नैमित्तिक प्रलय को (अर्थात हिरण्यगर्भ को शयनावस्था में जाने को )अभी दो अरब चौंतीस करोड़ सत्तर लाख पचास हजार आठ सौ चौरासी वर्ष शेष हैं।इसके पश्चात् स्वर्ग पर्यन्त सभी लोक, सूर्यादि नक्षत्र नष्ट हो जायेगे।महर्लोक जन शुन्य हो जावेगा। सभी शेष पुण्यात्मा जनःलोक में शरण लेंगे ।
ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद, सामवेद के श्रोत सुत्रों, ग्रह्य सुत्रों, धर्म सुत्रों,और कल्प सुत्रों में वर्णित धर्म, दर्शन, एवं क्रियाओं का सम्पादन कर्त्ता न्याय दर्शी दार्शनिक वैश्य तपःलोक में विश्वैदेवों के रुप में रहकर क्रम मुक्ति पाता है।
(सुत्रात्मा ) प्रजापति ने स्वयम् को
रेतधा यानि ओज और स्वथा के रुप में प्रकट किया।
आधिदैविक रुप से रेतधा/ औज को दक्ष प्रजापति कहते हैं एव उनकी शक्ति को प्रसुति कहते हैं। इन्हे पुषण् और पुष्टी भी कहते हैं । प्रजापति को तीन प्रजापतियों के रूप में जाना जाता है १ दक्ष - प्रसुति, २ रुचि - आकुति और ३ कर्दम - देवहूति।
इस रुप में स्वयम् को जानने वाला प्रजापतियों को परमात्मा के रुप में मानकर उपासना करने वाला न्याय दार्शनिक भी क्रम मुक्त होता है।
सुत्रात्मा प्रजापति ने स्वयम् को अणुरात्मा के स्वरुप में प्रकट किया। आधिदैविक रुप से अणुरात्मा को वाचस्पति कहा जाता है। यह ब्रह्माण्ड स्वरुप है। वाचस्पति की पत्नी (शक्ति) वाक है।
(सुत्रात्मा एवम् ) अणुरात्मा आनन्दमय कोष एवं कारण शरीर कहलाते है।
अणुरात्मा वाचस्पति की आयु एक मन्वन्तर तुल्य तीस करोड़ सड़सठ लाख मानवीय वर्ष होती है।
अणुरात्मा वाचस्पति की अवस्था /वय बारह करोड़ पांच लाख तैंतीस हजार एक सौ सोलह मानवीय वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।
अणुरात्मा वाचस्पति की आयु के शेष अठारह करोड़ एकसठ लाख छांछठ हजार आठ सौ चौरासी वर्ष पश्चात जैवीक प्रलय होगा।इसके पश्चात् केवल ग्रह नक्षत्रों के पिण्ड रह जावेंगे। किन्तु भूः और भुवः लोक / अन्तरिक्ष तक के प्राणी समाप्त होकर स्वर्ग लोक के सभी जीव महर्लोक में शरण लेंगे।सप्तम मन्वन्तर समाप्त होने पर फिर आठवें सावर्णि मनु छटै मन्वन्तर के समापन पुर्व संचित सुरक्षित बीज/ बीजों से पुनः नवीन जैविक सृष्टि सृजन करेंगे।
अणुरात्मा को आत्म स्वरुप में देखने वाला,खं ब्रह्म का उपासक शुद्र भी कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद के श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रौं, शुल्बसुत्रों,धर्मसुत्रों के अनुसार धर्म पालन करता हुआ वैशेषिक दार्शनिक जनःलोक में कर्मदेव योनि में रहकर क्रममुक्त हो जाता है।
(अणुरात्मा) वाचस्पति ने स्वयम् को
तेज एवम् विद्युत के स्वरुप में प्रकट किया। आधिदैविक दृष्टि से तेज को इन्द्र एवम् विद्युत को शचि कहते हैं।
ये इन्द्र [12 आदित्य+ 8 वसु + 11 रुद्रों +दक्ष (प्रथम) प्रजापति एवं स्वायम्भू: मनु/ वैवस्वत मनु (या मतान्तर से दस्र और नासत्य नामक दोनो अश्विनीकुमारों सहित) कुल तैतीस देवता गणों के समुदायों के राजा हैं ।
देवलोक स्वः अर्थात स्वर्ग के राजा इन्द्र सदैव अपराजित हैं। ये आदित्य इन्द्र, राजेन्द्र एवं विश्वैदेवाः सुरेश से श्रेष्ठ एवं भिन्न हैं।
नोट- (मार्तण्ड) सुर्य के उत्तरी ध्रुव के (उपर) उत्तर में एवम् ध्रुव तारे के दक्षिणी ध्रुव के दक्षिण में (नीचे) देवलोक स्वर्ग है।
नागवीथि तारामंडल के उत्तर में और सप्रर्षि तारा मण्डल के दक्षिण में सूर्य का उत्तरी मार्ग देवयान मार्ग है।
अगस्त्य तारे के उत्तर में तथा अजवीथि के दक्षिण में वैश्वानर मार्ग से भिन्न मृगवीथि नामक पितृयान पथ है।
तेज को आत्मस्वरुप मानने वाले इन्द्र की परमात्म स्वरुप मानकर वैशेषिक दार्शनिक भी क्रममुक्ति प्राप्त करते हैं।
अणुरात्मा वाचस्पति ने स्वयम् को
विज्ञानात्मा के स्वरुप में प्रकट किया। आधिदैविक दृष्टि से विज्ञानात्मा को ब्रह्मणस्पति कहते हैं । प्रजापति की सन्तान और ब्रह्मर्षियों के नायक ब्रह्मणस्पति की शक्ति (पत्नी) सुनृता है।
विज्ञानात्मा (एवं ज्ञानात्मा ) विज्ञानमय कोष एवं सुक्ष्म शरीर कहलाते हैं।
विज्ञानात्मा को आत्मवत् माननेवाले, ब्रह्मणस्पति को इष्ट मानने वाले पुण्याहवाचक, सुत्त पिटक और विनय पिटक में उल्लिखित माध्यमिक, शुन्यवादी दार्शनिक दासजन भी महर्लोक में आदित्य, साध्यदेव योनि में रह कर क्रममुक्त होते हैं।
(विज्ञानात्मा) ब्रह्मणस्पति ने स्वयं को चित्त और वृत्ति के रुप में प्रकट किया।
( चित्त अर्थात विज्ञान या महत्ततत्व जिसकी विभिन्न वृत्तियाँ- तुरीय (समाधी), जागृति, सवप्न, तन्द्रा, निन्द्रा आदि होती है )।
आधिदैविक रुप से चित्त ( विज्ञान/महतत्व ) को द्वादश आदित्य एवं वृत्ति या विद्या आदित्य शक्तियां कहते हैं।
द्वादश आदित्य गण ये हैं - 1 विष्णु, 2 सवितृ (सविता), 3 त्वष्टा, 4 इन्द्र, 5 वरुण, 6 विवस्वान, 7 पुषा, 8 भग, 9 अर्यमा, 10 मित्र, 11 अंशु, 12 धातृ (धाता) । ये आदित्य देवगण आजानज (जन्मजात) देवता है इनका वास स्थान देवलोक स्वर्ग है।
विज्ञान / चित्त को आत्मस्वरुप मानने वाले आदित्यों की परमात्म भाव से उपासना करने वाले भी रामायण,महाभारत, विष्णु पुराण, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाञ्चरात्र तन्त्रों, के अनुसार धर्मोपासना करते हुए विज्ञान वादी दार्शनिक भी क्रममुक्त होते हैं।
विज्ञानात्मा ब्रह्मणस्पति ने स्वयं को ज्ञानात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से ज्ञानात्मा को ब्रहस्पति कहते हैं। ब्रहस्पति की पत्नी तीन शक्ति (पत्नियाँ) हैं १ शुभा, २ ममता, और ३ तारा है।
(विज्ञानात्मा एवं) ज्ञानात्मा विज्ञानमय कोष एवं सुक्ष्म शरीर कहलाते हैं।
ज्ञानात्म वादी,वाचस्पति को इष्ट कर मग, म्लेच्छ भी कृष्ण पुराणों, अभिधम्म पिटक के अनुसार स्रोत्रान्तिक भी स्वर्ग में तुषितगण देव योनि मे क्रम मुक्त होते हैं।
ज्ञानात्मा ब्रहस्पति ने स्वयं को बुद्धि एवं मेधा के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से बुद्धि को अष्ट वसु एवं मेधा को वसुओं की शक्ति कहते हैं।
वसुओं का वासस्थान स्वर्ग /देवलोक हैं। अन्तरिक्ष और भूमि पर भी आते हैं।
अष्ट वसुगण ये हैं -1 प्रभास, 2 प्रत्युष, 3 धर्म, 4 ध्रुव, 5 सोम, 6 अनिल, 7 अनल, 8 आप । ये वसु देवगण वैराज देव (प्राकृतिक देवता) हैं ।
बुद्धि आत्मवादी, वसु इष्टदेव वाले वैभाषिक भी क्रम मुक्त होते हैं।
(ज्ञानात्मा) ब्रहस्पति ने स्वयं को
लिंगात्मा के स्वरुप में प्रकट किया। आधिदैविक दृष्टि से लिंगात्मा को पशुपति कहते हैं।
ये पशुपति अर्धनारिश्वर महारुद्र रुप में प्रकट हुए।
लिंगात्मा (एवं मनसात्मा ) मनोमय कोष एवं लिंग शरीर कहलाते हैं।
लिंगात्मा वादी, अर्धनारिश्वर स्वरुप में पशुपति मे परमात्मा भाव वाले शिव पुराण के अनुसार धर्म दर्शन मानने वाले शैव, हटयोगी, दिगम्बर, मिढ भुवः लोक में लोकपाल योनि मेंं क्रममुक्त होते हैं।
(लिंगात्मा) पशुपति महारुद्र ने स्वयं को अहंकार शंकर एवं अस्मिता उमा के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से अहंकार शंंकर और अस्मिता उमा नें स्वयम् दशरुद्र एवम् अस्मिता को दश रौद्रियों में प्रकट ।रुद्रगण वैराजदेव हैं और किन्तु कर्मदेव भी हैं। ये अन्तरिक्ष वासी देवता हैं। रुद्र स्वर्ग में भी जा सकते हैं और भुमि पर भी रहते हैं।
एकादश रुद्रगण ये हैं - 1 शंकर, 2 हर, 3 त्र्यंबक (त्रिनैत्र),4 वृषाकपि, 5 कपर्दि (जटाधारी), 6 अजैकपाद,7 अहिर्बुध्न्य (सर्पधर), 8 अपराजित, 9 रैवत, 10 बहुरुप,11 कपाली (कपाल धारी),।
शंकर - सति/उमा इन्ही एकादश रुद्रों में से एक है।
रुद्र की अष्टमुर्ति ये हैं 1भव,2शर्व ,3ईशान, 4पशुपति, 5द्विज,6भीम, 7उग्र, 8 महादेव।
अहंकार को आत्मा मानकर, रुद्र को परमात्मा भाव से पूजने वाले भी मलिन श्वैत वस्त्र धारी कठोर जीवन यापन कर्त्ता भी क्रम मुक्ति पाते हैं।
लिंगात्मा पशुपति ने स्वयं को मनसात्मा के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से मनसात्मा को गणपति कहते हैं। ये गणपति गजानन विनायक से श्रेष्ठ और भिन्न देवता हैं । गणपति की शक्ति (पत्नियाँ) ऋद्धि और सिद्धि कही जाती है।
(लिंगात्मा एवं) मनसात्मा मनोमय कोष एवं लिंग शरीर कहलाते हैं।
(मनसात्मा) गणपति ने स्वयं को
मन एवं संकल्प के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से मन को स्वायम्भुव मनु एवं संकल्प को शतरुपा कहते हैं।
मनसात्मा आत्म वादी,गणपति में परमात्म भावी,अवेस्तन,भूलोक में दिक्पाल योनि में रहकर क्रम मुक्ति पाते हैं।
(मनसात्मा) गणपति ने स्वयं को स्व एवम् स्व की शक्ति स्वभाव के स्वरुप में प्रकट किया।
आधिदैविक दृष्टि से स्व को सदसस्पति यानि सभापति कहते हैं।
मन को आत्म स्वरुप मानने वाले,स्वायम्भुव मनु मेंं परमात्मा का भाव रखने वाले जेन्दावेस्ता,गाथाओं में वर्णित धर्म दर्शन मानने वाले भी क्रम मुक्त होते हैं।
आधिभौतिक दृष्टि से स्व/सदसस्पति / सभापति को सिंग्युलरिटि कहते हैं। स्व / सदसस्पति कणाद ऋषि का परमाणु अर्थात वह मुल कण जिससे इलेक्ट्रॉन,फोटॉन, पाजिट्रॉन, क्वार्क आदि बने हैं।
स्व (एवं स्वभाव ) प्राणमय कोष एवं स्थुल शरीर कहलाते हैं।
स्व आत्मवादी, सदसस्पति में परमात्मा भाव वाले समय मत वाले दक्षिण मार्गी तान्त्रिक अतल लोक में क्षेत्रपाल योनि में क्रम मुक्त हो सकते हैं।
(स्व) सदसस्पति से उनकी शक्ति स्वभाव प्रकट हुई ।
आधिदैविक दृष्टि से स्वभाव को मही देवी कहते हैं।[मही=भुमि]
आधिभौतिक दृष्टि से स्वभाव को इनर्जी Energy कहते हैं।
(स्व एवं) स्वभाव प्राणमय कोष एवं स्थुल शरीर कहलाते हैं।
इनके उपासक वाममार्गी, कौलमत वाले तान्त्रिक वैतालिक,कापालिक होते हैं।
(स्व-स्वभाव) सदसस्पति- मही ने स्वयं को निम्नलिखित तीन स्वरुपों में विभाजित किया।
स्वभाव से उत्पन्न पिण्ड/ एटम पर्यन्त सभी तत्व अन्नमय कोष एवं स्थुल शरीर कहलाते हैं।
1-(स्वाहा = स्व का हनन) भारती देवी {लक्ष्मी के समान देवी} [आधिदैविक शक्ति ज्ञान], Supper ego.
वज्रयान (तान्त्रिक) उपासक (स्वाहा ) भारती को मानते हैं। अतल लोक में मातृका योनि मे रहते हैं।
2 -(वषट = मस्तिष्क सम्बन्धी) सरस्वती देवी {आध्यात्मिक शक्ति क्रिया}, Mental energy. Ego.
वषट सरस्वती को दास जन मानते थे।सुतल लोक में लोक मातृका योनि में रहते हैं।
3- (स्वधा) इळा देवी {चण्डिका भवानी के समान} [आधिभौतिक शक्ति इच्छा]
Ed. Cosmic energy
(स्वधा) इळा को क्रीट के इजियन लोग मानते थे।रसातल में योगिनी योनि म॓ रहते हैं।
तत्पश्चात
एक- (स्वाहा) भारती से अधिदेव( अदिति पुत्र अष्टादित्य) प्रत्यक्ष/ साक्षात ( Sky स्काय) , Councious हुए।
अदिति पुत्र अष्टआदित्य हुए-
1 मार्तण्ड {विवस्वान } [हमारा सूर्य], 2 इन्द्र {सुरेश से श्रेष्ठ } 3 वरुण,4मित्र, 5 धाता, 6 भग, 7 अर्यमा,
8 अंश हैं ।
अधिदेव (अष्टादित्य) को चीन के ताओ लोग मानते हैं। वितल लोक में आभास्वर योनि में रहते हैं।
दो- (वषट) सरस्वती से (अध्यात्म) अष्ट वसु , अर्धप्रत्यक्ष (Time टाइम), Sub Counicious हुए।
धर्म पुत्र अष्ट वसु हुए- 1ध्रुव, 2 अर्क, 3 अनल, 4 द्रोण, 5 प्राण, 6 वसु (भूमिगत धन), 7 विभावसु, 8 दोष हैं
मिश्र के ओरिसिस लोग (अध्यात्म) अष्ट वसु को मानते थे । तलातल लोक में यक्ष योनि में रहते हैं।
तीन - (स्वधा ) ईळा से (अधिभुत )
{प्रभास-वरस्त्री के पुत्र विश्वकर्मा के पुत्र) भी एकादश रुद्गगण Space, Un Concious हुए ।
1 शम्भु, 2 ईशान, 3 महान, 4 महिनस, 5 भव, 6 शर्व, 7 काल, 8 उग्ररेता, 9 मृगव्याघ, 10 निऋति, 11 स्थाणु
के रुप में विभाजित किया ।
टर्की के खत्तुनस/ हित्ती (अधिभुत )
एकादश रुद्गगण को मानते थे।
महातल में दैत्य योनि में रहते हैं।
फिर
एक- (अधिदेव) अष्टादित्य ने स्वयं को पञ्च प्राण एवं पञ्च उप प्राण के रुप में विभाजित किया।-
1 उदान, 6 देवदत्त, 2 व्यान, 7 धनञ्जय,
3 प्राण, 8 कृकल, 4 समान, 9 नाग,
5 अपान 10 कुर्म
अष्टादित्यों ने स्वयं को द्वादश तुषितदेव गण हुए के रुप में प्रकट किया ।-
1 उदान, 2 व्यान, 3 प्राण, 4 समान,
5 अपान ,6 श्रोत, 7 त्वक (स्पर्ष),
8 चक्षु, 9 रसना,10 घ्राण, 11 मन,
12 बुद्धि ।
पञ्च प्राण को चीन के कुंगफु / कन्फ्युशियस लोग मानते हैं ।
वितल में महाराजिक योनि में रहते हैं।
पंच उपप्राण तुषितगणों की शक्तियों को जापान के शिन्तो लोग जानते मानते हैं।
दो - (अध्यात्म) अष्ट अन्य वसु ने स्वयं को (पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ एवं उनकी पञ्च कर्मेन्द्रिय के रुप में विभाजित किया ।-
1 श्रोत, 6 वाक,
2 त्वक, 7 हस्त,
3 चक्षु, 8 पाद,
4 रसना, 9 उपस्थ,
5 घ्राण, 10 पायु
के रुप में विभाजित किया।
अन्य वसुओं ने स्वयम्
उनचास मरुद्गण के रुप में प्रकट हुए।
मरुतों के नाम आगे दिये जायेंगे ।
लेबनान के फिनिशियन लोग ज्ञानेन्द्रियाँ मरुद्गणों को मानते थे। तलातल में विद्याधर योनि में रहे हैं।
कर्मेन्द्रियों मरुतों की शक्तियों को इंग्लैंड के सेल्ट/ केल्ट लोग जानते मानते थे।
तीन- (अधिभुत) विश्वकर्मा पुत्र रुद्रों ने स्वयं को पञ्च महाभूतों एवं उनकी पञ्च तन्मात्राके रुप में विभाजित किया। -
1 आकाश, 6 शब्द,
2 वायु, 7 स्पर्श,
3 अग्नि, 8 रुप,
4 जल, 9 रस,
5 भूमि 10 गन्ध
तन्मात्राओं को आधिभौतिक दृष्टि से क्रमशः शक्ति ( उर्जा ) कहते हैं।
1 (शब्द) ध्वनि, 2 (स्पर्श) विद्युत, 3 ( रुप) प्रकाश, 4 (रस) उष्मा, 5 ( गन्ध ) चुम्बकत्व (इनर्जी )।
एकादश रुद्रों ने स्वयं को अनैक रुद्रों के रुप में प्रकट किया।जो इस प्रकार हैं -
(बैक्टीरिया, वायरस, सिपि, घोघा, सर्प, बिच्छु, चोर, डाकु, लुटेरे, पुलिस, सैनिक सब अनैक रुद्र में आते हैं ।
(महाभूतों) अनैक रुद्रों को सिरिया के सूर लोग जानते मानते थे। (तन्मात्रा) अनैक रुद्रों की शक्तियों को इराक के असिरिया के असुर लोग मानते थे।
बाद में
एक - (अधिदेव) अष्टादित्य से (कारण शरीर ) अश्विनौ के रुप मे प्रकट किया -
1 नासत्य और 2 दस्र
हुए।
कारण शरीर दोनो अश्विनी कुमारों को युनान के आयोनिक लोग मानते धे। सुतल में गन्धर्व योनि में रहते हैं।
दो- (अध्यात्म) धर्म पुत्र अष्ट वसुओं से (सुक्ष्म शरीर) विश्वकर्मा हुए।
नोट- ये विश्वकर्मा देवलोक स्वर्ग के इन्जिनियर है। ये मेकेनिकों के देवता हैं।
(सुक्ष्म शरीर) विश्वकर्मा को मध्य अमेरिका महाद्वीप / लेटिन अमरीका के तोलन लोग मानते थे।रसातल में गुह्यक योनि में रहते हैं।
तीन- (अधिभुत) विश्वकर्मा पुत्र एकादश रुद्रों से (लिंग शरीर) यह्व हुए।
(लिंग शरीर) यह्व को इराक ( बेबीलोन के) के बालन/ बाल और फारस की खाड़ी की ओर अरब के साबई लोग मानते थे। पश्चिम एशिया में इन्हे माना जाता हैं।
पाताल में यातुधान योनि में रहते हैं।
फिर
एक- (कारण शरीर) अश्विनीकुमारों ने स्वयं को चार मुख्य चक्र एवं चार उप चक्रों के रुप में विभाजित किया । -
1 ब्रह्मरन्ध्र चक्र, 5 आज्ञा चक्र,
2 अनाहत चक्र , 6 विशुद्ध चक्र ,
3 मणिपुरक चक्र,7 स्वाधिष्टान चक्र,
4 मुलाधार चक्र 8 कुण्डलीनी चक्र
दोनो अश्विनौ ने स्वयं को
चौरासी सिद्धों और उनकी सिद्धियों के रुप में प्रकट किया।
(सिद्धों के नाम अगले भाग में हैं।)
मुख्य चक्र एवं चौरासी सिद्धों को युनान के इलियन लोग जानते मानते थे।सुतल में किन्नर योनि में रहते हैं। युनान के डोरिक लोग (उप चक्रों) चौरासी सिद्धों की सिद्धियों को मानते थे।
दो- (सुक्ष्म शरीर) विश्वकर्मा ने स्वयं को चार देहांगो एवं उनके चार तन्त्रों के रप में विभाजित किया।-
1 मस्तिष्क, 5 तन्त्रिका तंत्र,
2 हृदय, 6 श्वसन तंत्र,
3 यकृत, 7 पाचन तंत्र,
4 लिंग, 8 जनन तंत्र
(अंगो) त्वष्टा को मध्य अमेरिका महाद्वीप / लेटिन अमरीका के ओल्मेक लोग मानते थे। रसातल में असुर योनि मं रहते हैं। (अंगो के स॔स्थानो) रचना को मायन/माया जन मानते थे।
विश्वकर्मा ने स्वयं को त्वष्टा एवं रचना ( देवताओं के कारीगर / मेकेनिक) के रुप में प्रकट किया।
नोट- ये त्वष्टा भी शुक्राचार्य पुत्र से पुर्ववर्ती और भिन्न हैं।
तीन- (लिंगशरीर) यह्व से स्वयं को
चार मुख्य सिद्धियाँ एवं उनकी चार उप सिद्धियों के रुप में विभाजित किया ।-
1 इशित्व, 5 वशित्व,
2 अणिमा, 6 लघिमा,
3 महिमा, 7 गरिमा,
4 प्रकाम्य 8 प्राप्ति
आधिभौतिक दृष्टि से ये ही चार बल एवं उनके चार क्षेत्र ( फिल्ड ) हैं।
1तिवृ नाभिकीय बल, 5 क्वार्क फिल्ड, 2 क्षीण नाभिकीय बल,6लेप्टाॅनफिल्ड,
3विद्युत चुम्बकीय बल,7वैद्युत फिल्ड,
4 गुरुत्व बल, एवं 8 ग्लुआन फिल्ड।
यह्व ने स्वयं को अष्ट विनायक के रुप में प्रकट किया। विनायकों के नाम ये हैं।
1 सम्मित, 5 उस्मित;
2 मित, 6 देवयजन;
3 शाल, 7 कटंकट;
4 कुश्माण्ड, 8 राजपुत्र।
[ये विनायक रुद्रगण हैं, पिशाच हैं]
नोट- गजानन भी विनायक है जिन्है प्रमथ गणो के गणपति और बाद म समस्त रुद्र गणो का गणपति स्वीकारा गया।
(मुख्य सिद्धयां) विनायक को इजराइल के लोग पवित्र आत्मा के रुप में मानते हैं। पाताल में बैताल योनि में रहते हैं। (उप सिद्धयों) विनायकों की शक्तयों को भी इजराइली लोग मानते हैं।
तत्पश्चात
एक- (कारण शरीर ) साध्यों से
(सुशुम्ना नाड़ी) ={ प्रचेता पुत्र} दक्ष (द्वितीय) हुए।
{जो सति के पिता/ शंकर जी के श्वसुर हैं।}
(सुशुम्ना नाड़ी) दक्ष द्वितीय/विश्वैदेवाः को रोम / इटली के एट्रस्कन लोग मानते हैं। तलातल में चारण योनि में रहते हैं।
दो- (सुक्ष्म शरीर) विश्वकर्मा से (पिंगला नाड़ी) त्रिशिरा विश्वरुप हुए।
(जो शुक्राचार्य के पौत्र से भिन्न है।)
(पिंगला नाड़ी) विश्वरुप को बोलिवीया (दक्षिण अमरीका महाद्वीप) के तायहुआनाको लोग मानते थे। महातल में राक्षस योनि में रहते हैं।
तीन- (लिंग शरीर) यह्व से (ईड़ा नाड़ी) (ईला पुत्र ऐल) भैरव हुए।
(इड़ा नाड़ी ) एल को अरब के लोग मानते हैं। पाताल में पिशाच योनि में रहते हैं।
1 (तीनो नाड़ियों) प्राचेतस दक्ष (द्वितीय) , 2 विश्वरुप और 3 ऐल भैरव से मिलकर जो संघात बना वह (अणु) एटम है।
अन्य सन्दर्भ में कोशिका, राजा / शासक भी कह सकते हैं।
(अणु)कोशिका, राजा/ शासक को नास्तिक लोग मानते हैं। जड़ योनि में रहते हैं।